पाकिस्तान जाते हुए वो भारत को ‘हीरो’ दे गया!
1944 में पाकिस्तान से भारत आए मुंजाल बंधुओं ने हीरो साइकिल्स की शुरुआत की.
1816 की गर्मियां. यूरोप में यूं तो गर्मियां खुशनुमा अहसास देती हैं लेकिन वो साल आपदा लाया था. इंडोनेशिया में उस साल माउंट तम्बोरा नाम का एक ज्वालामुखी फटा और यूरोप तक आसमान धुंए और राख से भर गया. भैंस, बकरी, मुर्गी जब इनमें से कुछ ना बचा तो लोगों ने अपने घोड़ों को मारकर खाना शुरू कर दिया. बड़ी दिक्कत ये थी कि ट्रेवल करने का एकमात्र जरिया घोड़े ही थे. इस आपदा में अवसर ढूंढने वाला एक आदमी था, कार्ल ड्राइस.
1817 में कार्ल ड्राइस ने उस मशीन का आविष्कार किया, जिसे हम आज बाइसाइकिल के नाम से जानते हैं. तब इसे नाम दिया गया डैन्डी हॉर्स या अलबेला घोड़ा. इस पहली बाइसाइकिल में पैडल नहीं थे. पैरों को जमीन पर रगड़ कर दौड़ना होता था. और तब साइकिल चलती थी.
1864 में पहली बार साइकिल में पैडल लगाए गए. और सिर्फ 2 साल बाद यानी 1870 में गियर वाली साइकिल मार्किट में आ गयी. और धीरे-धीरे आम आदमी के लिए चलने का सबसे आसान जरिया बन गयी. साइकिल से जुड़ा एक ट्रिविया ये भी है कि आइंस्टीन को जब पहली बार जनरल थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी का आईडिया आया था, तब वो साइकिल चला रहे थे.
बहरहाल आज हम साइकिल की बात इसलिए कर रहे हैं क्योंकि आज की तारीख का सम्बन्ध है उस इंसान से, जिसने भारत में साइकिल क्रांति की शुरुआत की. नाम था ओम प्रकाश मुंजाल. 1928 में आज ही दिन यानी 26 अगस्त को ओम प्रकाश मुंजाल का जन्म हुआ था. और यही वो इंसान हैं जिन्होंने भारत में साइकल का दूसरा नाम दिया- हीरो साइकिल्स. आज जानेंगे कैसे लुधियाना के एक छोटे से कस्बे से निकली हीरो साइकिल भारत की सबसे बड़ी साइकिल कंपनी बन गई?
टोबाटेक सिंह से अमृतसरकहानी शुरू होती है 1954 से. भारत आजाद था लेकिन आजादी अभी साकार होना बाकी थी. सुई से लेकर सब्बल तक, हर चीज के लिए हम आयात पर निर्भर थे. और इन सब के बीच में आती थी साइकिल नाम की एक चीज. जिसे आम आदमी की कार कहा जाता था. लेकिन कार ही की तरह साइकिल भी आम आदमी की पहुंच में नहीं थी. क्योंकि साइकिल बनाने वाली सारी कम्पनियां विदेशी थी. और आयत करने के बाद आम आदमी की हैसियत से बाहर दौड़ जाती थी. भारत में भी चंद साइकिल्स का निर्माण हो रहा था लेकिन ये विदेशी साइकिल के मुक़ाबले कहीं नहीं ठहरती थी.
पाकिस्तान में एक जिला है टोबाटेक सिंह. मंटो की कहानी, टोबाटेक सिंह पढ़ी हो तो आप इस नाम से परिचित होंगे. टोबाटेक सिंह के कमालिया नाम के गांव में बहादुर चंद मुंजाल का परिवार रहता था. शुरुआत में ये लोग ऊन का कारोबार करते थे. फिर बाद में बहादुर चंद मुंजाल ने कमालिया में एक होलसेल की दुकान खोल ली. साल 1944 में पार्टीशन के आसार देखते हुए ये लोग भारत आ गए और अमृतसर में रहने लगे.
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आजादी के बाद मुंजाल भाइयों ने एक सपना देखा. सपना भारत की अपनी साइकिल का. लेकिन ये ऐसा सपना था, जिसके लिए न सिर्फ जागना था बल्कि असलियत से रूबरू होना भी जरूरी था. साइकिल के पुर्जे विदेश से आयात होते थे. और उनकी सप्लाई भी काले अंग्रेज़ कंट्रोल करते थे. हर चीज का कोटा बंधा होता था. ओम प्रकाश मुंजाल को तब टायर बनाने वाली डनलप कंपनी के ऑफिस में घुसने के लिए ही दो दिन का इंतज़ार करना पड़ा था, वो भी सिर्फ मैनेजर से मिलने के लिए.
