भारत से यूरोप कैसे पहुंच गए उपनिषद?
1760 में एक फ्रेंच सैनिक ने फ्रेंच दार्शनिक को यजुर्वेद की प्रतिलिपि भेंट की जो फ़र्ज़ी निकली. इसके बाद एक और फ्रेंच दार्शनिक भारत में वेदों की पढ़ाई करने पहुंचा
19 वीं सदी में जर्मनी के अधिकतर विद्वान उपनिषदों और वेदों पर टीकाएं लिख रहे थे. और उन्हें अपने तरीके से परिभाषित कर रहे थे. इनमें से मैक्स म्यूलर का नाम आपने सुना होगा. जिन्होंने ब्रिटेन में रहते हुए ऋग वेद को अंग्रेज़ी में ट्रांसलेट किया था. हालांकि इसके पीछे उद्देश्य इतना साफ़ नहीं था जितना पहली नजर में दिखाई देता है. वेद और उपनिषदों के ऊपर पश्चिम का शोध साम्राज्यों के बीच की लड़ाई का परिणाम था. उस दौर में भारतीय दर्शन को पढ़कर उसकी पश्चिम के दर्शन से तुलना की जाती थी. ताकि उसमें व्याप्त रूढ़िवादिता का बखान कर भारत पर अधिकार जायज ठहराया जा सके. लेकिन जैसे-जैसे म्यूलर ने वेदों को पढ़ा, उनमें उनकी रूचि बढ़ती गयी. एक जगह वो लिखते हैं
“अगर मुझसे पूछा जाए वो कौन सा आसमान है जिसके नीचे मानव मस्तिष्क ने अपने सबसे अनमोल तोहफों का विकास किया है, तो मैं जवाब दूंगा, निश्चित ही ये भारत है. अगर मैं खुद से पूछूं कि हम लोग, जिनके विचार ग्रीक और रोमन ज्ञान पर ढले हैं, अपने जीवन को और बेहतर बनाने के लिए किस तरफ देख सकते हैं, तो इसका भी जवाब भारत ही होगा.”
आज जो किस्सा हम आपको सुनाने जा रहे हैं वो एक ऐसे ही विद्वान का है. एक दार्शनिक जिसके हाथ 18 वीं शताब्दी के मध्य में एक वेद लगा. कहा गया ये खोया हुआ वेद है. दार्शनिक ने उसके जरिए भारतीय दर्शन के क्षेत्र में ब्रिटेन को पटखनी देने की सोची. और सिर्फ इतना ही नहीं इसके जरिए उसे लगा था फ्रांस भारत में दुबारा अपनी खोई हुए जमीन वापिस पा लेगा. लेकिन कहानी इतनी सिंपल नहीं है. जो वेद हाथ लगा वो फ़र्ज़ी था. और इसका पता भी इस दार्शनिक की मौत के कई साल बाद पता चला. क्या थी पूरी कहानी. चलिए जानते हैं.
फ्रांस और UK के बीच लड़ाई16 वीं और 17वीं सदी में यूरोप की कई कंपनियां भारत में व्यापार के लिए पहुंच रहीं थी. पुर्तग़ाली सबसे पहले आए थे. फिर पीछे पीछे ब्रिटेन और हॉलैंड. फ़्रांस सबसे देर में पहुंचा था. 1664 में फ़्रांस में पांडिचेरी को अपने कब्ज़े में किया और धीरे-धीरे अपना व्यापार बढ़ाते हुए 1740 तक वो ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के बराबर पहुंच गए. पांडिचेरी व्यापार का एक बड़ा केंद्र बन गया था. और साथ ही बंगाल में भी फ्रेंच ट्रेडिंग पोस्ट खुल गयी थीं. यहां से अदरक, इलायची दालचीनी नील चाय और शोरा के निर्यात किए जाते.
फ्रांस में सबसे ज्यादा मांग थी कपास के रंग बिरंगे धागों की. जिसका इस्तेमाल ये लोग परदे और कालीन बनाने में करते. फ्रेंच शाही परिवारों की शहजादियां इसकी दीवानी थी. इसलिए उस दौर में फ्रांस में कई फ़र्ज़ी कॉटन फैक्ट्रियां भी खुली. व्यापार फायदे का था. फ्रांस में 1720 में एक नई कंपनी बनाकर उसके स्टॉक बेचे गए. एक स्टॉक 550 लिवरे (फ्रेंच मुद्रा) का था. लेकिन आगे फायदे की सम्भावना इतनी थी कि स्वयं फ्रांस के शासक ने कंपनी के 20% शेयर खरीद डाले. इन शेयरों को खरीदने वाला एक आदमी और था, वॉल्टेयर. फ़्रांस के सबसे बड़े दार्शनिकों में से एक. अगले 20 सालों में कंपनी ने खूब कमाकर दिया. और वॉल्टेयर को इस सौदे से बड़ा फायदा हुआ.
