महाराणा प्रताप: हल्दीघाटी से लेकर दिवेर की जंग तक पूरी कहानी
दिवेर की जंग जिसके बाद मुगल सेना ने महाराणा प्रताप पर हाथ डालने की कोशिश नहीं की
हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप और मान सिंह का आमना-सामना हुआ. इतिहासकार लॉयड और सुजैन रुडोल्फ इस एक क्षण के बारे में लिखते हैं,
“महाराणा ने जब मान सिंह को देखा होगा तो उन्हें एक अहसास जरूर हुआ होगा. वो ये कि मान सिंह वो सब कुछ थे, जो होने से महाराणा प्रताप ने इंकार कर दिया था. एक अजेय शाही सेना के कमांडर, एक बड़ी रियासत के सूबेदार जिनका मुग़ल दरबार में बड़ा ओहदा था.”
राजस्थान की लोक कथाओं में एक किस्सा है. जब अकबर ने राजा मान सिंह को महाराणा प्रताप को मनाने भेजा तो महाराणा ने मान सिंह को मुगलों का रिश्तेदार बताते हुए उनके साथ खाने से इंकार कर दिया था. हालांकि अधिकतर इतिहासकारों ने इस किस्से को मनगढ़ंत बताया है. लेकिन इतना जरूर है कि हल्दीघाटी की लड़ाई सिर्फ अकबर और महाराणा प्रताप के बीच ही नहीं थी. ये दो राजपूतों की आपस की लड़ाई भी थी.
पिछले सालों में इस बात पर बड़ी बहस हुई है कि हल्दीघाटी की लड़ाई कौन जीता? अधिकतर इतिहासकार मानते हैं कि चूंकि महाराणा इस लड़ाई से पीछे हट गए थे इसलिए टेक्निकली जीत शाही सेना की हुई. लेकिन हाल के वर्षों में एक नया नजरिया भी उपजा है जिसमें कहा जाता है कि लड़ाई असल में महाराणा प्रताप ने जीती थी. अंग्रेज़ी की कहावत “लॉस्ट द बैटल टू विन द वॉर” इस पूरी कहानी को समझने में हमारी मदद कर सकती है. जिसका एक अहम हिस्सा है दिवेर की लड़ाई.
महाराणा प्रताप गद्दी पर बैठेआज 9 मई है और आज ही तारीख का सम्बन्ध है महाराणा प्रताप से. आज ही के दिन यानी 9 मई 1540 को चित्तौड़ के कुम्भलगढ़ किले में महाराणा प्रताप का जन्म हुआ था. उनकी मां का नाम जैवंता बाई था और पिता चित्तौड़ के महाराज उदय सिंह थे. हालांकि प्रताप उदय सिंह के सबसे बड़े बेटे थे. लेकिन उन्होंने अपनी सबसे प्रिय रानी धीरबाई के बेटे जगमाल सिंह को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया.
उदय सिंह की मृत्यु के बाद जगमाल सिंह ने गद्दी पर बैठने की कोशिश की लेकिन अधिकतर सिसोदिया सुल्तान महाराणा प्रताप के साथ थे. इसलिए जगमाल को गद्दी से हटाकर महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक कराया गया. 1572 में गद्दी में बैठे के बाद महाराणा ने सबसे पहले अपने डिफेन्स मजबूत किए. उन्हें अंदाज़ा था कि आज या कल शाही मुग़ल सेना से युद्ध होना ही है. इसलिए उन्होंने मेवाड़ में छप्पन और गोड़वाड़ के इलाकों पर अपनी पकड़ मजबूत की और साथ ही अरावली के जंगलों में रहने वाले भीलों से अपने पुराने रिश्ते मजबूत किए.
महाराणा प्रताप के सत्ता संभालने के चार साल बाद आखिरकार दोनों सेनाएं आमने-सामने आईं. अकबर ने मान सिंह के नेतृत्व में एक बड़ी सेना गोगुंदा की तरफ रवाना की. संख्या बल के हिसाब से महाराणा की स्थिति कमजोर थी. कहा जाता है कि दोनों सेनाओं में 1 और 4 का अनुपात था. माने मेवाड़ के एक सैनिक पर मुगलों के 4 सैनिक. मुगल सेना की योजना थी गोगुंदा के किले पर कब्जे कर महाराणा प्रताप को कैद करने की.
हल्दीघाटी का युद्धमहाराणा हो अंदाजा था कि आमने-सामने के युद्ध में मुगलों को हराना आसान नहीं. इसलिए उन्होंने मुगल सेना को हल्दीघाटी के दर्रे में घेरने का प्लान बनाया. अपनी पीली रंग की मिट्टी के कारण इस घाटी का नाम हल्दी घाटी पड़ा. जिसके बीच से निकलने का रास्ता इतना संकरा था, कि एक साथ दो गाड़ी तक नहीं निकल सकती थीं. 18 जून की दोपहर दोनों सेनाओं के बीच जंग की शुरुआत हुई. महाराणा प्रताप की सेना ने पहला हमला किया.
