भूटान भारत का हिस्सा क्यों नहीं बन पाया?
1947 तक भूटान ब्रिटिश इंडिया के प्रोटेक्टोरट राज्य हुआ करता था.
भारत के नक़्शे पर नजर डालो तो पड़ोसी देश भूटान (Bhutan) की सीमाएं सिक्किम, बंगाल और आसाम से मिलती है. अगर अलग से मार्क न करो तो कह नहीं सकते कि कोई अलग देश है. आजादी से पहले सिक्किम की जो स्थिति थी वही भूटान की भी थी. आजादी से पहले सिक्किम और भूटान ये दोनों ब्रिटिश राज के प्रोटेक्रेट स्टेट थे. यानी इन दोनों राज्यों के आतंरिक मामलों में ब्रिटिश सरकार का दखल नहीं था, लेकिन विदेश और रक्षा मामलों को ब्रिटिश सरकार देखती थी. दोनों राज्यों में अलग-अलग संधियों के चलते ये सिस्टम चलता था. अंग्रेज़ी में इसके लिए एक शब्द है, सुजेरिनिटी.
आगे चलकर सिक्किम भारत का राज्य बन गया. कैसे बना?
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लेकिन भूटान एक अलग देश ही रहा. क्यों?
भूटान और भारत का रिश्ता जानने से पहले थोड़ा इतिहास पर गौर करते हैं. आधुनिक इतिहास की बात करें तो भूटान और भारत की किस्मत में पहली गांठ पड़ी थी 1730 में. क्या हुआ था उस साल?
बंगाल की कूच बिहार रियासत. यहां मुग़ल फौज ने हमला कर दिया. कूच बिहार की सीमा भूटान से लगती थी. इसलिए कूच बिहार के राजा मदद मांगने भूटान पहुंच गए. भूटान ने मदद की. और मुग़ल फौज को पीछे खदेड़ दिया. लेकिन बदले में खुद कब्ज़ा जमाकर बैठ गए. शुरुआत हुई फौज की दो गैरिसन से, जिन्हें परमानेंट रूप से कूच बिहार में तैनात कर दिया गया. फिर धीरे-धीरे कूच बिहार का प्रशासन भी भूटान के हाथ में चला गया.
1760 तक कूच बिहार पर भूटान का पूरा कंट्रोल हो चुका था. 1772 में कूच बिहार में सत्ता के लिए अनबन हुई तो पासा पलट गया. कूच बिहार में सत्ता के दो धड़े थे. जिसमें से एक को भूटान राजशाही का समर्थन प्राप्त था. ऐसे में दूसरा धड़ा पहुंच गया अंग्रेज़ों के पास. जो अब तक बंगाल प्रेसिडेंसी पर कब्ज़ा जमा चुके थे. अंग्रेज़ मदद को पहुंचे. कूच बिहार में तैनात भूटान की फौज से ब्रिटिश टुकड़ी की लड़ाई हुई. ब्रिटिशर्स ने भूटान की फौज को पीछे खदेड़ दिया. इसके बाद ब्रिटिश फोर्सेस ने कूच बिहार रियासत में अपना प्यादा बिठाकर, रियासत को ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की डिपेंडेंसी बना दिया. यानी ऐसा राज्य जो विदेश मामलों में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी पर निर्भर था.
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इसके बाद कुछ सालों तक ब्रिटिश फौज और भूटान के बीच झड़पें चलती रही. अंत में दोनों के बीच एक समझौता हुआ साल 1774 में. समझौते के तहत तय हुआ कि भूटान अपनी फौज पीछे हटा लेगा. और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी कोई भूटान में लड़की के कारोबार की इजाजत दी जाएगी. कुछ समय तक सब शांत रहा. फिर 1784 में दोनों देशों की किस्मत में दूसरी गांठ पड़ी. कैसे?
दुआर्स की लड़ाईबंगाल में 350 किलोमीटर में फैला हुआ दुआर का इलाका है. भूटान राजशाही ने इस इलाके का कंट्रोल स्थानीय जमींदारों को दे रखा था. और बदले में वो उनसे टैक्स वसूलते थे. ईस्ट इंडिया कंपनी की इस पर नजर पड़ी तो एक नया विवाद जन्मा गया. अगले 80 साल तक इस इलाके पर कब्ज़े को नेकर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और भूटान के बीच झड़पें चलती रहीं. इन लड़ाइयों को दुआर वार्स के नाम से जाना जाता है.
