नेहरू का दोस्त जिस पर भारत से बगावत का इल्जाम लगा!
जवाहर लाल नेहरू ने अपने दोस्त शेख अब्दुल्ला को किस धोखे के बाद जेल में डलवा दिया था?
1925 के आसपास की बात है. कश्मीर के राजा हरि सिंह थे. सूबे की बहुसंख्यक आबादी मुस्लिम थी, लेकिन राजा हिंदू था. पुलिस और सरकारी पदों पर अधिकांश हिंदू ही थे. इस दौरान कश्मीर का रहने वाला एक नौजवान अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से पोस्ट ग्रेजुएट करके अपने घर वापस पहुंचा. उस समय विज्ञान में ग्रेजुएट हुआ था, काफी काबिलियत थी, लेकिन इसके बावजूद कश्मीर में उसे सरकारी नौकरी नहीं मिली. काफी हाथ पैर मारने के बाद भी जब नौकरी नहीं मिली तो एक स्कूल में मास्टरी करने लगा.
इसके बाद इस लड़के ने राजा की नीतियों पर सवाल उठाना शुरू कर दिया. उसका लोगों से कहना था,
'हम मुसलमान इस सूबे के बहुसंख्यक हैं. सबसे ज्यादा राजस्व में हमारा योगदान है. लेकिन फिर भी हमारा शोषण हो रहा. हमें सरकारी नौकरियों में नहीं लिया जाता. मुसलमानों के साथ ये भेदभाव धार्मिक पूर्वाग्रहों की वजह से हो रहा है.'
इस लड़के का व्यक्तित्व बड़ा ही आकर्षक था. 6 फीट और 4 इंच लम्बा ये युवा एक शानदार वक्ता था, शब्दों कलाकारी उसे बखूबी आती थी. जहां भी बोलने को खड़ा हो जाता, सुनने वालों की भीड़ लग जाती. देखते ही देखते वो घाटी के लोगों का चहेता बन गया और राजा हरि सिंह का सबसे बड़ा विरोधी. इस लड़के का नाम था शेख अब्दुल्ला.
शेख अब्दुल्ला घाटी में इतनी तेजी से फेमस हुए कि 1931 में महज 26 साल की उम्र में उन्हें उस प्रतिनिधि मंडल के लिए चुन लिया गया जो राजा के सामने मुसलमानों की समस्याएं उठाने जा रहा था. ये लोग राजा से मिल पाते उससे पहले ही एक आंदोलनकारी अब्दुल कादिर को गिरफ्तार कर लिया गया. इसके खिलाफ प्रदर्शन शुरू हुए, पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच झड़प में 21 कश्मीरी मारे गए. इस घटना के बाद घाटी में दंगे शुरू हुए, हिंदुओं की दुकानों को लूटा गया, जलाया गया. कई नेताओं की गिरफ्तारियां हुईं, अब्दुल्ला को भी कुछ हफ्तों के लिए जेल में डाल दिया गया.
पार्टी से मुस्लिम शब्द हटा दियाराजा के खिलाफ बढ़ रहे असंतोष को आवाज देने के लिए 1932 में शेख अब्दुल्ला ने 'ऑल जम्मू एंड कश्मीर मुस्लिम कांफ्रेंस' का गठन किया. हालांकि, 6 साल बाद ही अब्दुल्ला ने पार्टी के नाम से 'मुस्लिम' शब्द हटा दिया और उसका नाम 'ऑल जम्मू एंड कश्मीर नेशनल कांफ्रेंस' कर दिया. पार्टी के कुछ नेताओं ने अलग होने की धमकी भी दी, लेकिन अब्दुल पीछे नहीं हटे. नाम बदलने की प्रक्रिया के दौरान कई बड़े नेता पार्टी से अलग हो गए. हालांकि, इसके बाद हिंदू और सिख उनकी पार्टी से जुड़े.
इसी दौरान शेख अब्दुल्ला जवाहर लाल नेहरू के करीब आए. बहुत जल्द दोनों एक-दूसरे के विचारों के कायल हो गए. दोनों ही हिंदू-मुस्लिम एकता और समाजवाद सहित कई मुद्दों पर एकमत थे. अब्दुल्ला शुरू से ही कांग्रेस की धर्मनिरपेक्ष राजनीति से प्रभावित थे. वहीं, नेहरू उनकी राष्ट्रीय सोच की तारीफ करते थे. धीरे-धीरे दोनों करीबी दोस्त हो गए.
साल 1946 में शेख अब्दुल्ला ने जम्मू- कश्मीर में डोगरा राजवंश यानी राजा हरि सिंह के खिलाफ ‘कश्मीर छोड़ो’ आंदोलन चलाया. उन्होंने राजा से जनता को सत्ता सौंपने की मांग की. आंदोलन में हुई हिंसा में करीब 20 लोग मारे गए. महाराजा ने अब्दुल्ला को 'राजद्रोह' के जुर्म में 3 साल की सजा सुनाई और जेल में डाल दिया.
