‘इंडियन एडिसन’ जिसने भूतों से बात करने वाला टाइपराइटर बना डाला
कहानी भारत के महान अविष्कारक शंकर अबाजी भिसे की.
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साल 1922. जून का महीना. अमेरिकी पेटेंट ऑफिस, न्यू जर्सी में एक पेटेंट की अर्जी दाखिल हुई. पेटेंट का नाम था ‘स्पिरिट टाइपराइटर’. ‘जे क्या देख लियो’ वाले भाव से अधिकारी ने पेटेंट एप्लीकेशन को पढ़ा. पता चला ये एक ऐसा टाइपराइटर था, जिसके जरिए आप आत्माओं से बात कर सकते थे. और इस पेटेंट को दाखिल करने वाला था, एक भारतीय. जिसका नाम अमेरिका के अख़बारों ने ‘इंडियन एडिसन’ (Indian Edison) रख दिया था.
एडिसन से मिलने का सपना
29 अप्रैल 1867 को बॉम्बे में शंकर अबाजी भिसे (Shankar Abaji Bhise) का जन्म हुआ. पिता अदालत में मुंसिफ हुआ करते थे. इसलिए उनका सपना था कि बेटा वकालत करे. लेकिन शंकर का मन कहीं और था. एक बार शंकर के हाथ साइंटिफिक अमेरिकन मैगज़ीन लगी. उसमें एडिसन के बारे में पढ़ा. सपना देखने लगे कि एक दिन एडिसन से मिलूंगा. यहां से शुरू हुई इनोवेशन की अनवरत श्रृंखला जो एक दिन शंकर को अपने आइडल के पास ले गई.
भिसे आधुनिक भारत के पहले अविष्कारक थे जिन्हें अमेरिका में अपना नाम बनाया (तस्वीर: BBC.com)
14 साल की उम्र में शंकर ने पहली मशीन बनाई. ये एक छोटा सा उपकरण था जो कोयले से गैस निकालने के काम आता था. शंकर ने सिर्फ हाई स्कूल तक पढ़ाई की थी. जब इनोवेशन में रूचि जागी तो सोचा, कॉलेज ऑफ साइंस, पूना में दाखिला ले लूं. लेकिन तब वक्त दूसरा था. पिता अड़ गए, साइंस लेकर क्या करेगा? वकालत कर ले, बहुत स्कोप है.
स्कोप तो शंकर को दिखा लेकिन वकालत में नहीं, जादू में. 1889 में बॉम्बे में कांग्रेस का अधिवेशन था. यहां मूर्ति पर रौशनी डालकर शंकर ने ऐसा ऑप्टिकल इल्यूजन दिखाया कि सब हतप्रद रह गए. अगले दिन टाइम्स ऑफ इंडिया ने शंकर के इस कारनामे को छापा. 1890 में ब्रिटिश साइंस पब्लिकेशन ने एक प्रतियोगिता का आयोजन किया. भिसे ने भी हिस्सा लिया. उन्होंने एक ऑटोमैटिक भार नापने वाली मशीन का डिजाइन सब्मिट किया. और सभी ब्रिटिश प्रतियोगियों को पीछे छोड़ते हुए पहले नंबर पर आए. भिसे को इनाम स्वरूप 10 पाउंड मिले. अखबारों ने इस खबर को छापा. साथ ही लिखा कि भिसे को अमेरिका और यूरोप जाने का मौका मिलना चाहिए. भिसे का 'भिसोटाइप’ 1898 में भिसे ने स्लाइडिंग डोर का कांसेप्ट बनाया. और एक साइंस एक्सहिबिशन में उसे पेश किया. रेलवे ने इसमें रूचि दिखाई. लेकिन साथ में शर्त रखी कि कोई ब्रिटिश इंजीनियर इसे चेक करेगा, तब काम में लेंगे. भिसे ने इंकार कर दिया. उन्हें चिंता थी कि कोई उनका पेटेंट चुरा लेगा. इसके अलावा भिसे ने एक आटोमेटिक स्टेशन इंडिकेटर भी बनाया. साथ ही कई और पेटेंट भी अपने नाम किए. 1899 के आसपास भिसे को इंग्लैंड जाने का मौका मिला. जाते हुए अपने दोस्तों से बोले, जब तक एक भी पाउंड जेब में होगा, बिना सफल हुए भारत नहीं लौटूंगा. लंदन पहुंचकर भिसे की मुलाक़ात दादा भाई नैरोज़ी से हुई.
