इंदिरा गांधी ने आपातकाल वापस क्यों लिया?
जनवरी 1977 में इंदिरा ने इलेक्शन की घोषणा की, वजहें अलग अलग थीं
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2 फरवरी 1977 की दोपहर बंगलुरु में एक टेस्ट मैच चल रहा था. आमने-सामने थे, भारत और इंग्लैंड. सीरीज़ का चौथा मैच था लेकिन था एकदम डेड रबर. पहले तीन मैच में टोनी ग्रेग की टीम ने मेहमान नवाज़ी का खूब लुत्फ़ उठाया. और तीनों मैच जीतकर सीरीज़ अपने नाम कर ली थी. चौथे मैच में बाजी पलटी. भारत ने जमकर खेला और चौथी इनिंग में इंग्लैंड के सामने 318 रन का लक्ष्य रखा. बंगलुरु की पिच पर आख़िरी दिन बिशन सिंह बेदी ने वो फिरकी घुमाई की इंग्लैंड की पूरी टीम 177 पर गड्डी हो गई.
वहां से कुछ दूर, देश की राजधानी दिल्ली में एक और मैच चल रहा था. पिच बंगलुरु से भी ज़्यादा टर्निंग और खिलाड़ी एक से एक धाकड़. 2 फ़रवरी की उस शाम दिल्ली में भी एक फिरकी डाली गई. देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को चकमे में डाल दिया. फिरकी डालने वाले थे राजनीति के दो धुरंधर. बाबू जगजीवन राम और हेमवंती नंदन बहुगुणा. दोनों ने कांग्रेस से इस्तीफ़ा दे दिया था. और इंदिरा समझ गई थी कि यूपी गया हाथ से. संजय गांधी का 3 दशक तक चुनाव कराने का इरादा नहीं था लगभग तीन हफ़्ते पहले इंदिरा ऑल इंडिया रेडियो पर पेश हुई थी. और सबको चौंकाते हुए ऐलान कर दिया था कि मार्च में लोकसभा चुनाव होंगे. इस घोषणा से चंद घंटे पहले ही विपक्ष के नेता, जिनमें मोरारजी देसाई और लाल कृष्ण आडवाणी शामिल थे, उन्हें रिहा कर दिया गया था. अब यक्ष प्रश्नों की शृंखला में एक और प्रश्न- इंदिरा ने लोक सभा चुनावों की घोषणा क्यों की?
18 जनवरी 1977 को इंदिरा ने घोषणा करी कि मार्च में लोकसभा चुनाव होंगे. इसके बाद आपातकाल के नियमों में भी ढील दे दी गई (सांकेतिक तस्वीर: getty)
ये इमरजेंसी का दौर था. सारी शक्ति इंदिरा के हाथ में थी. विपक्ष जेल में था. और इंदिरा पर कोई प्रेशर भी नहीं था कि वो चुनाव कराएं. इंदिरा ने घोषणा करते हुए पूरा ख़्याल रखा था कि पार्टी में किसी को इसकी खबर ना हो. यहां तक कि संजय गांधी को भी इसकी भनक नहीं थी. बाद में दोनों में इस बात को लेकर बहुत झगड़ा भी हुआ था.
वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नय्यर ने लिखा कि संजय गांधी ने उन्हें बताया था कि अगले तीन दशक तक उनकी चुनाव कराने की कोई योजना नहीं है. फिर क्या कारण रहे कि इंदिरा ने चुनाव कराने की ठानी. क्या वो सोच रही थी कि लोकसभा चुनाव में उनकी जीत होगी? या वजह कुछ और थी? गुवाहाटी से लौटकर इंदिरा का मन बदला 5 नवंबर 1976 को इंदिरा गांधी ने संसद में प्रस्ताव पास कर संसद का कार्यकाल एक साल के लिए आगे बढ़ा दिया था. मानसून अच्छा होने के चलते इकॉनमी में सुधार हो रहा था. ट्रेड यूनियनों को निपटाने के बाद औद्योगिक उत्पादन में भी बढ़ोतरी हुई थी. इंडस्ट्री के लोग और बाकी बिज़नेस घराने संजय गांधी से खुश थे. फ़ॉरेन एक्सचेंज रिज़र्व एक ही साल में दुगना हो गया था. सत्ता पूरी तरह संजय गांधी के हाथ में थी और कहीं से नहीं लग रहा था कि सरकार की चुनाव कराने की तैयारी है.
