1946 नौसैनिक विद्रोह क्यों सफल नहीं हो पाया?
1946 में भारतीय नौसैनिकों द्वारा ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध विद्रोह छेड़ दिया गया, पूरा देश विद्रोह में शामिल हुआ लेकिन इसे राष्ट्रीय नेताओं नेहरू, सरदार पटेल और गांधी का समर्थन नहीं मिला. अंततः सरदार पटेल के कहने पर विद्रोहियों ने हथियार डाल दिए.
फ्रेडरिक किंग को गाली देने का बड़ा शौक था. आजादी से पहले वो रॉयल इंडियन नेवी(Royal Indian Navy) का कमांडर हुआ करता था. भारतीय सिपाहियों को वो सुअंर, गधा, जंगली आदि उपमाएं देता था. फिर एक रोज़ उसकी मुलाक़ात हुई बलाई चंद दत्त से. बलाई चंद पर भारतीय नौसैनिकों को ब्रिटिशर्स के खिलाफ भड़काने का आरोप था. जब फ्रेडरिक किंग के सामने दत्त को लाया गया, वो चिरपरिचित अंदाज़ में एकदम डंडी की सीध में खड़ा हो गया. गुस्से में लाल आंखें और तमतमाया चेहरा. होंठ फड़फड़ाए. लेकिन इससे पहले कि वो अपने शब्दबाण चलाता. दत्त ने चिल्लाकर कहा,
“अपनी सांस बचाकर रखो कमांडर, मुझे सिर्फ फायरिंग स्क्वाड की भाषा सुननी है’
बलाई चंद दत्त के इन शब्दों से शुरुआत हुई एक क्रांति की(Royal Indian Navy Mutiny). क्रांति 1946 की. जो रॉयल इंडियन नेवी के एक जहाज में दाल के बर्तनों से शुरू हुई. जिसके बारे में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली(Clement Attlee) ने एक बार कहा था, हम गांधी के आंदोलन से निपट सकते थे. लेकिन भारतीय नौसैनिकों की बगावत ने हमें समय से पहले भारत छोड़ने पर मजबूर कर दिया. क्या थी इस विद्रोह की कहानी, कैसे इसे आगाज हुआ और इसका अंजाम क्या हुआ था. चलिए जानते हैं.
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1946 नौसेना विद्रोह के हालत बने कैसे?1950 से पहले भारतीय नौसेना को रॉयल इंडियन नेवी कहा जाता था. हालांकि बिलकुल शुरू से शुरुआत करेंगे तो 1612 में ईस्ट इंडिया कम्पनी(East India Company) ने ईस्ट इंडिया कम्पनी मरीन नाम से कम्पनी का नौसेना विंग बनाया गया. बाद में इसका नाम बदलकर बॉम्बे मरीन हुआ. 1892 में नाम रॉयल इंडियन मरीन पड़ा और फिर आखिरकार 1932 में रॉयल इंडियन नेवी नाम पड़ गया. 1939 तक उसमें तक इसमें आठ वॉर शिप और लगभग 20 हजार नौसैनिक थे. फिर विश्व युद्ध शुरू हुआ. रॉयल नेवी में भर्तियां शुरू हुई. इससे पहले अंग्रेज़ केवल मार्शियल रेस कहलाई जाने वाली जातियों से सेना में भर्ती किया करते थे. 1939 में सब कुछ बदला. समाज के अलग अलग तबकों से रहने वाले लोगों को सेना में भर्ती किया गया. नौसेना में भी. इन भारतीयों ने WW2 के अलग अलग थियटरों में लड़ाई लड़ी. दुनिया देखी. ब्राह्मण-दलित, हिन्दू मुसलमान ने साथ बैठकर खाना सीखा. वहां अंतर नहीं था. क्योंकि वहां एक तीसरा गोरा मौजूद था. बिलकुल उसी तरह जैसे विदेश जाने पर दक्षिण भारतीय और उत्तर भारतीय सिर्फ भारतीय रह जाते हैं.