भिसोटाइप मशीन का प्रोटोटाइप (तस्वीर: Wikimedia Commons)
नैरोज़ी ने उन्हें काम करने के लिए एक वर्कशॉप मुहैया कराई. लंदन में रहते हुए भिसे ने सबसे पहले वर्टीस्कोप नाम की एक मशीन बनाई. इसमें एक के बाद एक लगातार कई इश्तिहार दिखा सकते थे. भिसे इसे लेकर तब के ‘शार्क टेंक’ में पहुंचे. लेकिन इन्वेस्टर्स ने ‘आई ऍम आउट’ का जुमला पकड़ा दिया. कारण ये कि तब लन्दन में बग्गियां चलती थी. इसलिए इस मशीन को ये कहते हुए बैन कर दिया कि इससे घोड़ों की आंखें चुधियां जाती है. इसके बाद भिसे ने और भी कई यूनिक पेटेंट्स दर्ज़ किए. इनमें शामिल थे, ऑटोमैटिक टॉयलेट फ्लश, ऑटोमैटिक बाइसाइकिल स्टैंड. लेकिन सबसे खास थी एक प्रिंटिंग मशीन जिसने दुनिया का ध्यान अपनी और खींचा.
ये एक ऐसी मशीन थी जो प्रति घंटे 1500 से 2000 मेटल के खांचे बना सकती थी. इन खांचों को उपयोग प्रिंटिंग प्रेस में होता था. और भिसे की मशीन इस काम को बाकी मशीनों से कहीं तेज़ी से कर सकती थी. मशीन का नाम रखा गया ‘भिसोटाइप’. इस मशीन के बाहर आते ही भिसे का नाम भारत और इंग्लैंड में छा गया. मद्रास से लेकर लन्दन तक उन्हें भारतीयों ने बुलाकर सम्मानित किया गया. अब तक भिसे की मदद दादा भाई नैरोजी कर रहे थे. लेकिन ‘भिसोटाइप’ के कमर्शियल प्रोडक्शन के लिए डीप पॉकेट्स की जरुरत थी. लंदन से भारत से अमेरिका तब नैरोजी ने भिसे की मुलाकात करवाई, हेनरी हाइंडमैन से. जिन्हें ‘फादर ऑफ ब्रिटिश सोशलिज्म’ के नाम से जाना जाता था. साथ ही हेनरी ब्रिटिश उपनिवेशवाद के कट्टर विरोधी थे. वे भिसे की मदद के लिए तैयार हो गए. उन्होंने वादा किया कि ‘भिसोटाइप’ के लिए 15 हजार पाउंड की रक़म जुटाएंगे.
दादाभाई नैरोज़ी और गोपाल कृष्ण गोखले (तस्वीर: Wikimedia Commons)
लेकिन फिर मसला बिगड़ गया. 1907 तक हाइंडमैन पैसों का इंतज़ाम नहीं कर पाए. भिसे फिर भी लगातार अपनी मशीन को फ़ाइन ट्यून करने में लगे रहे. अंततः उन्हें वापिस लौटना पड़ा. शिप से भारत लौटते हुए भिसे हो अहसास हुआ, उनकी जेब में सच में एक भी पाउंड नहीं बचा था.
किस्मत को भी लेकिन कुछ और ही मंजूर था. भारत लौटते हुए शिप में भिसे की मुलाकात हुई गोपाल कृष्ण गोखले से. गोखले तब कांग्रेस के बड़े नेता थे. भिसे ने गोखले को अपने टाइप कास्ट मशीन के बारे में बताया. गोखले बहुत इम्प्रेस हुए. और बॉम्बे पहुंचकर उन्होंने टाटा ग्रुप से कांटेक्ट किया. टाटा से बात नहीं बन पाई. लेकिन इस चक्कर में भिसे को अमेरिका जाने का मौका मिल गया.