1976 गुवाहाटी के कांग्रेस सम्मेलन में इंदिरा गांधी (तस्वीर: Getty)
फिर नवंबर 1976 में कुछ हुआ. जिसने सत्ता की गति में कुछ बदलाव किए. 19 नवंबर 1976 के रोज़ इंदिरा कांग्रेस के अधिवेशन में शामिल होने गुवाहाटी पहुंची. वहां संजय गांधी के समर्थन में यूथ कांग्रेस ऐसे नारे लगा रही थी, जैसे वो कोई इंसान ना होकर भगवान हो गए हों.
डिफ़ेंस एंड सिक्योरिटी ऐनालिस्ट रवि विश्वेश्वरैया प्रसाद के अनुसार जब तक इंदिरा गुवाहाटी से वापस लौटी, तब तक वो इमरजेंसी हटाने का मन बना चुकी थीं.
उनके पिता HY शारदा प्रसाद तब इंदिरा के मीडिया एडवाइज़र हुआ करते थे. गुवाहाटी से लौटते ही इंदिरा HY शारदा प्रसाद और अपने मुख्य सचिव PN धर को बुलाया, और बोली, “मैं इलेक्शन करवाने के बारे में सोच रही हूं.”
इसके बाद PN धर ने चीफ़ इलेक्शन कमिश्नर थिरुमलराया स्वामीनाथ को चाय पर बुलाया और इलेक्शन की तैयारी करने को कहा. स्वामीनाथन जो पहले कैबिनेट सेक्रेटरी के पद पर रह चुके थे, धर से बोले, ‘तुम मुझे इतनी बड़ी खबर दे रहे हो और साथ में सिर्फ़ चाय.’IB ने इंदिरा से कहा, 340 सीट आएंगी इंदिरा ने इलेक्शन करवाने की क्यों ठानी? किस चीज़ ने उनका मन बदला? इसको लेकर कई तरह के क़यास लगाए गए. एक खबर चली कि इंदिरा टर्मिनली इल हैं. AFP और न्यूज़वीक जैसी पत्रिकाओं ने वेस्टर्न डिप्लोमेट्स से हवाले से कहा कि इंदिरा की तबीयत ख़राब है और वो अपने बेटे संजय को चुनाव जिताकर उनकी लेजिटिमेसी क़ायम कर देना चाहती थीं.
इंदिरा अपने मीडिया एडवाइज़र HY शारदा प्रसाद (तस्वीर: Getty)
दूसरा क़यास लगाया गया कि इंदिरा खुद की जीत पक्की मान रही थीं. इसलिए उन्होंने इलेक्शन करवाया. दिसंबर 1976 में इंदिरा के इलेक्शन डिक्लेयर करने से पहले PN धर इंदिरा के पास एक रिपोर्ट लेकर पहुंचे. ये IB की रिपोर्ट थी और इसके अनुसार इंदिरा 340 सीट जीतने वाली थीं. धर ने इंदिरा को ये रिपोर्ट पकड़ाते हुए कहा, ‘आप को इस पर यक़ीन तो नहीं है ना.’ इंदिरा ने जवाब दिया, ‘बिलकुल नहीं. मुझे बता है IB मुझे वही बताएगी जो वो सोचते हैं मैं सुनना चाहती हूं.’
इंदिरा की जीवनी लिखने वाली पुपुल जयकर के अनुसार इंदिरा के निर्णय के पीछे आध्यात्मिक गुरु जे कृष्णमूर्ति थे. उनके अनुसार 28 अक्टूबर 1976 के रोज़ इंदिरा उनसे मिलनी पहुंची. और बोली, ‘मैं एक शेर की सवारी कर रही हूं. मुझे फ़िक्र नहीं कि ये शेर मुझे मार दे. लेकिन मैं नहीं जानती कि शेर की पीठ से उतरा कैसे जाए. पुपुल जयकर के अनुसार तब कृष्णमूर्ति की सलाह पर उन्होंने इलेक्शन करवाने की ठानी. शंकराचार्य ने इंदिरा से बात करने स इंकार कर दिया? तब जनसंघ के नेता रहे सुब्रमण्यम स्वामी के अनुसार इंदिरा के इमरजेंसी हटाने के पीछे कांची के शंकराचार्य का हाथ था. सुब्रमण्यम स्वामी के अनुसार इंदिरा शंकराचार्य की भक्त थी. और जब वो उनसे मिलने पहुंची तो शंकराचार्य ने बात करने से इनकार कर दिया. और तब इंदिरा को अपनी गलती का अहसास हुआ. रवि विश्वेश्वरैया इस थियोरी से इत्तेफ़ाक नहीं रखते.
