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मलिक अम्बर: एक गुलाम जिसके एक इशारे से बादशाह बदल जाते थे!

16 वीं सदी में अफ्रीका से भारत पहुंचा एक गुलाम मुगलों के लिए सबसे बड़ा सरदर्द बन गया था.

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मलिक अंबर ने मुगलों के ख़िलाफ़ युद्ध में शिवाजी से कहीं पहले छापामार युद्ध की नई तकनीक अपनाई थी (तस्वीर : Wikimedia Commons)
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कमल
2 दिसंबर 2022 (Updated: 15 फ़रवरी 2023, 22:24 IST)
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ऊपर दी गई पेंटिंग में ग्लोब पर खड़ा एक बादशाह है. और उसके सामने भाले पर लटका है, एक कटा हुआ सर. बादशाह तीर से सर पर निशाना लगा रहा है. ये तस्वीर 1620 के आसपास बनाई गई थी. तस्वीर में जो बादशाह दिखाई दे रहा है, वो मुग़ल बादशाह जहांगीर (Mughal emperor Jahangir) है.  दरअसल जहांगीर की ये पेंटिंग उनकी टूटी हुई हसरतों का नक्शा है. जिस सर पर जहांगीर निशाना लगा रहे हैं, वो सर एक गुलाम का है. लेकिन गर्दन से अलग होना तो दूर, ये सर कभी जहांगीर के आगे झुका भी नहीं. ये सर था, एक ऐसे शख्स का जिसने आगे जाकर शिवाजी महाराज को प्रेरणा दी. और शुरुआत की उस युद्ध नीति की, जिसके जरिए मराठाओं ने सालों तक मुगलों की नाक में दम किए रखा. 

साल 1989 से 2 दिसंबर की तारीख को संयुक्त राष्ट्र द्वारा दास प्रथा उन्मूलन दिवस के रूप में मनाया जाता है. इस अवसर पर हमने सोचा आपको एक गुलाम की कहानी सुनाई जाए. एक गुलाम जिसने साबित किया कि आदमी की नस्ल उसकी किस्मत तय नहीं करती. बल्कि वो अपने तकदीर खुद लिखता है. हम बात कर रहे हैं मलिक अम्बर (Malik Ambar) की. और मलिक अम्बर ने खुद अपनी तकदीर ही नहीं लिखी. वो इतना ताकतवर बन गए कि बादशाहों की तकदीर लिखने लगे. कौन थे मलिक अम्बर और उनका मुगलों से क्या झगड़ा था. चलिए जानते हैं. 

इथियोपिया से भारत तक 

मलिक अम्बर की कहानी शुरू होती है अफ्रीका के एक देश इथियोपिया से. तब इसका नाम अबीसीनिया हुआ करता था. अबीसीनिया के लोगों को गुलाम बनाकर बेचा और खरीदा जाता था. अरब के खरीदार इन गुलामों को हब्शी कहते थे. हालांकि ये शब्द पुराना नहीं हुआ है. 21 सदी के भारत में भी कई बार अफ्रीका मूल के लोगों को इस नाम से नस्लभेदी टिप्पणी का शिकार होना पड़ता है.  अबीसीनिया के दक्षिणी इलाके के एक प्रान्त, कंबाटा में साल 1548 में मलिक अम्बर की पैदाइश हुई थी. उनके बचपन का नाम चापू था. चापू को बचपन में ही उसके मां बाप ने गुलामी के लिए बेच दिया. चापू को बग़दाद ले जाया गया. जो तब गुलामों के व्यापार का एक मुख्य केंद्र हुआ करता था. बगदाद में उसे मीर कासिम अल बग़दादी नाम के एक शख्स ने खरीदा. बग़दादी ने चापू को इस्लाम में दीक्षित 
कर उसे एक नया नाम दिया- अम्बर. बगदाद में रहकर अम्बर ने कारोबार और युद्ध के कौशल सीखे और जल्द ही उसकी मांग पूरे बगदाद में होने लगी. 