अमेरिका जाकर भिसे ने अपनी कंपनी बनाई. और भिसे टाइप कास्ट के प्रोडक्शन में लग गए. भिसे का ये प्रोडक्ट कुछ खास सफल नहीं हो पाया. उन्हें बहुत घाटा सहना पड़ा. लेकिन भिसे अपनी कोशिश में लगे रहे. वो साथ ही साथ और कई अविष्कारों पर काम कर रहे थे. इसी दौरान उन्होंने ‘स्पिरिट टाइपराइटर’ नाम की एक मशीन बनाई. क्या थी ये? भूत बुलाने वाला टाइपराइटर वीज़ा(ouija) बोर्ड का नाम सुना होगा आपने. कई भूतिया पिक्चरों में दिखाई देने वाला ये बोर्ड दरअसल भूतों, रूहों को बुलाने के काम आता है. मतलब ऐसा माना जाता है. बोर्ड में होता है एक ट्राएंगुलर पोईंटर, जिसका नाम होता है प्लानशेट. इसके नीचे लगी होती हैं घिर्रियां. साथ ही बोर्ड में 0 से लेकर 9 तक की संख्याएं, और A से लेकर Z तक लेटर लिखे होते हैं. मान लो अगर भूत को ऑब्जेक्टिव टाइप सवाल का जवाब देना हो तो साथ में येस-नो भी लिखा रखता है.
शुरुआत में दो या तीन लोग प्लानशेट पर उंगली रखते हैं. और फिर पूछते हैं एक सवाल. इसके बाद प्लानशेट अपने आप किसी अल्फाबेट तक पहुंच जाता है, या किसी संख्या या येस-नो तक. इस तरह आपको अपने सवाल का जवाब मिल जाता है. फिर कौन बनेगा करोड़पति खेलकर बिना कुछ लिए, भूत साहब रफ़ूचक्कर हो जाते हैं. आज आपको ये बातें, शायद मज़ाक़ लगें, लेकिन ये 1920’s के अमेरिका की बात हो रही है, जब एक्सोरसिज्म जैसी चीजों में लोगों का बड़ा विश्वास था. और विश्वास करने का कारण भी था. वीज़ा(Ouija) बोर्ड में असल में आपके बिना चाहे उंगली किसी एक जवाब तक पहुंचती है. कम से कम आप चेतन रूप से तो ऐसा नहीं ही करते. विश्वास नहीं तो एक इक्स्पेरिमेंट करके देखिए.
शंकर अबाजी भिसे ने एक ऐसी मशीन बनाई जो वीज़ा बोर्ड की तरह काम करती थी लेकिन आप देख नहीं सकते कि क्या लिखा जा रहा है (तस्वीर: Wikimedia Commons)
एक काम करिए. एक धागे से किसी भारी चीज को बांधिए. मसलन एक अंगूठी. अब हाथ आगे बढ़ाइए. और अंगूठी को झूलने दीजिए. बन गया पेंडुलम. अब अपने मन ही मन खुद से एक सवाल पूछिए. कोई भी सवाल जैसे, आज मेरा दिन कैसा जाएगा?
अब इसके दो संभव उत्तर लेकर चलते हैं. अच्छा या बुरा. मन ही मन मानिये कि अगर दिन अच्छा जाएगा तो अंगूठी क्लॉकवाइज झूलने लगेगी. और अगर बुरा जाएगा तो एंटी क्लॉकवाइज. कुछ देर मन में ये बात रखिए. और देखिए जादू. बिना आपके हिलाए या झुलाए, जैसा आपका दिन जाएगा, उस हिसाब से अंगूठी क्लॉक वाइज या एंटीक्लॉक वाइज झूलने लगेगी.
साइकोलॉजी में इस फिनोमिना को कहते हैं आईडियोमोटर फिनोमिना. अवचेतन मन के वो इम्पल्स जिससे हम कोई ऐक्टिविटी करते हैं, बिना ये जाने कि हम ऐसा कर रहे हैं. 20 वीं सदी की शुरुआत में वैज्ञानिकों और सायकॉलिजस्ट के लिए ये बड़ा सवाल हुआ करता था. कि किसी के बिना चाहे, वीज़ा बोर्ड जैसी चीजें कैसे काम करती हैं. यकीनन ये वो लोग थे, जो भूत आदि बातों पर विश्वास नहीं करते थे.
