दरबार सजा था. ज़िल्ल-ए-इलाही यानी ईश्वर की छाया समझे जाना वाला बादशाह दरबार मेंदाखिल हुआ. और पालथी मोड़ कर गद्दी पर बैठ गया. दरबार ठसाठस भरा था. और दरबारीइंतज़ार में थे कि सफ़हा खुलेगा तो इल्म की बात चलेगी. कुछ नए मेहमान भी आए थे.सुनहरे जिल्द चढ़ी आसमानी किताब खुली, तो बादशाह ने फ़रमान जारी किया. जिरह शुरूहो.एक तरफ़ उलेमा थे, जो क़ुरान की एक एक आयत को घोट कर पी चुके थे. दूसरी तरफ़ ईसाईपादरी थे. जिनका मक़सद था बादशाह को ईसाइयत में दीक्षा दिलवाना. इसके अलावा हिंदूधर्म सहित बाकी धर्मों के जानकार भी मौजूद थे. लेकिन मुख्य जिरह उलेमा और पादरियोंमें ही होनी थी. ज़ोरदार बहस के बीच पादरी के मुंह से पैग़म्बर मुहम्मद का नामनिकला. जो कुछ तंज़ ओड़े हुए था. बादशाह ने आंखे तरेरी. कुछ देर पहले तक शोर-ओ-गुलसे भरा दरबार बिलकुल ख़ामोश हो गया. ये किस्सा है मुग़ल बादशाह अकबर के दरबार का.जब पहली बार उनकी मुलाक़ात जेसुइट ईसाई पादरियों से हुई.दीन-ए-इलाही1582 में बादशाह अकबर ने दीन-ए-इलाही धर्म की शुरुआत की. धर्म को लेकर अकबर मेंबहुत उत्सुकता थी. और वो अलग-अलग धर्मों के नियम क़ानून और दर्शन को लेकर बहुतकौतूहल से भरे रहते थे. चंद इतिहासकार मानते हैं कि दीन-ए-इलाही की शुरुआत धर्म कानहीं वरन एक राजनैतिक मसला था. अकबर चाहते थे कि लोग नए धर्म की छतरी के नीचे एक होजाएं.मुग़ल बादशाह अकबर अबुल फ़ज़ल से मुलाक़ात करते हुए (तस्वीर: Wikimedia Commons)चूंकि दीन ए इलाही के तहत भी बादशाह ही ईश्वर का प्रतिनिधि था. इसलिए इससे बादशाहको भी फ़ायदा होता. दीन-ए-इलाही की शुरुआत से पहले अकबर ने बहुत से धर्मों काअवलोकन किया. हिंदू- मुस्लिम धर्म से वो वाक़िफ़ थे ही. लेकिन दीन-ए-इलाही कीशुरुआत हुई तो उसमें पारसी धर्म और ईसाईयत के पुट भी डाले गए.ये सब शुरू हुआ 1576 से. साल 1576 में अकबर को एक खबर मिली. सुदूर बंगाल से. (तब तकबंगाल मुग़ल साम्राज्य का हिस्सा बन चुका था). वहां दो जेसुइट पादरी अचानक मुग़लप्रशासन की नज़रों में आ गए थे. ऐन्थॉनी वाज़ और पीटर डायस नाम के ये दो जेसुइटपादरी गोवा से बंगाल पहुंचे थे. वहां इन्होंने पाया कि कुछ पुर्तगाली व्यापारीटैक्स की चोरी कर रहे थे. इससे मुग़ल ख़ज़ाने का नुक़सान हो रहा था. दोनों पादरियोंको मुग़ल ख़ज़ाने से कुछ खास लेना-देना नहीं था. लेकिन वे दोनों ईसाई धर्म केप्रचारक थे. और धर्म में चोरी करना अपराध था. आगे बढ़ने से पहले ये जानते हैं किजेसुइट कौन होते हैं. जेसुइट यानी सोसायटी ऑफ़ जीसस के सदस्य. यह कैथोलिक ईसाई धर्म के भीतर का एक समाजहै, जिसे पोप पॉल तृतीय के अप्रूवल से साल 1540 में बनाया गया था. इनका काम ईसाईधर्म के प्रचार प्रसार से जुड़ा होता है.बहरहाल बंगाल से ये खबर बादशाह अकबर तक पहुंची. तो उन्हें कौतुहल हुआ इस धर्म केबारे में. जिसमें इतने ईमानदार लोग पाए जाते हैं. अकबर ने अपना राजदूत गोवा भेजा.