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इस पूरे दौरान इन सैनिकों को बताया जा रहा था कि ये युद्ध लोकतंत्र और आजादी के लिए लड़ा जा रहा था. भारतीय सैनिक बर्मा, इटली, ग्रीस की आजादी के लिए लड़े. इस दौरान कइयों के मन में एक वाजिब सवाल उठा. अगर ये युद्ध आजादी के लिए है तो मेरा अपना देश गुलाम क्यों है? टेक्निकल पोस्ट पर भर्ती हुए भारतीयों ने देखा कि वो गोरों से कमतर नहीं हैं. बर्मा थिएटर में लड़ाई के दौरान उन्होंने ये भी देखा कि कैसे जापानियों के सामने यूरोप के महान लड़ाके पतलून पकड़ कर भागे थे. महान गोरी नस्ल का भ्रम टूट चुका था.
विद्रोह की शुरुआतयुद्ध ख़त्म हुआ भारतीय नौसैनिकों को चाय में मक्खी की तरह निकाल कर फेंक डाला गया. जो बचे उनके लिए स्थितियां बदतर थीं. अंग्रेज अफसर गाली देते थे. खाने की मेज़ पर जानवरों की तरह एक 10 किलो की थाली में पानी जैसी दाल डाल दी जाती, उसके बाद अधजली अधपकी रोटियां फेंकी जाती. कोई उठकर प्लेट चम्मच लेने जाता तो और गालियां और ताने मिलते. इस सब का असर ये हुआ कि सैनिकों में विद्रोह सुलगने लगा. तब कोलाबा बॉम्बे में एक स्टोन फ्रिगेट हुआ करता था. जमीन का एक टुकड़ा जिसे शिप की तरह इस्तेमाल में लाया जाता था. इसका नाम था HMIS तलवार. इसी पर बलाई चांद दत्त भी तैनात थे. एक रोज़ बलाई का एक दोस्त, जो बर्मा से लौटा था, अपने साथ कुछ खत लेकर आया. ये आजाद हिन्द फौज(Indian National Army) के खत थे, जो जवाहरलाल नेहरू(Jawaharlal Nehru) और शर्त चंद्र बोस को लिखे गए थे. बलाई दत्त पहले ही अंग्रेज़ों के बर्ताव से खार खाए थे. इन खतों और तस्वीरों ने उनके मन में विद्रोह और भड़का दिया. उन्होंने खुफिया रूप से एक संगठन की शुरुआत की. नाम था ‘आजाद हिंदुस्तान’ और इसके मेंबर खुद को ‘आजाद हिंदी’ कहकर बुलाते थे. बलाई दत्त ने कैंटीन को रिक्रूटिंग सेंटर बनाया. और विद्रोह की तैयारी शुरू कर दी. योजना के लिए 1 दिसंबर, 1945 की तारीख चुनी गई. ये तारीख इसलिए क्योंकि तब 1 दिसंबर को नेवी डे मनाया जाता था. और इस मौके पर आम लोगों को आने का न्योता दिया गया था.
अगले दिन तय कार्यक्रम के अनुसार लोग पहुंचे तो उन्होंने देखा कि हर जगह ब्रिटेन के जले हुए झंडे फेंके हुए थे. यहां-वहां पोस्टर चिपकाए गए थे. जिन पर लिखा था, अंग्रेज़ों भारत छोड़ो, ब्रिटिश साम्राज्यवाद मुरादाबाद. इसके अगले ही रोज़ बलाई दत्त के एक साथी RK सिंह ने कमांडर को अपना इस्तीफ़ा सौंप दिया. ये भी विद्रोह की एक निशानी थी. क्योंकि रॉयल इंडियन नेवी से आप बर्खास्त या रिटायर हो सकते थे, इस्तीफ़ा नहीं दे सकते थे. सिंह को जब गिरफ्तार कर कमांडर के पास ले जाया गया तो उन्होंने अपनी टोपी जमीन पर फेंकते हुए उस पर लात मात दी. ये कहानी जल्द ही पूरे बैरेक्स में फ़ैल गई.
बलाई दत्त की गिरफ्तारीअगली घटना 2 फरवरी 1946 को हुई. इस रोज़ नेवी के कमांडर इन चीफ HMIS तलवार का दौरा करने वाले थे. बलाई दत्त और उनके ग्रुप ने उस प्लेटफॉर्म पर जय हिन्द लिख दिया, जहां से कमांडर सलामी देने वाले थे. लेकिन इस दौरान बलाई के हाथ में लगी गोंद की वजह से उन्हें पकड़ लिया गया. नौसेना नहीं चाहती थी कि वहां भी आजाद हिन्द फौज जैसी कोई घटना हो. इसलिए मामले को दबा दिया गया. लेकिन अगले ही दिन फ्री प्रेस जर्नल अखबार ने बलाई दत्त की गिरफ्तारी की खबर फोटो सहित पहले पन्ने पर छाप दी. उस दिन भारतीय नौसैनिकों ने HIMS तलवार में खड़ी कारों पर भारत छोड़ो, अंग्रेज़ मुर्दाबाद के नारे चस्पा दिए. कमांडर फ्रेडरिक किंग की कार को भी नहीं बख्सा गया. विद्रोह धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा था.
