भगत सिंह की फांसी और पाकिस्तान में तख़्तापलट
भगत सिंह की फांसी का 1977 में पाकिस्तान में हुए तख्तापलट से अजब इत्तेफाक जुड़ा है.
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आज 23 मार्च है और आज की तारीख का सम्बंध है शहीदी दिवस से.
फरवरी 1931 की एक सर्द सुबह लंदन की सड़कों पर एक टैक्सी दौड़ी चली जा रही है. टैक्सी ड्राइवर इस फिराक में है कि जल्द से जल्द बोनी हो जाए. कुछ ही देर में उसे कुछ दूर आगे हिलता हुआ एक हाथ दिखाई देता है. 44 साल के डेनिस नॉवेल प्रिट टैक्सी में सवार होते हैं. टैक्सी वाला पूछता है, कहां जाना है. डाउनिंग स्ट्रीट, जवाब आता है.
बैरिस्टर डेनिस नॉवेल प्रिट (तस्वीर: Wikimedia Commons)
ये वो सड़क है जिस पर ब्रिटेन के प्रधानमंत्री का घर है. लेकिन आज प्रिट को प्राइम मिनिस्टर हाउस से कुछ मतलब नहीं. उनकी मंज़िल उससे कुछ कदम दूर प्रिवि काउंसिल का भवन है. प्रिवि काउंसिल से मतलब वो संस्था, जो ब्रिटेन के उपनिवेशों के मामले देखती थी. यानी अगर ऑस्ट्रेलिया और भारत जैसे देशों में किसी को ब्रिटेन की अदालत में अपील करनी होती तो उन्हें प्रिवि काउंसिल के पास भेजा जाता. प्रिवि काउंसिल में प्रिट उस रोज़ एक एक न्यायिक समिति के आगे पेश होने वाले थे.
मामला था एक 21 साल के प्रोबेशनरी पुलिस ऑफिसर की हत्या का. लंदन में सरकार और सरकारी पेशे से जुड़े लोग भन्नाए हुए थे. फांसी की सजा तय हो चुकी थी. और प्रिट को 5 जजों के सामने दलील देनी थी कि फांसी की सजा क्यों न हो. बरसों से वकालत कर रहे प्रिट को इल्म न था कि आज वो अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा केस लड़ने जा रहे थे.
प्रिवि काउंसिल के आगे प्रिट की दलीलें एक ना चली. और सुखदेव, राजगुरु और भगत सिंह की फांसी बरकरार रही. तब अंग्रेज सरकार को इल्म नहीं था कि भगत सिंह का चेहरा भारत में क्रांति जा दूसरा नाम हो जाएगा. भगत सिंह की चार तस्वीरों के पीछे के कहानी “मध्यम ऊंचाई, पतला अंडाकार चेहरा, चेहरे पर हल्के से चकत्ते, झीनी दाढ़ी और छोटी सी मूंछ”. 1926 में CID ने अपनी रिपोर्ट में कुछ इस तरह भगत सिंह का हुलिया बयान किया. भगत सिंह का जन्म अविभाजित भारत में हुआ और मृत्यु भी. लेकिन बंटवारे के बाद उनकी ज़िंदगी और मौत से से जुड़े अधिकतर काग़ज़ात पाकिस्तान में ही रह गए. भगत सिंह की सिर्फ़ चार आधिकारिक तस्वीरें अवेलेबल हैं.
लाहौर कॉलेज में भगत सिंह अपने साथियों के साथ (तस्वीर: Wikimedia Commons)
पहली जिसमें वे अपने साथियों के साथ है. इस तस्वीर में भगत ने पगड़ी पहन रखी है. ये तस्वीर तब खींची गई थी जब भगत नेशनल कॉलेज लाहौर में पढ़ रहे थे. तब उन्होंने वहां ड्रामा क्लब के तले उन्होंने एक नाटक में हिस्सा लिया. नाटक का नाम था ‘भारत दुर्दशा’. और तभी से वो CID के रडार में आ गए थे. इसी क्लब में भगत सिंह ने अपने साथियों के साथ ये तस्वीर खिंचाई थी.
दूसरी तस्वीर वो है जिसमें भगत सिंह हैट में दिखाई देते हैं. और बड़ी सलीके से बनाई मूंछ पर बल पड़ा हुआ दिखता है. इस तस्वीर की कहानी भी बड़ी रोचक है. ये तस्वीर अप्रैल 1929 में खींची गई थी. दिल्ली असेंबली में बम फेंके जाने से कुछ रोज़ पहले. HSRA में भगत के साथी जयदेव कपूर उन्हें कश्मीरी गेट स्थित रामनाथ फ़ोटोग्राफ़र के यहां ले गए थे. यहीं पर बटुकेश्वर दत्त ने भी फोटो खिंचाई. पहले तय का था बम फेंके जाने से पहले फोटो ले लेंगे. लेकिन बदक़िस्मती से तस्वीर डेवेलप होने में देर हो गई. तब तक भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त गिरफ़्तार हो चुके थे और पुलिस पूरी दिल्ली में दबिश दे रही थी. HSRA को डर था कि कहीं फोटो लेने गए तो फ़ोटोग्राफ़र पुलिस के हवाले ना कर दे. अंत में जयदेव बंदूक़ दिखाकर दुकान से फोटो और निगेटिव ले आए.