साथ में भेजी एक चिट्ठी. चिट्ठी में लिखा था,‘अपने राजदूत अब्दुल्ला को आपके पास भेज रहा हूं. आपसे दरख्वास्त है कि दो विद्वानपादरियों को अपनी धार्मिक किताब के साथ दरबार में भेजें. ख़ासकर वो किताब जिसमेंगॉस्पल हों. ताकि मैं आपके धर्म के क़ानून से वाक़िफ़ हो सकूं.’ईसाईयत से परिचयबादशाह का न्योता पाकर जेसुइट अधिकारी बड़े खुश हुए. वो तो अपने धर्म का प्रचारप्रसार करने ही भारत आए थे. सो मुल्क का बादशाह उनसे मिले, ये एक बड़ा मौक़ा था.इसके बाद तीन विद्वान जेसुइट मेंबर्स को चुना गया. मिशन को लीड करने के लिए फादररूडोल्फ़ एक्वाविवा को चुना गया. इसके अलावा फादर ऐंटॉनी मांज़र्राटे और फ़्रांसिसहेनरिक्स को साथ में भेजा गया. गोवा से चलकर ये लोग सूरत और ग्वालियर होते हुएफरवरी 1580 में आगरा पहुंचे. और आज ही के दिन यानी 28 फ़रवरी 1580 के रोज़ बादशाहअकबर ने फ़तेहपुर सीकरी में जेसुइट पादरियों का स्वागत किया.आंद्रे रेइनोसो द्वारा सेंट फ्रांसिस जेवियर के चमत्कार (1619-22)। सेंट फ्रांसिसजेवियर जेसुइट ऑर्डर के एक मिशनरी और सह-संस्थापक थे (तस्वीर: Aeon)अकबर से मिलकर जेसुइट अभिभूत तो हुए ही. लेकिन उससे भी ज़्यादा अचरज उन्हें शहर कोदेखकर हुआ. फ़तेहपुर सीकरी के बाग, सड़कें और महल देखकर उन्होंने लिखा,“ऐसा जादुई शहर पूरे यूरोप में कहीं भी नहीं है.”आवभगत से बाद अकबर ने पादरियों को दरबार में बुलाया. जहां पहुंचकर जेसुइट सदस्योंने बादशाह को एक बाइबल भेंट में दी. सुनहरे रंग के डिब्बे में खोलकर रखी हुई बाइबलदरबार में पेश की गई. फिर बात असल मुद्दे पर आई. अकबर ने अपने दरबार में उलेमाओं औरअलग-अलग धर्म के जानकारों को इकट्ठा किया. उन्हें आदेश दिया गया कि वो जेसुइटडेलीगेशन से सवाल-जवाब करें.पहला दिन तो इसी बहस में गुजर गया कि जो किताब पेश की गई है वो आसमानी है भी किनहीं. ये सवाल भी उठा कि कहीं किसी आदमी ने तो अपनी मर्जी से कुछ छाप नहीं दिया है.फिर बात हुई खुल्द यानी स्वर्ग की. इस पर भी बहस पूरे दिन चली. ऐसे बाइबल केअलग-अलग पक्षों पर बात होते -होते चार दिन गुजर गए. बादशाह पूरे ध्यान से ये सबसुनते रहे.अकबर के दरबार में जेसुइट्स, काले लबादे में (तस्वीर: Wikimedia Commons)अकबर ने जुर्रत की बात कही तो पादरी ने जवाब दिया,“जनाब अभी कुछ देर पहले तो मुल्ला ने यीशू की तौहीन की थी. तब तो आपने कुछ नहींकहा, फिर पैग़म्बर मुहम्मद पर हमारी बात से आप इतने नाराज़ कैसे हो सकते हैं”ये सुनकर अकबर का ग़ुस्सा शांत हुआ और उन्होंने बहस जारी रखने को कहा. इसके बादअकबर ने एक पारसी, एक यहूदी, मुस्लिम उलेमा और कुछ दार्शनिकों से आपस में बात करनेको कहा.