1824 में एक ब्रिटिश मिशन भूटान पहुंचा और उन्होंने भूटान के आगे व्यापार की पेशकश रखी. भूटान ने इससे इंकार कर दिया. उन्हें डर था कि इससे उनकी स्वायत्ता को खतरा हो सकता है. असम के हिस्से में पड़ने वाले दुआर पर अभी भी उनका कब्ज़ा था. लेकिन इसके बदले उनको ब्रिटिशर्स को सालाना रकम चुकानी होती थी. 1826 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने लोवर असम पर कब्ज़ा जमा लिया. जिसके बाद भूटान के साथ तनाव और बढ़ गया. 1834 के आसपास एक और जंग हुई जिसके बाद ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी ने असम के दुआर इलाके पर पूरी तरह कब्ज़ा कर लिया. इसके बदले वो भूटान को सालाना 10 हजार रूपये देते थे. लेकिन जल्द ही ये शांति भी टूट गई.
1862 में भूटान ने एक बार फिर कूच बिहार और सिक्किम पर आक्रमण किया. जिसके बाद 1864 में ब्रिटिश राज और भूटान के बीच जंग हुई. इस जंग का नतीजा निकला एक समझौते में. इस समझौते का नाम था, ‘सिंचुला की संधि’. क्या था इस संधि में? इस संधि के तहत असम और बंगाल के दुआर पर ब्रिटिश राज का कब्ज़ा हो गया. बदले में भूटान को सालाना 50 हजार की रकम मिली.
भूटान के नए लीडर का उदयइस दौर में जब भूटान ब्रिटिश फ़ौज से जूझ रहा था. भूटान की आंतरिक राजनीती में भी काफ़ी उठापटक चल रही थी. अलग-अलग धड़े भूटान की राजगद्दी हासिल करने की कोशिश कर कर रहे थे. इनमें से दो गुट थे, तोंग्सा के पोनलोप और पारो के पोनलोप. तोंग्सा के पोनलोप धड़े को ब्रिटिश राज का समर्थन प्राप्त था. वहीं पारो के पोनलोप धड़े को तिब्बत का समर्थन हासिल था. यहां गौर करने लायक़ बात ये भी है की भूटान और तिब्बत के बीच हज़ारों साल पुराने धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक सम्बन्ध थे. और तिब्बत नहीं चाहता था कि इस इलाके पर ब्रिटिशर्स का प्रभाव बढ़े.
ऐसे में प्रादुर्भाव हुआ एक लीडर का. नाम उग्येन वांगचुक. जो तोंग्सा के पोनलोप धड़े से ताल्लुक रखते थे. वांगचुक ने अपने राजनैतिक प्रतिद्वंद्वियों को ख़त्म किया और सालो चले गृह युद्ध के बाद 1885 में पूरे देश को एक जुटकिया.
इसी दौर में एक और घटना हुई. तिब्बत ने सिक्किम पर आक्रमण किया , जिससे ब्रिटिश राज और तिब्बत के बीच ठन गई. भूटान इन दोनों के बीच पिस रहा था. ऐसे में उग्येन वांगचुक ने मध्यस्तता का रोल अपनाया. और अपने एक घनिष्ठ सलाहकार उग्येन दोरजी को तिब्बत भेजा. 1904 में उग्येन दोरजी ब्रिटिश मिशन के साथ तिब्बत पहुंचे और उन्होंने ब्रिटिशर्स और तिब्बत के बीच समझौता कराया. ब्रिटिश राज इस फ़िक्र में था कि रूस ल्हासा में एंट्री कर भारत के पड़ोस तक पहुंच सकता है. इसलिए वो जल्द से जल्द तिब्बत में अपना प्रभाव कायम करना चाहते थे. इसी के नतीजा हुआ 1904 का एंग्लो-तिब्बत सम्मेलन. जिससे तिब्बत और ब्रिटिश इंडिया के बीच व्यापार समझौते की शुरुआत हुई.