हीरो साइकिल की शुरुआतमुंजाल भाइयों ने तय किया की खुद ही साइकिल के पार्ट्स बनाएंगे. पैसे की दिक्क्त तो थी ही, साथ में साइकिल बनाने की टेक्नोलॉजी भी उपलब्ध नहीं थी. कारीगर तैयार हो जाते, लेकिन उनके लिए खास औज़ार और डाई बनानी थी. इत्तु से बजट में हर काम शुरू से होना था. बहरहाल किसी तरह इरादा पक्का कर दो भाई दयानन्द और ओम प्रकाश ने लुधियाना जाने की तैयारी की. तभी पता चला कि उनका एक सप्लायर, करीम दीन पाकिस्तान जा रहा है. करीम दीन साइकिल की गद्दियां बनता था. और इसके लिए उसने अपना ब्रांड नाम भी रखा था. जाने से पहले वो ओम प्रकाश मुंजाल से मिला. ओम प्रकाश ने पूछा, तुम जा रहे हो, अगर बुरा न मानो तो अपने ब्रांड का नाम हमें दे दो. करीम दीन तैयार हो गया. इस ब्रांड का नाम था हीरो. और इस तरह शुरुआत हुई हीरो साइकिल की.
साइकिल बनाने के लिए कोई मैन्युफैक्चरिंग मैन्युअल नहीं था. इसलिए मुंजाल भाइयों ने तय किया कि स्क्रैच से शुरुआत करेंगे. ओम प्रकाश मुंजाल और उनके भाई बृजमोहन घंटों बरामदे में बैठकर साइकिल पार्ट्स के डिज़ाइन बनाते. और वहीं तय करते कि इसे बनाना कैसे है. इस तरह अलग-अलग पार्ट्स बनाने की प्रोसेस तैयार हुई. सबसे पहले शुरुआत हुई साइकिल की पहियों की तीलियों से. इसके लिए दुकान के अहाते में एक छोटा सी भट्टी लगाई गई. और दो लोगों की देखरेख में तीलियां बनाने के काम शुरू हुआ. शुरुआत में काफी हिट और मिस के बाद पांचवीं कोशिश में ठीक-ठाक तीलियां बन पाई.
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तीलियों का आर्डर भी मिला लेकिन पहला आर्डर पूरी तरह फेल रहा. साइकिल के पहियों की तीलियां जोर लगाने पर टूट गई और डीलर्स ने आर्डर वापस कर दिए. चारों भाइयों ने पैसा जोड़कर डीलर्स को उनका सारा पैसा वापस किया. इस तरह उनकी साख तो बच गयी लेकिन जेब ठन-ठन गोपाल हो गई. चारों भाई दुबारा काम पर लगे, नया डिज़ाइन, नई वेल्डिंग प्रोसेस के बाद एक और बार तीलियां बनाई गई. चूंकि आर्डर देने वालों को पिछले आर्डर पर कोई नुकसान नहीं हुआ था. इसलिए उन्होंने एक और बार चांस लिया और दुबारा तीलियों का आर्डर दिया. इस बार बात बन गयी और पहियों में कोई शिकायत नहीं आई. अगला चरण बाइसिकल हैंडल का था. साइकिल के हैंडल तब सिर्फ एक जगह से सप्लाई होते थे. मार्किट में मोनोपोली थी. और इसी की फायदा उठाकर सप्लायर मोटे पैसे छाप रहा था. मुंजाल भाइयों ने तय किया कि हैंडल भी खुद ही बनाएंगे.
पंजाब का रामगढ़िया समुदाय मिस्त्री, लोहार और काश्तकारी के काम के लिए जाना जाता था. मुंजाल भाई उनके पास गए और उन्होंने हैंडल का डिज़ाइन दिखाया. इस तरह साइकिल के हैंडल बनने शुरू हुए. दयानन्द और सत्यानंद मुंजाल, इन दो भाइयों ने बहादुरगढ़ में एक कारखाना डाला और वहां मडगार्ड बनने शुरू हुए.
साइकिल जिसमें दूध भी जाए और सब्जी भीअब आख़िरी सवाल था साइकिल के फ्रेम का. अब तक भारत में जो साइकिल प्रचलित थी, वो दो लोगों को बिठाने के हिसाब से बनाई जाती थी. लेकिन मुंजाल भाइयों के दिमाग में कुछ और चल रहा था. वो चाहते थे कि साइकिल भारतीय परिस्थितियों के हिसाब से बनाई जाए. इसका मतलब था साइकिल में कम से कम इतनी मजबूती हो कि तीन लोग बैठे तो भी उसका काम न बिगड़े. इसके अलावा साइकिल को भार ढोने के लिए यूज़ किया जाता था.
