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नौसेना कप्तान जिसने जहाज़ छोड़ने के बजाय डूबना चुना!

INS खुकरी के कप्तान महेंद्र नाथ मुल्ला की कहानी!

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Captain Mahendra Nath Mulla, Commanding Officer of INS Khukri
1971 के भारत-पाक युद्ध के दौरान कप्तान महेंद्र नाथ मुल्ला ने डूबते हुए 'INS खुकरी' को आखरी वक़्त तक नहीं छोड़ा और शहादत को गले लगाया (तस्वीर- Wikimedia/YT ScreenGrab)
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कमल
30 जून 2023 (Updated: 29 जून 2023, 22:52 IST)
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“अपने सर्वश्रेष्ठ कार्यों को कभी बलिदान का नाम नहीं देना. अगर कोई किसी मकसद के लिए लड़ता है, तो वो इसलिए क्योंकि वो चीजों के वर्तमान ढर्रे से संतुष्ट नहीं है”

ये बात कही थी एक पिता ने अपनी बेटी से. इत्तेफ़ाक देखिए कि जब बारी आई, इस पिता ने देश के लिए सर्वोच्च बलिदान दे दिया. और बलिदान भी ऐसा जिसकी भारत के पूरे इतिहास में दूसरी मिसाल नहीं है. हम बात कर रहे हैं कैप्टन महेंद्र नाथ मुल्ला(Captain Mahendra Nath Mulla) की. भारतीय नेवी के इकलौते अफ़सर, जिन्होंने अपनी शिप को आख़िरी समय तक नहीं छोड़ा और उसके साथ ही जलसमाधि ले ली. ये उस घटना की कहानी है, जब दूसरे विश्वयुद्ध के बाद पहली बार किसी सबमरीन ने युद्धपोत को डुबाया. दुर्भाग्य से ये युद्धपोत भारतीय था, नाम था INS खुकरी(INS Khukri). ये सब हुआ था, भारत पाकिस्तान युद्ध के दौरान. तारीख़ थी, 9 दिसम्बर 1971.

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INS Khukri
INS खुकरी ब्रिटेन द्वारा निर्मित ब्लैकवुड पनडुब्बी रोधी युद्धपोतों में से एक था और 1959 में इसे भारतीय नौसेना में शामिल किया गया था (तस्वीर- Wikimedia commons)
खुकरी और कृपाण 

युद्ध की शुरुआत से पहले इंडियन नेवी की पूरी वेस्टर्न फ़्लीट, मुम्बई बंदरगाह पर खड़ी रहती थी. नौसेना को अंदाज़ा था कि एक बार युद्ध शुरू हुआ तो पाकिस्तानी पनडुब्बियां मुम्बई को निशाना बनाने की कोशिश करेंगी. इसलिए 2 और 3 दिसंबर के बीच फ़्लीट को मुम्बई से बाहर निकाला गया. हालांकि तब उन्हें अंदाज़ा नहीं था कि पाकिस्तान की एक पनडुब्बी, PNS हंगोर(PNS Hangor) ठीक उनके नीचे मौजूद थी. इस सबमरीन को तब शार्क कहकर भी बुलाते थे. क्योंकि ये उन्नत तकनीक वाली सबमरीन थी जिसे पाकिस्तान ने फ़्रांस से ख़रीदा था. हंगोर के पास अच्छा मौक़ा था भारतीय शिप्स को निशाना बनाने का. लेकिन उस समय तक युद्ध का ऐलान नहीं हुआ था. इसलिए हंगोर बिना हमला किए वहां से चली गई.

5 दिसंबर के रोज़ हंगोर को एक तकनीकी दिक़्क़त के लिए सतह पर आना पड़ा. उसने एक कम्यूनिकेशन सिग्मल भेजा जिसे जिसे भारतीय नेवी ने इंटरसेप्ट कर लिया. इससे भारतीय नेवी को हंगोर की लोकेशन का पता चल गया. वो दियु के तट के पास समंदर के इलाक़े में थी. ये पता चलते ही नौसेना कमांड ने उसे नष्ट करने के लिए एक मिशन रवाना करने का आदेश दिया. 8 दिसंबर के रोज 14th स्कवाड्रन की दो एंटी सबमरीन फ़्रिगेट्स दियु के लिए रवाना हुईं.

