त्रावणकोर कैसे बना भारत का हिस्सा?
त्रावणकोर के पास परमाणु खनिज का भंडार था, जिसकी वजह से द्वितीय विश्व युद्ध के बाद उसकी अहमियत काफी बढ़ गई थी.
बात भविष्य से शुरू करते हैं. 21 जुलाई 2023. क्या होने वाला है इस दिन? क्रिस्टोफर नोलन की फिल्म, जिसका दर्शकों को बेसब्री से इन्तजार है, रिलीज़ होने वाली है. फिल्म का नाम है ओपनहाइमर (Oppenheimer). फिल्म की कहानी बेस्ड है रॉबर्ट जे ओपनहाइमर पर. परमाणु शक्ति के जनक, जिन्होंने मेनहट्टन प्रोजेक्ट के तहत दुनिया का पहला न्यूक्लियर परिक्षण किया था. 16 जुलाई 1945 को न्यू मेक्सिको के लॉस एलामोस में पहले परमाणु बम का परिक्षण हुआ. और एक महीने से भी कम के के अंतराल में अमेरिका ने हिरोशिमा और नागासाकी पर बम गिराकर जापान को घुटनों पर ला दिया. इसी परिक्षण से जुड़ा एक मशहूर किस्सा है. ओपेनहाइमर ने जब अपनी आंखो के आगे दुनिया तबाह करने वाली शक्ति का विष्फोट देखा तो उनके मुंह से ये शब्द निकले,
“अब मैं मृत्यु बन गया हूं, संसारों का नाश करने वाला”
ये वही पक्तियां हैं, जो भगवद गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं. हालांकि परमाणु बम, अमेरिका और भगवान श्रीकृष्ण का सिर्फ यही कनेक्शन नहीं है. आज आपको सुनाएंगे एक ऐसा किस्सा जब परमाणु भंडार के लिए अमेरिका ने भारत के एक राज्य पर अपनी नजरें जमा ली थीं. और ये परमाणु भंडार भगवान विष्णु के अधिपत्य में आता था. क्या थी पूरी कहानी चलिए जानते हैं. (Travancore Accession to India)
जब भगवान पद्मनाभस्वामी बने त्रावणकोर के राजाकहानी शुरू होती है 18 वीं सदी के मध्य से. जब 23 साल के मार्तण्ड वर्मा त्रावणकोर राज्य (Travancore kingdom) के शासक बने. उन्होंने सामंतों की ताकत छीन कर अपने राज्य को मजबूत बनाया और इस दौरान डच आक्रमण से भी अपने राज्य को बचाने में सफल रहे. लोगों को एक करने के लिए उन्होंने श्री अनंत पद्मनाभस्वामी मंदिर (Padmanabhaswamy Temple) का जीर्णोद्धार करवाया और अपना राज्य भगवान पद्मनाभस्वामी को सौंप दिया. उन्होंने प्रण लिया कि वो और उनकी पीढ़ियां भगवान पद्मनाभस्वामी के वसाल के रूप में राज्य की देखरेख करेंगे. इसके बाद जितने भी राजा हुए, उनके नाम के आगे पद्मनाभ दास लगाया जाता रहा. इसी प्रकार शाही परिवार की महिलाओं को श्री पद्मनाभ सेविनी कहा गया. इसी कड़ी में साल 1924 में बलराम वर्मा त्रावणकोर के आख़िरी महाराजा बने.
साल 1945 में ये छोटा सा राज्य इंटरनेशनल पॉलिटिक्स के सेंटर में आया. इसका कारण था, यहां मौजूद मोनाजाइट के भंडार. जो नागेरकोइल और कोल्लम के बीचों के नीचे दबे थे. इन भंडारों की खोज एक जर्मन केमिस्ट शोम्बेर्ग ने 1908 में क था. शुरुआत में मोनाजाइट का उपयोग गैस से ऊर्जा पैदा करने के लिए जाता था. और ब्रिटिश हुकूमत पूरे पश्चिमी यूरोप और उत्तरी अमेरिका में मोनाजाइट का निर्यात करते थे. फिर द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हुआ और इस दौरान अमेरिका ने परमाणु हथियार बना लिया.
