'हिंसा के बीच फंसी सभ्यता के इस दौर में ज्यादा गांधीवादी होने की जरूरत है'
अहिंसा को लेकर कोई भी बात महात्मा गांधी के बग़ैर नहीं हो सकती
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बीते रविवार कानपुर में प्रसिद्ध साहित्यकार गिरिराज किशोर (1937-2020) की स्मृति में ‘अनुष्टुप’ का पहला आयोजन हुआ. इस आयोजन में संभव हुई सारी बातों का अर्थ अपने भीतर एक ऐसे मनुष्य की तलाश से जुड़ा है, जिसे मूलतः अहिंसक माना गया है. हिंसा में फंसी सभ्यता के बीच अहिंसा की अवधारणा पर विमर्श और चिंतन एक साथ प्राचीन और प्रासंगिक कार्यभार है.
यह लोकतांत्रिक मूल्यों के पक्ष में—बहुत गंभीर अर्थों में—एक राजनीतिक कार्यभार भी है. इसलिए इस आयोजन की प्रस्तावना यह कहने में झिझकती नहीं है कि आज भारत सहित विश्व के कई राष्ट्र और समुदाय एक नई तरह की हिंसा की चपेट में हैं. विज्ञान, तकनीक, भाषा, जेंडर, जाति और धर्म, राजनीति, पर्यावरण के तमाम ज्ञात-अज्ञात क्षेत्रों में विकास और सुरक्षा के नाम पर हिंसा आधारित वृत्तियों का संस्थानीकरण हो रहा है.
इस स्थिति में ‘अहिंसा और प्रतिपक्ष’ विषय पर आयोजित संगोष्ठी के साथ सबसे बड़ा संकट उसके बहुत तात्कालिक हो जाने का भी होता है. लेकिन इस कार्यक्रम की परिकल्पना इसलिए अनुकरणीय है कि यह आपको अपने समय में रखते हुए एक पूरी सभ्यता की यात्रा कराती है. इस यात्रा में विचलित कर देने वाले तथ्यों की भरमार है और हताशा और उम्मीद के पड़ाव भी हैं. इस परिकल्पना की सफलता इस बात में भी है कि यह उपस्थिति को बचने का नहीं, लड़ने का विकल्प देती है.
यहां वक्तव्यों के क्रम में देखें तो नौ प्रमुख वक्ताओं (राजाराम भादू, अनुज लुगुन, रमाशंकर सिंह, हितेंद्र पटेल, रामशरण जोशी, भाषा सिंह, प्रियंवद, रूपरेखा वर्मा, नंदकिशोर आचार्य) ने दो सत्रों में एक प्रसंग को छोड़कर अतिवाद से भरसक बचते हुए अपने वक्तव्य दिए. कानपुर सरीखी स्थानीयताएँ अतिवाद पर प्रतिक्रिया को स्थगन या प्रतीक्षा के शिल्प में रखना पसंद नहीं करती हैं.
इसका नज़ारा इस कार्यक्रम के बिल्कुल मध्य में तब हुआ जब प्रियंवद अल्पसंख्यकों पर अपनी बात रखते हुए यह कह बैठे कि उन्होंने मुस्लिम घरों में प्राय: गांधी की तस्वीर नहीं देखी है. उनका वक्तव्य सभागार में उपस्थित उस मंच और जन-हस्तक्षेप की वजह से अधूरा रहा जो उनकी पूरी बात सुने बग़ैर उनसे असहमत था.
इस तरह के दृश्य उन आयोजनों में संभव नहीं हैं जिनमें अभिजात्य तो होता है, पर संवाद की सामूहिक गरिमा नहीं होती.
इस आयोजन की शुरुआत गिरिराज किशोर के उपन्यास ‘पहला गिरमिटिया’ के अंश पर आधारित संजीबा निर्देशित लघु फ़िल्म ‘गांधी गिरमिटिया गिरिराज’ से हुई. इसके बाद नंदकिशोर आचार्य ने अपनी नवीनतम पुस्तक ‘विद्रोही महात्मा’ वाया रामशरण जोशी प्रियंवद को सार्वजनिक रूप से भेंट की. पुस्तक लोकार्पण की दिशा में इस नवाचार के बाद वक्तव्यों का सिलसिला शुरू हुआ.
