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इंदिरा ने मेनका को घर से क्यों निकाला?

संजय गांधी की मौत के बाद इंदिरा और मेनका के रिश्ते क्यों ख़राब हुए?

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Maneka gandhi Left Indira gandhi House after Sanjay gandhi Death
1980 में संजय गांधी की अकस्‍मात मृत्‍यु के बाद बाकी गांधी परिवार और मेनका गांधी के टकराव बढ़ गया. 1982 आते-आते नौबत यहां तक आ गई कि मेनका को घर छोड़ना पड़ा (तस्वीर: Getty)
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साजिद खान
9 मार्च 2023 (Updated: 15 मार्च 2023, 11:10 IST)
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23 जून 1980. उस दिन सुबह, दिल्ली के तपते आसमान में एक छोटे से हवाई जहाज़ ने झिलमिलाते हुए उड़ान भरी. ये पिट्स S2A विमान था. विमान आसमान में कलाबाजियां दिखाने लगा. लेकिन कुछ देर बाद अचानक ये स्थिर हुआ, ठहरा और फिर एक सीधा गोता लगाया. पायलट समय पर उसे ऊपर नहीं उठा सका. चंद सेकेंड्स के भीतर विमान धरती से टकरा गया उसके चीथड़े उड़ गए. विमान में मौजूद पायलट की फ़ौरन ही मौत हो गई. विमान उड़ाने वाले इस पायलट का नाम था संजय गांधी (Sanjay Gandhi). उनकी मौत से 1980 के चुनावों में कांग्रेस की जीत त्रासदी में बदल गई. इस हादसे के एक दिन पहले शाम को पत्नी मेनका गांधी ने उनके साथ इसी विमान में सैर की थी. मेनका गांधी (Maneka Gandhi)बताती हैं,  

‘इस सैर के दौरान मैं डर के मारे कई बार चीखती रही. जब हम ज़मीन पर उतरे तो फटाफट घर पहुंचकर मैंने अपनी सास माने इंदिरा गांधी से कहा, मां मुझे आपसे अनुरोध करना है कि आप संजय को ये विमान उड़ाने से मना कर दीजिए. वो चाहें और जो विमान उडाएं मगर ये वाला विमान नहीं.’

हालांकि उस रोज़ तकदीर को कुछ और मंज़ूर था, संजय ने विमान उड़ाया. उनकी मौत हुई. और उनकी मौत ने गांधी परिवार के अंदर ऐसी दरार पैदा कर दी कि कभी अपनी सास को प्यार से मां बुलाने वाली मेनका गांधी, आगे जाकर उनकी कट्टर दुश्मन बन गईं. दुश्मनी इतनी बढ़ी कि मेनका ने इंदिरा का घर छोड़ दिया. क्या कुछ हुआ था उस रोज़?

संजय का वारिस कौन? 

संजय गांधी का कांग्रेस की राजनीति में बड़ा योगदान हुआ करता था. पार्टी के बड़े फैसलों में पर्दे के पीछे से संजय काम किया करते थे. उसके बरक्स संजय के भाई राजीव का राजनीति से वास्ता नहीं था. लेकिन जब उनकी मौत के बाद राजीव गांधी को उनके उत्तराधिकारी के तौर पर सामने लाया गया तो इस बात से मेनका गांधी नाराज़ हो गई थीं. इस नाराज़गी का तज़किरा सागरिका घोष की किताब “Indira: India’s Most Powerful Prime Minister” में मिलता है. सागरिका लिखती हैं कि मेनका ने सिमी गरेवाल को एक दफा बताया,

मैं बहुत युवा थी. और मेरी सास बहुत अधिक उम्र की थीं. उस दुर्घटना में उन्होंने अपना सब कुछ खो दिया था. और वे उससे कभी उबर नहीं पाई. लेकिन मेरे प्रति उनका रवैया ऐसा था कि “तुम क्यों नहीं मरीं?”  

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इंदिरा गांधी के अंतिम संस्कार में मेनका और वरुण गांधी (तस्वीर: ट्विटर@indianhistorypics)

किताब में आगे ज़िक्र है,

‘मेनका अपने बुरे संबंधों का दोष राजीव और उनके परिवार पर मढती हैं. इंदिरा अपने दूसरे बेटे को चाहती थीं. राजीव को सामने लाने के लिए मनाया गया. इसके लिए उनकी और उनके परिवार की बहुत सी मांगे माननी पड़ी. मेनका को दूर करना उन मांगों में से एक थी. राजीव के परिवार ने कहा अगर मेनका नहीं गई तो हम चले जाएंगे. मेनका को लगता था कि किसी जवान विधवा को उसका हक़ देने के मामले में गांधी परिवार ने अपरिपक्वता दिखाई. सभी पारंपरिक भारतीय परिवारों की तरह.’