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मलिक अम्बर (तस्वीर: Wikimedia  Commons)

बग़दादी ने अम्बर को मोटे मुनाफे पर एक दूसरे व्यापारी को बेच दिया. वहां से अम्बर को दक्षिण भारत लाया गया. दक्कन में अम्बर का नया मलिक बना चंगेज़ खान. जो तब अहमदनगर रियासत में खासा रसूख रखता था. खास बात ये थी कि चंगेज़ खान खुद गुलाम बनाकर भारत लाया गया था. लेकिन धीरे धीरे उसने तरक्की करते हुए ताकत हासिल की और अहमदनगर सल्तनत का सूबेदार बन गया. चंगेज़ खान के पास हजारों गुलामों की सेना थी. दक्कन में उस दौर में गुलामों की हैसियत बाकी दुनिया से बेहतर थी. एक तो गुलाम गुलामी से आजाद हो सकता था. दूसरा उसके बच्चे पैदाइश से गुलाम नहीं माने जाते थे. इसलिए पूरे दक्कन में अबीसीनियाई लोगों का एक वर्ग खड़ा हो गया था, जो अच्छा रसूख रखते थे. और शाही ख़ानदानों में ब्याहे जाते थे. 

अम्बर को शुरुआत में चंगेज़ खान की फौज में भर्ती किया गया. उसकी निष्ठा और लगन से प्रभावित होकर चंगेज़ खान ने उसे अपना निजी सेवक बना लिया. इस दौरान उसे शाही दरबार में जाने का मौका भी मिला. जहां उसने प्रशासन और युद्ध से जुड़े मामलों को करीब से देखा और जाना. 1576 में अहमदनगर में गद्दी को लेकर एक लड़ाई छिड़ी. जिसमें अम्बर के मलिक चंगेज़ खान की मौत हो गई. और अम्बर को गुलामी से आजादी मिल गई. इसके बाद अम्बर ने कुछ वक्त बीजापुर सल्तनत के लिए काम किया, जहां उसे मलिक की उपाधि मिली और उसका नाम हो गया मलिक अम्बर. 
मलिक अम्बर ताकतवर कैसे बने. इसके लिए तब दक्कन के समीकरण को समझना होगा. 

दक्कन की सल्तनतें 

दक्कन में इस दौर में चार सल्तनतें थीं. अहमदनगर, गोलकोण्डा, बीजापुर और मुग़ल सल्तनत. मुग़ल लगातार दक्कन में अपनी पहुंच बढ़ाने की कोशिश कर रहे थे. ऐसे में दक्कन की फौजों को लगातार मदद की जरुरत होती. इसी का फायदा उठाने के लिए मलिक अम्बर ने सौ-डेढ़ सौ गुलामों को भर्ती किया और एक किराए की फौज बना ली. जिस सल्तनत को जरुरत होती, वो अपनी फौज उसे किराए पर दे देते. अगले दो दशक तक ऐसा ही चला. फिर साल 1595 में मलिक अम्बर को एक नई संभावना दिखाई दी. 

अहमदनगर सल्तनत आपसी लड़ाइयों के चलते जर जर हालत में पहुंच चुकी थी. और इसका फायदा उठाने के लिए मुग़ल उन पर चढ़ाई की तैयारी कर रहे थे. मलिक अम्बर ने एक सिपहसालार के साथ हाल मिलाया. दोनों के पास मिलाकर 7 हजार की फौज थी. जो उन्होंने अहमदनगर की मदद के लिए देने का फैसला किया. साल 1595 में मुग़ल सेना ने अहमदनगर पर चढ़ाई कर दी. अहमदनगर की महारानी चांद बीबी ने गोलकोण्डा और बीजापुर की मदद से मुगलों को पीछे हटाने में कामयाबी पाई. लेकिन मुगलों ने पहले बेरार पर कब्ज़ा किया और फिर धीरे-धीरे अहमदनगर की सीमाओं में दखल देने लगे. 