अपने दोस्त को जेल में डाले जाने की खबर से नेहरू बहुत नाराज हुए, और अब्दुल्ला की पैरवी के लिए कश्मीर जा पहुंचे. लेकिन नेहरू की बात सुनना तो दूर राजा हरि सिंह ने उनके कश्मीर में घुसने पर भी पाबंदी लगा दी.
राजा हरि सिंह कश्मीर को अलग मुल्क बनाना चाहते थेकरीब साल भर बाद ही भारत की आजादी की तारीख 15 अगस्त 1947 तय हो गई. ब्रिटिश सरकार ने सभी रियासतों को भारत या पाकिस्तान में विलय करने के लिए कह दिया. लेकिन, 15 अगस्त की तारीख निकलने के बाद भी कश्मीर रियासत के राजा हरि सिंह ने कोई फैसला नहीं लिया. वे एक अलग ही ख्वाब देख रहे थे - एक अलग मुल्क का. एक अलग कश्मीर देश, जिसे वे स्विटजरलैंड की तरह विकसित करना चाहते थे. उधर, भारत और पाकिस्तान दोनों जम्मू-कश्मीर का खुद में विलय करवाने की कोशिश में थे.
सितंबर 1947 को भारत सरकार को कश्मीर को लेकर कुछ खुफिया सूचनाएं मिलीं. इनके आधार पर 27 सितंबर 1947 को नेहरू ने सरदार वल्लभ भाई पटेल को एक पत्र लिखा.
इसमें उन्होंने लिखा,
खबर है कि पाकिस्तान बड़ी संख्या में कश्मीर में घुसपैठिये भेजना चाहता है. महाराजा और उनका प्रशासन शायद ही इस खतरे को झेल पाएं. ऐसे में वक्त की जरूरत ये है कि महाराजा हरि सिंह नेशनल कांफ्रेंस के साथ दोस्ती करें, ताकि पाकिस्तान के खिलाफ लोकप्रिय जनसमर्थन जुटाया जा सके...अब्दुल्ला को रिहा करने और उनके लोगों का समर्थन हासिल करने से कश्मीर का भारत में विलय भी आसान हो जाएगा.
भारत सरकार की कोशिश के बाद 29 सितंबर 1947 को शेख अब्दुल्ला को जेल से रिहा कर दिया गया. अब्दुल्ला ने जेल निकलते ही फिर राजा के सत्ता छोड़ने की मांग तेज कर दी. उन्होंने कहा कि हरि सिंह सत्ता जनता को सौंपें, जिसके बाद जनता के चुने नुमाइंदे ये तय करेंगे कि कश्मीर को भारत या पाकिस्तान में से किसके साथ जाना है.
उधर, भारत राजा हरि सिंह को बार-बार पाकिस्तान की घुसपैठ को लेकर आगाह कर रहा था. लेकिन महाराजा अभी भी उसकी बात को नजर अंदाज कर, एक आजाद कश्मीर का ख्वाब देख रहे थे.
अचानक सैकड़ों हमलावर कश्मीर में घुस पड़ेकुछ रोज बाद ही भारत की चेतावनी सही साबित हुई. 22 अक्टूबर 1947 को जम्मू-कश्मीर के उत्तरी हिस्से से हजारों हथियार बंद लोग राज्य में घुसे. कश्मीर के बीच बनी सरहद को पार करते हुए ये तेजी से कश्मीर के भीतरी इलाकों में घुसने लगे. भारत ने कहा कि इन कबीलाई हमलावरों को हथियारों के साथ पाकिस्तान ने भेजा है. पाकिस्तान ने कहा कि हमलावर खुद आए हैं, जो हरि सिंह द्वारा पुंछ इलाके में मुसलमानों पर किए जा रहे अत्याचार का बदला लेने पहुंचे हैं. हालांकि, कुछ घंटों बाद ही ये साफ़ हो गया कि इस हमले के पीछे पाकिस्तान की सेना का हाथ है.
24 अक्टूबर को ये घुसपैठिये उरी से बारामुला की तरफ बढ़ रहे थे. कश्मीर का काफी हिस्सा इनके कब्जे में आ गया था. हरि सिंह ने भारत सरकार को संदेश भेजकर सैन्य सहायता मांगी. तब शेख अब्दुल्ला दिल्ली में ही मौजूद थे. उन्होंने भारत सरकार से अपील की तुरंत सेना भेजकर हमलावरों को खदेड़ा जाए. बताते हैं कि इस दौरान लार्ड माउंटबेटन ने सलाह दी कि ये कदम उठाने से पहले हरि सिंह से विलय पत्र पर साइन करवा लिए जाएं. तुरंत भारत सरकार के सचिव वीपी मेनन को जम्मू भेजा गया, जहां हरि सिंह ने शरण ले रखी थी. महाराज ने जम्मू-कश्मीर के भारत में शामिल करने को लेकर विलय पत्र पर साइन किए.