भगत सिंह की आखिरी खींची तस्वीर (बाएं) और उनके बचपन की तस्वीर (दाएं) (तस्वीर: Wikimedia Commons)
अब तक भारत और लंदन के अख़बारों में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त के कारनामे छप चुके थे. और विदेशी तो विदेशी कई भारतीय भी उन्हें आतंकवादी की संज्ञा देने लगे थे. HSRA ने सरकार के प्रोपोगेंडा का जवाब देने की ठानी. भगत और बटुकेश्वर की तस्वीर उनके लिए हथियार साबित हुई. जयदेव तस्वीर और निगेटिव लेकर लाहौर गए. और 12 अप्रैल 1929 को वंदे मातरम नाम के एक उर्दू अख़बार में पहली बार ये तस्वीर छपी.
तीसरी फोटो है जिसमें दाढ़ी वाले भगत सिंह एक खाट पर बैठे हैं. और एक दूसरे आदमी के साथ बात कर रहे हैं. पहली नज़र में लगता है आराम से बैठा कोई आदमी अपने परिवार वाले या दोस्त से गपशप मार रहा है. जबकि इस तस्वीर में भगत सिंह से DSP गोपाल सिंह पन्नु पूछताछ कर रहे हैं. ये फोटो 1927 की है जब भगत सिंह को पहली बार जेल हुई थी. पुलिस ने चुपके से ये फोटो ले ली थी ताकि आगे भगत पर नज़र रखी जा सके. इसके अलावा सबसे अंतिम फोटो उनके बचपन की है. संयोग: भगत सिंह की फांसी और पाकिस्तान में तख्तापलट आज ही के दिन यानी 23 मार्च 1931 को शाम के 7.30 बजे लाहौर की सेंट्रल जेल में भगत सिंह सुखदेव और राजगुरु को फांसी दे दी गई थी. जॉन सांडर्स की हत्या के आरोप में. विद्रोह के डर से फांसी की सजा को कैसे एक दिन पहले ही अंजाम दे दिया गया. फांसी से ठीक पहले किस प्रकार भगत किताब पढ़ रहे होते हैं. फांसी का फंदा देखकर उनके चेहरे पर शिकन तक नहीं आती. कैसे फांसी देने के बाद भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के शरीर के टुकड़े कर उन्हें जला जाता है, और फिर जलते हुए टुकड़े नदी में फेंक दिए जाते हैं. आदि घटनाक्रम से शायद आप वाक़िफ़ होंगे. इसलिए हमने सोचा कि आपको भगत सिंह की ज़िंदगी के कुछ अनछुए पहलुओं से रूबरू करवाएं.
1927 में लाहौर जेल में भगत सिंह (तस्वीर: Wikimedia Commons)
ये तो आपको पता ही है कि भगत सिंह को लाहौर में फांसी दी गई थी. लेकिन इस जेल और भगत सिंह के साथ एक और अजीब संयोग जुड़ा है.
20 नवंबर, 1974 के रोज़ पाकिस्तान में नेशनल असेंबली का सेशन चल रहा था. प्रधानमंत्री ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो सदन में मौजूद थे. तभी सदन में एक मेंबर खड़ा हुआ और अपनी जेब से एक शीशी निकाल कर लहराने लगा. शीशी में खून भरा था. साथ में थी एक क़मीज़, जो खून से सनी हुई थी. इस शख़्स का नाम था, अहमद रजा कसूरी. ठीक नौ दिन पहले कसूरी के क़ाफ़िले पर कुछ हमलावरों ने गोलियां चलाई थीं. और इस हमले में कसूरी के पिता नवाब मुहम्मद अहमद कसूरी की जान चली गई थी. कसूरी इस हत्या के लिए प्रधानमंत्री भुट्टो को सीधे तौर पर क़सूरवार ठहरा रहे थे.
कसूरी ने उस रोज़ एक FIR भी दर्ज़ करवाई. और FIR में भुट्टो का नाम लिखवाया. प्रधानमंत्री के ख़िलाफ़ FIR हुई थी. सो कोई कार्रवाई होने के तो कम ही चांसेज थे. लेकिन इस सरकारी काग़ज़ से आगे जाकर पाकिस्तान की सियासत में भूचाल आने वाला था. 1977 में जनरल जिया उल हक़ ने पाकिस्तान में तख्ता पलट कर दिया. और भुट्टो जेल के हवाले हो गए. ज़िया ने एड़ी चोटी का ज़ोर लगा दिया ताकि किसी ना किसी बहाने से भुट्टो को हमेशा-हमेशा के लिए रास्ते से हटा दिया जाए. तब यही FIR ज़िया के हाथ लगी और अंत में भुट्टो की मौत का कारण बनी.