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ब्रिटिश सरकार को तब मोनाजाइट की अहमियत का अहसास हुआ. मोनाजाइट से थोरियम निकालकर उससे यूरेनियम बनाया जा सकता था. ये अहसास हालांकि सिर्फ अंग्रेज़ी हुकूमत को नहीं हुआ था. त्रावणकोर को भी लगने लगा था कि थोरियम के चलते उनके राज्य का कद एकदम से बढ़ने वाला है. त्रावणकोर के दीवान का नाम था, CP रामास्वामी. नागासाकी पर हुए हमले के चंद दिनों बाद ही उन्होंने महाराजा बलराम वर्मा के नाम एक खत लिखा,
परमाणु भंडार पर अमेरिका की नजर“अगर थोरियम का इस्तेमाल परमाणु बम बनाने के लिए किया जा सकता है, तो जल्द ही त्रावणकोर का कद दुनिया में बहुत ऊंचा हो सकता है”
नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ सिंगापोर के प्रोफ़ेसर इत्ती अब्राहम ने इस पूरे प्रकरण पर एक रिसर्च पेपर लिखा है, रेयर अर्थ: त्रावणकोर इन द ऐनल्ज़ ऑफ द कोल्ड वॉर. प्रोफ़ेसर अब्राहम लिखते हैं कि द्वितीय विश्व युद्ध खत्म होते ही पूरी दुनिया में इन हथियारों की होड़ शुरू हो गयी थी. अमेरिका किसी भी हाल में दुनिया की तमाम न्यूक्लियर सप्लाई पर कब्ज़ा करना चाहता था. इसलिए 1946 में उन्होंने गुप्त तरीके से त्रावणकोर से मोल भाव करना शुरू कर दिया. हालांकि इस समय तक ये भी तय हो गया था कि ब्रिटिश जल्द ही भारत छोड़ने वाले हैं. ऐसे में अगर त्रावणकोर भारत का हिस्सा बन जाता, तो उससे नेगोशिएट करना मुश्किल हो सकता था.
प्रोफ़ेसर अब्राहम के अनुसार अमेरिका का मानना था कि थाईलैंड और बेल्जियम की तरह, छोटा होने के बावजूद त्रावणकोर भी अलग राष्ट्र बन सकता है. और तब उसके मोनाजाइट भंडार पर एकाधिकार करना आसान होगा. अमेरिका के साथ-साथ ब्रिटेन भी इसी फिराक में था. ठीक इसी समय भारत भी परमाणु रिसर्च की शुरुआत कर चुका था. डॉक्टर होमी जहांगीर भाभा शुरुआत में यूरेनियम भंडार का इस्तेमाल करने की सोच रहे थे लेकिन जब पता लगा कि थोरियम इस काम में इस्तेमाल में लाया जाता है, उन्होंने त्रावणकोर के मोनाजाइट भंडार की ओर ध्यान देना शुरू किया.अप्रैल 1946 में काउंसिल ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च (CSIR) ने घोषणा की कि वो त्रावणकोर के मोनाजाइट भंडार का सर्वे कराएगा. इस घोषणा पर त्रावणकोर की तीखी प्रतिक्रिया आई.
डॉक्टर भाभा की कूटनीतिप्रोफ़ेसर अब्राहम लिखते हैं कि त्रावणकोर इस मुद्दे के बहाने भारत से विलय की सूरत में अपने लिए ज्यादा अधिकार हासिल करने को देख रहा था. इसलिए उन्होंने अंतरिम सरकार को आश्वासन देते हुए कहा कि वो मोनाजाइट के निर्यात पर बैन लगा रहे हैं. हालांकि साथ ही उनका कहना था कि उनकी रजामंदी के बिना, सरकार ऐसा कोई कदम नहीं उठा सकती. दीवान CP रामास्वामी ने त्रावणकोर की लेजिस्लेटिव असेम्ब्ली में बयान दिया कि मोनाजाइट का निर्यात रोक दिया गया है. आगे जो निर्णय होगा वो भारत सरकार के सहमति से होगा.