14th स्कवाड्रन को लीड कर रहे थे, कैप्टन महेंद्र नाथ मुल्ला. उनके साथ दो फ़्रिगेट थीं, INS खुकरी और INS कृपाण. नौ दिसंबर की सुबह दोनों फ़्रिगेट उस इलाक़े में पहुंची, जहां से पनडुब्बी का सिग्नल मिला था. हालांकि बहुत देर तक इलाक़े का मुआयना करने के बाद भी उन्हें पाकिस्तानी पनडुब्बी का कोई निशान नहीं दिखा. कृपाण और खुकरी में लगे सोनार की रेंज लगभग ढाई किलोमीटर थी. जबकि PNS हंगोर कहीं लम्बी दूरी से शिप्स का पता लगा सकती थी. कैप्टन मुल्ला को ख़तरे का अंदाज़ा था. इसलिए वो ज़िग जैग अन्दाज़ में फ़्रिगेट्स दौड़ा रहे थे.

PNS Hangor
पाकिस्तानी पनडुब्बी ‘हंगोर’. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद किसी जहाज को डुबाने वाली यह पहली पनडुब्बी थी (तस्वीर- Wikimedia commons)
खुकरी पर निशाना लगा 

इस बीच पाकिस्तानी पनडुब्बी को कृपाण और खुकरी का पता लग गया. उसने दोनों के नज़दीक आने का इंतज़ार किया और टॉरपीडो चला दिया. पहला निशाना कृपाण पर लगाया गया. लेकिन क़िस्मत से टॉरपीडो फटा ही नहीं. इस हमले से हंगोर की लोकेशन पता लग गई. लेकिन इससे पहले कि भारतीय दल कोई जवाबी कार्रवाई करता, हंगोर ने एक और टॉरपीडो चला दिया. इस बार टॉरपीडो सीधा जाकर खुकरी से टकराया. घड़ी में वक्त हो रहा था, रात आठ बजकर 45 मिनट.

एक पुरानी परम्परा थी, जिसके अनुसार इस वक्त सब लोग मिलकर रेडियो पर समाचार सुनते थे. और चूंकि युद्ध चल रहा था, इसलिए सभी रेडियो को ध्यान से सुन रहे थे. ये ध्यान टूटा एक ज़ोर कर धमाके से. रेडियो से आवाज़ आई, यह आकाशवाणी है..बात पूरी होती, उससे पहले ही कैप्टन मुल्ला अपनी कुर्सी से नीचे गिरे पड़े थे. उनका सर एक लोहे के हेंडल से लगा था, और खून निकलने लगा था. उन्होंने तुरंत संभलते हुए अपने जूनियर्स को ऑर्डर दिया. ताकि वो नुक़सान का पता लगा सकें. दुर्भाग्य से नुक़सान काफ़ी ज़्यादा हुआ था.

PNS हंगोर का निशाना एकदम ठीक जगह लगा था. INS खुकरी में छेद हो चुका था और पानी अंदर आ रहा था. ज़ाहिर था कि शिप डूबने जा राजा था. आनन फ़ानन में कैप्टन मुल्ला ने पश्चिमी नौसेना कमान के प्रमुख को संदेश भेजने की कोशिश की. लेकिन अब तक पानी उनके घुटनों तक पहुंच चुका था. एक फ़्रिगेट में सबसे ऊंचा माला, या जिसे ब्रिज कहते हैं, समंदर से काफ़ी ऊपर होता है. लेकिन खुकरी को इस कदर नुक़सान पहुंचा था कि मिनटों में ही उसका ब्रिज समंदर की सतह के बराबर पहुंच गया. शिप में लोग जान बचाने के लिए इधर उधर भाग रहे थे. कई लोग पानी में छिटक चुके थे. और कई नीचे कूद रहे थे. इस दौरान कैप्टन मुल्ला ने अपने साथियों को बचाने की भरपूर कोशिश की.

