जब उंगली के निशान के लिए लड़ पड़े दो अंग्रेज़!
1860 में बंगाल में काम कर रहे एक ब्रिटिश कलेक्टर ने एक ठेकेदार का हाथ स्याही में डुबाया और कागज़ और उसकी हथेली का ठप्पा लगा दिया. यहां से शुरू हुई उंगलियों के निशान को लेकर एक लड़ाई, जो ब्रिटेन तक पहुंच गई.
साल 1978 की बात है. अमेरिका के एक शहर में 61 साल की एक बूढ़ी महिला की उसके ही घर में हत्या कर दी गई. पुलिस ने खूब छानबीन की लेकिन कातिल को न पकड़ सके. साल 2008 में इस केस की फ़ाइल दुबारा खोली गई. और इस बार कातिल पकड़ा गया. 36 साल बाद सॉल्व होने वाले इस केस की कुंजी बने, वो उंगली के निशान, जो घटनास्थल से मिले थे.
ये अकेला केस नहीं है. देश विदेश में हजारों ऐसे केस हैं जिनकी गुत्थी घटना के कई दशकों बाद सुलझ पाई, और इन सब को सुलझाने में मदद की, उंगली के निशान यानी फिंगरप्रिंट्स ने. उंगली में स्याही डुबाने से शुरू हुई तकनीक आज डिजिटल पहचान का मुख्य जरिया बन चुकी है. कमाल की बात ये है कि उंगली के निशान की पहचान के तौर पर शुरुआत, यहीं भारत में हुई थी. कैसे हुई, किसने की? चलिए जानते हैं.
कहानी की शुरुआत होती है साल 1880 से. महान वैज्ञानिक चार्ल्स डारविन की तबीयत उस रोज़ कुछ नासाज़ थी. फिर भी वो रोज़ की तरह सुबह अपनी काम की मेज़ पर बैठे. मेज़ पर एक बंद लिफाफा रखा था. डार्विन ने लिफाफा खोला. पढ़ा और अपने दोस्त को भिजवा दिया. उनके दोस्त, फ्रांसिस गाल्टन गणित के बड़े विद्वान थे. लेकिन कई दिन तक गाल्टन का इस खत पर कोई जवाब नहीं आया.
इसके कुछ रोज़ बाद साइंस मैगज़ीन, नेचर में एक रिसर्च पेपर छपा. इस रिसर्च पेपर का शीर्षक था, On The Skin-Furrows of the Hand. क्या था इस रिसर्च पेपर में?
इस रिसर्च पेपर में लिखा था कि कैसे उंगली के निशानों को क्राइम सुलझाने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है. इस रिसर्च पेपर को लिखने वाले का नाम था, हेनरी फॉल्ड्स. हेनरी फॉल्ड्स की कहानी क्या थी, वो आगे बताएंगे. लेकिन अभी के लिए ये समझ लीजिए कि इस पेपर के सामने आते ही हेनरी फॉल्ड्स पूरी दुनिया में फेमस हो गए.
20 वीं सदी आते-आते पूरे यूरोप में क्राइम इन्वेस्टिगेशन के लिए फिंगरप्रिंटिंग तकनीक शुरु हो चुकी थी. जिसका श्रेय मिल रहा था, हेनरी फॉल्ड्स को. और ये बात एक दूसरे ब्रिटिश व्यक्ति के गले नहीं उतर रही थी. इस आदमी का नाम था, विलियम हर्शल. हर्शल का दावा था कि उन्होंने फिंगरप्रिंटिंग की खोज की थी, इसलिए खोज का श्रेय उन्हें मिलना चाहिए. उन्होंने इस बाबत नेचर मैगज़ीन को एक खत भी लिखा. मैगज़ीन ने जवाब तो नहीं दिया लेकिन 1880 से 1920 तक हेनरी फॉल्ड्स और विलियम हर्शल के बीच एक लम्बी लेटर वॉर चली. अंत में रेफरी बने फ्रांसिस गाल्टन, डार्विन के दोस्त जिनके बारे में पहले चर्चा की थी. आपको याद होगा कि डार्विन ने गाल्टन को एक खत दिया था, जिसका जवाब गाल्टन नहीं दे पाए थे. दरअसल ये खत हेनरी फॉल्ड्स का ही लिखा हुआ था. और इसमें फिंगरप्रिंटिंग की खोज दर्ज़ थी.
गाल्टन ने इस खत का जवाब इसलिए नहीं दिया क्योंकि इसमें उनकी निष्ठा उनके आड़े आ रही थी. फॉल्ड्स का खत मिलने से पहले उनकी मुलाक़ात विलियम हर्शल से हो चुकी थी. और हर्शल ने उन्हें फिंगरप्रिंटिंग तकनीक के बारे में पहले ही बता दिया था. उस साल दिए एक लेक्चर में गाल्टन ने विलियम हर्शल की तकनीक की चर्चा भी की थी. जिसके चलते काफी हंगामा भी हुआ था कि फॉल्ड्स की खोज का श्रेय गाल्टन अपने दोस्त को दे रहे हैं. कई सालों तक ये सवाल बना रहा कि खोज का श्रेय मिलना किसे चाहिए. इस सवाल का जवाब जानने के लिए पहले हमें जाननी होगी, दोनों खोजों की कहानियां, जिन दोनों का ही रिश्ता भारत के साथ था. तो चलिए, पहले विलियम हर्शल के दावे की पड़ताल करते हैं.