राजीव के आने के बाद मेनका का सिक्का कमज़ोर पड़ गया था. वे खुद को संजय की वारिस के रूप में स्थापति करना चाहती थीं. खुशवंत सिंह` तब हिन्दुस्तान टाइम्स के संपादक के रूप काम कर रहे थे. उन्होंने संजय की मौत के कुछ दिन बाद लिखा,

‘संजय जैसे लोकप्रिय व्यक्तित्व की एकमात्र संभावित वारिस मेनका ही हैं.... शेर पर सवार दुर्गा की तरह.’

लेकिन शेर पर सवार दुर्गा के अवतार का दर्जा तो पहले से इंदिरा के पास था. एक घर में दो दुर्गा होना संभव कैसे हो सकता था. इसलिए अब मेनका के घर से जाने का रास्ता धीरे-धीरे खुलने लगा था. इस रास्ते को चौड़ा करने का काम किया मेनका की लखनऊ में हुई मीटिंग ने.  

एक भाषण ने आग में घी का काम किया 

मार्च 1982 में लखनऊ में अकबर अहमद ‘डम्पी’ ने एक सभा का आयोजन किया था. उस सभा में संजय गांधी की लेगेसी को याद किया जाना था. साथ ही एक शक्ति प्रदर्शन करना था कि संजय गांधी के उत्तर प्रदेश में अभी भी कई वफ़ादार विधायक मौजूद हैं. जो राजीव गांधी को स्वीकार नहीं करेंगे. इस सभा की भनक इंदिरा गांधी को पहले से थी. उन्होंने मेनका को इसमें न शामिल होने की हिदायत दे थी. हिदायत देकर वो अपने लंदन दौरे के लिए रवाना हो गईं. अपने पति की लेगेसी किसी और के पास जाना मेनका को रास नहीं आ रहा था इसलिए वो इस ‘धमकी’ रुपी हिदायत के बावजूद उस सभा में शामिल हुईं. वहां उन्होंने ज़ोरदार भाषण दिया. 

संजय गांधी की मौत के 2 साल बाद मेनका गांधी ने गांधी निवास छोड़ दिया था (तस्वीर: getty)

जब इंदिरा भारत लौटी तो उन्होंने मेनका के किए के बारे में पता चला. वो ये सब सुनकर आग-बबूला हो गईं. उन्होंने फौरान अपनी बहु को गुस्से से भरी एक चिट्ठी लिखी, चिट्ठी में मेनका को उनके परिवार और उनकी पृष्ठभूमि के लिए शर्मिंदा किया गया था. ये भी लिखा गया कि वो संजय से उनकी शादी के लिए कभी राज़ी ही नहीं थीं. एक तरफ गांधी परिवार के अंदर ये उथल-पुथक मची थी. वहीं दूसरी ओर पंजाब में सिख अलगाववाद ज़ोर पकड़ रहा था. 

खालिस्तान की मांग के लिए सिख युवकों को रेडक्लाइज़ किया जा रहा था. असम का हाल और भी भयानक था. वहां के हिंदू, मुसलमानों को बांग्लादेश भेजने को आतुर थे. उनका कहना था कि असम में रह रहे ये मुसलमान भारत के नहीं हैं. अवैध रूप से बांग्लादेश से आए हैं. इस बात पर आए दिन मुसलमानों की हत्याएं हो रही थीं. इंदिरा को घर का कलेश भी मिटाना था और देश भी संभालना था. लेकिन लखनऊ में मेनका के कांड के बाद इंदिरा की परेशानियां बहुत बढ़ गई थीं. 

'घर से निकल जाओ' 

सभा में भाषण देने के बाद मेनका वापस दिल्ली के सफदरजंग स्थित घर पहुंची. वहां वो इंदिरा और परिवार के दूसरे सदस्यों के साथ रहती थीं. इसी घर में 13 मार्च 1980 को वरुण गांधी का जन्म हुआ था. घर लौटने के बाद मेनका का इंदिरा से आमना सामना हुआ. उस रात घर के अंदर जो हुआ, उसका ज़िक्र स्पेनिश लेखक हाविएर मोरो ने अपनी किताब 'द रेड साड़ी' में किया है. 