कांची आश्रम में इंदिरा (तस्वीर: getty)
वो लिखते हैं कि जब इंदिरा शंकराचार्य से मिलने पहुंची, तब उनके पिता भी इंदिरा के साथ थे. इंदिरा जब पहुंची, शंकराचार्य तब मौन बांधे हुए थे. दोनों में कोई बात तो नहीं हुई दोनों कई देर तक इसी मौन में आमने-सामने बैठे रहे. और वापस लौटते हुए उन्होंने HY प्रसाद से कहा, “बातें होने के लिए शब्द ज़रूरी नहीं". और आगे कहा कि शंकराचार्य से मिलकर उन्हें बहुत शांति मिली.
एक थियोरी ये भी है कि अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने इंदिरा को इमर्जेन्सी हटाने के लिए मनाया था. सुप्रीम कोर्ट के वकील और भारत के एडिशनल सॉलिसिटर जनरल रहे फली एस नरीमन ने इस थियोरी के बारे में डीटेल में लिखा है. 1995 में जब नरीमन अमेरिका के दौरे पर गए. तो वहां एक सम्मेलन में उनकी मुलाक़ात अमेरिकन सुप्रीम कोर्ट जज रूथ बेडर गिंसबर्ग से हुई. और नरीमन से कार्टर वाली थियोरी गिंसबर्ग के साथ साझा की. नरीमन बताते है कि ये जानकारी उन्हें एक ऑस्ट्रेलियन डिप्लोमेट से मिली थी.
गिंसबर्ग से जब इस बारे में सुना तो उन्होंने नरीमन से कहा कि अमेरिकन राष्ट्रपति ने ऐसा कहा है तो अवश्य कोई दस्तावेज होगा. इसके बाद गिंसबर्ग ने कहा कि दस्तावेज मिले तो उन्हें ज़रूर भेजें. नरीमन ने तब अमेरिका में अपने एक मित्र से मदद मांगी. ताकि वो अमेरिकन कांग्रेस लाइब्रेरी में दस्तावेज खंगाल कर कुछ पुख़्ता सबूत हासिल करने की कोशिश करें. जब वहां से भी कुछ हासिल नहीं हुआ तो नरीमन ने गिंसबर्ग को एक ख़त लिखकर माफ़ी मांगी कि उनके पास अपनी बात को प्रूव करने के कोई दस्तावेज नहीं हैं. संजय गांधी ने इंटरव्यू दिया और पत्रिका ज़ब्त करवानी पड़ी इस तरह की कई तरह की थियोरीज के बावजूद ये पक्का नहीं पता चल पाया कि इंदिरा ने इलेक्शन क्यों करवाए. इमरजेंसी क्यों हटाई? अधिकतर विशेषज्ञ इसको लेकर अपने-अपने मत रखते हैं. इंदिरा के क़रीबी रहे PN धर ने भी कभी इसके बारे में कुछ साफ़ साफ़ नहीं बताया, ना ही इंदिरा के मीडिया एडवाइज़र और रवि विश्वेश्वरैया प्रसाद के पिता HY शारदा प्रसाद ने इस बात का ज़िक्र किया.
संजय गांधी (फ़ाइल फोटो)
ओपन मैगज़ीन में लिखते हुए रवि विश्वेश्वरैया प्रसाद इंदिरा के डिसिज़न के तीन सम्भावित कारण बताते हैं. पहला कारण: संजय गांधी के ग़लत निर्णय.
1976 में संजय गांधी ने एक मैगज़ीन को इंटरव्यू दिया. मैगज़ीन का नाम था सर्ज. इस इंटरव्यू में संजय गांधी ने साम्यवाद, सोवियत यूनियन, भारत की कम्यूनिस्ट पार्टियों की जमकर आलोचना की थी. अपनी मां के ऊपर उनके असर के बारे में संजय ने कहा, “वो मेरी तब भी सुनती थी जब मैं पांच साल का था’’
इस इंटरव्यू के कुछ हिस्से उसी शाम ‘ईवनिंग न्यूज़’ नाम की एक पत्रिका में छप गए. इंदिरा को उनके मीडिया एडवाइज़र ने ये खबर दी तो इंदिरा ने ग़ुस्से में PN धर को बुलावा भेजा. संजय के डी फ़ैक्टो सरकार होने की खबर पूरी दुनिया को थी. और इस इंटरव्यू से सोशलिस्ट ब्लॉक के साथ एक बड़ी दिक्कत खड़ी हो सकती थी. जो तब भारत का बड़ा साझेदार था. उसी शाम दिल्ली की सब दुकानों से ईवनिंग न्यूज़ की सारी प्रतियां उठा लीं गई. भारत में आपातकाल और पाकिस्तान में चुनावदूसरा कारण- इंदिरा का डर कि भारत प्रेसिडेंशियल डिक्टेटरशिप में तब्दील हो जाएगा.