जनरल अयूब खान और जुल्फिकार आली भुट्टो (तस्वीर: Getty)
पाकिस्तान की राजनीति में ये सब हंगामा हुआ था नवाब मुहम्मद अहमद कसूरी की मौत के कारण. इत्तेफ़ाक देखिए ये नवाब मुहम्मद वही मैजिस्ट्रेट थे जिन्होंने भगत सिंह के डेथ वॉरंट पे साइन किए थे. और इससे भी बड़ा इत्तेफ़ाक ये कि शादमान कॉलोनी, लाहौर का गोलचक्कर, जहां नवाब मुहम्मद अहमद कसूरी की हमले में मौत हुई थी. वही जगह थी जहां भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी दी गई थी. तब यहीं पर लाहौर सेंट्रल जेल में फांसी का चेम्बर हुआ करता था. भगत सिंह को गोली मारी गई? जैसा कि पहले बताया भगत सिंह की मृत्यु से जुड़े अधिकतर काग़ज़ात पाकिस्तान में हैं. इसलिए 23 मार्च की रात को असल में क्या हुआ, इसको लेकर भी अलग-अलग दावे किए जाते हैं.
साल 2005 में आई एक किताब ने दावा किया कि भगत सिंह की हत्या गोली मार कर की गई थी. किताब का नाम था, 'Some Hidden Facts: Martyrdom of Shaheed Bhagat Singh' और लिखने वाले थे कुलदीप सिंह कूनर और G.S. सिंदरा. किताब के हिसाब से कुलदीप सिंह कूनर को ये सब जानकारी मिली दलीप सिंह अलाहबादी से. जो यूं तो आनंद भवन में माली का काम करते थे, लेकिन असलियत में अंग्रेजों के सीक्रेट एजेंट थे. इस किताब के अनुसार भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की मौत फांसी लगने से नहीं हुई थी. बल्कि उन पर गोली चलाई गई थी.
किताब के अनुसार सांडर्स की मौत से ख़फ़ा अंग्रेज अफ़सरों ने भगत सिंह की मृत्यु के लिए एक खास ऑपरेशन प्लान किया. ऑपरेशन ट्रोजन हॉर्स. किताब के अनुसार 23 मार्च को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी दी गई, लेकिन सिर्फ़ बेहोश होने तक. उसके बाद उन्हें लाहौर केंटोमेंट ले ज़ाया गया और गोली मारकर तीनों की हत्या कर दी गई. गोली चलाने वालों में एक सांडर्स का होने वाला ससुर भी था जो तब पंजाब के गवर्नर का पर्सनल असिस्टेंट हुआ करता था. इसके बाद तीनों शवों को सतलज नदी के किनारे ले ज़ाया गया और वहीं उनकी अंत्येष्टी की गई. लोगों को बरगलाने के लिए हुसैनीवाला में एक अलग चिता जलाई गई. किताब के अनुसार इस चिता में दरअसल उस जल्लाद का शव था जिसने भगत और उनके साथियों को फांसी दी थी.
भगत सिंह की जीवनी लिखने वाले कुलदीप नैय्यर और भगत सिंह के भतीजे प्रोफ़ेसर जगमोहन सिंह इस घटनाक्रम से इत्तेफ़ाक नहीं रखते. और ना ही कोई सरकारी दस्तावेज उपलब्ध हैं जो किताब में बताई बातों की पुष्टि कर सकें. हम लड़ेंगे साथी... भगत सिंह राजगुरु और सुखदेव की फांसी के अलावा 23 मार्च की तारीख़ का एक और शख़्स से राब्ता है. जो अपनी कलम में क्रांतिकारी तेवरों की बिलकुल वही धार रखता था. अवतार सिंह संधू उर्फ़ पाश.
अवतार सिंह संधू उर्फ़ पाश (तस्वीर: Getty)
23 मार्च 1988 को ख़ालिस्तान समर्थक उग्रवादियों ने पाश की गोली मारकर हत्या दी थी. चलते चलते आपको पाश की एक कविता सुनाते चलते हैं.
जब तक बंदूक न हुई, तब तक तलवार होगी जब तलवार न हुई, लड़ने की लगन होगी लड़ने का ढंग न हुआ, लड़ने की ज़रूरत होगी और हम लड़ेंगे साथी...
हम लड़ेंगे कि लड़ने के बग़ैर कुछ भी नहीं मिलता हम लड़ेंगे कि अब तक लड़े क्यों नहीं हम लड़ेंगे अपनी सज़ा कबूलने के लिए लड़ते हुए मर जानेवालों की याद ज़िन्दा रखने के लिए हम लड़ेंगे साथी…