आम की तुलनाफ़र्ज़ करिए कोई चीज़ है. और ऐसी है कि जिसे आपने देखा हो लेकिन दूसरों ने ना देखाहो. तो उसे किस तरह बयान करेंगे? यही करेंगे कि किसी मिलती-जुलती चीज़ से उसकीतुलना करेंगे. मसलन आदमी ने ज़ेब्रा ना देखा हो तो उसे बताना पड़ेगा, ज़ेब्रा घोड़ेकी तरह होता है. बस हाइट में कुछ छोटा. और एक और चीज़ ये अलग होती है कि उसमेंसफ़ेद और काली धारियां होती हैं.इससे ये तो मुमकिन नहीं कि उस आदमी के मन में ज़ेब्रा की तस्वीर बन जाए. लेकिन इतनासम्भव है कि वो जब ज़ेब्रा देखे तो गेस कर ले कि इसी की बात हो रही थी. ये तो रंगआकार की बात थी. स्वाद का बयान तो और भी मुश्किल है. मसलन किसी ने अचार ना खाया होतो उसे कैसे बताएं, अचार क्या होता है. 21 वीं सदी में तो फिर भी सम्भव है कि कम सेकम तस्वीर, वीडियो आदि दिखा दें. लेकिन पहले तो सब कलम दवात से बयान करना पड़ता था.जो किया करते थे इतिहासकार.मुहम्मद बिन तुग़लक़ की यात्रा (तस्वीर: EncyclopaediaBritannica)अब इतिहासकार तो बहुत हुए. जिन्होंने बताया कि किसका शासन रहा, क्या शासन पद्दतिरही. लेकिन घुमक्कड़ कम हुए. इसलिए ह्वेन सांग, मार्को पोलो जैसे कुछ लोगों कोउंगली पर गिना जा सकता है. इन सबमें सबसे तीस मार ख़ां साबित हुए हुए इब्न बतूता.जिन्होंने 21 साल की उम्र में घर से बाहर कदम रखा. और फिर 32 साल तक दुनिया घूमतेरहे. इस दौरान भारत भी आए. भारत में उनका पाला पड़ा खास लोगों से. फिर आम लोगों से,फिर आम से. और फिर आम के अचार से. जिसके लिए इब्न बतूता कहते हैं, “यहां एक फलमिलता है. दमिश्क में जैसे बड़े-बड़े बेर मिलते हैं, बिलकुल वैसा. पकने से पहले हीपेड़ से झड़ जाता है. और यहां के लोग फिर उसमें नमक लगाते हैं. इसके बाद उसे सहेजकर रख दिया जाता है. वैसे ही जैसे हम लोग नींबू के साथ करते हैं. इसी तरह से अदरकके साथ भी किया जाता है. और मिर्च के साथ भी, जिसे ये लोग खाना खाते वक्त साथ खातेहैं.”इब्न बतूता हज को चलेइब्न बतूता का जन्म आज ही के दिन यानी 24 फ़रवरी, 1304 को हुआ था. इब्न-ए-बतूता कीपैदाइश हुई तंजियार में. जो उत्तर अफ्रीकी देश मोरक्को का एक शहर है. इब्न बतूतापैदा हुए क़ाज़ियों के परिवार में. लेकिन ख़ानदानी पेशा अपनाने के लिए ज़्यादा दिनराज़ी ना रहे. उनके दिल में खानाबदोशी का शौक़ हिलोरे ले रहा था. जिसकी शुरुआत हुईएक सपने से. कहते हैं कि 21 की उमर में इब्न बतूता को एक सपना दिखा. जिसमेंउन्होंने देखा कि एक पक्षी उन्हें अपने पंख में बिठा पूरब की ओर ले जा रहा है.इब्न बतूता और मुहम्मद बिन तुग़लक़ (तस्वीर: sdsu.edu)इब्न बतूता ने ठाना कि 21 की उमर में हज के लिए जाएंगे. मोरक्को से मक्का की ओर.