अकबर का चर्चइसके अगले तीन साल जेसुइट पादरियों ने आगरा में गुज़ारे. इस दौरान अकबर ने जब काबुलपर चढ़ाई की तो वो अपने साथ एक जेसुइट पादरी को भी ले गए. ताकि अकबर के बेटे मुरादको तालीम मिल सके. साल 1583 में जेसुइट डेलीगेशन गोवा लौट गया. जेसुइट पादरियों कोयक़ीन था कि वो अकबर को ईसाई धर्म में दिक्षित करा लेंगे. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. अकबरने ईसाइयत अपनाने में कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई. हालांकि जाते-जाते अकबर ने एकफ़रमान ज़रूर पढ़वाया. जिसमें लिखा था कि ईसाई धर्म दिव्य रहस्यों का सामने लाताहै.अकबर के दरबार में धार्मिक चर्चा (तस्वीर: Wikimedia Commons)इस मिशन के अगले आठ साल तक अकबर की तरफ़ से जेसुइट्स को कोई संदेश नहीं गया. इसदौरान अकबर ने फ़तेहपुर सीकरी को छोड़ दिया और वो परिवार सहित लाहौर जा पहुंचे.1590 में अकबर ने गोवा में जेसुइट्स को एक और ख़त भेजा. और उन्हें लाहौर आने कान्योता दिया.इस बार भी जेसुइट पहुंचे और उन्होंने अकबर को ईसाई धर्म में दीक्षित करवाने कीकोशिश की. बादशाह माने तो नहीं लेकिन उन्हें अपने बेटों को पुर्तगाली भाषा सिखानेके काम पर लगा दिया. अब तक जेसुइट्स को समझ आ चुका था कि अकबर धर्म परिवर्तन नहींकरने वाले. और वो वापस गोवा लौट गए. इसके बाद साल 1595 में एक और जेसुइट डेलीगेशनलाहौर पहुंचा. इस बार उन्हें वहां एक चर्च बनाने की इजाजत मिल गई. सितम्बर 3, 1595को लिखे एक ख़त के अनुसार अकबर ने उन्हें चर्च बनाने की इजाज़त तो दी ही. साथ ही येभी इजाज़त दी कि वो चाहे तो लोगों को अपने धर्म में दीक्षित कर सकते हैं.इसके बाद अकबर ने शाही ख़ज़ाने से कुछ रक़म देकर चर्च बनवाने में सहयोग दिया. और 7सितम्बर 1597 को लाहौर के चर्च में पहली बार प्रार्थना हुई. फिर 1598 में अकबर नेलाहौर छोड़ दिया. इसके बाद जेसुइट मिशनरियों को लाहौर में ज़बरदस्त विरोध झेलनापड़ा.अकबर की दरियादिली लाहौर में कुल जमा 38 लोग ईसाई धर्म अपनाने को तैयार हुए. लेकिन इसके चलते आम लोगोंजेसुइट्स के ख़िलाफ़ हो गए. लाहौर के गवर्नर कुलीज खान ने खुद बीड़ा उठाते हुए ईसाईधर्म अपनाने वाले लोगों का पुराने धर्म में वापसी शुरू कर दी.वर्तमान में आगरा में 'अकबर का चर्च' (तस्वीर: पीटर पोत्रोल )ये सब देखकर जेसुइट बादशाह अकबर के पास पहुंचे. और उनसे मदद की गुहार की. अकबर नेफ़रमान जारी करते हुए कहा कि ज़बरदस्ती लोगों का धर्म परिवर्तन नहीं किया जाएगा. ये मुद्दा शांत हुआ तो एक नई मुसीबत आ खड़ी हुई.लाहौर में एक मकान था. पन्नू राम का. उसने टैक्स ना चुकाया तो मुग़ल अधिकारियों नेउसकी कुड़की कर डाली. ये मकान फिर मिला जेसुइट ईसाई पादरियों को. ईसाइयों केख़िलाफ़ मामला गरमाया तो लाहौर के हिंदुओं ने 2 हज़ार रुपए इकट्ठे किए और मूल धनजमा कर दिया. कुलीज खान ने पादरियों से घर खाली करने को कहा. जेसुइट फिर अकबर केपास पहुंचे. जैसे-तैसे घर वापस जेसुइट पादरियों को मिला.