जिन्ना ने गुस्से में कई गिलास ब्रांडी पी लीभारतीय सेना के जवान कुछ घंटों बाद कश्मीर पहुंच गए. एक-एक कर सभी इलाकों से घुसपैठियों को खदेड़ दिया गया. बताते हैं कि इस खबर ने पाकिस्तान के गवर्नर जनरल को आग बबूला कर दिया. मोहम्मद अली जिन्ना ने पहले कई गिलास ब्रांडी पी फिर अपने जनरलों को कश्मीर पर हमला करने का आदेश दिया. लेकिन, उनके ब्रिटिश कमांडर-इन-चीफ ने ऐसा करने इंकार कर दिया. इसलिए पाकिस्तान की सेना तुरंत सीधे संघर्ष से बाहर रही.
11 नवंबर 1947 को नेहरू ने राजा हरि सिंह को पत्र लिखकर उनसे शेख अब्दुल्ला को जम्मू-कश्मीर का प्रधानमंत्री बनाने की मांग की. उन्होंने लिखा,
कश्मीर में एक ही आदमी ऐसा है जो वहां की भलाई के लिए काम कर सकता है. जिस तरह से अब्दुल्ला ने संकट की घड़ी में अपना प्रदर्शन दिखाया है वो उनकी परिपक्वता का सबूत है. उन्होंने सांप्रदायिक सद्भाव कायम करने के लिए बहुत मेहनत की है और कामयाब भी हुए. मुझे विश्वास है कि जब बड़े मसले सामने आएंगे तो वे उन्हें निपटाने में कामयाब होंगे.
भारत सरकार की तरफ से लगातार दबाव बनाए जाने के बाद मार्च 1948 में हरि सिंह ने अपने प्रधानमंत्री मेहरचंद महाजन की जगह शेख अब्दुल्ला को प्रधानमंत्री घोषित कर दिया. अब अब्दुल्ला घाटी के सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति बन चुके थे. हरि सिंह अभी भी सूबे के कानूनी रूप से प्रमुख थे, जिन्हें सदर-ए-रियासत कहा जाता था. लेकिन, उनके पास कोई वास्तविक सत्ता नहीं थी. वो ताकत भारत सरकार ने शेख अब्दुल्ला के हाथ में दे रखी थी.
नेहरू को दोस्त शेख अब्दुल्ला पर शक क्यों होने लगा?1950 तक कश्मीर का मसला यूएन में पहुंच चुका था. भारत सरकार ने राज्य को धारा 370 के तहत विशेष स्वायत्ता भी दे दी थी. शेख अब्दुल्ला नेहरू की इच्छा के तहत कश्मीर की सत्ता संभाले हुए थे. लेकिन इस दौरान काफी कुछ ऐसा हुआ, जिससे अब्दुल्ला की नियत पर सवाल उठने लगे.
इतिहासकार रामचंद्र लिखते हैं कि 1950 में नेहरू ने अपनी बहन विजयलक्ष्मी पंडित को कई पत्र लिखे. इनमें अब्दुल्ला को लेकर उनकी चिंता का पता लगता है. उन्होंने लिखा,
शेख अब्दुल्ला अब सही व्यवहार नहीं कर रहे हैं. वे कश्मीर मसले पर खराब बर्ताव कर रहे हैं. ऐसा लगता है कि वे हमसे संघर्ष करना चाहते हैं. वे गलत लोगों से घिर गए हैं, जिनकी सलाह मान रहे हैं. मुझे अब शक सा होने लगा है.
नेहरू का शक कुछ रोज बाद ही सही साबित हुआ. 29 सितंबर 1950 को शेख अब्दुल्ला अमेरिकी राजदूत लॉय हेंडरसन से मिले और कहा कि उनकी राय में कश्मीर को आजाद हो जाना चाहिए. यहां के ज्यादातर लोग ऐसा ही चाहते हैं.
अक्टूबर 1951 को एक भाषण में तो उन्होंने अपनी इच्छा साफ़ तौर पर जाहिर कर दी. उन्होंने कहा,
'हम खुद को पूरब का स्विट्जरलैंड बनाना चाहते हैं. हम दोनों देशों भारत और पाकिस्तान की राजनीति से अलग रहेंगे, लेकिन दोनों से दोस्ताना संबंध रखेंगे.'