जरूरी था कि साइकिल में दूध वाला अपना कैनिस्टर ले जा सके, और सब्जी वाला अपनी टोकरी. साथ ही ये भी जरूरी था कि साईकिल आम आदमी की सामर्थ्य के अंदर हो. इसके लिए उन्होंने खूबसूरती से ज्यादा टिकाऊ होने पर ध्यान दिया. कई कोशिशों के बाद हीरो साइकिल अपनी पहली 100% इंडियन मेड साइकिल बनाने में समर्थ हुई. शुरुआत में ये लोग 600 साइकिल हर महीने बना रहे थे. फिर 1956 में हीरो साइकिल्स ने सरकार से लाइसेंस लिया, साथ ही बैंक से 50 हजार का लोन लेकर एक बड़ी फैक्ट्री डाली.
गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्डइस छोटी की शुरुआत का नतीजा हुआ कि 1975 आते-आते हीरो साइकिल इंडिया में साइकिल की सबसे बड़ी कंपनी बन गई. 1975 में कंपनी 7500 साइकिल पर डे बना रही थी. 1986 तक ये संख्या दोगुनी से भी ज्यादा हो गई और उसी साल 18500 साइकिल एक दिन में बनाकर हीरो साइकिल ने गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड में अपना नाम दर्ज़ करवाया.
इसका एक बड़ा कारण था कंपनी का वर्क एथिक. बृजमोहन मुंजाल के बेटे सुनील कांत मुंजाल ने हीरो साइकिल्स पर एक किताब लिखी है, द मेकिंग ऑफ हीरो. सुनील कांत मुंजाल कंपनी से जुड़ा एक किस्सा बताते हैं कि एक बार जब लुधियाना में आम हड़ताल की घोषणा हुई तो कंपनी के मजदूर भी हड़ताल पर चले गए. ओम प्रकाश मुंजाल वहीं थे. वो अपने कैबिन से निकले और फैक्ट्री की तरफ जाने लगे. किसी ने पूछा आप कहां जा रहे हैं तो उन्होंने जवाब दिया. ‘आप चाहें तो घर जा सकते हैं. पर मैं काम करूंगा. मेरे पास ऑर्डर हैं.’ ये कहते हुए उन्होंने मशीनें चालू कर दी.
1984 में हीरो साइकिल्स के इतिहास में अहम पड़ाव आया जब कंपनी ने जापान की दिग्गज दोपहिया वाहन निर्माता कंपनी होंडा के साथ हाथ मिलाते हुए हीरो होंडा मोटर्स की शुरुआत की. इस कंपनी ने 13 अप्रैल 1985 में पहली बाइक CD 100 को लॉन्च किया. करीब 27 सालों तक एक साथ काम करने के बाद 2011 में ये दोनों कंपनियां अलग हो गईं और फिर हीरो ने हीरो मोटर्स नाम से अलग कंपनी बना ली. हीरो साइकिल्स अब हीरो मोटर्स के अंदर आती है.
भारत की सबसे बड़ी साइकिल कंपनीकंपनी का हेडक्वार्टर लुधियाना में है. इसकी मैन्युफैक्चरिंग यूनिट्स बिहार, उत्तरप्रदेश और पड़ोसी देश श्रीलंका में हैं. कंपनी ने इंग्लैंड के मैनचेस्टर में 18 करोड़ की लागत से एक ग्लोबल डिज़ाइन सेंटर बनाया है, जहां कंपनी के लेटेस्ट डिज़ाइन तैयार होते हैं. साल 2015 में हीरो ने अपना पहला विदेशी निवेश करते हुए UK की साइकिल कंपनी एवोकेट स्पोर्ट्स को ख़रीदा. और 2016 में श्री लंका की BSH वेंचर्स में हिस्सेदारी खरीद ली. इस तरह कंपनी को BSH वेंचर्स का एक बड़ा मैन्युफैक्चरिंग प्लांट मिल गया. जहां हर साल 10 लाख साइकिल बनकर विदेशों में निर्यात होती हैं.
वर्तमान में हीरो भारत में हर साल 50 लाख साइकिल बनाती है. जो भारत में बिकने वाली कुल साइकिल्स का 40 % है. इसके अलावा कंपनी दुनिया के 70 देशों में साइकिल एक्सपोर्ट करती है. जिनमें जर्मनी पोलेंड और अफ्रीका के देश शामिल हैं. जहां तक मुंजाल भाइयों की बात है तो ओम प्रकाश मुंजाल का साल 2015 में निधन हो गया था. जिसके बाद हीरो साइकिल्स की जिम्मेदारी उनके बेटे पंकज मुंजाल ने संभाल ली. उसी साल नवम्बर में उनके बड़े भाई बृजमोहन मुंजाल का भी निधन हो गया था. और उनके बेटे पवन मुंजाल वर्तमान में हीरो मोटोकॉर्प के सीईओ हैं.
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