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नेताजी सुभाष चंद्र बोस के 250 करोड़ के खजाने का क्या हुआ?

अगस्त 1945 में नेताजी सुभाष चंद्र बोस का प्लेन क्रैश हुआ. इस दौरान वो अपने साथ आजाद हिन्द फौज का खजाना लेकर चल रहे थे. क्या हुआ इस खजाने का?

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Netaji Treasure
INA का जो सोना नेताजी ले जा रहे थे, उसका केवल एक हिस्सा भारत पहुंचा था (सांकेतिक तस्वीर: getty)
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कमल
18 अक्तूबर 2022 (Updated: 14 अक्तूबर 2022, 16:06 IST)
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मधुश्री मुखर्जी अपनी किताब ‘चर्चिल सीक्रेट वॉर’ में लिखती हैं कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस (Netaji Subhash Chandra Bose)जब भाषण देते थे, उसे सुनकर औरतें अपने जेवर उतारकर उनके सामने रख देती थीं. 21 अगस्त 1944 को छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक़ नेताजी का भाषण सुनकर हीराबेन बेतानी ने अपने 13 सोने के हार दान में दे दिए थे, जिनकी तब की कीमत डेढ़ लाख रूपये थी. हबीब साहिब नाम के एक रईस हुआ करते थे, उन्होंने INA (Indian National Army) के फंड में 1 करोड़ की प्रॉपर्टी जमा कर दी थी. वहीं रंगून के एक व्यापारी VK नादर ने आजाद हिन्द बैंक में 42 करोड़ रूपये और 2800 सोने के सिक्के दान किए थे. नेताजी नहीं चाहते थे कि आजाद हिन्द की अंतरिम सरकार जापान पर निर्भर रहे. इसलिए चंदा जमा करने की मुहीम लगातार चलाई जाती थी. ऐसी ही एक मुहीम जनवरी 1945 में चलाई गयी थी. मौका था नेताजी के जन्मदिन का. इस मौके पर नेताजी को सोने में तोला गया. एक हफ्ते चले समारोह में 2 करोड़ रूपये और लगभग 80 किलो सोना इकठ्ठा हुआ. 

इसके ठीक 8 महीने बाद अगस्त 1945 में जब नेताजी का प्लेन क्रैश हुआ. ये सोना उन्हीं के साथ था. माना जाता है कि इस प्लेनक्रैश में नेताजी की मृत्यु हो गई थी. वहीं कई लोग ऐसे भी हैं जो मानते हैं कि नेताजी इस घटना में बच गए थे. अलग-अलग थ्योरियां हैं. लेकिन एक और सवाल है जो नेताजी की मृत्यु से जुड़ा है. उस खजाने (INA Treasure) का क्या हुआ, जो नेताजी अपने साथ लेकर गए थे?

सोने के चार बक्से 

पूरा मामला समझने के लिए सिलसिलेवार ढंग से घटनाओं को देखते हैं. कहानी शुरू होती है 15 अगस्त 1945 से. क्या हुआ था इस रोज़?
द्वितीय विश्व युद्ध में जापान के सम्राट हिरोहितो ने जापान के आत्मसमर्पण की घोषणा की. हालांकि हिरोहितो ने अपने भाषण में सरेंडर शब्द का इस्तेमाल नहीं किया. जिसके चलते हर तरफ कन्फ्यूजन का माहौल था. नेताजी बोस इस रोज़ सिंगापोर में थे. जो जल्द ही पूरी तरह ब्रिटिश आर्मी के कब्ज़े में आने वाला था. उन्होंने फैसला किया कि सिंगापोर में INA का जितना फंड है वो शहर से बाहर भिजवाया जाए. 