द ड्रैगन किंग1907 में उग्येन वांगचुक भूटान के राजा बनाए गए. आधुनिक भूटान की राजशाही की जड़ें यही से निकलती हैं. वहीं दोरजी परिवार को राजशाही में गोंज़िम का पद मिला. सरकार में सबसे ऊंचा पद. 1904 में तिब्बत और ब्रिटिश इंडिया के बीच समझौते का एक असर ये हुआ कि तिब्बत चीन के किंग साम्राज्य की आखों में चुभने लगा. चीन नहीं चाहता था कि तिब्बत ब्रिटिशर्स के कंट्रोल में आए. इसलिए 1910 में चीन ने तिब्बत पर हमला कर दिया. 13वें दलाई लामा को भागकर भारत में शरण लेनी पड़ी. चीन यहीं पर नहीं रुका. उन्होंने भूटान, सिक्किम और नेपाल पर भी अपना दावा ठोक दिया.
चीन से बचने के लिए भूटान ने साल 1910 में ब्रिटिश इंडिया के साथ एक समझौता किया. साल 1910 में हुए इस समझौते का नाम है पुनखा की संधि. पुरानी संधि के मुकाबले नई संधि में कुछ बदलाव हुए. मसलन पुरानी संधि के तहत भूटान को ब्रिटिश इंडिया से 50 हजार की सालाना रकम मिलती थी. पुनखा की संधि में ये रकम दोगुनी कर दी गई. इस संधि के तहत भूटान को चीन से सुरक्षा मिली और उसकी स्थिति हो गई सुजेरिनिटी की. यानी भूटान ने अपनी रक्षा और विदेश नीति ब्रिटिश राज के सुपुर्द कर दी. बदले में ब्रिटिश सरकार ने वादा किया कि वो भूटान के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे. इसके आगे क्या हुआ?
उग्येन वांगचुक ने 1926 तक भूटान पर राज किया. अपने आखिरी दिनों में उन्हें एक चिंता खाने लगी थी. उन्हें डर था कि उनके जाने के बाद ब्रिटिशर्स उनके परिवार को सत्ता से बेदखल कर देंगे. इसलिए 1924 में उन्होंने ब्रिटिश सरकार से आश्वासन मांगा कि वांगचुक परिवार का शासन बना रहेगा. इसके बाद ब्रिटिश सरकार में भूटान के लीगल स्टेटस को लेकर एक मंथन शुरू हुआ. जिसके बाद तय हुआ कि भूटान की स्थिति सूजेरिनिटी और अस्पष्टत संबंधों की ही रहेगी यानी भूटान के आतंरिक मामलों में ब्रिटिश सरकार हस्तक्षेप नहीं करेगी. साल 1932 में जब भारत में स्वायत्त सरकार का सवाल उठा तो एक बार दोबारा भूटान की स्थिति को लेकर मंथन किया गया. अबकि तय हुआ कि वक्त आने पर भूटान इसका फैसला स्वयं कर लेगा कि उसे भारत फेडरेशन से जुड़ना है या नहीं.