इसके बाद हिंदुओं ने गवर्नर को फिर मक्खन लगाया. उसे 9000 की रक़म और 9 घोड़ेतोहफ़े में दिए. लेकिन तब दुबारा बादशाह ने दख़ल दिया और घर जेसुइट पादरियों के पासही रहा. लाहौर के बाद अकबर ने आगरा में एक और चर्च का निर्माण करवाया. फ़तेहपुरसीकरी के पास ही. जिसे 'अकबर का चर्च' के नाम से जाना गया.मुग़ल काल में क्रिसमसइसी दौरान इसके आगरा में पहली बार में ईस्टर और गुड फ़्राइडे मनाने की शुरुआत हुई.जिसमें बादशाह अकबर खुद शामिल हुआ करते थे. साथ ही एक नई प्रथा भी शामिल हुई. जो तबकहीं और नहीं होती थी.आगरा में निकलने वाले जुलूस में घोड़े हाथी, और ऊंट शामिल रहते. लेकिन सबसे आगेहोता एक पुतला. जूडस का. जूडस ईशा मसीह के उस शिष्य का नाम था जिसने उन्हें धोखादिया था. तब दुनिया के बाकी हिस्सों में भी क्रिसमस का जुलूस निकलता था लेकिन जूडसका पुतला केवल आगरा में बनाया जाता. ये पुतला घूम फिर कर शाही महल के आगे पहुंचता.और वहां आतिश बाजी कर उसे आग के हवाले कर दिया जाता.यरूशलेम में मंदिर में शिशु यीशु की प्रस्तुति, उनके जन्म के 40 दिन बाद, c.1600-1610. संभवतः बीजापुर में चित्रित( फोटो क्रेडिट: विक्टोरिया एंड अल्बर्टम्यूजियम)जूडस के पुतले को जलाने की एक खास वजह थी. बादशाह को खुश करना. इससे ये संदेश दियाजाता कि सब लोग बादशाह के प्रति वफ़ादार रहें. क्योंकि जो बादशाह के प्रति ग़द्दारीकरे वो जूडस की श्रेणी का होगा. 1605 में अकबर की मृत्यु हो गई. इसके बाद जहांगीरने भी पिता की परम्परा को निभाया और ईसाई धर्म को फलने फूलने दिया. आगरा के चर्चमें ही जहांगीर ने अपने भतीजों को बैप्टाइज़ करवाया और उन्हें ईसाई धर्म मेंदीक्षित किया. कुछ इतिहासकार मानते हैं कि ये सब जहांगीर ने एक पुर्तगाली महिला सेशादी करने के लिए किया था. शादी नहीं हो पाई तो जहांगीर ने अपने भतीजों को दुबाराइस्लाम क़बूल करवा लिया.1613 तक मुग़ल दरबार और जेसुइट के रिश्ते अच्छे रहे. फिर गोवा में हुए एक घटनाक्रमसे तब्दीली आई. हुआ यूं कि 1613 में एक पानी का जहाज़ मक्का की यात्रा कर लौटे हजयात्रियों को लेकर भारत आ रहा था. इस जहाज़ पर पुर्तगालियों ने अपने कब्जे में लेलिया. जहांगीर ने ये सुना तो वो इतना ग़ुस्सा हुआ कि उसने लाहौर और आगरा के चर्चखाली करवा दिए. इसके अलावा उसने जेसुइट पादरियों को भी कैद में डलवा दिया. दो दशकतक इन लोगों को कैद में रहना पड़ा.साल 1635 में शाहजहां ने इन लोगों को कैद से रिहा किया. लेकिन एक शर्त पर. बादशाहने आगरा का चर्च तुड़वा दिया. लेकिन एक ही साल में ये चर्च दुबारा बना दिया गया. साल 1752 में अहमद शाह अब्दाली ने भारत पर हमला किया तो उसने आगरा के चर्च को गिरादिया. बाद में अंग्रेज आए तो उन्होंने आगरा के चर्च का दुबारा निर्माण करवाया.जेसुइट मिशनरीज़ को अब्दाली अपने साथ बंधक बनाकर काबुल ले गया. और 1580 में शुरूहुआ जेसुइट्स और मुग़लों का रिश्ता 1752 में आकर ख़त्म हो गया.