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आजाद हिन्द की अंतरिम सरकार की घोषणा करते हुए नेताजी सुभाष चंद्र बोस (तस्वीर: Netaji Research Bureau, Kolkata)

नेताजी से जुड़ी फाइल्स का गहरा अध्ययन करने वाले सुमेरु रॉय चौधरी लिखते हैं कि 16 अगस्त की सुबह 8 बजे नेताजी ने सिंगापोर से देबनाथ दास को एक केबल भेजा. देबनाथ इंडिया इंडिपेंडेस लीग (IIL) के जनरल सेक्रेटरी हुआ करते थे. देबनाथ दास ने फंड को एक बक्से में भरकर बैंकॉक भिजवा दिया. उसी दोपहर नेताजी भी बैंकाक पहुंचे. यहां IIL के हेडक्वार्टर पहुंचकर उन्होंने INA aur ILL के कर्मचारियों के लिए दो से तीन महीने की सैलरी के लिए पैसे निकलवाए. और उसी शाम को अपने आवास पर एक मीटिंग बुलाई. इस मीटिंग में नेताजी ने ऐलान किया कि जापान का सरेंडर INA का सरेंडर नहीं है. 

उसी रात वो अपने सहायक कुंदन सिंह और आबिद हसन के साथ INA फंड्स का हिसाब करने बैठे. आजादी के बाद बनी एक जांच कमिटी के आगे कुंदन सिंह ने बताया कि खजाने को चार हिस्सों में बांटकर बक्सों में भरा गया था. जिनका कुल वजन दो से ढाई मौंड यानी करीब 75 से 90 किलो के बीच था. इन बक्सों में सोने के जेवर थे. साथ ही एक सोने का सिगरेट केस था, जिसे हिटलर ने नेताजी को तोहफे में दिया था. इन बक्सों को लेकर 17 तारीख की सुबह नेताजी ने बैंकॉक से उड़ान भरी. उनके साथ 6 और लोग थे. SA अय्यर, देबनाथ दास, कर्नल हबीबुर्रहमान, कैप्टन गुलजारा सिंह, कर्नल प्रीतम सिंह और मेजर आबिद हसन. 

नेताजी का प्लेन क्रैश 

17 अगस्त सुबह नौ बजे नेताजी साइगॉन पहुंचे. जहां अभी भी जापान का कब्ज़ा था. इतिहासकार जॉयस चैपमैन, अपनी किताब, ‘द INA एंड जापान’ में बताते हैं कि साइगॉन में नेताजी की मुलाक़ात जापानी सेना के प्रमुख फील्ड मार्शल हिसाइची तेराची से हुई. नेताजी यहां से मंचूरिया जाने वाले थे. लेकिन ऐन मौके पर पता चला कि उनका विमान उड़ने लायक नहीं है. उन्होंने तेराची से मदद की गुहार की. इसके बाद एक मित्सुबिशी की-21 विमान में उनके लिए एक सीट की व्यवस्था कराई गई. प्लेन में सिर्फ एक सीट थी. इसके बावजूद बोस ने पायलट से कहकर एक और सीट की व्यवस्था कराई. 

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मित्शुबिशी की -21 विमान (सांकेतिक तस्वीर: Wikimedia Commons)

नेताजी ने कर्नल हबीबुर्रहमान को अपने साथ जाने के लिए चुना. नेताजी चाहते थे कि एक और व्यक्ति उनके साथ जाए. लेकिन पायलट नोनोगाकी ने उनसे कहा कि या तो वो अपने साथ लाए बक्से ले जा सकते हैं या एक और आदमी. नेताजी ने बक्से ले जाना चुना. हालांकि ये पक्का नहीं है कि नेताजी अपने साथ कितने बक्से ले गए थे. नेताजी का प्लेन साइगॉन से फारमोसा पहुंचा, जिसे अब हम ताइवान के नाम से जानते हैं. यहां प्लेन को रीफ्यूलियिंग के लिए उतारा गया था. फारमोसा में प्लेन टेक ऑफ करते ही क्रैश हो गया. उस समय एयरस्ट्रिप पर मेजर ‘के साकाई’ मौजूद थे. उन्होंने और कप्तान नाकामुरा ने घायलों को अस्पताल पहुंचाया, और जितना सोना बच सकता था, बचा लिया.