Mahendra Nath Mulla
INS खुकरी के कप्‍तान महेंद्र नाथ मुल्ला को मरणोपरांत महावीर चक्र से नवाजा गया था (तस्वीर- Wikimedia commons)
कैप्टन मुल्ला ने जहाज न छोड़ा 

आमतौर पर माना जाता है कि शिप का कैप्टन शिप को छोड़ नहीं सकता, ऐसा नियम है. लेकिन असल में ये नियम नहीं, एक अनकही परंपरा रही है. जिसे ख़ास तौर से प्रचलन मिला जब टायटैनिक के कैप्टन ने जहाज़ छोड़ने से इंकार कर दिया था. दुनिया भर की नेवीज में इस परम्परा का पालन किया जाता है. कैप्टन महेंद्र नाथ मुल्ला के पास भी मौक़ा था कि वो अपनी जान बचाने के लिए शिप छोड़ देते. लेकिन उन्होंने ऐसा करने से इंक़ार कर दिया. मुल्ला ने ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को शिप से उतारा. और आख़िर में ब्रिज के ऊपर चढ़कर एक हेंडल को पकड़कर खड़े हो गए. उनके पास एक लाइफ़ जैकेट थी. वो भी उन्होंने किसी और आदमी को दे दी. ((1971 Indo-Pakistani War)

INS खुकरी, 9 दिसंबर 1971 की तारीख़ को 8 बजकर 50 मिनट पर, दियु से 64 किलोमीटर दूर समंदर में पूरी तरह डूब गया. इस घटना में भारत के 174 नाविक और 18 अधिकारी वीरगति को प्राप्त हुए. जो 67 लोग बचे थे, उन्हें 14 घंटे बाद बचाया गया. उनमें से कुछ ने बताया,

“आख़िरी वक्त में कैप्टन मुल्ला के हाथ में जली हुई सिगरेट थी. जिसे साथ लेकर वो शिप के साथ ही पानी के अंदर चले गए.”

एक दूसरे नाविक ने बताया,

“जहाज के ब्रिज पर लगी कप्तान की कुर्सी पर वो शांत बैठे थे. बिना हड़बड़ी और घबराहट के. जब तक जहाज दिखता रहा, हम उनकी ओर देखते रहे.”

कैप्टन मुल्ला की बेटी अमीता, इंडियन एक्स्प्रेस के एक आर्टिकल में लिखती है,

"हमें जब खबर दी गई की INS खुकरी डूब गया है, उस समय किसी को साफ़ साफ़ पता नहीं था कि हमारे पिता के साथ क्या हुआ. मेरी बहन तब 11 साल की थी. ये खबर सुनकर भी वो शांत बनी रही. अगले कई दिन तक वो हर सुबह जल्दी उठती, और हमारे पिता की पुरानी यूनिफ़ॉर्म निकालकर बिस्तर पर बिछा देती. इसके बाद पिता को जो मेडल मिले थे, वो उन्हें यूनिफ़ॉर्म में लगाती. हर बार जब दरवाज़े या फ़ोन की घंटी बजती, वो पूरी उम्मीद के साथ जवाब देती, मानों दूसरे एंड पर हमारे पिता ही हों".

अमीता उन्हें श्रधांजलि देते हुए लिखी हैं,

“उन्होंने शिप के साथ डूब जाना इसलिए नहीं चुना क्योंकि ऐसा करना सही था, ना ही इसलिए क्योंकि उनसे इस बात की अपेक्षा की जाती थी. जितना मैं उन्हें जानती थी, उनके पास चुनाव का कोई ऑप्शन नहीं था. वो सिर्फ़ यही कर सकते थे.”

कैप्टन मुल्ला आज़ादी के बाद जहाज़ सहित जल समाधि लेने वाले एकमात्र अफ़सर थे. नौसेना की सर्वोच्च परंपरा का निर्वाह करते हुए उन्होंने अपना जहाज़ नहीं छोड़ा. उनकी इस वीरता के लिए उन्हें मरणोपरांत महावीर चक्र दिया गया. जहां तक पाकिस्तानी पनडुब्बी PNS हंगोर की बात है, भारतीय नौसेना ने कई दिन तक उसकी की तलाश की. लेकिन बचते बचाते यह पनडुब्बी 16 दिसंबर को सुरक्षित कराची पहुंच गई. इसके कमांडर तसनीम अहमद को पाकिस्तान की तरफ़ से सितारा-ए-जुर्रत से सम्मानित किया गया. और 2006 में हंगोर को डिकमीशन कर पाकिस्तान के एक म्यूज़ियम में रख दिया गया.

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