कभी ना क्रैश होने वाला प्लेन कहां ग़ायब हुआ?
एक ऐसा विमान जिसे लेकर माना जाता था कि वो कभी क्रैश नहीं हो सकता. कहानी एक हैरतंगेज़ प्लेन क्रैश की जिसका राज दो साल बाद खुला.
आज कहानी एक प्लेन क्रैश की. जिसे हवाई दुर्घटनाओं का टाइटैनिक कहा जाता है. एयरबस 330 मॉडल का एक प्लेन. जिसमें उन्नत तकनीक वाला ऑटो पायलट सिस्टम मौजूद था. इस कदर उन्नत कि टेक ऑफ़ से लैंडिंग के बीच पायलट को सिर्फ़ 3 मिनट प्लेन हैंडल करने की ज़रूरत पड़ती थी. 1992 में अपनी पहली फ़्लाइट से 2009 तक इस मॉडल के किसी प्लेन के साथ कभी कोई दुर्घटना नहीं हुई. लेकिन फिर एक रोज़ एयर फ़्रांस का इसी मॉडल का एक प्लेन बीच हवा में अचानक ग़ायब हो जाता है. किसी को नहीं पता था कैसे. दो साल की खोज के बाद मिले ब्लैक बॉक्स से असलियत सामने आती है. सामने आती है प्लेन के आख़िरी चार मिनटों की कहानी. जो जितनी हैरतंगेज़ थी उतनी ही डरावनी भी. (Air France Flight 447)
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सिलसिलेवार तरीक़े से चलते हुए जानते हैं उस रोज़ क्या हुआ था.
- साल 2009. तारीख़-31 मई. ब्राज़ील के रियो डी जनेरो(Rio de Janeiro) एयरपोर्ट से एयर फ़्रांस का एक प्लेन टेक ऑफ़ करता है. प्लेन का मॉडल- एयरबस 330-203. फ़्लाइट संख्या 447. टेक ऑफ़ के वक्त घड़ी में समय हुआ था शाम के साढ़े सात बजे. क़रीब साढ़े दस घंटे की इस फ़्लाइट का गंतव्य था, पेरिस(Paris) का डी गॉल एयरपोर्ट. एयर फ़्रांस का नियम था कि 10 घंटे से ज़्यादा की किसी भी फ़्लाइट में पायलट को बीच में ब्रेक लेना होगा. इस वास्ते, उस दिन प्लेन में तीन पायलट थे. कैप्टन- मार्क डूब्वा और दो फ़र्स्ट ऑफ़िसर- डेविड रॉबर्ट और पियरे बोनिन. डूब्वा इनमें सबसे अनुभवी थी. जबकि डेविड रॉबर्ट सबसे कम अनुभवी. क्रू को मिलाकर प्लेन में कुल 228 लोग सवार थे. (Crash of Flight AF447)
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- टेक ऑफ़ के वक्त प्लेन की कमान डूब्वा और बोनिन के हाथ में थी. जबकि डेविड रॉबर्ट कॉकपिट के पीछे बने एक छोटे से केबिन में नींद पूरी कर रहे थे.
- रात के करीब डेढ़ बजे प्लेन ब्राज़ील के एयर स्पेस से निकलकर अटलांटिक महासागर के ऊपर उड़ने लगता है. कैलेंडर में तारीख़ बदलकर 1 जून हो गई थी.अगले कुछ घंटे तक प्लेन एक ऐसे एरिया में उड़ने वाला था जहां रडार काम नहीं करते. पश्चिम अफ़्रीका के देश सेनेगल की राजधानी डाकार के नज़दीक पहुंचते ही प्लेन दुबारा रडार की रेंज में आ जाता. लेकिन उस रोज़ जब ढाई घंटे बाद प्लेन रडार पर नहीं दिखा, एयर फ़्रांस के अधिकारी चिंता में पड़ गए. घंटे दिनों में तब्दील हुए और दिन हफ़्तों में. लेकिन फ़्लाइट 447 का कुछ पता नहीं चला. फिर चंद रोज़ बाद कुछ लोगों ने अटलांटिक में बहता हुआ प्लेन का एक मलबा देखा. बचाव दल ने समंदर से 50 से ज़्यादा शव निकाले. क़रीब 150 लोग अभी भी ग़ायब थे. इनकी खोज जारी थी लेकिन जिस चीज़ को ढूंढना सबसे ज़रूरी थी, वो था प्लेन का ब्लैक बॉक्स. फ़्रांस सरकार ने ब्लैक बॉक्स ढूंढ ने के लिए पूरा ज़ोर लगा दिया. यहां तक कि समंदर की तलहटी में सबमरीन भी भेजी गई. लेकिन कुछ पता नहीं चल पाया.