ये बात सरासर झूठ थी. पीठ पीछे त्रावणकोर ने ब्रिटिश सरकार से साथ 3 साल का समझौता कर लिया था. जिसके तहत वो 900 टन मोनाजाइट का निर्यात करने वाले थे.नेहरू अब तक अंतरिम प्रंधानमंत्री बन चुके थे. प्रोफ़ेसर अब्राहम लिखते हैं कि उन्हें जब इस बात की खबर लगी तो वो बहुत नाराज हुए. अप्रैल 1947 में उन्होंने कैबिनेट को प्रस्ताव दिया कि त्रावणकोर पर बमबारी कर उन्हें घुटनों पर लाया जाए.
डॉक्टर भाभा और डॉक्टर शांति स्वरूप भटनागर ने नेहरू को इस मामले में कूटनीति अपनाने की सलाह दी. इसके बाद मई 1947 में डॉक्टर भाभा और डॉक्टर भटनागर जुहू मुंबई हवाई अड्डे से एयर इंडिया की एक फ्लाइट पकड़ते हैं. दोनों त्रावणकोर पहुंच कर इस मुद्दे पर एक समझौता तैयार करते हैं. जून 1947 में 'त्रावणकोर-इंडिया जॉइंट कमिटी ऑन एटॉमिक एनर्जी ’ की स्थापना होती है.
ऐसा लग रहा था कि मामला सुलझ गया है. लेकिन फिर 3 जून को अंग्रेज़ों ने भारत छोड़ने का ऐलान किया और कुछ समय बाद, 11 जुलाई को दीवान CP रामास्वामी अय्यर ने घोषणा कर दी कि त्रावणकोर भारत या पाकिस्तान, किसी में विलय नहीं होगा, बल्कि एक स्वतंत्र राज्य बना रहेगा. त्रावणकोर ने अपनी लेजिस्लेटिव असेम्ब्ली, जिसका नाम श्री मूलम था, उसे भंग कर दिया और त्रावणकोर स्टेट कांग्रेस पर भी बैन लगा दिया.
त्रावणकोर ने पाकिस्तान की तरफ हाथ बढ़ायाअमेरिका इस पूरे घटनाक्रम को गौर से देख रहा था. अमेरिकी स्टेट डिपार्टमेंट की तरफ से उनके मद्रास दूतावास को एक सन्देश भेजकर ‘वेट एंड वॉच पॉलिसी’ अपनाने का निर्देश दिया गया. इधर दिल्ली में घटनाक्रम तेज़ी से बदल रहा था. त्रावणकोर के इस फैसले पर नेहरू ने धमकी दी कि उनका राशन पानी रोककर आर्थिक बैन लगा दिया जाएगा. तब दीवान रामास्वामी ने पकिस्तान, थाईलैंड और बर्मा जैसे देशों की तरफ हाथ बढ़ाया. पाकिस्तान से बात करने के लिए खान बहादुर अब्दुल करीम को त्रावणकोर राज्य के प्रतिनिधि के तौर पर भेजा गया. ऐसे ही ब्रिटेन और अमेरिका में भी दूत भेजे गए. त्रावणकोर को इसका फायदा भी मिला.
थाईलैंड और बर्मा ने त्रावणकोर तक राशन पहुंचाया, वहीं ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन त्रावणकोर से चीजों के आयात को राजी हो गए. भारत में त्रावणकोर के इस कदम से काफी गुस्सा था. नतीजतन बॉम्बे और अहमदाबाद की मिलों ने त्रावणकोर को कपड़ा बेचने से इंकार कर दिया. हालांकि भारत में कुछ ऐसी आवाजें भी थीं जो त्रावणकोर का समर्थन कर रही थीं. प्रोफ़ेसर अब्राहम 19 जून 1947 को हिंदू महासभा के लीडर विनायक दामोदर सावरकर के लिखे एक टेलीग्राम का जिक्र करते हैं. द हिन्दू अखबार में छपे इस टेलीग्राम में सावरकर लिखते हैं कि वो त्रावणकोर के महाराजा के इस कदम का स्वागत करते हैं कि उन्होंने एक हिन्दू राज्य की स्वतंत्रता की घोषणा की है. साथ ही सावरकर इसमें ये भी जोड़ते हैं कि “हैदराबाद के निजाम और बाकी मुस्लिम राज्यों ने भी स्वतंत्रता की घोषणा की है, इसलिए एक हिन्दू राज्य को भी ऐसा करने का पूरा हक़ है. प्रोफ़ेसर अब्राहम ने इसकी पुष्टि के लिए CP रामास्वामी पेपर्स, नेशनल आर्काइव्स ऑफ़ इंडिया का रिफरेन्स भी दिया है.