जवाब में मान सिंह ने 900 सिपाहियों को सय्यद हाशिम बारहा के नेतृत्व में आगे भेजा. चूंकि प्रताप के सेना ऊंचाई पर थी. इसलिए उनकी कैवेलरी के हमले के आगे हाशिम को पीछे हटना पड़ा. लेकिन इसी बीच मुगलों को एक बड़ी जीत मिली जब उन्होंने मेवाड़ के सबसे प्रमुख हाथी राम प्रसाद को अपने कब्ज़े में ले लिया. कहते हैं इस हाथी को बाद में अकबर को तोहफे के रूप में पेश किया गया था. अकबर ने खुद इस हाथी के किस्से कई बार सुने थे.
लड़ाई का अधिकतर हिस्सा हल्दीघाटी के पास एक मैदान में लड़ा गया. मुगल इतिहासकार अबुल फजल ने इसे “खमनौर का युद्ध” कहा है. जबकि बदायूंनी के अनुसार लड़ाई गोगुंदा में हुई थी. जो भी हुआ हो इतना तय है कि इस लड़ाई में जमकर रक्तपात हुआ. इसीलिए जिस मैदान पर लड़ाई हुई उसे आगे जाकर रक्त तलाई का नाम मिला. ब्रिटिश इतिहासकार जेम्स टॉड के अनुसार शुरुआती लड़ाई में प्रताप की सेना भारी पड़ रही थी. तब मुग़ल कमांडर महतार खान ने एक अफवाह फैलाई कि अकबर खुद लड़ाई लड़ने आ रहे हैं. इस बात से मुग़ल सेना को नया साहस मिला. और वो लड़ाई में और तेज़ी से लड़ने लगे. फिर वो क्षण आया जब राजा मान सिंह और महाराणा आमने सामने आए.
महाराणा और मान सिंह की लड़ाईमहाराणा प्रताप चेतक पर सवार थे. जबकि मान सिंह अपने हाथी पर. प्रताप ने अपना भाला फेंका और वो जाकर सीधे महावत को लगा. इसी समय मान सिंह के हाथी की सूंड के वार से चेतक का एक पैर गंभीर रूप से घायल हो गया. मान सिंह को खतरे में देख मुग़ल सेना ने महाराणा को घेर लिया. मुश्किल थी कि इस घेरे को तोड़कर आगे कैसे बड़ा जाए. प्रताप के साथी सुल्तानों ने उनसे जंग से बाहर निकलने का कहा. ताकि वो आगे लड़ाई जारी रख सकें. महाराणा पीछे हटने को तैयार हो गए. ये एक टैक्टिकल रिट्रीट थी. लेकिन मुगलों की नजर से देखें तो उनके लिए जीत थी.
महाराणा के जंग से बाहर निकलने के लिए मुग़ल सेना का ध्यान भटकाना जरूरी था. तब युद्ध के मैदान में 100 साल पुराना इतिहास दोहराया गया. 12 अप्रैल के एपिसोड में हमने आपको खानवा के युद्ध की कहानी सुनाई थी. तब राणा सांगा की जान बचाने के लिए झाला के सरदार अज्जा ने राणा का भेष धरकर लड़ाई लड़ी थी. ताकि राणा सांगा की जान बचाई जा सके.
ऐसा ही कुछ हल्दीघाटी की लड़ाई में भी हुआ. महाराणा प्रताप को बचाने के लिए मान सिंह झाला (झाला बीदा) ने उनका शाही छत्र लिया और खुद जंग में कूद पड़े. छत्र को देखकर यूं लगता था कि महाराणा प्रताप अभी भी लड़ रहे हैं, जबकि वो अपने घोड़े चेतक पर सवार होकर जंग से बाहर निकल गए थे. गौर करने की बात ये है कि राणा सांगा की जान बचाने वाले झाला अज्जा इन्हीं झाला बीदा के पूर्वज थे.
चेतक की मौत3 घंटे तक हल्दीघाटी में जंग चली. खून से लथपथ चेतक किसी तरह राणा को जंग से दूर ले गया. और उन्हें हल्दीघाटी के कुछ 3 किलोमीटर दूर बलिया गांव तक पहुंचाया. यहां चेतक ने एक लम्बी खाई के पार छलांग लगाई और उसके बाद अपने प्राण त्याग दिए.