चांद बीबी (तस्वीर: wikimedia Commons)

1597 में चांद बीबी और मुग़लों के बीच एक और बार लड़ाई हुई. और इस बार जीत मुगलों की हुई. अहमदनगर किले पर मुगलों का कब्ज़ा हुआ तो चांद बीबी के खिलाफ उनकी ही रियासत के लोगों ने बगावत कर दी. साल 1599 में उनके अपने ही सैनिकों ने उनकी हत्या कर डाली. संभव था कि ये अहमदनगर सल्तनत का अंत होता. लेकिन इस खेल में अभी एक मुहरे की चाल बाकी थी. 
गेम ऑफ थ्रोन्स के एक सीन में लिटिल फिंगर कहता है, ‘chaos is a ladder’. यानी ‘अराजकता एक सीढ़ी है’. दक्कन में फ़ैली इस अराजकता को सीढ़ी बनाने वाले शख्स का नाम था- मलिक अम्बर. 

अराजकता की सीढ़ी 

मुग़ल कब्ज़े के बाद होने वाली अफरातफरी में मलिक अम्बर ने हजारों लोगों को अपनी तरफ किया और एक ताकतवर फौज बना ली. इतना ही नहीं अपनी ताकत को शाही मुहर देने के लिए उन्होंने चांद बीबी के पोते मुर्तज़ा निजाम शाह को अहमदनगर सल्तनत का नया सुल्तान घोषित कर दिया. उन्होंने परंदा को अहमदनगर सल्तनत की नई राजधानी बनाया. और अपनी बेटी की शादी नए सुल्तान से कर दी. हालांकि असली ताकत मलिक अम्बर के हाथ में थी. उन्होंने खुद को अहमदनगर सल्तनत का वज़ीर नियुक्त किया. सल्तनत पर उनकी पकड़ इस कदर थी कि दूसरे राज्य अहमदनगर को ‘अम्बर की जमीन’ कहकर बुलाते थे. अम्बर ने अहमदनगर को मजबूत किया और दक्कन के राजाओं से साथ संबंधों को सुधारा. उन्होंने मुगलों को सीधी टक्कर देनी शुरू की. 

इधर 1605 ईस्वीं में मुग़ल बादशाह अकबर की मौत हो गई. मुग़ल गद्दी को लेकर उत्तराधिकार की लड़ाई में जीत मिली शहजादे सलीम उर्फ़ जहांगीर को. गद्दी संभालते ही जहांगीर ने दक्कन की ओर ध्यान देना शुरू किया, जहां मलिक अम्बर उनके पिता की कब्जाई जमीन को वापिस लेते जा रहे थे. वैसे भी मुग़ल खुद को पूरे हिंदुस्तान का मलिक मानते थे. उनके दरबार में कहावत चलती थी कि बारिश की कुछ बूंदे समंदर की बराबरी नहीं कर सकती. ऐसा दक्कन की फौजों के लिए कहा जाता था. जो कुल मिलाकर भी मुगलों की एक तिहाई थीं. 

मलिक अम्बर और मुर्तज़ा निजाम शाह (तस्वीर: Wikmedia Commons)

लेकिन ये बात सिर्फ आधा सच थी. ये सच था कि दक्कन फौज की ताकत में मुगलों से कमजोर थे. लेकिन पैसे के मामले में उनकी शक्ति मुगलों के बराबर और कभी कभी तो उनसे भी बढ़कर थी. दस्तावेज़ बतातें हैं कि अकेले बीजापुर सल्तनत को साल में 13 करोड़ की आमदनी होती थी. वहीं मुगलों को 22 करोड़ की. दक्कन सल्तनत के पास मुगलों से लड़ने की पूरी क्षमता थी. लेकिन सिर्फ तभी जब वो साथ मिलकर काम करते. उनकी आपसी लड़ाई मुग़लों को फायदा पहुंचा रही थी. मलिक अम्बर ने बीड़ा उठाया कि वो दक्कन को एक कर मुगलों से लोहा लेंगे. बीजापुर सल्तनत को लिखे एक खत में वो कहते हैं, “जब तक मेरे शरीर में जान है. मैं मुगलों को जीतने नहीं दूंगा”.

