The Lallantop
X
Advertisement

हैरतअंगेज रेस्क्यू ऑपरेशन जो दुनिया ने पहले ना देखे थे, 69 दिन बाद तक जिंदा मिले थे लोग

उत्तराखंड की सिल्क्यारा सुरंग में रेस्क्यू ऑपरेशन जारी है. जानिए दुनिया के उन हैरतंगेज़ बचाव अभियानों की कहानी, जिन्हें लगभग नामुमकिन मान लिया गया था, फिर कुछ ऐसा हुआ कि फंसे लोग जिंदा निकल आए. इनमें से दो ऑपरेशन एक भारतीय शख्स के चलते सफल हुए थे, वो न होता तो शायद इनमें लोगों का बचना संभव ना होता!

Advertisement
thailand cave rescue operation, jaswant singh gill capsule man raniganj, chile mine 2010
दुनिया में तीन बचाव अभियान अब तक के सबसे कठिन रेस्क्यू ऑपरेशन माने जाते हैं | फाइल फोटो: इंडिया टुडे
pic
अभय शर्मा
27 नवंबर 2023 (Updated: 28 नवंबर 2023, 15:42 IST)
font-size
Small
Medium
Large
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share

उत्तराखंड की सिल्क्यारा सुरंग. 41 मजदूर फंसे हैं इस सुरंग में. 14 दिन बीत चुके हैं, सभी सुरक्षित हैं, इतना पता लगा है. लेकिन, देश के लोगों की और हमारी सबकी नजरें लगी हैं कि ये कब बाहर आएंगे. कब दुनिया इनको देखेगी और कब ये अपने घरवालों से मिलेंगे, अपने बच्चों को गोद में उठाएंगे. बड़ी-बड़ी मशीनें फेल हो चुकी हैं, क्योंकि मिट्टी नहीं है, चट्टानें हैं, जो अड़ जाती हैं, और फिर फौलादी मशीनें हार मान जाती हैं. 48 मीटर की ड्रिलिंग के बाद अब मशीनों से नहीं, आगे की खुदाई मैनुअली की जाएगी. उम्मीद कायम है कि फंसे हुए मजदूर जल्द सुरंग से बाहर निकलेंगे. ठीक वैसे ही जैसे थाईलैंड में आज से पांच साल पहले 12 बच्चे 18 दिन बाद एक गुफा से निकले थे. ठीक वैसे ही जैसे पश्चिम बंगाल के रानीगंज में खदान में फंसने के बाद 65 मजदूरों की जान बचाई गई थी. और हां ठीक वैसे ही-ठीक वैसे ही, जैसे 2010 में चिली में 69 दिन बाद 33 मजदूरों को एक खदान से बाहर निकाला गया था. आज हम आपको ये तीनों कहानियां सुनाएंगे, सच्ची कहानियां, वो कहानियां जो हाड़ मांस के बने इंसान के कभी हार न मनाने वाले जज्बे का सबसे जीता जगाता उदाहरण बन गईं.

जब 12 बच्चे एक गुफा में गए

23 जून 2018. थाईलैंड का एक छोटा सा कस्बा ‘मे साई’. अचानक सुबह-सुबह पूरी दुनिया की नजरों में आ गया. 12 बच्चे और उनके कोच एक चार किलोमीटर लम्बी गुफा में फंस गए थे. बच्चों की उम्र 12 से 16 साल के बीच थी. ये घटना जिस गुफा में हुई थी, उसका पूरा नाम है, थम लुआंग नंग नॉन. उस दिन हुआ यूं कि स्थानीय फुटबॉल टीम के कुछ बच्चे खेल पूरा होने के बाद शाम को गुफा में घूमने पहुंच गए. साथ में उनके पच्चीस वर्षीय कोच भी थे. यहां ये सब अक्सर घूमने आते थे. लेकिन उस रोज़ उनसे एक गलती हो गई. उन्होंने इस बात का ध्यान नहीं रखा कि जून का महीना बारिश का महीना है, और तब गुफा में पानी भर जाता है. गुफा के भीतर 3 किलोमीटर जाने के बाद उन्हें अहसास हुआ कि पानी बढ़ने लगा है. बचने के लिए वो गुफा में अंदर की ओर बढ़े. जब काफ़ी देर तक पानी यूं ही बढ़ता रहा, उन्होंने गुफा के अंदर एक जगह पर आसरा ले लिया. लेकिन अब तक वो अंदर फंस चुके थे. किसी को तैरना नहीं आता था. और गुफा की तंग, संकरी सुरंगों से तैरना वैसे भी नामुमकिन था.