- एयरबस 330 मॉडल के सैकड़ों विमान रोज़ उड़ान भरते हैं. ऐसे में ये जानना बहुत ज़रूरी था कि प्लेन किस कारण क्रैश हुआ. क्या ऐसा किसी तकनीकी दिक़्क़त के चलते हुआ था. अगर हां तो उस दिक़्क़त का पता लगाने के लिए ब्लैक बॉक्स का मिलना बहुत ज़रूरी था.
- अधिकारी खोजते रहे लेकिन दो साल की कोशिश के बाद भी ब्लैक बॉक्स नहीं मिला. तब बुलाया गया उस ऑफ़िसर को जिसने 1985 में टाइटैनिक का मलबा खोज निकाला था. रॉबर्ट बैलार्ड और उनकी टीम ने अप्रैल 2011 में अटलांटिक के अंदर 4 हज़ार मीटर की गहराई में प्लेन का मलबा ढूंढ निकाला. साथ में ब्लैक बॉक्स भी था. इस ब्लैक बॉक्स में उन आख़िरी चार मिनटों की कहानी क़ैद थी, जिससे इस पहेली का खुलासा होने वाला था. क्या हुआ था इन चार मिनटों में.
# वो चार मिनट
- दिक़्क़त की शुरुआत हुई ठीक उस वक़्त हुई जब प्लेन के मुख्य पायलट मार्क डूब्वा ब्रेक लेने के लिए अपनी सीट के उठे. यात्रियों को डिनर सर्व किया जा चुका था. डूब्वा कॉकपिट के पीछे बने केबिन में नींद लेने के लिए चले गए. और उनकी जगह डेविड रॉबर्ट ने ले ली. हालांकि प्लेन का कंट्रोल अभी भी फ़र्स्ट ऑफ़िसर पियरे बोनिन के हाथ में था. बोनिन सबसे कम अनुभवी थे, फिर भी डूब्वा ने उन्हें फ़्लाइट की कमान सम्भालने के लिए चुना. वैसे भी प्लेन ऑटोपायलॉट मोड में था. टेक ऑफ़ से पहले ही प्लेन के कम्प्यूटर में फ़्लाइट पाथ डाल दो. इसके बाद सिर्फ़ टेक ऑफ़ और लैंडिंग के अलावा पाइलट को कुछ करने की ज़रूरत नहीं थी.
- बोनिन आराम से प्लेन उड़ा रहे थे. तभी सामने उन्हें कुछ बादल दिखाई दिए. बाहर बिजली कड़कड़ा रही थी. इस रास्ते में ऐसा होना सामान्य था. कुछ देर में मौसम और ख़राब हुआ. कॉकपिट के शीशे पर अब बिजली की धारियां पड़ने लगी. जिसे उड़ान की भाषा में एल्मो's फ़ायर कहते हैं. उदाहरण के लिए आप स्क्रीन पर एल्मो's फ़ायर के चित्र देख सकते हैं.
