तिब्बत से भागकर दलाई लामा कैसे पहुंचे भारत?
1959 में जब चीन ने तिब्बत पर आक्रमण किया तो दलाई लामा को भारत में शरण लेनी पड़ी थी
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“तुम्हारा चेहरा देखकर मुझे अहसास हुआ है कि मैं भी बूढ़ा हो चूका हूं”
दलाई लामा के मुंह से ये शब्द निकले. जब साल 2017 में वो उत्तरपूर्व भारत के दौरे पर थे. यहां उनकी मुलाक़ात हुई नरेन चंद्र से. और 79 साल के नरेन का चेहरा देखते ही दलाई लामा को 1959 का मार्च महीना याद आ गया. जब वो चीन के सैनिकों से बचते बचाते भारत में एंटर हुए थे. और तवांग में उन्हें रिसीव किया था भारतीय सैनिकों ने. नरेन भी इन्ही सैनिकों में से एक थे. सीआईए और दलाई लामा 1959 का बसंत. शनिवार आधी रात जॉन ग्रीनी के घर एक घंटी बजी. ग्रीनी अमेरिका के मेरीलैंड राज्य में रहते थे. और यहीं एक सब-अर्बन इलाके में उनका घर था. ग्रीनी ने अपनी बीवी से माफी मांगते हुए नाईट स्टैंड की तरफ हाथ बढ़ाया. फ़ोन के दूसरी तरफ से एक आवाज आई, ‘ऑप इम’ आ गया है. ग्रीनी उठकर अपने बेड के सहारे बैठ गए. कुछ सोच विचार करने के बाद बिस्तर से उठे और दफ्तर की ओर निकल गए.
तेन्ज़िन ग्यात्सो, दलाई लामा का बचपन (तस्वीर: Tibet Museum)
मेरीलैंड के छोटे से कस्बे में रहने वाले ग्रीनी अपने पड़ोसियों के लिए सिर्फ एक सरकारी मुलाजिम थे. लेकिन उन्हें पता नहीं था कि ग्रीनी दरअसल सीआईए में काम किया करते थे. ग्रीनी सीआईए की एक यूनिट, तिब्बत टास्क फ़ोर्स का हिस्सा थे. तब अमेरिकी जनता और आम लोगों को तिब्बत का कुछ पता नहीं था. ग्रीनी के काम को भी कोई ख़ास तवज्जो नहीं मिलती थी. सीआईए में मिशन ‘बे ऑफ़ पिग्स’ की तैयारी चल रही थी. और क्यूबा अमेरिका के लिए तिब्बत से कहीं ज्यादा मायने रखता था.
1959 की उस शनिवार रात ग्रीनी के लिए सब कुछ बदल गया. अगले कुछ हफ्ते में पूरा अमेरिका, पूरी दुनिया तिब्बत से वाकिफ होने वाली थी. ऑप इम शार्ट फॉर्म था, ऑपरेशन इमीडियेट का. सीआईए में तब ये अर्जेंट ऑपरेशन की सेकंड हाईएस्ट केटेगरी हुआ करती थी. ग्रीनी के पास ये सन्देश आया था तिब्बत से. जहां सीआईए ट्रेंड गुरिल्ला लड़ाके दक्षिणी तिब्बत में चीनी फोर्सेस से संघर्ष में जुटे थे. ग्रीनी ने तुरंत एक केबल तैयार कर भारत भिजवाया. भारत में ये केबल पहुंचा प्रधानमंत्री नेहरू के पास. इस केबल में परमिशन मांगी गई थी. किस चीज की? दलाई लामा के भारत की सीमा में दाखिल होने की. चीन और दलाई लामा 1949 में पहली बार चीन ने तिब्बत पर आक्रमण किया था. 1951 में दोनों के बीच एक समझौता हुआ. जिसके तहत तिब्बत में दलाई लामा की सरकार तो कायम रही. लेकिन चीनी आधिपत्य तले. धीरे-धीरे चीन ने और दखल देना शुरू किया. कहने को दलाई लामा के दो महल थे. एक सर्दियों का और एक गर्मियों का. लेकिन कहीं भी आजादी नहीं थी. सब कुछ चीन के आदेश पर होता था. इसीलिए तिब्बत में भी विद्रोह भड़क रहा था. और उसे दबाने के लिए चीनी सैनिक हर समय तिब्बत में मौजूद रहते थे.
ल्हासा से तवांग तक की यात्रा में दलाई लामा (तस्वीर: Tibet Museum)
कैलेंडर में 10 मार्च 1959 की तारीख थी. जब चीन के जनरल झांग चेनवु ने दलाई लाम को एक निमंत्रण भेजा. इतने तनाव के बीच किस चीज का निमंत्रण था ये? दरअसल निमंत्रण की आड़ में एक साजिश थी. जनरल झांग चेनवु ने एक नृत्य प्रदर्शन का आयोजन किया था. लेकिन निमंत्रण के साथ एक शर्त भी रखी थी. इस शर्त के अनुसार दलाई लामा को बिना अपने बॉडी गार्ड्स के निमंत्रण में जाना था.