Boys from an under-16 soccer team
गुफा में फंसे बच्चे

गुफा के बाहर बच्चों के घरवाले उनके वक्त पर ना लौटने से परेशान थे. उन्हें ये पता था कि बच्चे अक्सर गुफाओं में घूमने जाते हैं. वहां पहुंचकर उन्होंने देखा कि गुफा के बाहर बच्चों की साइकिल खड़ी हैं. समझते देर ना लगी कि बच्चे अंदर फंस गए हैं. तुरंत बचाव दल के लोगों को बुलाया गया. थाईलैंड की नेवी के लोग भी मदद के लिए आए लेकिन किसी को बच्चों का कोई सुराग नहीं मिला. बच्चे कुछ ज्यादा ही अंदर थे. लेकिन पानी से भरी गुफा में घुसने के लिए केव डाइविंग आना ज़रूरी था. केव डाइविंग का मतलब 'गुफा में तैराकी' जिसके के लिए विशेष ट्रेनिंग और कौशल की जरूरत होती है. दुनिया में चुनिंदा लोग ही इसका कौशल रखते हैं. बहरहाल केव डाइवर्स के आने तक कुछ ना कुछ करना ज़रूरी था इसलिए कई दिनों तक पंप की मदद से गुफा से पानी बाहर निकालने की कोशिश की गई. इसका भी कोई फायदा ना हुआ, बीच बीच में होने वाली बारिश से पानी दुबारा अंदर जा रहा था.

5 दिन बाद भी जब सारी कोशिश बेनतीजा रही. थाईलैंड की सरकार ने विदेशों से मदद मांगी. UK, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया से ख़ास केव डाइवर्स बुलाए गए. इन लोगों ने अंदर जाने की कोशिश की लेकिन ये काम मुश्किल साबित हो रहा था. पहला तो गुफा के अंदर पानी के बहाव की दिशा उल्टी थी. गुफा में कई जगह खड़ी चट्टान थीं. कहीं वो इतनी संकरी हो जाती थी कि आदमी खड़ा भी ना हो सके. इसके अलावा ये पूरा रास्ता घुप्प अंधेरे के बीच मटमैले पानी में तैरकर पार करना था. ये सब करते करते एक हफ्ता गुजर गया.  
वक्त बीतता जा रहा था. अंदर फंसे लोगों के पास ना रौशनी थी, ना खाने को था, ना पीने को. ऊपर से गुफा में ऑक्सीजन का स्तर भी लगातार गिरता जा रहा था. उम्मीद कम थी, फिर भी बचाव दल काम करता रहा.

Tham Luang cave rescue Thailand Cave rescue
एक असंभव लगने वाले मिशन के बाद बच्चों को सुरक्षित बचा लिया गया (तस्वीर- AFP)

फिर, 1 जुलाई के रोज़ उम्मीद की किरण दिखाई दी. UK के दो डाइवर तैरते हुए किसी तरह बच्चों तक पहुंच गए. उन्होंने देखा कि बच्चे कमजोर लेकिन सही सलामत हैं. एक हफ़्ते तक उन लोगों ने गुफा की छत से टपकने वाली बूदों को इकट्ठा कर पीने के पानी का इंतजाम किया था. अगला चरण था, उन्हें सकुशल वापस लेकर आना. लेकिन जब इस रेस्क्यू ऑपरेशन की तैयारियां शुरू हुईं.