शिक्षा के क्षेत्र में सक्रिय सुपरिचित लेखक राजाराम भादू उपनिवेशवाद की हिंसा पर बात करते हुए जब आज़ाद भारत की परिघटनाओं की तरफ़ आए, तब उन्होंने कहा कि हमने धर्मनिरपेक्षता को संविधान में शामिल तो किया; लेकिन उसकी संस्कृति निर्मित नहीं की.
भादू के वक्तव्य में वर्ण-व्यवस्था में व्याप्त हिंसा की वैधता का उल्लेख संरचनागत हिंसा के संदर्भ में आया. उन्होंने पर्यावरण के संकट और देश-दुनिया में हुए और हो रहे आंदोलनों के संकेतार्थ से बताया कि आज सारी संवेदनशीलताएं हताश हैं और सब तरफ़ हिंसा ही दृश्य में है, ऐसे में अहिंसा एक ऐतिहासिक अनिवार्यता है.
अहिंसा को लेकर कोई भी बात महात्मा गांधी के बग़ैर नहीं हो सकती. वह बार-बार इस प्रसंग पर हावी होते हैं. नई पीढ़ी के उल्लेखनीय कवि अनुज लुगुन के वक्तव्य में भी वह आते हैं. अनुज के पास आदिवासी समाज में हुए आंदोलनों का बहुत अध्ययनशील और प्रामाणिक लेखा-जोखा है. उन्होंने इन आंदोलनों के अहिंसात्मक स्वरूप पर बात करते हुए कोयल-कारो परियोजना के विरोध में हुए आंदोलन पर पर्याप्त चर्चा की.
उन्होंने आदिवासी समाज के प्रति कथित मुख्यधारा द्वारा निर्मित सामान्य धारणाओं का ज़िक्र करते हुए कहा कि 1857 से 100 वर्ष पूर्व आदिवासी अंग्रेजों से लड़ रहे थे, लेकिन हमारे शास्त्र उन्हें असुरों की तरह देखते हैं, जिससे मुख्यधारा में आदिवासी समाज की रूढ़ छवियाँ निर्मित होती हैं.
नई पीढ़ी के समाजविज्ञानी रमाशंकर सिंह ने घुमंतू समुदायों पर बोलते हुए नागरिक बनाने की हिंसा की चर्चा की. उन्होंने कहा कि 1920 तक इस महाद्वीप की 30 प्रतिशत आबादी घूम रही थी—वह न शहरी थी, न ग्रामीण. उसे प्रजा, नागरिक और मतदाता बनाने वाले उपनिवेशवाद या आंतरिक उपनिवेश का उल्लेख करते हुए रमाशंकर ने कहा कि उपनिवेशवाद से पहले भी भारत कभी अहिंसक समाज नहीं रहा.
समय-समय पर आए क़ानूनों या उनमें हुए बदलावों ने कई घुमंतू जातियों को चोर घोषित कर दिया. रमाशंकर के वक्तव्य में आवेग और आक्रोश की जो मिलत रही, उसने उनके पूरे स्वर को व्यंग्यात्मक कर दिया. उन्होंने कवियों, दार्शनिकों, इतिहासकारों, बौद्धिकों, अकादमिकों के छद्म को रेखांकित करते हुए कहा कि चुप्पी भी हिंसा होती है. उनके पूरे वक्तव्य में हमारे न जानने पर प्रहार और हमसे थोड़ा मनुष्य बनने की मार्मिक अपील टेक की तरह रही.
सुपरिचित लेखक और इतिहासकार हितेंद्र पटेल ने अहिंसा को मूलतः प्रेम कहते हुए इस तथ्य से बाहर आने की ज़रूरत पर बल दिया कि इस देश को आज़ादी सिर्फ़ गांधी ने दिलाई. दरअसल, इस देश में गांधी पूजे अधिक गए हैं, समझे कम. गांधी को सिर्फ़ इतिहास के ज़रिए समझना संभव नहीं है.
हमें गांधी पर नए अध्ययन और उनकी नई व्याख्याओं की ज़रूरत है. उन्होंने यह भी कहा कि इतिहासकारों ने कभी पूरे सच को बयान करने का जोखिम नहीं उठाया, इसलिए हमें बहुत सारे साहित्यिक यथार्थ को ऐतिहासिक यथार्थ की तरह देखना चाहिए और इतिहासकार को अतीत का एकमात्र कस्टोडियन नहीं मानना चाहिए.