साल था 1325. मक्का तक यात्रा के लिए 16 महीनों का वक्त लगता था. इसलिए बतूता नेअपना सामान इकट्ठा किया और निकल पड़े सफ़र पर. जानिब-ए मंज़िल को बतूता अकेले हीचले थे. फिर रास्ते में कारवां मिलते गए. और बतूता उनसे जुड़ते गए. फिर रास्ते मेंडकैतों का भी डर था. सो बतूता ने कारवां के साथ चलने में ही ख़ैर समझी. मक्कापहुंचने के बाद इब्न बतूता का दिल वहीं रम गया. आसपास के इलाक़ों में अगले तीन सालकभी यहां तो कभी वहां विचरते रहे. फिर बतूता को लगा, सैर कर दुनिया की गाफ़िल,ज़िंदगानी फिर कहां, ज़िंदगी गर कुछ रही तो नौजवानी फिर कहां यही सोचकर बतूता नेमक्का के आगे की यात्रा शुरू की. दिलफेंक आदमी थे. सफ़र अकेले करते थे, लेकिन जहांठहरते थे वहां अकेले नहीं रहते थे. इस यात्रा के दौरान इब्न बतूता ने जो पहली शादीकी, उस औरत के पहले से 10 बच्चे थे. और आगे जहां-जहां इब्न बतूता ठहरे, एक ना एकशादी अपने नाम करते रहे. मक्का से आगे बढ़ते हुए बतूता कैस्पियन समंदर पार करते हुएमध्य एशिया पहुंचे. वहां से साउथ-ईस्ट एशिया के गेट पर एंट्री की. अफ़ग़ानिस्तानमें हिंदु कुश पर्वत को पार कर इब्न बतूता ने भारत में कदम रखा.14 वीं सदी की डाकबतूता भारत पहुंचते, इससे पहले ही सिंध के सरदारों को उनके आने की भनक लग चुकी थी.इब्न बतूता इससे ख़ासा प्रभावित हुए. तब उन्हें संदेश भेजने के अनूठे तरीक़े का पताचला. जिसका इस्तेमाल सिर्फ़ इस इलाक़े में किया जाता था.संदेश भेजने के लिए हर मील ओर तीन चौकियां बनी होती थीं. जिन्हें दावह कहा जाता था.संदेश भेजने वाले हरकारे होते थे जो हर 1/3 मील पर बनी चौकी पर तैयार बैठे रहते थे.जैसे ही एक संदेश आता. एक हरकारा संदेश लेकर दौड़ता. और अपने साथ एक डंडा लिए होता,जिसके एंड में घुंघरू बंधे होते. जैसे ही हरकारा दूसरी चौकी पर पहुंचने वाला होता,वहां मौजूद हरकारे को घुंघरू की आवाज़ सुनाई देती. वो समझ जाता कि कोई संदेश आ रहाहै. इसके बाद दूसरा हरकारा तुरंत चिट्ठी लेकर आगे रवाना होता. आगे यही क्रम जारीरहता और संदेश एक जगह से दूसरी जगह तेज़ी से पहुंच जाता.यात्रा रूट (तस्वीर: हिस्ट्री डॉट कॉम)इब्न बतूता ने लिखा है कि संदेश भेजने का ये तरीक़ा घोड़ों से भी तेज था. यही सबदर्ज़ करते हुए इब्न बतूता दिल्ली पहुंचे. वो साल था, 1334. तब दिल्ली पर मुहम्मदबिन तुग़लक़ का शासन था. और इस्लामिक दुनिया में तुग़लक़ सबसे अमीर शासक हुआ करताथा. उसने इब्न बतूता को 12 हज़ार दिनार की तनख़्वाह पर शाही क़ाज़ी का पद सौंपा.इब्न बतूता दिल्ली मेंमुहम्मद बिन तुग़लक़ के बारे में इब्न बतूता लिखते हैं, "सम्राट की ज़िंदगी में दोचीज़ बिना नागा हर रोज़ होती हैं. वो हर रोज़ किसी ना किसी भिखारी को अमीर बना देताहै, बिना ये सोचे कि अमुक आदमी पात्र है भी या नहीं. वहीं दूसरी ओर सम्राट हर रोज़एक न एक आदमी को मृत्युदंड भी ज़रूर देता है. सम्राट की इच्छा ही यहां न्याय है.अगर कोई अपने निर्दोष होने की दलील देता है तो तो उसे और भी भयानक मौत मिलती है.इसलिए लोग अपराध क़बूल कर लेते हैं. ताकी सीधी मौत मिले. लेकिन इतना ज़रूर है किसम्राट सबके लिए एक जैसा है. एक बार तो उसने अपने ही किए पर खुद को 21 छड़ी से मारखाने की सजा दे डाली थी.” खाने-पीने के बारे में बताते हुए इब्न बतूता कहते हैं कितब शाही दरबार में समोसे सबसे चाव से खाए जाते थे. इसके अलावा आम लोगों में उड़द कीदाल और आम के अचार का चलन था. इब्न बतूता के वर्णन में तब भारत की औरतों की हालत काभी ज़िक्र मिलता है. बतूता बताते हैं कि युद्ध की हारी महिलाओं को दरबार में ग़ुलामके रूप में रखा जाता था. कोई स्त्री पसंद आ गई तो संभ्रांत वर्ग के लोग उनसे शादीकर लेते थे. बाकी स्त्रियों से मज़दूरी और वैश्यावृत्ति कराई जाती थी. इसके अलावासती प्रथा का चलन भी आम था.