इजरायल के बदले की कहानी, जब दुश्मनों को फूल भेजकर मारा गया
इजरायली ख़ुफ़िया एजेंसी मोसाद ने 20 साल लगाए लेकिन अपने दुश्मनों को छोड़ा नहीं. क्या था ऑपरेशन रैथ ऑफ गॉड जिसे दुनिया का सबसे खतरनाक ऑपरेशन माना जाता है. मोसाद ने कैसे बचाई प्रधानमंत्री की जान?
1980 और 90 के दशक में फिलिस्तीन समर्थक चरमपंथी गुटों के घर कई बार एक गुलदस्ता आता था. साथ में होता था एक नोट. जिस पर लिखा रहता, हम न भूलते हैं, न माफ़ करते हैं. इसके कुछ दिनों बाद उस परिवार के किसी शख्स की हत्या हो जाती. ये तरीका मोसाद का था, इजरायल की ख़ुफ़िया एजेंसी. इस दौर में इजरायल के गुनाहगार पाताल में भी छुप जाते, तो शायद मोसाद उन्हें ढूंढ लाती. लेकिन आखिर ऐसा हुआ क्या था कि मोसाद किसी को माफी देने को तैयार नहीं थी?
इसी सवाल से जुड़ी है ये कहानी. कहानी बदले की. कहानी ईश्वर के प्रकोप की. कहानी ऑपरेशन रॉथ ऑफ गॉड की. ये प्रकोप बरसा था साल 1972 में और ऐसा बरसा कि 20 साल तक बरसता ही रहा.
म्यूनिख नरसंहार6 सितंबर 1972 के रोज़ इजरायल में हर कोई टीवी-रेडियो से चिपका हुआ था. जर्मनी के म्यूनिख शहर में ओलिम्पिक चल रहा था. लेकिन उस दिन लोग खेल नहीं देख रहे थे. वहां जिंदगी और मौत की लड़ाई चल रही थी. फिलिस्तीन के एक चरमपंथी संगठन के कुछ सदस्यों ने इजरायली खिलाड़ियों को बंधक बना लिया था. इस संगठन का नाम था ‘ब्लैक सेप्टेम्बर’. इन लोगों ने इजरायली दल के दो सदस्यों की हत्या कर डाली थी. और बाकी को छोड़ने के एवज में 200 फिलिस्तीनी कैदियों की रिहाई की मांग कर रहे थे.
जर्मनी पशोपेश में था. चांसलर विली ब्रांट ने इजरायल की प्रधानमंत्री गोल्डा मीर को फोन मिलाया और होस्टेज क्राइसिस की जानकारी दी. गोल्डा इजरायल की पहली महिला प्रधानमंत्री थीं. 17 मार्च, 1969 को शपथ लेने के बाद उनके सामने ये सबसे पहली बड़ी चुनौती थी. उन्होंने पुरानी परंपरा को जारी रखते हुए जर्मन चांसलर को दो टूक जवाब दिया, ‘इजरायल आतंकियों की मांग नहीं मानता. चाहे कोई कीमत चुकानी पड़े.’
इजराइली बंधकों को लेकर चरमपंथी एयरपोर्ट पहुंच चुके थे. यहां जर्मन सुरक्षा बलों ने एक रेस्क्यू ऑपरेशन की कोशिश की. इजरायल में हर कोई इस ऑपरेशन की खबर जानना चाह रहा था. अचानक टीवी पर एक न्यूज़ फ्लैश हुई, ‘खिलाडियों को बचा लिया गया है’.
गोल्डा मीर अपने ऑफिस में शैम्पेन खोल रही थीं. लोग जश्न मना रहे थे. लगा कि बला टली लेकिन अगली सुबह पता चला कि ये खुशखबरी नहीं महज खुशफहमी है. खिलाड़ियों के बचाए जाने की बात अफवाह भर थी. चरमपंथियों ने नौ के नौ इजरायली खिलाड़ियों को मार डाला था. पांच चरमपंथी भी मारे गए. लेकिन तीन को जिन्दा गिरफ्तार कर लिया गया. कहते हैं दुःख से ज्यादा खतरनाक खुशी का वहम होता है. इजरायल में लोगों में भयानक गुस्सा था. चारों तरफ बस एक ही आवाज उठ रही थी, बदला!
प्लेन हाईजैकइजरायल ने इन हत्याओं का बदला लेने के लिए सीरिया और लेबनान में चरमपंथियों के ठिकानों पर बमबारी की. कुल मिलाकर 200 लोग मारे गए. कहने को बदला लिया जा चुका था. लेकिन वे तीन हमलावर अभी बाकी थे, जिन्हें म्यूनिख में जिन्दा पकड़ा गया था. इनके नाम थे, अदनान अल गाशे, जमाल-अल गाशे और मोहम्मद सफादी. इजरायल उन्हें सौंपने की मांग कर रहा था. क्योंकि जर्मनी में डेथ पेनल्टी नहीं दी जा सकती थी. मामला यहीं फंसा हुआ था कि कुछ हफ्ते बाद एक और घटना घट गई.