राजस्थान की लोक कथाओं में इसी किस्से से जुड़ी एक और कहानी सुनाई जाती है. कहते हैं कि महाराणा प्रताप के छोटे भाई शक्ति सिंह ने यहां पर महाराणा प्रताप की जान बचाई थी. वो युद्ध को दूर से देख रहे थे. लेकिन जब दो मुग़ल सैनिकों ने महाराणा का पीछा किया तो वो उनकी मदद को आए. वहां उन्होंने मरे हुए चेतक को देखा और तब उन्हें पछतावा हुआ कि जब एक जानवर इतना वफादार हो सकता है तो वो फिर भी इंसान हैं. इसके बाद शक्ति ने महाराणा प्रताप से माफी मांगी और उन्हें अपना घोड़ा दे दिया. हालांकि इतिहासकारों के हिसाब से ये सिर्फ सुनी-सुनाई कहानी है जिसे बाद में राजपूतों में निष्ठा बढ़ाने के लिए गढ़ा गया था.
हल्दीघाटी से निकलकर महाराणा प्रताप ने जंगलों की शरण ली. अक्टूबर 1576 में अकबर खुद गोगुंदा पहुंचे. इसके बाद उन्होंने आसपास के इलाकों में कई मुग़ल पोस्ट तैयार की. ताकि महाराणा प्रताप को घुटने पर लाया जा सके. यहीं पर महाराणा की तैयारी काम आई. अपने बचपन के दिनों से उन्होंने भील और गरासिया जनजाति के लोगों से रिश्ता बनाए रखा था. जो आसपास के जंगलों में रहा करते थे. इन्हीं लोगों से उन्होंने जंगल में छिपना, बिना आवाज किए चलना, भेष बदलना, और जंगल में क्या खाना है, क्या नहीं, ये सब सीखा था. साथ ही उन्होंने भीलों को जागीर भी बांटी थी, जिसके चलते वो उनके प्रति अपनी निष्ठा रखते थे.
घास की रोटियांयहीं से वो घास की रोटियों वाला किस्सा भी निकलता है. किस्सा यूं है कि एक बार महाराणा अपने परिवार के साथ जंगली अनाज और पत्तियों की रोटी बनाकर खा रहे थे. जंगल से कुछ भी मिलना मुश्किल था, इसलिए कुछ रोटी एक दिन खाकर बाकी अगले दिन के लिए बचा दी जाती. उस रोज़ जैसे ही राणा ने निवाला मुंह में डाला, उन्हें अपनी बेटी की चीख सुनाई दी. उन्होंने देखा कि एक जंगली जानवर बेटी के हाथ से रोटी छीनकर भाग गया है.
अपनी छोटी सी बेटी की चीख सुनकर कहते हैं राणा को इतनी वेदना उठी कि उन्होंने अकबर के सामने हथियार डाल देने का फैसला किया. ये खबर अकबर तक पहुंची तो उन्होंने बीकानेर के राजकुमार पृथ्वीराज को इस खबर की सच्चाई पता करने के लिए भेजा.
तब पृथ्वीराज ने एक कविता के रूप में सन्देश महाराणा के पास भिजवाया. जिसमें लिखा था कि अगर महाराणा प्रताप अकबर को बादशाह मानेंगे तो उस दिन सूरज पश्चिम से उगेगा. आगे पृथ्वीराज ने लिखा कि अगर महाराणा भी राजपूतों की आन नहीं रख पाए तो हम सभी को अपना सर शर्म से झुका लेना होगा. लोक कथाओं के अनुसार जब महाराणा ने ये कविता सुनी तो उन्होंने पृथ्वीराज को जवाब देते हुए लिखा,
दिवेर की जंगजब तक सांस में सांस है, ईश्वर इस बात का साक्षी है कि प्रताप अकबर को सिर्फ तुर्क कहकर बुलाएगा. और सूरज वहीं से निकलेगा जहां से वो रोज़ निकलता है
जंगल में रहते हुए ही महाराणा प्रताप ने मुग़ल सेना के खिलाफ छापामार युद्ध की शुरुआत की. भीलों की सहायता से महाराणा ने मुगल सैनिकों के मन में खौफ पैदा कर दिया था. इतिहासकार गोपीनाथ शर्मा लिखते हैं कि राणा के छापामार युद्ध की वजह से मुग़ल सैनिक मेवाड़ में कैद होकर रह गए थे. जैसे ही अकबर का ध्यान राजपूताना से हटा, राणा ने अपने खोये हुए इलाकों पर फिर से कब्जा करना शुरू कर दिया. अकबर ने महाराणा को पकड़ने के लिए छह सैनिक अभियान मेवाड़ भेजे, लेकिन किसी को कामयाबी नहीं मिली. हल्दीघाटी के युद्ध के छह साल के भीतर ही राणा ने भामाशाह की मदद से 40 हज़ार घुड़सवारों की नई सेना खड़ी कर ली.
1584 में अकबर ने महाराणा के खिलाफ एक आख़िरी कैम्पेन भेजा. लेकिन इसमें भी उन्हें सफलता नहीं मिली. इसके बाद अकबर जाकर लाहौर बस गए. और 1597 में महाराणा प्रताप की मृत्यु तक मुगलों ने कभी इस इलाके में दखल नहीं दिया.
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