साकाई ने इस सोने को एक पेट्रोलियम कैन में जमा किया और उसे सील कर आर्मी हेडक्वार्टर पहुंचा दिया. जहां से इन्हें नेताजी की अस्थियों के साथ टोक्यो भेजा गया. तारीख़ थी, 5 सितम्बर 1945. टोक्यो में इस खजाने को IIL टोक्यो के अध्यक्ष एम. राममूर्ति को सौंप दिया गया. ये खजाना अगले 6 साल तक टोक्यो में ही रहा. 1952 में इसे भारत लाकर राष्ट्रीय संग्रहालय में जमा करा दिया गया. भारत में जो सोना पहुंचा था, उसका भार था, 11 किलो 300 ग्राम. कुंदन सिंह के अनुसार बोस बैंकॉक से जो सोना लेकर चले थे, उसका भार लगभग 70 से 90 किलो के बीच था. इसलिए यहां पर एक बड़ा सवाल ये था कि बाकी खज़ाना कहां गया? 

कहां गया खज़ाना? 

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जापान ने सारे दस्तावेज़ नष्ट कर दिए थे. इसलिए नेताजी अपने साथ कितना सोना लेकर चले थे, इसे लेकर सिर्फ प्रत्यक्षदर्शियों के बयान से अंदाज़ा लगाया जा सकता है. IIL के एक सदस्य पंडित रघुनाथ शर्मा के अनुसार इस खजाने की कीमत तब करीब एक करोड़ के आसपास रही होगी. लेकिन जो भारत पहुंचा वो सोना इससे कहीं कम था. 
1947 में सम्पर्क मिशन के रूप में एक कमिटी टोक्यो गई थी. इस कमिटी के एक सदस्य बेनेगल रामा राउ ने तब विदेश मंत्रालय को एक खत लिखा. जिसमें INA के खजाने के साथ हेराफेरी की बात दर्ज़ थी. खत में M राममूर्ति पर गबन के इल्जाम लगाए गए थे. 

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टोक्यो मिशन द्वारा विदेश मंत्रालय को भेजा गया सीक्रेट खत (तस्वीर: www.dailyo.in)

राउ के अनुसार टोक्यो में जापानी और भारतीय लोगों के बीच तब ये एक बड़ा मुद्दा बना था. और वहां लगातार ये शिकायत की जा रही थी कि युद्ध से बर्बाद हुए जापान में राममूर्ति दो-दो सिडान कैसे चला रहे थे. हालांकि सरकार की तरफ से तब इस मामले में कोई खास रूचि नहीं दिखाई गई. इसके बाद मई 1951 में एक और मिशन जापान पहुंचाा. जिसे लीड कर रहे थे KK चेत्तूर.

चेत्तूर ने इस खजाने से जुड़े एक और शख्स पर उंगली उठाई. जो कथित तौर पर छुट्टी के लिए टोक्यो पहुंचे थे. इनका नाम था SA अय्यर. अय्यर ने चेत्तूर को बताया कि वो भारत सरकार के मिशन पर टोक्यो आए हैं. यहां उन्हें दो चीजें वेरीफाई करनी थी. पहली कि टोक्यो के रेंकोजी मंदिर में रखी अस्थियां नेताजी की हैं या नहीं. दूसरा उन्हें नेताजी के प्लेन से रिकवर किया गया सोना भारत लाना था. तब विदेश मंत्रालय को भेजी अपनी रिपोर्ट में चेत्तूर ने लिखा कि स्थानीय भारतीय अय्यर के लौटने से बहुत गुस्सा हैं. मूर्ति भाइयों से उनका संबंध भी उन्हें शक के दायरे में लाता है. स्थानीय लोगों का कहना था कि राममूर्ति और अय्यर का सोने के गायब होने से कुछ ना कुछ लेना देना है.

ख़ज़ाने की लूट हुई? 