अक्टूबर, 1972 की एक दोपहर, फ्लाइट 615 सीरिया से जर्मनी आ रही थी. बीच में एक स्टॉप ओवर था. यहां दो लोग विमान में चढ़े. कुछ ही देर में उन्होंने विमान को हाईजैक कर लिया. उनकी मांग थी म्यूनिख में पकड़े गए 3 हमलावरों की रिहाई. जर्मनी तैयार हो गया. हमलावर रिहा कर दिए गए. वहां इजरायल में अब तक 11 लोगों की मौत का शोक ख़त्म नहीं हुआ था कि इस खबर ने इस दुःख को गुस्से में बदल दिया. गोल्डा मीर पर काफी दबाव था. तुरंत उच्च अधिकारियों की एक मीटिंग बुलाई गईं. एक ख़ुफ़िया कमिटी का गठन हुआ, कमिटी-एक्स. इस कमिटी को तय करना था, म्यूनिख हमलों का बदला कब और कैसे लिया जाएगा.
मोसाद की एंट्रीकमिटी-एक्स ने तय किया कि म्यूनिख हमलों के लिए जिम्मेदार तमाम लोगों की एक लिस्ट बनेगी. हर एक को चुन-चुन कर मारा जाएगा. ये कतई आसान काम नहीं था. इंटेलिजेंस से मिली जानकारी के आधार पर 20 से 35 लोगों की लिस्ट बनी. ये लोग यूरोप और मध्य पूर्व के देशों में फैले हुए थे. हर एक को ढूंढना था और ठिकाने लगाना था, वो भी इस तरह कि इजरायल से हत्या के तार न जुड़ने पाएं. ये काम सिर्फ इजरायल की ख़ुफ़िया एजेंसी मोसाद कर सकती थी. मोसाद ने इस ऑपरेशन को नाम दिया, रॉथ ऑफ गॉड.
मोसाद के एजेंट माइकल हरारी इस ऑपरेशन को लीड करने वाले थे. उन्होंने 5 टीमें बनाईं. हर टीम का नाम एक खास हिब्रू अल्फाबेट पर रखा गया था.
अलिफ़ - इस टीम में दो ट्रेंड किलर थे.
बेट- में दो एजेंट जो बाकी टीम की फ़र्ज़ी पहचान का इंतज़ाम करते
हेट- में दो एजेंट थे जिनका काम होटल कार आदि का इंतज़ाम करना था
अयिन- में 6 एजेंट थे, जिनका काम निशानदेही और टीम के लिए एस्केप रूट तैयार करना था
पांचवी टीम ‘कोफ़’ में दो लोग थे, जो कम्युनिकेशन का जिम्मा संभालते.
ऑपरेशन में शामिल किसी भी एजेंट का इजरायली सरकार से कोई संपर्क नहीं था. वो बस माइकल हरारी को रिपोर्ट करते थे.
ईश्वर का प्रकोपऑपरेशन की शुरुआत हुई 16 अक्टूबर 1972 के दिन. रोम के एक होटल में गोलियों की आवाज आई और लिस्ट से पहला नाम काट दिया गया. एक महीने बाद फ़्रांस से ऐसी ही खबर आई. ब्लैक सेप्टेम्बर का एक लीडर महमूद हमशारी जानता था कि वो मोसाद के निशाने पर है. इसलिए अपने अपार्टमेंट में छुपकर बैठा था. एक रोज़ उसे एक पत्रकार का कॉल आया. पत्रकार ने उसे मिलने बुलाया. महमूद जैसे ही बाहर निकला. मोसाद की टीम उसके घर में घुसी और उसके टेलीफोन में बम लगा दिया. घर लौटते ही महमूद के पास एक कॉल आया. जैसे ही उसने फोन उठाया, एक रिमोट सिग्नल से फोन में ब्लास्ट कर दिया गया. महमूद की मौत हुई लेकिन तुरंत नहीं. वो कुछ रोज़ हॉस्पिटल में रहा, लेकिन डॉक्टर उसकी जान नहीं बचा पाए.
इसके बाद लगातार ऐसे ही हमले होते रहे. म्यूनिख हमलों के लिए जिम्मेदार हर शख्स को चुन-चुन कर मारा गया. यहां तक कि इस ऑपरेशन के लिए इजरायल ने अपने दोस्तों की भी फ़िक्र नहीं की. मोसाद ने बेरुत की अमेरिकन यूनिवर्सिटी में काम करने वाले एक प्रोफ़ेसर को मार डाला, जिस पर उन्हें शक था कि उसने म्यूनिख हमलों के लिए हथियार पहुंचाए थे. पेरिस में घर लौटते हुए उसकी हत्या की गई. पुलिस के अनुसार उनके माथे और सीने पर एक खास शेप में गोलियां मारी गई थीं. मानो मारने वाला किसी को सन्देश देना चाह रहा हो. सन्देश देने के और भी तरीके थे. मौत से कुछ दिन पहले मरने वाले के परिवार के पास एक गुलदस्ता आता था. साथ में एक कार्ड, जिसमें लिखा होता,
“हम न भूलते हैं, न माफ़ करते हैं”.