विलियम जेम्स हर्शल और हाथों का ठप्पाविलियम जेम्स हर्शल 1853 में भारत आए. और मुर्शीदबाद में कलेक्टरी का काम करने लगे. यहां नौकरी करते हुए 1858 में एक छोटी से घटना से उन्हें फिंगरप्रिंटिंग का आईडिया मिला. हुआ यूं कि एक रोज़ हर्शल रोड बनाने का कच्चा माल सप्लाई करने वाले एक लोकल ठेकेदार, राज्यधर कोणाई से मिलने गए. जहां दोनों के बीच एक सरकारी कॉन्ट्रैक्ट साइन होना था. कॉन्ट्रैक्ट साइन होते ही हर्शल के दिमाग में न जाने क्या आया कि उन्होंने कोणाई का हाथ स्याही ही दावत में डाला और कॉन्ट्रैक्ट के पीछे उसकी हथेली का ठप्पा लगा दिया. हर्शल अपनी किताब में लिखते हैं, “हाथ का ठप्पा लगाने के पीछे मेरा उदेश्य ठेकेदार को डराना था, ताकि बाद में वो मुकरते हुए ये न कह दे कि कॉन्ट्रैक्ट में हस्ताक्षर उसके नहीं हैं”.
ये तरीका हर्शल को इतना रास आया कि उन्होंने हर कॉन्ट्रैक्ट में हाथ का निशान लेने की आदत डाल ली. 1860 में हर्शल का तबादला नदिया जिले में हुआ. नदिया 1859 में नील क्रांति का केंद्र रहा था. किसानों को नील उगाने पर मजबूर किया जाता था. जिसकी जद में आते थे बंधुआ मजदूर और गरीब किसान. अंग्रेज़ों के साथ-साथ स्थानीय जमींदारों के लिए भी ये फायदे का सौदा था क्योंकि वो किसानों को ब्याज पर रकम देते और खूब मुनाफा लूटते. इसी के चलते 1859 में नील की बुवाई के विरोध में नदिया में खूब दंगे भड़के थे.
1857 की क्रांति की तरह नील क्रांति भी दबा दी गई लेकिन हालात अभी भी नाजुक थे. हालांकि जमींदारों की अभी भी मौज़ थी. वो फ़र्ज़ी हस्ताक्षरों से अपनी जमीन का नाजायज किराया वसूलते थे और कभी-कभी तो जमीन ही हथिया लेते थे. कलेक्टर बनते ही हर्शल ने यहां भी नया नियम लागू कर दिया. जिसके बाद हर कॉन्ट्रैक्ट पर हाथ का निशान लगाना जरूरी हो गया. हर्शल ने बंगाल सरकार के पास प्रस्ताव भेजा कि वो उंगलियों के निशान को एक कॉमन स्टैंडर्ड बना दें. लेकिन सरकार इसके लिए राजी नहीं हुई. सरकार स्थानीय लोगों से डरी हुई थी. 1857 की क्रांति की आग अभी ठंडी नहीं हुई थी. ऐसे में सरकार नहीं चाहती कि आम भारतवासी को ऐसा लगे कि स्याही में हाथ डुबाकर उसकी बेज्जती हो रही है.
इसके बाद भी हर्शल ने हिम्मत नहीं हारी, और अपने एरिया में हाथ के निशान का नियम बनाए रखा. 1870 के आसपास उन्हें हुगली का कलेक्टर बनाया गया. हुगली में हर्शल ने देखा की सरकारी पेंशनों में खूब जालसाजी हो रही है. लोग जाली दस्तखत कर दूसरों का पेंशन मार रहे थे. इतना ही नहीं जेलों में बंद रसूखदार लोग भी फ़र्ज़ी दस्तखत करा कर दूसरों को अपनी जगह जेल काटने के लिए भेज दिया करते थे. हर्शल ने हुगली में ये नियम बना दिया की सभी सरकारी कर्मचारियों और जेल कैदियों के फिंगरप्रिंट का रिकॉर्ड रखा जाएगा. इस कदम से जालसाजी की घटनाएं लगभग बंद हो गई. हर्शल ने सरकार से एक बार दोबारा ये नियम पूरे बंगाल में लागू करने की सिफारिश की. लेकिन सरकार इस बार भी तैयार नहीं हुई. हर्शल ब्रिटेन लौट गए.