- बिजली और बादल परेशानी नहीं थे लेकिन ऐसा मौसम एक दिक़्क़त ज़रूर पैदा कर सकता था. ब्लैक बॉक्स की रिकॉर्डिंग के अनुसार रात के दो बजे प्लेन में ज़ोरों की आवाज़ें आने लगीं. ये आइस क्रिस्टल थे जो प्लेन से टकरा रहे थे. आइस क्रिस्टल के टकराने से दो चीजें हुईं. आइस क्रिस्टल ने प्लेन की बॉडी में लगे तीन सेंसरों को ब्लॉक कर दिया. ये सेंसर पायलट ट्यूब कहलाते हैं. जो तीन पायलटों को प्लेन की स्पीड आदि का अलग-अलग डेटा मुहैया कराते हैं. जैसे ही ये सेंसर ब्लॉक हुए प्लेन का ऑटो-पाइलट बंद हो गया.
- हालांकि ये किसी प्रकार की इमरजेंसी नहीं थी. पायलट बोनिन को सिर्फ़ इतना करना था कि प्लेन को मैन्यूअली कंट्रोल कर उसे अपनी स्पीड पर बनाए रखना था. कुछ देर बाद बर्फ़ पिघल जाती और ऑटो पायलट दुबारा ऑन हो जाता. लेकिन पता नहीं क्यों बोनिन ने अपनी सीट के बग़ल में लगी साइड स्टिक को तेज़ी से पीछे की ओर खींचा. जिससे प्लेन की नोक ऊपर की ओर हो गई. प्लेन ऊंचाई की ओर जाने लगा. ये पायलट की सबसे बड़ी गलती थी. लेकिन उन्हें अभी तक इस बात का अहसास नहीं था. इसे गलती क्यों कह रहे हैं हम?
- इसके लिए आपको उड़ान संबंधी एक फ़ेनॉमिना को समझना होगा, जिसे स्टॉलिंग कहते हैं. (स्क्रीन पर तस्वीरें मौजूद हैं). जब कोई प्लेन उड़ान पर होता है, आम तौर पर दो प्रकार के प्रेशर उसे हवा में बनाए रखते हैं. पंखों के ऊपर हवा का प्रेशर कम होता है, जो पंखों को ऊपर की ओर उठाता है. जबकि पंखों के नीचे हवा का प्रेशर ज़्यादा होता है. ये प्रेशर पंखों को ऊपर के ओर धकेलता है. प्लेन जब हवा में सीधा रहता है, तो ये दोनों प्रेशर बराबर काम करते हैं और प्लेन का बैलेंस बनाए रखते हैं. अब देखिए कि तब क्या होता है, जब प्लेन ऊपर की ओर चढ़ने की कोशिश करता है. ऐसे में प्लेन की नोक तिरछी हो जाती है. हवा जिस एंगल पर पंख से टकराती है, उसे एंगल ऑफ़ अटैक कहते हैं. जैसे-जैसे ये एंगल बढ़ता जाता है, पंख के ऊपरी तरफ़ बहने वाली हवा पंख से टकरा कर छितरा जाती है. और एक स्मूथ एयर फ़्लो बरकरार नहीं रह पाता. अगर ऐंगल ऑफ़ अटैक एक क्रिटिकल वैल्यू से ऊपर पहुंच जाए, तो इसे प्लेन का स्टॉल होना कहते हैं. ऐसी हालत में इंजन चालू होने के बावजूद प्लेन नीचे गिरने लगता है.
- स्टॉल समझने के बाद अब जानते हैं उस रोज़ क्या हुआ. सेंसर पर आइस क्रिस्टल जमने से प्लेन का ऑटो पायलट बंद हो चुका था. लेकिन प्लेन में और कोई दिक़्क़त नहीं थी. बोनिन अगर उसे सामान्य रूप से उड़ाते रहते तो कोई दिक़्क़त नहीं आती. लेकिन हड़बड़ी में उन्होंने उसे ऊपर की ओर मोड़ दिया. बोनिन स्क्रीन पर नज़र आ रही स्पीड को देख रहे थे. जो धीरे-धीरे कम होती जा रही थी. लेकिन उन्होंने इस डेटा पर विश्वास नहीं किया. क्योंकि उन्हें लग रहा था, सेंसर में क्रिस्टल जमा होने की वजह से ग़लत डेटा पहुंच रहा है. असलियत कुछ और थी. कुछ ही मिनटों में सेंसर में जमा बर्फ़ पिघल चुकी थी. सेंसर सही काम करने लगा था.