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गांधी परिवार (तस्वीर: getty)

हाविएर लिखते हैं,

‘28 मार्च, 1982 की सुबह मेनका का इंदिरा से आमना सामना हुआ. मेनका ने इंदिरा से अभिवादन किया. जवाब में इंदिरा ने कहा हम बाद में बात करेंगे. इसके बाद मेनका ने खुद को अपने कमरे में बंद कर लिया. कुछ देर बाद एक नौकर उनके पास खाने की थाली लेकर आया. मेनका ने उससे पूछा आप खाना कमरे में क्यों लाए हो? जवाब मिला, श्रीमती गांधी ने कहा है कि वो नहीं चाहती कि आप दोपहर के खाने में परिवार के बाकी सदस्यों के साथ शामिल हों. एक घंटे बाद वो नौकर वापस आया और मेनका से कहा, श्रीमती गांधी ने आपको बुलाया है.’ हाविएर आगे लिखते हैं,

‘गलियारे से नीचे जाते हुए मेनका के पैर कांप रहे थे. वो मीटिंग हॉल के बाहर इंतज़ार कर रही थीं. ये इंतज़ार लम्बा होता जा रहा था. इस दौरान मेनका एक छोटी लड़की की तरह अपने नाखून चबा रही थीं. अचानक उन्होंने शोर सुना और इंदिरा दिखाई दी. गुस्से में और नंगे पांव. उनके साथ धीरेंद्र ब्रह्मचारी और सचिव धवन भी थे. इंदिरा ने मेनका की ओर उंगली उठाई और चिल्लाई, फौरन इस घर से निकल जाओ. मैंने तुमसे कहा था कि लखनऊ की सभा में मत जाओ. लेकिन तुमने वही किया जो तुम चाहती थी, तुमने मेरी बात नहीं मानी! तुम्हारे हर एक शब्द में ज़हर था...तुम्हें क्या लगता है मैं ये सब देख नहीं सकती? इस घर को अभी छोड़ दो और अपनी मां के घर वापस चली जाओ.’

आधी रात को मेनका ने घर छोड़ा 

इंदिरा ने मेनका को कपड़ों के अलावा घर से कुछ भी न लेने की चेतावनी दी. इस गहमा गहमी के बाद मेनका ने खुद को अपने कमरे में कैद कर लिया. उन्होंने अपनी बहन अंबिका को फोन घुमाया और पूरा किस्सा सुनाया ताकि वो प्रेस को सारी बात बता सकें. रात के 9 बजे तक घर के सामने अंतर्राष्ट्रीय संवाददाताओं का एक हुजूम खड़ा हुआ था. इसमें कई फोटोग्राफर भी मौजूद थे. बात इतनी फ़ैल गई थी कि पुलिस बल भी बड़ी संख्या में तैनात हो गई थी. तभी मेनका की बहन अंबिका भी वहां पहुंच गई थीं. मेनका और अंबिका आगे की रणनिति तय ही कर रहे थे कि अचानक इंदिरा कमरे में घुसीं और मेनका से एक बार फिर घर से निकलने को कहा. अंबिका ने इंदिरा की बात को काटते हुए कहा कि  वो कहीं नहीं जाएगी! और ये उनका भी घर है.

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हाविएर मोरो के अनुसार ये कताब  कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के जीवन का नाट्य रुपांतरण हैं (तस्वीर: Amazon)

गुस्साई इंदिरा गांधी ने जवाब दिया, नहीं ये तुम्हारा घर नहीं ,ये भारत के प्रधान मंत्री का घर है!’ इसके बाद अंबिका ने अपनी बहन मेनका का सामान पैक किया. कुछ देर में मेनका का सामान एक गाड़ी में लादा जा रहा था. मेनका इस घर से अकेले नहीं जा रहीं थीं. उनके साथ 2 साल के बेटे वरुण गांधी भी थे. इंदिरा अपने पोते को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थीं. 

हाविएर लिखते हैं, “इंदिरा ने रात में ही अपने मुख्य सचिव, PC एलेग्जेंडर को बुलावा भेजा। एलेग्जेंडर आधी रात को हड़बड़ी में उठे. उन्हें लगा कोई अंतराष्ट्रीय संकट आ गया है”. इंदिरा ने खूब कोशिश की कि वरुण उनके पास ही रहे.  लेकिन उनकी लीगल टीम ने उन्हें समझाया कि ये संभव नहीं हो पाएगा. रात के तकरीबन 11 बजे मेनका अपनी बहन और बेटे वरुण के साथ गाड़ी में बैठकर घर से चली गईं. 

इसके कुछ दिनों बाद मेनका ने अकबर अहमद के साथ राष्ट्रीय संजय मंच की स्थापना की, लेकिन पार्टी सफल नहीं हुई. उन्होंने 1984 के लोकसभा चुनाव में राजीव गांधी के खिलाफ अमेठी से निर्दलीय चुनाव लड़ा लेकिन हार गईं. 1988 में, वो जनता दल में शामिल हो गईं. एक साल बाद 1989 में जनता दल के टिकट पर पीलीभीत सीट से चुनाव लड़ा और संसद पहुंची. BJP के साथ उनका सफ़र 2004 में शुरू हुआ. उन्होंने इसी साल बीजेपी की टिकट पर पीलीभीत से चुनाव जीता. बाद में 2009 में वरुण गांधी ने भी इसी सीट से बीजेपी की टिकट पर चुनाव लड़ा और जीत गए.

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