संविधान सभा में उठा भूटान का सवालइसके बाद कहानी पहुंचती है 1946 में. ब्रिटिश राज से सत्ता हस्तांतरण के कुछ महीने पहले की बात है. संविधान सभा में राज्यों की कमिटी को जवाहरलाल नेहरू चेयर कर रहे थे. सवाल था कि संविधान सभा में रियासतों का प्रतिनिधित्व कैसा हो. नेहरू एक प्रस्ताव पेश कर सिक्किम और भूटान का सवाल भी इसमें जोड़ देते हैं. हालांकि नेपाल के सवाल पर नेहरू कहते हैं, “अगर भविष्य में नेपाल भारत के साथ करीबी बढ़ाना चाहे तो हम उसका स्वागत करेंगे”
इस दौर में ल्हासा और गंगटोक से ब्रिटिश इंटेलिजेंस की कुछ रिपोर्ट आ रही थीं. जिनके अनुसार तिब्बत, सिक्किम और भूटान एक नया गठजोड़ बनाने की तैयारी कर रहे थे. इन तीनों ही राज्यों को डर था कि उन्हें भारत और चीन से प्रेशर का सामना करना पड़ेगा. सिक्किम में तैनात आख़िरी ब्रिटिश अफसर आर्थर हॉपकिंसन ने भारतीय लीडरशिप को तब इस मामले में चेतावनी भी दी थी. हॉपकिंसन लिखते हैं “भारत के लिए बहुत जरूरी है कि भूटान के साथ उसके अच्छे संबंध हों. वरना वो चीन की बाहों में जा सकता है”
भूटान और सिक्किम दोनों पहाड़ी राज्य थे. दोनों को डर था कि मौजूदा संधियों के चलते उन्हें भी बाकी रियासतों की तरह ट्रीट किया जाएगा. इसलिए दोनों राज्यों ने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि वो बाकी रियासतों से अलग है. उनकी संस्कृति और धर्म अलग हैं. भूटान ने 1910 में हुई संधि का हवाला देते हुए कहा कि उन्हें बाकी राज्यों के साथ ग्रुप न किया जाए. क्योंकि 1910 की संधि के तहत उन्हें आतंरिक स्वायत्ता की गॉरन्टी मिली हुई थी.
कैबिनेट मिशन जो सत्ता हस्तांतरण की देखरेख कर रहा था. भूटान की तरफ से उन्हें एक खत भेजा गया. खत में लिखा था, “भूटान भारत का राज्य नहीं है. इसकी सीमाएं भारत और तिब्बत से लगती हैं. जिसके कारण हमारे दोनों से संबंध हैं. लेकिन नस्ल धर्म और संस्कृति के हिसाब से हम चीन और तिब्बत से ज्यादा नजदीक हैं”
जून 1947 में भूटान की तरफ से ऐसा ही खत लार्ड माउंटबेटन को लिखा गया. इसमें कहा गया था कि भूटान भारत का हिस्सा नहीं बनाना चाहता. संविधान सभा में जब भूटान और सिक्किम का सवाल उठा तो नेहरू ने स्वीकार किया किया कि सिक्किम और भूटान बाकी रियासतों की तरह नहीं है. बल्कि ये दोनों आजाद हैं, और इन्हें भारत की सुरक्षा मिली हुई है. इसके बाद नेहरू की तरफ से भूटान को आश्वासन दिया गया कि भूटान का भविष्य बातचीत से तय होगा और इसके लिए कोई जोर जबरदस्ती नहीं होगी.
नेहरू अड़ गएभूटान और भारत के बीच फरवरी 1948 में एक स्टैंड स्टिल एग्रीमेंट पर दस्तखत हुए. यानी जब तक आगे की राह तय न हो. वस्तुस्थिति बनी रहेगी. इसके बाद अप्रैल में प्रधानमंत्री नेहरू ने भूटान को वार्ता के लिए निमंत्रण भेजा. भूटान डेलीगेशन की तरफ से गॉन्जिम सोनम तोपग्ये दोरजी वार्ता में शामिल हुए. दोरजी की बेटी आशी ताशी ने इन मीटिंग्स का ब्यौरा अपनी डायरी में दर्ज़ किया है.
16 तारीख 1948 को KPS मेनन भारत के पहले फॉरेन सेक्रेटरी का पदभार संभालते हैं. इसके तीन दिन बाद यानी 19 अप्रैल को उनकी भूटान डेलीगेशन से मुलाक़ात होती है. इसके बाद अगले दिन PM नेहरू डेलीगेशन से मिलते हैं. नेहरू के साथ ये मीटिंग करीब एक घंटे चली थी. मीटिंग के दर्ज़ मिनटों के अनुसार नेहरू कहते हैं कि वो भूटान के आतंरिक मामलों में दखल नहीं देना चाहते. लेकिन इसके तुरंत बाद वो भूटान डेलीगेशन के आगे दो प्रस्ताव रख देते हैं. पहला प्रस्ताव था कि भूटान भारत में विलय हो जाए. इसके बाद उसे राज्य का दर्ज़ा मिलेगा लेकिन स्वायत्ता बरक़रार रहेगी.