- बोनिन और उनके साथी ने ये समझने में गलती कर दी. प्लेन ज़ोर की आवाज़ें कर रहा था. दोनों ने इसका मतलब ये निकाला की प्लेन की स्पीड काफ़ी तेज है. जबकि सामने सेंसर उन्हें बता रहा था कि स्पीड कम होती जा रही है. स्पीड बढ़ाने के लिए बोनिन ने प्लेन की नोक ऊपर की तरफ़ बनाए रखी. प्लेन 40 हज़ार फ़ीट की ऊंचाई तक गया. इसके बाद स्टॉलिंग के चलते वो नीचे की ओर गिरने लगा. नतीजतन प्लेन के अलार्म सिस्टम ऐक्टिवेट होकर तेज़ी से बजने लगे.
- दोनों पायलटों को अभी भी समझ नहीं आ रहा था कि गलती कहां हो रही है. बोनिन ने मुख्य पायलट मार्क डूब्वा को नींद से जगाया. डूब्वा उठकर आए. लेकिन उन्हें भी शुरुआत में कुछ समझ नहीं आया. उनका ध्यान बोनिन के हाथ की तरफ़ नहीं गया. जो अभी भी कंट्रोल स्टिक को खींचे हुआ था. प्लेन का स्टॉल वॉर्निंग अलार्म लगातार बज रहा था. लेकिन जब तक डूब्वा इसका कारण समझ पाते, बहुत देर हो चुकी थी.
- डूब्वा को जब तक गलती समझ आई, प्लेन और अटलांटिक की सतह के बीच सिर्फ़ दस हज़ार फ़ीट की दूरी बची थी. 2 बजकर 14 मिनट पर वॉइस रिकॉर्डर ने पायलट के आख़िरी शब्द रिकॉर्ड किए. डूब्वा बार-बार चिल्ला रहे थे, ऊपर खींचो, ऊपर खींचों. लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता था. प्लेन सीधा अटलांटिक सागर में गिरा और उसके टुकड़े-टुकड़े हो गए. प्लेन में सवार 228 लोगों में से एक की भी जान नहीं बच पाई.
# निष्कर्ष
- फ़्रेंच सरकार ने प्लेन हादसे की जांच के लिए कमिटी बनाई. कमिटी ने माना कि इस प्लेन हादसे की वजह पायलट की गलती थी. लेकिन उड़ान विशेषज्ञों की इससे इतर राय थी. फ़्लाइट 447 हादसे पर बनी एक डॉक्युमेंट्री में एविएशन स्पेसलिस्ट डेविड ली, ऑटोमेशन की सनक को इस हादसे का कारण मानते हैं. डेविड ली के अनुसार विमान कंपनियां विमानों को अधिक से अधिक ऑटोमेटिक बनाने पर ज़ोर दे रही है. ट्रेनिंग के दौरान भी यही ज़ोर रहता है कि पायलट ऑटोमेटेड सिस्टम पर अधिक से अधिक निर्भर रहे. ऐसे में पायलट मैन्यूअल मोड का कम से कम इस्तेमाल करते हैं. और पायलट्स को अलग-अलग परिस्थितियों में प्लेन उड़ाने का बहुत कम अनुभव मिलता है. इमरजेंसी की स्थिति में ये अनुभव ही सबसे ज़्यादा काम आता है. मशीनों पर अत्यधिक निर्भर रहना कभी-कभी जानलेवा साबित हो सकता है, ये प्लेन हादसा इस बात का उदाहरण था.
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