त्रावणकोर का विलयत्रावणकोर एक छोटा राज्य था. लेकिन उनके पास रिसोर्सेस की कमी नहीं थी. वो भारत की मदद के बिना भी राज चला सकते थे. खुद पद्मनाभ स्वामी मंदिर के तहखानों में हजारों करोड़ों का सोना रखा था. उनके पास अपना पोर्ट था. लेकिन इसके बावजूद उनके सामने एक बड़ी दिक्कत थी. लोग इस बात के लिए हरगिज़ राजी नहीं थे, कि त्रावणकोर अलग रहे.
त्रावणकोर में तब जाति व्यवस्था अपने सबसे क्रूर चेहरे के साथ व्याप्त थी. उदाहरण के लिए, इस त्रावणकोर रियासत में एक रिवाज़ था जिसमें अपने से कथित 'ऊंची जाति' के लोगों को सम्मान देने के लिए शरीर का ऊपरी हिस्सा खुला रखना पड़ता था. स्त्री और पुरुष दोनो ही इस नियम का पालन करते थे. ये फूहड़ नियम सब जाति की स्त्रियों पर लागू होता था, लेकिन वर्ण व्यवस्था के पायदान पर सबसे नीचे होने के चलते दलित महिलाएं सबसे ज्यादा इसका शिकार होती थीं.
पुरोहित एक लंबी लाठी के सिरे पर चाकू बांध कर रखते थे. अगर कोई स्त्री पूरे कपड़े पहने होती तो पुरोहित उसके कपड़े फाड़ देते. पिछड़ी जाति की महिला के ऐसा करने पर अक्सर उनके कपड़े फाड़कर पेड़ से लटका दिया जाता था. ताकि और महिलाएं दोबारा वैसा करने की हिम्मत न करें. जाति व्यवस्था से जुड़े ऐसी तमाम प्रथाओं को राजपरिवार का प्रशय हासिल था.आम लोगों खासकर पिछड़ों को उम्मीद थी कि भारत में विलय के साथ ऐसी प्रथाओं का अंत होगा. वहीं राष्ट्रीय चेतना वाले लोग भी त्रावणकोर को भारत का हिस्सा देखना चाहते थे. त्रावणकोर कांग्रेस ने तब इस फैसले के खिलाफ राज्य में आंदोलन शुरू किया. हंगामा इतना बढ़ा कि एक रोज़ जब दीवान रामास्वामी अय्यर एक संगीत कार्यक्रम में हिस्सा ले रहे थे, उनके ऊपर किसी ने चाकू से हमला कर दिया.
दीवान की जान बच गई, लेकिन महाराजा बलराम वर्मा को समझ आ गया कि जनता के विद्रोह के सामने उनकी एक न चलेगी. अगले ही दिन उन्होंने भारत सरकार से बात की. और 30 जुलाई 1947 को त्रावणकोर ने भारत में विलय की आधिकारिक घोषणा कर दी. आजादी के बाद त्रावणकोर को कोचीन के साथ जोड़ा गया. 1949 से 1956 तक महाराजा बलराम वर्मा कोचीन-त्रावणकोर के राजप्रमुख रहे. और 1956 में केरल राज्य बनने के साथ ही राज्यप्रमुख का पद भी समाप्त कर दिया गया.
विडम्बना देखिए कि जिस थोरियम भंडार के लिए ये सारा पचड़ा शुरू हुआ था, 1950 में भारत सरकार उसे अमेरिका को निर्यात करने के लिए राजी हो गयी. कुछ ही सालों में ब्राज़ील और अफ्रीका में थोरियम में विशाल भंडार मिलने लगे, इसलिए त्रावणकोर की अहमियत धीरे-धीरे कम हो गई.
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