मुगलों के साथ जंग 

 जितने बार भी मुगलों ने दक्कन में आगे बढ़ने की कोशिश की. उन्हें अपने सामने मलिक अम्बर खड़े नजर आए. मलिक अम्बर ने हल्के घुड़सवारों की छोटी छोटी टुकड़ियां बनाई, जो पहाड़ी इलाकों में तेज़ी से चल सकते थे. ये घुड़सवार मुगलों की विशाल सेना पर अचानक हमला करते और मौका मिलते ही भाग जाते. यही रणनीति आगे चलकर शिवाजी महाराज ने औरंगज़ेब के खिलाफ अपनाई थी. छत्रपति शिवाजी के दरबार में लिखी कविता, श्री शिव भारत में मलिक अम्बर को सूर्य की संज्ञा दी गयी है. शिवाजी के दादा मालोजी, मलिक अम्बर का दायां हाथ हुआ करते थे.

1610 का साल मलिक अम्बर की जिंदगी का निर्याणक साल माना जाता है. इसी साल उन्होंने मुगलों को पछाड़ते हुए अहमदनगर किले पर कब्ज़ा कर लिया और मुग़ल इलाकों में हमला करते हुए सूरत बंदरगाह को नष्ट कर डाला. व्यापार की दृष्टि से सूरत बंदरगाह मुगलों के काफी मायने रखता था. इसलिए इस घटना ने जहांगीर को आगबबूला कर दिया. 1610 तक मलिक अम्बर ने 50 हजार की फौज इकठ्ठा कर डाली थी. साथ ही उन्होंने खिड़की नाम का एक नया शहर बसाकर उसे अपनी राजधानी बना दिया. खिड़की यानी आज का औरंगाबाद. तब के यात्रा वृतांतों के हिसाब से खिड़की काफी विकसित नगर था. यहां शाही लोगों के रहने के लिए महल और खूबसूरत बाग़ बने हुए थे. खिड़की में पानी की समस्या थी. इसलिए मलिक अम्बर ने यहां नहरों का जाल बनाया.

अहमदनगर किला (तस्वीर: Wikimedia Commons) 

1610 में ही मलिक अम्बर को पहली बार एक बड़े विद्रोह का सामना करना पड़ा. दरअसल तब तक अहमदनगर के सुल्तान मुर्तज़ा निजाम शाह ने एक दूसरी शादी कर ली थी. नई मल्लिका ने एक रोज़ सुल्तान की दूसरी बेगम, यानी मलिक अम्बर की बेटी को सरेआम बुरा भला कहा. उसे हब्शी और गुलाम की बेटी कहकर गाली दी. सुल्तान ने भी हां में हां मिलाई क्योंकि वो मलिक अम्बर के साए तले जीते हुए तंग आ चुका था. जब मलिक अम्बर को इस घटना का पता चला तो उन्होंने सुल्तान और उसकी नई बेगम को जहर देकर मरवा डाला. इसके बाद उन्होंने अपने बेटी की औलाद को गद्दी पर बैठा दिया 

इसी बीच मलिक अम्बर ने एक और फैसला लिया. तब जमीन का अधिकार शाही दरबार के पास होता था. उन्होंने नया नियम बनाते हुए मराठा सरदारों को जमीन का मलिकाना हक़ दे दिया. इससे कई मराठा सरदार उनके खास सिपहसालार बन गए. लेकिन साथ ही मराठाओं की ताकत बढ़ने से उन्हें चुनौती भी मिलने लगी. उनके ऊपर कई बार जानलेवा हमले भी हुए, लेकिन हर बार वो बच निकले. साल 1616 में उन्होंने मुगलों के साथ हुई एक जंग में हार का मुंह देखना पड़ा. जिसके चलते उन्हें मुगलों से संधि करनी पड़ी और बेरार और अहमदनगर का किला वापिस मुगलों को सौंप देना पड़ा. 