दलाई लामा के सलाहकारों ने उन्हें निमंत्रण में जाने से तो रोका ही. साथ ही जिस दिन कार्यक्रम का आयोजन हुआ, उस दिन हज़ारों तिब्बतियों ने दलाई लामा के महल को चारों तरफ से घेर लिया. उन्हें डर था कि कहीं चीनी दलाई लामा को अगवा न कर लें. इसके बाद दलाई लामा के सहयोगियों ने उन्हें सलाह दी कि उन्हें तिब्बत से निकल जाना चाहिए. सवाल था कि चीनी सिपाहियों की आखों में धूल झोंककर निकले कैसे? और निकले तो फिर जाए कहां? कहीं अगर जाना संभव था तो वो था भारत. और वहां तक पहुंचने के लिए भी हफ़्तों का सफर करना पड़ता था. ल्हासा से निकलने की तैयारी 17 मार्च की रात दलाई लामा के समर पैलेस में मंत्रणा चल रही थी. उनके मुख्य मठाधीश फला और बॉडीगार्ड दल के कमांडर कुसिंग डिपों साथ में थे. जब सारा प्लान तय हो गया तो फला ने अपनी घड़ी की तरफ देखा. और सब लोगों ने घड़ी मिलाने को कहा. दलाई लामा के मुख्य रसोइये और उनकी टीम सबसे पहले रवाना हुए. फिर फला ने ल्हासा में भारतीय उच्चायुक्त को एक पत्र लिखा. ये पत्र कभी पहुंचा ही नहीं. एक और पत्र भेजा खम्पा विद्रोहियों को. जो दक्षिण तिब्बत में मौजूद थे.
17 मार्च, 1959 की रात को चीनी सैनिक के भेष में दलाई लामा ने महल छोड़ दिया और दक्षिण की तरफ़ निकल आए (Tibet Museum)
उनसे कहा गया कि एक ख़ास मेहमान के आने का इंतज़ार करें. दलाई लामा ने एक सिपाही का भेष धरा और ल्हासा से बाहर निकल गए. उनके साथ उनकी मां, छोटे भाई बहन और कुल 20 अधिकारी और थे. इसी के साथ शुरू हुई दलाई लामा कि तिब्बत से बाहर निकलने की यात्रा.
हिमालयी रास्तों को पैदल पर करते हुए हर समय खतरा बना रहता था. चीनी सिपाही लगातार पीछा कर रहे थे. इसलिए दलाई लामा तब केवल रात में ट्रेवल किया करते, वो भी बिना टॉर्च या मशाल जलाए. दिन में तिब्बती गांवों में छुप जाते. अगले दो दिन तक पूरी दुनिया में किसी को खबर नहीं थी कि दलाई लामा हैं कहां. कई लोग मान चुके थे कि उनकी मृत्यु हो गयी है.
19 मार्च तक चीनी सेना का ल्हासा पर कब्ज़ा हो चुका था. चीनी सेना और स्थानीय लोगों की बीच संघर्ष में करीब 2000 लोगों की जानें चली गईं. इसी दौरान दलाई लामा के महल पर करीब 800 गोले दाग कर उसे नेस्तोनाबूत कर दिया गया. इसके बाद तिब्बत की सरकार को भंग कर उसे पूरी तरह PRC यानी पीपल रिपब्लिक ऑफ चाइना में मिला दिया गया. दलाई लामा भारत पहुंचे दलाई लामा अभी भी चीन के लिए सरदर्द साबित हो सकते थे. इसलिए चीनी सैनिक दिन रात उनकी खोज में लगे रहे. 26 मार्च को दलाई लामा और उनका ग्रुप ल्हुंत्से ज़ोंग पहुंचा . यहाँ से मैकमहोन लाइन सिर्फ चंद दिनों की दूरी पर थी. रात में इस इलाके को पार कर वो आगे बढ़े और झोरा गांव होते हुए कार्पो दर्रे तक पहुंच गए. कार्पो के सबसे ऊंचे बिंदु पर पहुंचते ही उन्होंने देखा, एक प्लेन उनके ऊपर से गुजरा.
प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और दलाई लामा (तस्वीर: Getty)
दलाई लामा समझ गए कि चीनियों को उनकी खबर लग गयी है. अब किसी भी वक्त इन लोगों पर हवाई हमला हो सकता था. दलाई लामा को लगा जल्द से जल्द भारत पहुंचना ही होगा. तवांग, अरुणांचल प्रदेश के पास आसाम राइफल की एक आउटपोस्ट हुआ करती थी. सरकार ने यहां अधिकारियों को भेजकर निर्देश दिया कि दलाई लामा को सम्मानजनक रूप से भारत में एंटर होने दिया जाए. आज ही के दिन यानी 31 मार्च 1959 को दलाई लामा भारत में दाखिल हुए. यहां भारतीय अधिकारीयों ने उन्हें प्रधानमंत्री नेहरू का टेलीग्राम दिया.
आसाम राइफल की आउटपोस्ट से दलाई लामा को तवांग भेजा गया. ताकि वो आराम कर सकें. अपनी आत्मकथा में दलाई लामा लिखते है कि यहां उनका अच्छा आदर सत्कार हुआ. और बहुत दिनों बाद उन्हें ऐसा लगा कि वो आजादी की हवा में सांस ले रे रहे हैं.
कुछ हफ्ते तवांग में रहने के बाद दलाई लामा पाने परिवार सहित मसूरी पहुंचे. यहां उनकी मुलाक़ात प्रधानमंत्री नेहरू से हुई. दलाई लामा ने नेहरू से 8000 तिब्बती शरणार्थियों को भारत की मंजूरी मांगी. नेहरू तैयार हो गए. इसके बाद तिब्बत से हजारों लोग भारत आए और यहां अलग-अलग इलाकों में बस गए. आगे जाकर दलाई लामा ने धर्मशाला में निर्वासित तिब्बती सरकार का गठन किया. और फिर कभी लौटकर तिब्बत नहीं गए. तिब्बत में आज भी उनकी तस्वीर रखना अपराध है.