ऐसे ही लोगों में से एक शंकर भिसे भी थे. जो विज्ञान द्वारा ये जानना चाहते थे कि क्या सच में अवचेतन मन ऐसा करता है, या कोई और बात है. भिसे के बनाए स्पिरिट टाइपराइटर में खास बात ये थी कि इसमें अल्फाबेट दिखाई नहीं देते. बल्कि प्लानशेट के उभारों से कुछ की (key) दब ज़ाया करती थी. इससे एक मेसेज टाइप होता लेकिन बोर्ड के नीचे. उसी समय आपको मेसेज नहीं दिखाई देता. इस तरह भिसे देखना चाहते थे कि क्या आपके बिना देखे भी वही मेसेज आता है जो साधारण बोर्ड पर दिखाई देता है. भिसे की ये मशीन कुछ ख़ास कामयाब नहीं हो पाई. मतलब लोगों ने इसे खरीदा ही नहीं. एडिसन से मुलाक़ात इसके बाद भिसे ने एक वाशिंग कम्पाउंड बनाया, नाम दिया शेला.और कई गुना मुनाफे में एक अंग्रेज़ी कम्पनी को उसका पेटेंट बेच दिया. साथ ही उन्होंने एक दवाई भी ईजाद की. बेसलाइन नाम की ये दवा घावों को सही करने और पानी साफ़ करने के काम आती थी. फर्स्ट वर्ल्ड वॉर के दौरान इस दवाई की मांग में बहुत इज़ाफ़ा हुआ. 1926 में भिसे ने ‘बेसलाइन’ के राइट्स एक दूसरी कम्पनी को बेच दिए. लेकिन साथ ही शर्त रखी कि उन्हें रॉयल्टी मिलती रहेगी. नई कंपनी ने बेसलाइन का नाम बदलकर एटमिडाइन रख दिया जो दरअसल और कुछ नहीं आयोडीन का एक प्रकार था.
थॉमस एडिसन (तस्वीर: Getty)
एटमिडाइन ने भिसे की किस्मत बदलकर रख दी. 1927 में ब्लड प्रेशर से लेकर मलेरिया तक के लिए डॉक्टर एटमिडाइन लिखने लगे थे. ख़ास बात ये थी कि इस दवा का प्रचार किया एक ख़ास शख्स ने. एडगर केसी को तब अमेरिका में ‘स्लीपिंग प्रोफेट’ के नाम से जाना जाता था. जो भविष्यवाणी करने, आत्मा से बात करने आदि का दावा करते थे. यहां तक कि एडिशन और टेस्ला जैसे वैज्ञानिक भी केसी से मिलने ज़ाया करते थे. केसी ने दावा किया कि एटमिडाइन के उपयोग से साइकिक पावर बढ़ती है. अमेरिका में तब भूत-प्रेत आदि पर विश्वास काफ़ी ज़्यादा था. इसलिए केसी के दावे के बाद एटमिडाइन की बिक्री खूब बड़ी. और शंकर अबाजी भिसे खूब अमीर और लोकप्रिय हो गए. शिकागो यूनिवर्सिटी ने उन्हें डॉक्टरेट ऑफ साइकोएनालिसिस की मानद डिग्री दी.
31 दिसंबर, 1930 को उनका बचपन का सपना सच हुआ और उनकी मुलाक़ात थॉमस अल्वा एडिसन से हुई. और इसके कुछ साल बाद आज ही के दिन यानी 7 अप्रैल, 1935 को शंकर भिसे की मृत्यु हो गई. विज्ञान और पैरानॉर्मल चीजों के अलावा भिसे को लिखने का भी शौक़ था. उन्होंने डिप्लोमेटिक दुर्गा और गार्डन ऑफ़ आगरा जैसी कहानियां लिखीं. पैरानॉर्मल और ऑकल्ट क्षेत्रों में रूचि के चलते आगे चलकर भिसे का नाम भुला दिया गया. लेकिन ये कहना गलत न होगा कि वो आधुनिक भारत के कुछ पहले आविष्कारकों में से एक थे.