17 फरवरी को नौसैनिकों ने मेस में एक बार फिर खाने की गुणवत्ता सुधारने की मांग की. इस पर एक ब्रिटिश अधिकारी ने जवाब दिया, ‘beggars cannot be choosers’. यानी भिखारी चुनाव नहीं कर सकते कि उन्हें क्या मिलेगा. बात इतनी बढ़ी कि 18 फरवरी की सुबह 1500 लोगों ने मेस के आगे हड़ताल कर दी और बिना खाना खाए ही सो गए. उसी शाम हड़ताल की खबर BBC और ऑल इंडिया रेडियो के जरिए चारों तरफ फ़ैल गई. अगली सुबह बॉम्बे हार्बर में खड़े 60 जहाजों का नजारा देखने लायक था. जहां कल तक यूनियन जैक लहराया करता था, वहां अब कांग्रेस, मुस्लिम लीग और कम्युनिस्ट पार्टी के झंडे लगे हुए थे. 20 फरवरी तक मद्रास, कलकत्ता, कराची जामनगर, विशाखापट्नम और कोचीन से भी ऐसी ही खबरें आने लगी थीं. हालांकि चंद अपवादों को छोड़कर भारतीय अफसर क्लास इस विद्रोह से दूर रहा लेकिन कुल मिलकर 80 जहाज 4 नौसैनिक बेड़े और 20 हजार नौसैनिक विद्रोह में शामिल हो चुके थे.
ब्रिटिश सरकार में अफरा-तफरी का माहौल था. नौसेनाध्यक्ष एडमिरल जे एच गॉडफ़्री समझौते के लिए बॉम्बे पहुंचे. लेकिन विद्रोही नौसैनिकों का कहना था कि वो अपने राष्ट्रीय नेताओं के कहे अनुसार चलेंगे. दूसरी ओर राष्ट्रीय नेता, नेहरू, पटेल, गांधी नदारद थे. कांग्रेस की नेता अरुणा आसिफ अली के अलावा कांग्रेस का कोई नेता विद्रोहियों के समर्थन में नहीं आया. उन्होंने नेहरू को एक तार भेजकर कहा कि वो तुरंत बॉम्बे आकर विद्रोही नौसैनिकों से मिले. नेहरू निकलने वाले थे कि तभी पटेल ने उन्हें आने से रोक दिया. कांग्रेस को लग रहा था कि इस हंगामे से सत्ता हस्तांतरण शांतिपूर्ण ढंग से नहीं हो पाएगा. वहीं पटेल को ये अंदेशा भी था कि नौसैनिक अनुशासनहीनता आगे जाकर भारत के लिए ही मुश्किल पैदा करेगी.
दूसरी तरफ सरकार ने जब देखा कि राष्ट्रीय आंदोलन का कोई नेता सपोर्ट में नहीं आ रहा तो उन्होंने धमकी जारी की. नौसैनिक बैरक्स की बिजली और पानी काट दिए गए. जहाजों तक पहुंच रही रसद भी रोक दी गई. विद्रोहियों ने जवाब में जहाजों पर तैनात तोपों का मुंह शहर की ओर मोड़ दिया. कहा कि अगर सरकार ने कोई एक्शन लेने की कोशिश की तो होटल ताज और गेटवे ऑफ इंडिया को उड़ा दिया जाएगा. माहौल दिन पर दिन गर्माता जा रहा था. जहाज़ों पर खाने और पानी की कमी होने लगी थी. तब कम्युनिस्ट पार्टी के कॉल पर हजारों लोग फल, दूध, और ब्रेड लेकर गेटवे ऑफ इंडिया तक पहुंच गए. जहां से इन्हें नावों में भरकर शिप्स तक ले जाया गया. लेकिन इतना काफी नहीं था.