फिर कैसे हुआ रेस्क्यू ऑपरेशन?

6 जुलाई तक दुनियाभर से लगभग 100 तैराक इस काम के लिए थाईलैंड पहुंचे. गुफा से पानी पम्प किए जाने का काम जारी था. ताकि ऑपरेशन में आसानी हो सके. 7 जुलाई को अधिकारियों ने अचानक ऐलान किया कि वो तुरंत रेस्क्यू ऑपरेशन शुरू कर रहे हैं.

बचाव दल ने गुफा के अंदर कुछ डेढ़ किलोमीटर दूर ऑपरेशन का बेस तैयार किया. जहां से डाइविंग कर बच्चों तक आया ज़ाया जा सकता था. इसके बाद इस पूरे रास्ते पर एक गाइडिंग रस्सी लगाई गई. ताकि कोई रास्ता ना भटके. डाइविंग के लिए हर बच्चे को एक डाइविंग सूट पहनाया गया था. जिसमें ऑक्सिजन सिलेंडर और चेहरे पर मास्क शामिल था. बचाव दल का तैराक बच्चे को अपनी बायीं या दाईं तरफ़ लेकर चलता था. और गुफा के संकरे रास्तों पर उसे आगे की तरफ़ धकेल देता था.

Cave rescue divers

क़रीब डेढ़ किलोमीटर तक बच्चों को पानी में डूबकर तैरना था. हालांकि असलियत में उन्हें बस तैराकों ने पकड़ा हुआ था, क्योंकि बच्चों को बेहोशी की हल्की दवा दी गई थी. ताकि वो घबराएं नहीं. डेढ़ किलोमीटर बाद जब पानी इतना हो गया कि उसमें से बस सिर को बाहर निकाला जा सकता था, बच्चों को एक स्पेशल बैग में लिटा दिया गया. इस बैग में एक हेंडल था, जिसे तैराक हर वक्त पकड़कर रख सकता था. बाक़ी के रास्ते बच्चों को इसी तरह बाहर लाया गया. पहले दिन चार बच्चों को बाहर निकाला गया. और इसके बाद अगले दो दिनों में चार-चार के बैच में बच्चे बाहर निकाले गए. रेस्क्यू ऑपरेशन 10 जुलाई को पूरा हुआ. बच्चों का कोच सबसे अंत में बाहर आया. 18 दिन चले इस ऑपरेशन में तमाम देशों और स्वयंसेवियों ने मदद की थी. भारत भी इनमें शामिल था. भारत में पम्प बनाने वाली किर्लोस्कर कंपनी ने अपने कुछ विशेषज्ञों को थाईलैंड भेजा था. ताकि गुफा से पानी निकालने में मदद कर सकें.

जब बंगाल की कोल माइन में फंस गए 65 मजदूर

13 नवंबर, 1989 की बात है. तारीख. पश्चिम बंगाल के रानीगंज की महाबीर खदान में 220 मजदूर रोज़ की तरह अपना काम कर रहे थे. ब्लास्ट के जरिए कोयले की दीवारें तोड़ी जा रही थीं. खदान से कोयला निकाला जा रहा था. सब खुद के काम में व्यस्त थे. अचानक खदान में बाढ़ आ गई. ऐसा माना जाता है कि किसी ने खदान की सबसे आखिरी सतह से छेड़छाड़ कर दी, जिसके कारण पानी रिसने लगा और फिर खदान में बाढ़ आ गई. 220 में से कई मजदूरों को दो लिफ्टों से बाहर निकाला गया. फिर लिफ्ट के शाफ़्ट में पानी भर गया और 71 मजदूर वहीं फंस गए. जिसमें से 6 डूब गए और उनकी मौत हो गई. अब बचे 65 मजदूर, जिन्हें बचाया जाना था. रेस्क्यू ऑपरेशन शुरू हुआ और खदान के बराबर में सुरंग खोद गई और माइन के अंदर जाने की कोशिश की गई. पर सारे प्रयास फेल हो गए. ऑक्सीजन की मात्रा घट रही थी. खदान की छत गिरने वाली थी. ऐसे में मजदूरों को कैसे ज़िंदा निकाला जाए, अब सवाल ये था?