दूसरा ऑफर था कि भूटान भारत के साथ एक संधि करे. नई संधि के तहत भूटान रक्षा, संचार, और विदेश मामलों को भारत को सौंप देगा. आशी ताशी के लिखे अनुसार भूटान डेलीगेशन इसके लिए बिलकुल तैयार नहीं था. वो पहले एक लिखित आश्वासन चाहते थे कि भूटान पर उनका दावा कायम रहेगा. इस मुद्दे पर बात इतनी बढ़ी कि एक बार तो भूटान डेलीगेशन बिना समझौते के वापिस लौटने वाला था. अंत में नेहरू इस बात पर राजी हुए कि संचार का क्षेत्र भूटान के पास ही रहेगा. और भारत सिर्फ विदेश और रक्षा मामलों में भूटान को गाइड करेगा. कई विशेषज्ञों का मानना है कि इस दौर में नेहरू चीन को लेकर आश्वस्त थे. इसीलिए उन्होंने भूटान के इंटीग्रेशन पर ज्यादा जोर नहीं दिया.
आगे की राहविदेश मामलों के अलावा एक मुद्दा पैसे का भी था. भूटान ने अपने जो हिस्से ब्रिटिशर्स के हवाले किए थे, उसके बदले उन्हें सिर्फ डेढ़ लाख मिले थे. भूटान का कहना था कि उन्हें इसके लिए उचित रकम मिलनी चाहिए. अंत में नेहरू 50 हजार देने को तैयार हुए, उस पर भी बोले, हमें 50 हजार भी क्यों देने चाहिए, जबकि तुम्हारे विदेश रिश्ते संभालना भारत पर ही बोझ बढ़ाएगा.
ऐसे में भूटान डेलीगेशन ने जवाब दिया, अगर ऐसा है तो भारत को भूटान के विदेश मामलों को भूटान पर हे छोड़ दें चाहिए. ताशी लिखती हैं कि नेहरू मुस्कुराए लेकिन कोई जवाब नहीं दिया.
दोनों देशों के बीच कुछ दिन चली वार्ता के बाद 9 अगस्त, 1949 को भूटान और भारत के बीच एक समझौता हुआ. यही समझौता भारत और भूटान संबंधों की नींव बना. इस समझौते के तहत भारत ने भूटान को एक स्वायत्त देश के तौर पर स्वीकार किया. जो भारत के सुरक्षा में रहेगा. यानी भूटान के विदेश मामले भारत के दिशा-निर्देश पर तय होंगे. साल 1954 में प्रधानमंत्री नेहरू ने पहली बार भूटान के राजा, जिग्मे दोरजी वांगचुक को गणतंत्र दिवस पर अथिति के तौर आमंत्रित किया. साल 1958 में नेहरू खुद भूटान दौरे पर पहुंचे. इस दौरे में इंदिरा गांधी भी उनके साथ थी. इस दौरे के बाद दोनों देशों के बीच रिश्ते लगातार प्रगाढ़ होते गए.
शुरुआत में भूटान की तरफ से विदेश मामलों को भारत को सौंपने के लिए कुछ हिचकिचाहट थी. लेकिन 1959 में जब चीन ने तिब्बत पर पूरी तरह कब्ज़ा कर लिया तब भूटान में भारत के लिए स्वीकार्यता और बढ़ गई. शुरुआत से भारत भूटान के विकास में सहयोग देता आया. साल 1971 में भारत के सहयोग से भूटान को संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता मिली. और साल 2007 में पुरानी संधि को भी अपडेट कर दिया गया. नई संधि के तहत विदेश मामलों में भी अब भूटान को भारत की राय लेने की जरुरत नहीं है. इससे पहले भूटान भारत की सहमति के बिमा आर्म्स इम्पोर्ट भी नहीं कर सकता था. बहरहाल भूटान से जुड़ी एक बड़ी प्यारे डॉक्यूमेंट्री है, नाम है क्रासिंग भूटान. आधुनिक भूटान से रूबरू होना चाहते हैं तो इस एक घंटे की डाक्यूमेंट्री पर नजर डाल सकते हैं.
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