चेत्तूर का मानना था कि अय्यर ने टोक्यो जाकर खजाने की बन्दरबांट की थी. 1953 में विदेश मंत्रालय में अंडर सेक्रेटरी के तौर पर काम कर रहे RD साठे ने भी इस मामले से जुड़ा एक सीक्रेट नोट सरकार के साथ एक साझा किया था. साठे ने भी अय्यर और राममूर्ति की गतिविधियों को शक के दायरे में खड़ा किया. साठे का कहना था कि खजाने का एक बड़ा हिस्सा साइगॉन में ही है. इसी बीच SA अय्यर ने एक और बात बताई. उन्होंने बताया कि खजाने का कुछ हिस्सा उनके पास साइगॉन में है. लेकिन ये सोना कुल 300 ग्राम ही था. जिसे अय्यर ने सरकार के पास जमा करवा दिया.

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नेताजी सुभाष चंद्र बोस और पंडित जवाहरलाल लाला नेहरू (तस्वीर: telegraphindia) 

RD साठे ने एक और चीज नोटिस की. उन्होंने देखा कि राममूर्ति की एक ब्रिटिश इंटेलिजेंस अफसर कर्नल फिगेस के साथ काफी नजदीकी थी, जो INA का कट्टर दुश्मन हुआ करता था. लेकिन युद्ध के बाद वो राममूर्ति को UK में सेटल होने का प्रस्ताव दे रहा था. ये सब सामने आया तो 1953 में पश्चिम बंगाल सरकार ने केंद्र से इस मामले में जांच की मांग की. जिसके जवाब में 18 अक्टूबर 1953 को प्रधनमंत्री नेहरू ने एक खत लिखा. खत में नेहरू ने इंडिया इंडिपेंडेस लीग से जुड़े धन का ब्यौरा दिया लेकिन आगे जांच से इंकार कर दिया.

खत के अनुसार थाईलैंड, सिंगापोर और बर्मा से INA और IIL से जुड़ा जो पैसा रिकवर हुआ, उसे ‘इंडियन रिलीफ फंड’, IRC में जमा करा दिया गया. और उससे स्थानीय भारतीय छात्रों की पढ़ाई का इंतज़ाम किया जा रहा था. सिंगापोर से INA के जो फंड जब्त किए गए थे, उसमें से एक तिहाई हिस्से पर पाकिस्तान ने हक़ जताया और ये उसे दे भी दिया गया. नेताजी के साथ क्रैश हुए खजाने का इस खत में जिक्र नहीं था.

जांच कमीशन को क्या मिला? 

अंत में 1956 में सरकार ने दबाव में आकर एक जांच कमिटी बनाई. लेकिन इस कमिटी से भी खजाने को लेकर बात साफ़ नहीं हुई. वहीं 1971 में जस्टिस GD खोसला को जांच कमीशन का जिम्मा सौंपा गया. जापान में रहने वाले दो भारतीय इस कमिटी के आगे पेश हुए. इन दोनों ने भी दावा किया कि खजाने की लूट खसोट हुई है. टोक्यो के एक पत्रकार KV नारायण ने कमीशन के सामने दावा किया कि 1945 में अय्यर जापान आए और उन्होंने राममूर्ति को सोने से भरे दो सूटकेस दिए. खोसला कमीशन ने माना कि खजाने में गबन किया गया है, लेकिन सबूत न मिलने के कारण मामला अधूरा ही रहा.

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INA का परिक्षण करते हुए नेताजी बोस (तस्वीर: getty)

इस मामले में जिन दो लोगों पर शक गया था. उनके परिवार इन आरोपों से इंकार करते हैं. SA अय्यर के बेटे ब्रिगेडियर A थ्यागराजन ने साल 2015 में इंडिया टुडे से बात करते हुए इन सब आरोपों को झूठा बताया. ब्रिगेडियर थ्यागराजन बताते हैं कि 1980 में जब उनके पिता की मृत्यु हुई, तब उनके पास सिर्फ उनकी पेंशन थी. और वो एक घर तक नहीं ले पाए थे. इसलिए खजाने की बात कहीं से भी सही नहीं हो सकती. वहीं राममूर्ति के परिवार ने भी इन आरोपों से इंकार किया.

माना जाता है कि INA के खजाने में से लगभग 60 किलो सोना गायब हुआ था. वर्तमान में इसकी कीमत लगभग 280 करोड़ के लगभग होती. लेकिन ये खजाना कहां गया, ये बात आज भी एक रहस्य है.

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