इमरजेंसी के दौरान संजय गांधी का एक बयान बड़ा फ़ेमस हुआ. जिससे चुनाव को लेकर संजय की नीयत का पता चलता था. संजय ने कहा, “आने वाली पीढ़ी हमें इस बात से जज नहीं करेगी कि हमने कितने इलेक्शन करवाए, बल्कि इस बात से कि हमने कितनी आर्थिक प्रगति की है”
इमर्जेन्सी के बाद कांग्रेस में संजय के साथियों और उनके कबाल का दबदबा हो गया था. वो संजय की हर बात मनवाने को राज़ी रहते थे. और इसी कबाल से कई बार ये बात भी उछली थी कि कैसे भारत को एक प्रेशिडेंशियल रूल में बदला जा सकता है.
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो और इंदिरा के मुख्य सचिव PN धर (तस्वीर: getty)
तीसरा कारण- भारत का पड़ोसी देश पाकिस्तान.
1977 में ही पाकिस्तान में चुनाव होने वाले थे. और तय तारीख़ नवंबर महीने के आसपास थी. इंटेलिजेन्स से के थ्रू इंदिरा को इस बात की खबर एक साल पहले ही लग चुकी थी. दिसम्बर 1976 में उन्होंने अपने पारिवारिक दोस्त मुहम्मद यूनस से कहा, “दुनिया में पाकिस्तान की इमेज अधिकाधिक रूप से एक डेमोक्रेसी की बनती जा रही है. जबकि हमें एक डिक्टेटरशिप कहकर मज़ाक़ उड़ाया जा रहा है.” यूनस नॉन अलाइंड देशों में न्यूज़ पूल के हेड हुआ करते थे. इसलिए इंदिरा ने यूनस से उन देशों में ऐसे आर्टिकल छपवाने को कहा जिनमें भारत को लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध दिखाया जाए.
7 जनवरी के आसपास जब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने TV पे ऐलान किया की चुनाव प्रिपोन करवाए जा रहें हैं. तो ये इंदिरा के लिए ये एक बेचैन कर देने वाली बात थी. 6 साल पहले इसी देश के टुकड़े करवाकर उन्होंने एक नया लोकतांत्रिक देश स्थापित किया था. और आज वही देश लोकतांत्रिक मूल्यों पर उनसे आगे बढ़ते दिखाई दे रहा था. 'इमरजेंसी क्यों हटी', ये सवाल क्यों? कहा जा सकता है कि ‘ये राज भी उनके साथ ही चला गया’. लेकिन सवाल ये है कि ये सवाल क्यों महत्वपूर्ण और आज भी इस पर बहस क्यों होती है. समझिए. एक लोकतांत्रिक तरीक़े से चुना गया नेता कैसे तानाशाही प्रवृत्ति की ओर ढलता है. इस बारे में बहुत कुछ लिखा गया, समझा गया है. ये सब इसलिए ताकि लोकतंत्र अपने पतन में किन लक्षणों से गुजरता है ये पता चल सके. और हम समय से उन्हें पहचान सकें.
उसी तरह एक व्यक्ति जिसके हाथ में सारी शक्ति है. वो किस तरह उस शक्ति को अपने हाथ से जाने देने के लिए राज़ी होता है. या हाथ से जाने देने का रिस्क उठाता है. ये बात भी लोकतंत्र के लिए उतनी ही रेलेवेंट है.
इंदिरा की घोषणा के बाद 20 मार्च 1977 को लोकसभा इलेक्शन सम्पन्न हुए. इसके ठीक एक दिन बाद आज ही के दिन यानी 21 मार्च 1977 को आपातकाल वापस ले लिया गया. इंदिरा अपना भी चुनाव नहीं जीत सकी. और जनता पार्टी के झंडे तले मोरारजी देसाई नए प्रधानमंत्री बने.