इसके अलावा अखबार में शोक सन्देश छापे जाते. जिससे मरने वाले को पता चल जाता अगला निशाना वो है. ये डराने का तरीका था. और कारगर भी था.
लगातार हो रही हत्याओं से घबराहट फ़ैल चुकी थी. जिसके चलते एक बार मोसाद की लिस्ट में शामिल तीन लोगों ने खुद को लेबनान के एक घर में कैद कर लिया. बाहर भारी सुरक्षा तैनात थी. मोसाद ने इन तीनों के लिए एक और स्पेशल ऑपरेशन का प्लान तैयार किया. नाम था, ऑपरेशन स्प्रिंग ऑफ यूथ. इस ऑपरेशन के लिए इजरायली नेवी और एयरफोर्स का इस्तेमाल हुआ. स्पीड बोट के जरिए इजरायली स्पेशल फ़ोर्स के कमांडोज़ लेबनान के तट पर उतरे. यहां उनकी मुलाक़ात मोसाद एजेंट्स से हुई. ये लोग आम लोगों के भेष में अपने टार्गेट्स तक पहुंचे. कई मर्दों ने औरतों का भेष धरा. और रातों रात बिल्डिंग में घुस कर तीन लोगों को मारकर लौट भी गए. एक बिल्डिंग तो इतनी चाक चौबंद थी कि उस पर पैराट्रूपर्स को उतारना पड़ा.
गोल्डा मीर की हत्या की साजिशऑपरेशन रॉथ ऑफ गॉड की शुरुआत गोल्डा मीर के कार्यकाल में हुई थी. इसलिए ब्लैक सेप्टेम्बर संगठन ने उनसे बदला लेने का प्लान बनाया. जनवरी 1973 में गोल्डा मीर रोम जाने वाली थीं. ये खबर ब्लैक सेप्टेम्बर के कमांडर अली हसन सलामेह को लगी. सलामेह ही म्यूनिख हमलों का मास्टरमाइंड भी था. उसने गोल्डा मीर की हत्या का प्लान बनाया. उसके साथी युगोस्लाविया से इटली तक नाव में लादकर मिसाइल लेकर आए. कंधे पर रखकर चलाई जाने वाली ये मिसाइल उस एयरपोर्ट पर छुपाई गई थीं, जहां गोल्डा का विमान उतरने वाला था. साथ ही सलामेह ने मोसाद का ध्यान भटकाने के लिए प्लान बनाया कि थाईलैंड में इजरायल के दूतावास पर हमला करेंगे.
14 जनवरी को गोल्डा का प्लेन रोम में उतरने वाला था. इसके कुछ रोज़ पहले मोसाद को एक जानकारी मिली. एक टेलीफोन कॉल का पता चला. जिसमें एक आदमी दूसरे से कह रहा था, जश्न के लिए मोमबत्ती जलाने का वक्त आ गया है. ये कोड था. मोसाद ने तुरंत छापेमारी शुरू की. रोम के एक घर से उन्हें कुछ मिसाइलों का ब्लूप्रिंट मिला. गोल्डा मीर की सुरक्षा और कड़ी कर दी गई. जिस दिन उनका प्लेन उतरा एयरपोर्ट चारों तरफ से सुरक्षा बलों से घिरा था. सुरक्षाबलों को वहां एक संदिग्ध वैन दिखाई दी. उन्होंने वैन के ड्राइवर को उतरने के लिए कहा. लेकिन उन्होंने फायरिंग शुरू कर दी. इसके बाद वो लोग वहां से पैदल ही भाग निकले. सुरक्षा बलों को वैन से 6 मिसाइल मिली. सलामेह के आदमी इसे गोल्डा मीर के प्लेन पर चलाने वाले थे. लेकिन ऐन मौके पर मोसाद ने उनका प्लान फेल कर दिया.
अली हसन सलामेह अगले कई सालों तक छुपता-फिरता रहा. अंत में जनवरी 1979 में मोसाद ने उसकी कार में बम लगाकर उड़ा दिया. ये सफलता तीन कोशिशों के बाद मिली थी. हालांकि मोसाद यहां भी न रुका. ऑपरेशन रॉथ ऑफ गॉड 20 साल तक चला. इन सालों में मोसाद ने जर्मनी से रिहा हुए दो हमलावरों को मौत के घाट उतारा. लेकिन एक उनके हाथ नहीं आया. जमाल अल गाशे नाम का वो तीसरा शख्स नार्थ अफ्रीकी देश ट्यूनीशिया में जाकर छुप गया था. आख़िरी बार उसे एक डाक्यूमेंट्री में देखा गया. साल 1999 में. डॉक्यूमेंट्री का नाम था, ‘वन डे इन सेप्टेम्बर’. इसमें जमाल अल गाशे का इंटरव्यू भी शामिल था.
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