ये भी पढ़ें:- तैमूर लंग भारत क्यों आया था? आते ही कोहराम क्यों मचा दिया था

जब सब निराश हो चुके थे, तो सामने आए जसवंत सिंह गिल. गिल कोल इंडिया में इंजीनियर थे और उस समय रानीगंज में महाबीर खदान के चीफ माइनिंग इंजीनियर थे. उन्हें एक जबर आइडिया आया. आइडिया था एक कैप्सूल का. लोहे की चादर का कैप्सूल. गिल ने खुद ये कैप्सूल तैयार किया. इसके जरिए मजदूरों को बाहर निकाला जाना था. कैप्सूल का ये आइडिया गिल को आया था बोरवेल से. दरअसल गिल की टीम ने मिलकर कई बोरवेल खोदे थे, जिनके ज़रिए उन 65 खदान मजदूरों को खाना और पानी पहुंचाया जा रहा था. यानी बोरवेल के गड्ढे के जरिए कैप्सूल को नीचे जाना था और उसके जरिए एक-एक कर मजदूरों को ऊपर आना था.

कोई नीचे जाने को तैयार नहीं, फिर…

जल्दी ही नया बोरवेल खोदा गया, उस जगह पर जहां पर नीचे मजदूर फंसे हुए थे. यहां पर सबसे बड़ा चैलेंज था, जिस मशीन से गड्ढा खोदा जा रहा था, उसके कांटे की चौड़ाई सिर्फ 8 इंच थी. वेल्डिंग करके उसे 22 इंच का बनाया गया. जिससे गड्ढे की चौड़ाई बढ़ जाए और एक बड़ा कैप्सूल नीचे जा सके. खुदाई चालू हुई. एक तरफ़ गड्ढा खुद रहा था, दूसरी तरफ़ गिल ने कैप्सूल बनने के लिए पास की फैक्ट्री में भेज दिया. 2.5 मीटर लंबा कैप्सूल बनकर आया और 15 नवंबर की रात लोहे की रस्सी के ज़रिए उसे नीचे भेजा गया. जिन दो लोगों को रेस्क्यू की लिए नीचे जाना था, वो मिल नहीं रहे थे. ऐसे में गिल खुद कैप्सूल के सहारे नीचे उतर गए. वो जब नीचे उतरे तो दूसरा दिन शुरू हो चुका था.

जसवंत सिंह ग‍िल अपने बनाए कैप्सूल के साथ

उन्होंने जैसे ही नीचे जाकर कैप्सूल का दरवाजा खोला, 65 डरे हुए लोग उनके सामने थे. उन्होंने सबसे क़रीब मौजूद पहले वर्कर को कैप्सूल में लिया. स्टील पर हथौड़ा मारकर ऊपर खींचने का इशारा किया. उन्हें ऊपर खींचा गया. ऊपर पहुंचे और फिर एक-एक कर सभी मजदूरों को बाहर निकाला गया. 6 घंटे में सभी 65 मजदूर ऊपर आ गए. और जसवंत सिंह ग‍िल पूरे देश के हीरो बन गए. उनकी इस बहादुरी के लिए 1991 में तत्कालीन राष्ट्रपति आर वेंकटरमन ने उन्हें सर्वोच्च नागरिक वीरता पुरस्कार - ‘सर्वोत्तम जीवन रक्षा पदक’ - से सम्मानित किया था.