दिल्ली में प्रवास के दौरान इब्न बतूता ने देखा कि दरबार में खूनी खेल चलता था.जिसके कारण वो दरबार से निकल जाने की फ़िराक में रहते. इस दौरान एक बार इब्न बतूताकी जान पर भी बन आई. हुआ यूं कि दिल्ली में इब्न बतूता की दोस्ती एक सूफ़ी संत सेहो गई. ये संत बादशाह को कोई खास तवज्जो नहीं देता था. एक बार मुहम्मद बिन तुग़लक़ने उस सूफ़ी संत को बुलावा भेजा तो संत ने आने से इनकार कर दिया. अपनी शान मेंगुस्ताखी देख तुग़लक ने संत का सिर धड़ से अलग करवा दिया. और इतने से भी उसका जीनहीं भरा. तो उसने संत के सारे नाते रिश्तेदार और दोस्तों की लिस्ट बनवाई. इस लिस्टमें इब्न बतूता का नाम भी शामिल था. इसके बाद तुग़लक़ ने इब्न बतूता को 3 हफ़्ते केलिए नज़र बंद करवा दिया.दिल्ली से जान बचाकर भागेइब्न बतूता को इस दौरान लगा कि सुल्तान पक्का उसे मौत की सजा देगा और वो किसी भीतरह दिल्ली से निकलने की सोचने लगे. साल 1341 में इब्न बतूता को ये मौक़ा मिला. चीनके राजा ने अपना एक दूत दिल्ली भेजा तो इब्न बतूता ने तुग़लक़ को सलाह दी कि उसे भीऐसा करना चाहिए. ये सुनकर इब्न तुग़लक़ तैयार हो गया. उसने बहुत से तोहफ़े देकरइब्न बतूता को चीन के लिए रवाना किया.मुहम्मद बिन तुग़लक़, दिल्ली, 1330 (तस्वीर: Commons)दिल्ली से निकलकर इब्न बतूता ने राहत की सांस ली. लगा जान बची तो लाखों पाए लेकिनजो लाखों पाए थे, चीन के रास्ते में वो सब कुछ लुटा बैठे. चोर लुटेरों के एक झुंडने इब्न बतूता पर हमला किया और उनका सारा सामान लूट लिया. जैसे-तैसे जान बचाकर इब्नबतूता ने आगे की यात्रा शुरू की. मुहम्मद बिन तुग़लक़ ने उनसे कहा था कि वो यात्रापूरी कर शीघ्र लौटे. लेकिन तुग़लक़ की दौलत, तोहफ़े सब लुट चुके थे. इसलिए इब्नबतूता ने इरादा किया कि वो पीछे ना लौटकर आगे बढ़ता जाएंगे.लगभग तीस वर्षों में 1 लाख किलोमीटर किमी की लम्बी यात्रा करने के बाद इब्न बतूताने घर लौट जाने का मन बनाया. साल 1353 में वह मोरक्को लौट आये. घर लौटने तकइब्न-बतूता का पूरी दुनिया में नाम हो चुका था. लगभग सभी इस्लामिक राष्ट्रों कीयात्रा कर चुके इब्न-बतूता को मोरक्को पहुंचते की वहां के सुल्तान ने बुलाया.सफ़र पूरा हुआइब्न बतूता ने यात्रा के किस्से सुनाने शुरू किए तो बादशाह ने अपने दरबारी लेखक कोबुलाया. इब्न जुजैय नाम के इस लेखक ने इब्न बतूता के यात्रा वृतांत को लिखकर एककिताब की शक्ल दी. अपने आख़िरी दिन तंजियार में बिताने के बाद साल 1368 में इब्नबतूता की मृत्यु हो गई.फ़ानी दुनिया में इब्न बतूता का सफ़र ख़त्म हुआ लेकिन ख़ानाबदोशों के दुनिया मेंइब्न बतूता की ज़िंदगी जावेदा रही. खानाबदोशी का जब भी भी ज़िक्र आया तो हुए इब्नबतूता का नाम लिए बिना पूरा ना हुआ. इसलिए सर्वेश्वर दयाल सक्सेना लिखते हैं, इब्नबतूता पहन के जूता निकल पड़े तूफान में थोड़ी हवा नाक में घुस गई घुस गई थोड़ी कानमें