विद्रोहियों ने हथियार डाल दिएकांग्रेस और मुस्लिम लीग से समर्थन न मिलने से विद्रोहियों के हौसले टूटने लगे थे. अंत में वो सरदार पटेल(Sardar Patel) के कहने पर समझौते के लिए तैयार हुए. पटेल ने उन्हें हथियार डाल देने को कहा और भरोसा दिलाया कि उनके साथ नरमी बरती जाएगी. कई लोग इसके खिलाफ थे. और लड़ने को तैयार थे. लेकिन शुरुआत से उन्होंने घोषणा की थी कि वो राष्ट्रीय नेताओं के कहने पर चलेंगे. ऐसे में वो सरदार पटेल का कहना कैसे ठुकरा सकते थे. दूसरी तरफ मुहम्मद अली जिन्ना (Muhammad Ali Jinnah)की तरफ से भी ऐसा ही सन्देश आया.
हालांकि आम जनता अभी हथियार डालने के मूड में नहीं थी. शहर में कई दिनों से कर्फ्यू लगाया गया था. इसके बावजूद 22 फरवरी को भीड़ ने बैरिकेड तोड़ते हुए पथराव शुरू कर दिया। पुलिस से मुठभेड़ में 228 लोग और 3 पुलिस वाले मारे गए. कलकत्ता में विद्रोह तीन दिन और चला. सेना के कुछ जवान भी हड़ताल में चले गए थे. उनमें से एक नाइक बुधन साहब ने अपने कमांडिंग अफसर को ही थप्पड़ मार दिया. जिसके चलते उनका कोर्ट मार्शल हुआ. कोर्ट मार्शल से जब बुधन साहब से पूछा गया कि क्या वो अपनी गलती के लिए माफी मांगना चाहते हैं, तो बुधन ने जवाब दिया, माफी- वो भी अपने दुश्मनों से. कभी नहीं.
23 फरवरी सुबह 6 बजे सरेंडर की शुरुआत हुई. इसके बाद भी कई शिप थे, जिन्होंने ऐन मौके पर सरेंडर से इंकार कर दिया. HMIS अकबर में सवार 3500 नौसैनिक हथियार डालने को राजी नहीं थे. कुछ ऐसा ही हाल कराची बंदरगाह का भी था, जहां HMIS हिंदुस्तान ने सरेंडर से इंकार कर दिया. जब ब्रिटिश जहाजों ने उसे चारों ओर से घेर लिया तो उसने मदद के लिए HMIS काठियावाड़ को डिस्ट्रेस सिग्नल भेजा. HMIS काठियावाड़ कराची से काफी दूर था. इसलिए उसने बॉम्बे का रुख किया. लेकिन जैसे ही वो बॉम्बे हार्बर में दाखिल हुआ. यहां उसका सामना ग्लासगो नाम के एक क्रूजर जहाज से हुआ, जो उससे शक्ति और आकार में काफी बढ़ा था. इन छिटपुट घटनाओं के अलावा सरेंडर शांतिपूर्ण ढंग से पूरा हो गया.
अंग्रेज़ों ने सरदार पटेल से वादा किया था कि आत्मसमर्पण करने वाले लोगों के साथ नरमी बरती जाएगी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. इनमें से 400 लोगों को मुलंद के पास एक कंसनट्रेशन कैंप जहां इनके साथ लंम्बे समय तक बुरा सुलूक किया गया. बाद में इन्हें नौकरी से बर्खास्त कर घर भेज दिया गया. आजादी के बाद भी इन लोगों को वो हक़ नहीं मिला जिसके ये हकदार थे. इस विद्रोह में शामिल होने वाले एक नौसैनिक बिश्वनाथ बोस अपनी किताब में नेहरू को लिखे एक खत का जिक्र करते हैं. आजादी के बाद के इस पत्र में वो लिखते हैं,
“नौसैनिकों का नेता बताकर मुझे नौकरी से निकाल दिया गया और जेल में डाल दिया गया. जेल से निकलकर मैं बार-बार आपसे संपर्क करने की कोशिश कर रहा हूं. ताकि मुझे मेरी नौकरी वापस मिल सके. अगर ऐसा कोई क़ानून है कि आजादी की लड़ाई में भाग लेने वालों नौकरी नहीं मिल सकती. तो आप किस हक़ से प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे हुए हैं.”
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