चिली ऑपरेशन: 69 दिन बाद बाहर आए मजदूर

5 अगस्‍त 2010 की बात है. चिली में कॉपर-सोने की एक खदान में 33 मजदूर काम कर रहे थे. तभी खदान के अंदर गुफानुमा रास्ते का एक हिस्‍सा अचानक टूटकर गिर गया. सभी 33 लोग जमीन से करीब 700 मीटर नीचे फंसे गए. वो जहां फंसे थे, वो जगह खदान के मुहाने से लगभग 5 किलोमीटर दूर थी. उनके जिंदा बच निकलने की उम्‍मीद बड़ी कम थी. शुरू में खदान के मालिकों ने रेस्‍क्‍यू ऑपरेशन चलाया, लेकिन जब उन्हें कामयाबी नहीं मिली, तो फिर सरकारी कंपनी ने रेस्क्यू ऑपरेशन की कमान संभाली.

कई दिन तक रेस्क्यू में लगे रहने के बाद रेस्क्यू टीम को वो तरीका याद आया जिसे 1989 में भारत के बंगाल में जसवंत सिंह ग‍िल ने ईजाद किया था, और 65 मजदूरों को एक खदान से जिंदा बाहर निकाला था. यानी लोहे की चादर के कैप्सूल बनाकर बोरहोल्स के जरिए मजदूरों तक पहुंचना. चीली सरकार ने भी इसी आईडिया पर काम शुरू करवाया. खदान के ऊपर जगह-जगह पर कई बोरहोल्स किए गए. हादसे के 17वें दिन रेस्क्यू की एक टीम एक कैप्सूल के जरिए खदान के एक हिस्से में गई. यहां उन्हें एक नोट मिला, लिखा था- 'शेल्‍टर में हम ठीक हैं, सभी 33 लोग.'

चिली में कैप्सूल के साथ रेस्क्यू टीम

जिस शेल्‍टर की बात नोट में लिखी थी, वो एक इमर्जेंसी शेल्‍टर था, जो 50 वर्गमीटर एरिया में फैला हुआ था. यानी मजदूर इसी में थे. इस शेल्‍टर में बैठने के लिए दो लंबी बेंच पड़ी थीं, लेकिन इसमें वेंटिलेशन की दिक्‍कत थी. क्योंकि 33 लोग इसमें एक साथ जमा हो गए थे. वेंटिलेशन की दिक्क्त न हो, इसलिए कुछ मजदूर पास की एक सुरंग में चले गए थे.

जब मजदूरों का नोट मिला तो रेस्क्यू टीम का हौसला बढ़ गया, क्योंकि अब ये पता चल गया था कि मजदूर जिंदा हैं और कहां हैं. फिर चिली की पूरी सरकार सिर्फ इसी काम में जुट गई. NASA से लेकर दुनियाभर की कई एजेंसियों ने उसका सहयोग किया. दो महीने बाद, 13 अक्‍टूबर 2010 को एक रेस्क्यू टीम मजदूरों तक पहुंच गई. फिर सभी 33 मजदूरों को कैप्‍सूल के जरिए ही एक-एक कर बाहर निकाला गया. और इस तरह 69 दिनों बाद रेस्क्यू ऑपरेशन सफल हुआ.

बहरहाल, जिस तरह इन तीन हादसों में फंसे हुए लोग बाहर आए, उसी तरह उत्तराखंड की सिल्क्यारा सुरंग से हमारे 41 मजदूर भाई जरूर सकुशल बाहर आएंगे. ऐसा हमें विश्वास है.

ये भी पढ़ें:- 65 साल पहले भारत ने कैसे सबसे बड़ा बांध बनाकर दुनिया को चौंका दिया था?

वीडियो: तारीख: भूटान ने भारतीय लोगों पर क्यों किया था हमला?

Comments
thumbnail

Advertisement

Advertisement