जापान में मिले 2000 साल पुराने उंगली के निशानइसके कई साल बाद उन्हें पता चला कि जिस तरीके की शुरुआत उन्होंने की है, हेनरी फॉल्ड्स उस पर दावा ठोक रहे हैं. हेनरी फॉल्ड्स की कहानी क्या थी? उनकी कहानी भी भारत से शुरू हुई थी. दरअसल वो एक मिशनरी डॉक्टर थे, जिन्हें चर्च ऑफ स्कॉटलैंड ने भारत में अस्पताल चलाने भेजा था. फॉल्ड्स ने 1871 से 1873 तक दार्जिलिंग में एक अस्पताल में डॉक्टरी की सेवा दी. 1873 में उन्हें जापान भेजा गया. जहां उन्होंने कई कीर्तिमान स्थापित किए. मसलन जापान में फॉल्ड्स ने पोस्टमार्टम की शुरुआत की, प्लेग की रोकथाम में योगदान दिया और नेत्रहीन लोगों के लिए अक्षरों के उभार वाली एक लिपि भी ईजाद की.
जापान में रहते हुए एक रोज़ फॉल्ड्स अपने एक आर्कियोलॉजिस्ट दोस्त के एक खुदाईस्थल पर गए. यहां खुदाई में 2 हजार साल पुराने मटके निकले थे. फॉल्ड्स उन्हें निहार ही रहे थे कि उनकी नज़र एक खास चीज पर पड़ी. उन्होंने देखा कि मटके पर कुछ छोटी-छोटी महीन रेखाएं उभरी हुई हैं. उन्होंने अंदाजा लगाया कि ये जरूर बनाने वाले की उंगलियों के निशान होंगे. इस घटना के बाद फॉल्ड्स की फिंगरप्रिंटिंग में रूचि जागी और वो इस पर शोध करने लगे.
फॉल्ड्स ने एक हाइपोथीसिस डेवेलप की कि हर आदमी की उंगली के निशान उम्र भर एक से रहते हैं. इस हाइपोथीसिस को प्रूव करने के लिए उन्होंने अपने और अपने छात्रों की उंगलियों की खाल उतार दी. और कई बार ऐसा करने के बाद पाया कि हर बार खाल उंगली के निशानों के हिसाब से उग आती थी. उन्होंने ये भी देखा कि किन्हीं दो लोगों की उंगली के निशान एक जैसे नहीं होते.
उंगली से निशानों से केस सॉल्व हुआफॉल्ड्स को यकीन हो गया कि पहचान पुख्ता करने के लिए उंगलियों के निशान अचूक जरिया बन सकते हैं. इस खोज के चंद दिनों बाद एक और घटना हुई जिसने इस खोज का प्रैक्टिकल इस्तेमाल भी साबित कर दिया. हुआ यूं कि फॉल्ड्स की लैब में एक रोज़ किसी ने चोरी कर डाली. पुलिस को बुलाया गया. पुलिस ने पूछताछ कर स्टाफ के ही एक आदमी को गिरफ्तार कर लिया. फॉल्ड्स को भरोसा था कि ये आदमी चोर नहीं हो सकता. इस बात को साबित करने के लिए वो उस कमरे में गए, जहां चोरी हुई थी और तमाम चीजों से उंगलियों के निशान इकठ्ठा कर लिए. जब इन निशांनों को आरोपी की उंगली के निशान से मिलाया गया तो फॉल्ड्स की बात सच साबित हुई. पुलिस ने भी आरोपी को रिहा कर दिया.
फॉल्ड्स को अहसास हो चुका था कि फिंगरप्रिंट तकनीक अपराध सॉल्व करने में क्रांतिकारी साबित हो सकती है. इसलिए उन्होंने इस दुनिया तक पहुंचाना चाहा. और इस मामले में मदद के लिए चार्ल्स डार्विन को खत लिखा. डार्विन से खत फ्रांसिस गाल्टन तक पहुंचा लेकिन फॉल्ड्स को कोई मदद नहीं मिली. आखिर में उन्होंने 10 नवंबर, 1880 को इस तकनीक का एक रिसर्च पेपर नेचर मैगज़ीन में छपवाया और दुनिया भर में मशहूर हो गए. धीरे-धीरे तमाम दुनिया में फिंगरप्रिंटिंग का उपयोग अपराध सॉल्व करने के लिए किया जाने लगा.
फॉल्ड्स और हर्शल की कहानी सुनने के बाद आखिर में बचता है बस एक सवाल. फॉल्ड्स और हर्शल की लड़ाई का क्या हुआ?
तो इसका जवाब ये है कि दोनों को ही श्रेय मिला. हर्शल ने 1916 में एक किताब लिखकर केस दर केस ब्यौरा देते हुए बताया कि कैसे उन्होंने फिंगरप्रिंटिंग की शुरुआत फॉल्ड्स से पहले ही कर ली थी. इसलिए 1920 आते-आते वैज्ञानिक समुदाय ने ये मान लिया कि खोज का श्रेय उन्हें ही जाना चाहिए. हालांकि ये भी तय हुआ कि फॉल्ड्स को भी कुछ श्रेय मिलना चाहिए, क्योंकि रिसर्च पेपर पहले उन्होंने छपवाया था और उनकी खोज हर्शल से चोरी भी नहीं की गई थी. इसलिए माना गया कि अपराध की तहकीकात में फिंगरप्रिंटिंग के इस्तेमाल का श्रेय उन्हीं को मिलना चाहिए.
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