शेख अब्दुल्ला के इस तरह के बयानों और विदेशी अधिकारियों से अंदर खाने बातचीत की खबरों के बाद नेहरू चौकन्ने हो गए थे. उधर, अगस्त 1953 तक नेशनल कांफ्रेंस में भी फूट पड़ गई थी. पार्टी का एक धड़ा ऐसा था, जो भारत के साथ रहना चाहता था. कहा तो ये भी जाता है कि नेशनल कांफ्रेंस में ये फूट भारत सरकार ने ही डलवाई थी. नेशनल कांफ्रेंस में भारत समर्थक गुट के नेता बख्शी गुलाम मोहम्मद हरि सिंह के बेटे और उस समय सदर-ए-रियासत कर्ण सिंह के सम्पर्क में थे.
अगस्त महीने में ही एक रोज अफवाह उड़ी कि 21 अगस्त को ईद वाले दिन शेख अब्दुल्ला कश्मीर की आजादी का ऐलान कर देंगे.और फिर यूएन से भारतीय कब्जे के खिलाफ सुरक्षा की मांग करेंगे. नेशनल कांफ्रेंस के भारत समर्थक गुट के नेता बख्शी गुलाम मोहम्मद ने अब्दुल्ला पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा दिया. और कर्ण सिंह को एक पत्र लिखा. कर्ण सिंह ने कुछ ही घंटों में शेख अब्दुल्ला को बर्खास्त कर गुलाम मोहम्मद को प्रधानमंत्री बना दिया.
जब शेख अब्दुल्ला बिस्तर से उठे तो कैसा था उनका रिएक्शन?रातों-रात हुए इस खेल की सूचना सुबह बिस्तर से उठते हुए शेख अब्दुल्ला को दी गई. वे बौखला उठे. कुछ देर बाद उनके घर पुलिस पहुंची और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. अब्दुल्ला को 11 साल के लिए जेल में डाल दिया गया.
अब्दुल्ला के साथ जो भी हो रहा था, उनके उसी दोस्त के कहने पर हो रहा था, जो कभी राजा हरि सिंह द्वारा करवाई गई उनकी गिरफ्तारी पर भड़क कर दिल्ली से कश्मीर पहुंच गया था.
शेख अब्दुल्ला करीब 11 साल तक जेल में रहे. उधर, इस दौरान नेहरू समझ गए कि कश्मीर के मसले को अगर हल करना है तो अवाम को बीच में रखना होगा. और इसके लिए, शेख़ अब्दुल्ला से बेहतर कौन होता, जो उनकी आवाज़ बनता. लिहाज़ा, अप्रैल, 1964 में शेख़ अब्दुल्ला जेल से रिहा किए गए.
नेहरू उनसे और पाकिस्तान से बातचीत को तैयार थे. तब तक अब्दुल्ला भी कश्मीर की आजादी के बजाय स्वायत्ता के समर्थक नजर आने लगे थे. अब वे कश्मीर के रहनुमा की जगह महज़ एक मध्यस्थ की भूमिका निभाने की चाह रखने लगे थे. उन दिनों नेहरू की तबीयत ख़राब रहने लगी थी. इसलिए उन्होंने जेल से निकलते ही शेख अब्दुल्ला को तुरंत काम पर लगाया.
जब शेख अब्दुल्ला पाकिस्तान के राष्ट्रपति से जाकर मिलेअब्दुल्ला ने जय प्रकाश नारायण, विनोबा भावे और सी राजगोपालाचारी सहित कई नेताओं से कश्मीर को लेकर अलग-अलग चर्चा की. फिर नेहरू के साथ उनके आवास तीन मूर्ति भवन में काफी समय बिताया. इसके बाद 24 मई, 1964 को अब्दुल्ला पाकिस्तानी राष्ट्रपति अयूब खान से मिलने पाकिस्तान गए. 2 दिनों तक दोनों के बीच गहन बातचीत हुई. कहा जाता है कि शुरुआती हिचक के बाद अयूब खान भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से मिलने को तैयार हो गए. अगले महीने नई दिल्ली में एक बैठक रखी गई, जिसमें शेख अब्दुल्ला भी मौजूद रहते.
27 मई 1964 को जब शेख अब्दुल्ला पाकिस्तान के मुजफ्फराबाद में थे, तब उन्हें नेहरू के निधन का समाचार मिला. वे सन्न रह गए और वहीं फफक कर रो पड़े. अगले दिन दिल्ली वापस आकर वे नेहरू के पार्थिव शरीर से लिपट कर भी खूब रोए. एक मित्र के जाने का गम तो था ही, साथ ही पीछे छूटा वो मुद्दा भी जिसके लिए अब्दुल्ला ने खुद कहा था, 'नेहरू के बाद शायद ही कोई होगा जो कश्मीर मसले को हल कर पायेगा.’
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