दूसरे सत्र की शुरुआत प्रसिद्ध लेखक-पत्रकार रामशरण जोशी के वक्तव्य से हुई. उन्होंने मार्क्स और गांधी को तुलनात्मक रूप से देखते हुए कहा कि मार्क्स वर्गहीन समाज चाहते थे और गांधी राजहीन. उन्होंने कहा कि अहिंसा समाज का स्वाभाव हो सकता है, राज्य का नहीं.
एकध्रुवीय विश्व कभी अहिंसा और शांति को प्रोत्साहित नहीं करता है. वह युद्ध और आतंकवाद के रास्ते सक्रिय रहता है. उन्होंने हथियारों के निर्माण और उनके बाज़ार के बीच अहिंसा को एक विस्मृत मूल्य की तरह देखते हुए कहा कि हम आज आलोचनात्मक रूप से न हिंसा के बारे में सोच पाते हैं और न अहिंसा के बारे में.
सुपरिचित पत्रकार भाषा सिंह ने तमाम समसामयिक घटनाओं और ख़बरों का ज़िक्र करते हुए हिंसा को इस देश का ‘न्यू नॉर्मल’ कहा. उन्होंने इस समय को अहिंसक विचारधाराओं और अस्मिताओं के समन्यवय का समय मानते हुए शाहीन बाग़ और किसान आंदोलन को प्रतिरोध के नए अड्डों की तरह रेखांकित किया.
उन्होंने नागरिकता क़ानून के विरोध में हुए शाहीन बाग़ आंदोलन को भारतीय लोकतंत्र के एक नए स्त्रीवादी आख्यान की तरह देखते हुए इसकी निष्ठा और रचनात्मकता का उल्लेख किया.
लखनऊ विश्वविद्यालय की पूर्व कुलपति और जानी-मानी सामाजिक कार्यकर्ता रूपरेखा वर्मा ने इस अवसर पर कहा कि आज देशप्रेम का अर्थ तरह-तरह की हिंसाएँ हैं. स्त्री-पुरुष संबंधों के बीच की हिंसा पर अपनी बात रखते हुए उन्होंने कहा कि हिंसा इस पूरे ढांचे में ही अंतर्निहित है.
और यह केवल पुरुष या केवल स्त्री का दोष नहीं है, यह हमारी उस सामाजिक संरचना का दोष है जिसने स्त्री और पुरुष दोनों को ही अपनी जकड़नों में रखा और उन्हें पूरा मनुष्य नहीं होने दिया.
इस संगोष्ठी का समाहार समादृत साहित्यकार और विचारक नंदकिशोर आचार्य के वक्तव्य से हुआ. उन्होंने कहा कि हिंसा का सवाल मुख्यतः हमारे बिलीव सिस्टम का सवाल है। बर्बरीकरण हमारे बिलीव सिस्टम में आ चुका है.
ऐसे में हमें यह देखना होगा कि कहाँ-कहाँ हमारा मन हिंसा के पक्ष में खड़ा हो जाता है. वह कब-कब किस-किस तरह की हिंसा को जायज़ ठहरा देता है. नंदकिशोर आचार्य ने इस कार्यक्रम की शुरुआत में गांधी को ग्रैंड फ़ेल्योर मानते हुए कहा था कि गांधीवादी होने के लिए बहुत साहस की ज़रूरत होती है.
उन्होंने कहा कि वह अपने समापन वक्तव्य में गांधी के बग़ैर इस विषय पर बात करना चाहते थे, लेकिन गांधी के बिना यह बात संभव ही नहीं है. क्योंकि हर तरह की सत्ता आज हिंसात्मक नतीजे दे रही है. अर्थव्यवस्था का काम बर्बरता के बिना नहीं चलता है, इसलिए अर्थव्यवस्था का चरित्र बदले बग़ैर, राज्य का चरित्र बदलना संभव नहीं है.
इस कार्यक्रम के पहले सत्र का संचालन बसंत त्रिपाठी ने और दूसरे सत्र का संचालन आनंद शुक्ल ने किया.
(यह रपट अविनाश मिश्र ने लिखी है)