भटवाड़ी की जंग 

अब तक मलिक अम्बर को मुगलों के खिलाफ बीजापुर सल्तनत का साथ मिल रहा था. लेकिन 1617 में बीजापुर ने मुगलों से संधि करते हुए मलिक अम्बर के खिलाफ जंग छेड़ दी. कुछ सालों तक रक्षात्मक लड़ाई लड़ने के बाद 1624 में मलिक अम्बर ने बीजापुर पर हमला किया और बीदर और बीजापुर की राजधानी पर घेरा डाल दिया. मुगलों और बीजापुर से उन्हें दोतरफा लड़ाई लडंनी पड़ रही थी. 

दोनों फौजों का सामना करने के लिए उन्होंने भटवाड़ी को चुना. भटवाड़ी के पास उन्होंने एक नदी के किनारे डेरा डाला. जैसे ही बीजापुर और मुग़ल फौजें नजदीक आई. उन्होंने पास मौजूद नदी का बांध खोल दिया. जिससे जमीन पानी और कीचड़ से भर गई. ऐसी जमीन पर मुग़ल आर्टिलरी का आगे बढ़ना मुश्किल था. मलिक अम्बर ने अपने घुड़सवारों को मुग़ल आर्मी के दाहिने फ्लेंक पर हमला करने के लिए भेजा. और लगातार कई महीनों तक मुग़ल और बीजापुर फौज की नाक में दम किए रखा. दो महीने तक मुग़ल फौजों को रोके रखने के बाद सितम्बर 1624 में मुगलों और मलिक अम्बर का आमना सामना हुआ. इस जंग में मलिक अम्बर के साथ शिवाजी के पिता शाहजी भी थे. 

मलिक अम्बर (तस्वीर: Wkimedia Commons)

यूरोपियन यात्री पिएट्रो वाले ने अपने दस्तावेज़ों में इस लड़ाई का जिक्र किया है. मलिक अम्बर की फौज के लिए ये जाना पहचाना इलाका था.उनकी घुड़सवार सेना ने एक के बाद एक हमले करते हुए मुग़ल और बीजापुर फौजों के फॉर्मेशन को ध्वस्त कर दिया. लेकिन बीच लड़ाई में जब अम्बर की फौजें जीत रही थीं, उन्होंने पीछे हटना शुरू कर दिया. मुग़ल फौज को जीत की किरण नजर आई. उन्होंने तेज़ी से आगे की ओर प्रेस किया, लेकिन तभी उन्हें पता चला कि ये मलिक अम्बर की एक चाल थी. अम्बर ने अपनी घुड़सवार टुकड़ी को दाईं तरफ भेजते हुए मुग़ल सेना के ऊपर पीछे से अटैक करने के लिए भेजा. जिससे मुग़ल सेना में भगदड़ मच गयी. एक मुग़ल कमांडर मारा गया, जबकि तीन को बंदी बना लिया गया. बीजापुर की फौज के कमांडर भी पकड़े गए. जो बचे उन्होंने भागने में ही अपनी भलाई समझी. 

इस युद्ध में मलिक अम्बर को एक बड़ी जीत मिली. इस जीत ने मराठाओं के हौंसले तेज़ कर दिए. वहीं मलिक अम्बर का कद इतना बढ़ गया कि उनके क़दमों में कुबेर के खजाने लाकर डाले जाने लगे. मलिक अम्बर ने आगे भी कई छोटी बड़ी लड़ाइयां लड़ी और सोलापुर को भी अपने कब्ज़े में कर लिया. 78 साल की भरपूर जिंदगी जीने के बाद साल 1626 में मलिक अम्बर की मौत हो गई. जिंदगी भर मलिक अम्बर से नफरत करने वाले जहांगीर ने उनकी शान में लिखवाया, 

"युद्ध नीति में और शासन में 
न्याय में और नियंत्रण में 
उसके बराबर और कोई नहीं था
इतिहास में अबीसीनिया के किसी 
गुलाम ने को कद हासिल नहीं किया  जैसा मलिक अम्बर ने किया था” 

वीडियो देखें- सत्य साईं बाबा कैसे करते थे चमत्कार?

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