फिर 1756 में ब्रिटेन और फ्रांस के बीच ‘सेवेन ईयर वॉर’ की शुरुआत हुई. जो लड़ी गयी अमेरिका, कनाडा और भारत में. फ्रांस ने अमेरिका में विद्रोहियों को हथियार सप्लाई किए. तो वहीं भारत में फ्रेंच और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच युद्ध हुआ. कभी सीधे तौर पर तो कभी अलग-अलग रियासतों को मोहरा बनाकर. 1757 में प्लासी के युद्ध में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की जीत हुई और उन्होंने बंगाल पर कब्ज़ा कर लिया. इसके बाद फ्रेंच ईस्ट इंडिया कम्पनी की हालत पतली होती गई और कम्पनी पर क़र्ज़ चढ़ता गया. बंगाल के चंद्रनगर पोस्ट में फ्रेंच गवर्नर ज्यान बैप्टिस्ट शेवेलियर ने तब कंपनी के नाम एक खत लिखा,
वॉल्टेयर को मिला यजुर्वेद“ब्रिटिश हमें गंगा की हवा में सांस तक नहीं लेने दे रहे है. आगे की राह और मुश्किल होने वाली है”
भारत में फ्रेंच ईस्ट इंडिया कम्पनी की हार वॉल्टेयर के हिसाब से एक बड़ा नुकसान था. कनाडा हाथ से निकल जाने पर उन्होंने कहा था, चंद फ़ीट बर्फ हाथ से निकल भी गई तो क्या. लेकिन भारत के हाथ से निकल जाने पर उन्होंने इसे एक बड़ी क्षति और फ्रांस के लिए बड़ा सदमा करार दिया था. इसी दौर में एक फ्रेंच सैनिक भारत से वापस फ़्रांस लौटा.
यहां उसने वॉल्टेयर को एक किताब की प्रतिलिपि तोहफे में दी. और बताया कि ये भारत का एक ऐतिहासिक ग्रन्थ यजुर्वेद है. जो समय की धारा में कहीं खो गया था. ग्रन्थ फ्रेंच भाषा में था और सैनिक के अनुसार उसका अनुवादन संस्कृत से फ्रेंच भाषा में किया गया था. ताकि फ्रांस के विद्वान उसे पड़ सकें. यूरोप में तब भारतीय दर्शन और संस्कृति को समझने वाले लोगों में सिर्फ वो ईसाई मिशनरी थे जो भारत में ईसाई धर्म को प्रचार करने के लिए पहुंचे थे. 17 वीं शताब्दी में इन लोगों ने भारत से प्रतिलिपियां ले जाकर पेरिस और ऑक्सफ़ोर्ड की लाइब्रेरी में भर दी थीं. पाली और संस्कृत के ये डाक्यूमेंट्स दशकों तक धूल खाते रहे. क्योंकि इस भाषा को समझने वाला कोई था नहीं. ऐसे में जब वॉल्टेयर के हाथ यजुर्वेद की प्रतिलिपि लगी तो उन्होंने भारत को लेकर एक नया विचार दिया. जो तब ब्रिटेन में प्रचलित भारत के विचार से पूरी तरह अलग था.
शक्ति के तौर पर फ्रांस ब्रिटेन का मुकाबला नहीं कर सकता था. ऐसे में वॉल्टेयर भारतीय दर्शन के क्षेत्र में ब्रिटेन को पछाड़ने की कोशिश में थे. भारत में अभी भी फ्रेंच ईस्ट इंडिया कम्पनी के पास कुछ पोस्ट थीं. और आगे जाकर वो हैदर अली और टीपू सुल्तान के सहारे ब्रिटिश ईस्ट कंपनी को चुनौती देने वाले थे. वॉल्टेयर को भी उम्मीद थी कि फ़्रांस दुबारा भारत में अपनी ताकत हासिल करने में सक्षम होगा.
यूरोप में तब भारतीय धार्मिक परंपरा का ज्ञान कम ही था. हालांकि ग्रीस और रोमन जमाने से ही दोनों महाद्वीपों के बीच दर्शन का आदान-प्रदान हुआ करता था. लेकिन यूरोप इस मान्यता को बल देने में लगा हुआ था कि यहूदी-ईसाई परम्परा ही सभ्यता का चरम है.
वॉल्टेयर की भारत को लेकर अवधारणाभारत आने वाले पहले यूरोपीय यात्रियों ने भी इस मान्यता को बल देने में अपनी भूमिका निभाई थी. उन्होंने वहां जाकर भारत में प्रचलित मूर्ति पूजा और प्रचलित मान्यताओं को अंधविश्वासों के तौर पर बखान किया. 1770 के आसपास पेरिस में एक नाटक भी बड़ा प्रसिद्ध हुआ था. ‘द विडो ऑफ मालाबार’ के नाम से. इसमें सती प्रथा को दिखाया गया था. यूरोपीय विद्वानों के लिए एक बड़ा सवाल था कि भारत, जो रोमन और ग्रीक्स के समय से ज्ञान और दर्शन की भूमि मानी जाती थी. वहां ऐसे अंधविश्वास कैसे उपजे?
ब्रिटिश विद्वानों ने इसका जवाब इस तरह दिया कि भारतीय दर्शन शुरू में शुद्ध था लेकिन बाद में इसमें अशुद्धता आती गई. इसके लिए उन्होंने इस्लामिक इन्वेजन को दोष दिया. बिना ये जाने कि भारत में अलग-अलग धार्मिक सम्प्रदायों की मान्यताओं में फर्क था. इस थियोरी से ब्रिटिश विद्वानों और ईस्ट इंडिया कंपनी के अफसरों ने दावा किया कि उनका उद्देश्य भारत को उसकी पुरानी समृद्धि तक पहुंचाना है.
वॉल्टेयर ने इसका जवाब देते हुए कहा कि ये एक बेतुकी धारणा है. उन्होंने सवाल उठाया कि रोमन और ग्रीक काल में जब इस तरह के विरोधाभास नहीं थे तो भारत में ब्रह्म ज्ञान और अंधविश्वास एक साथ कैसे हो सकते हैं.
इसके अलावा वॉल्टेयर ने भारत के बारे में बाकी प्रचलित मान्यताओं पर भी चोट की. मसलन ब्रिटिशर्स ने ये थियोरी दी थी कि भारत में क़ानून का शासन नहीं है. इसलिए अलावा ये भी कि भारतीय आलसी होते हैं और इसलिए वो इंडस्ट्री और ट्रेड के लिए बिलकुल माकूल नहीं है. ये सब विचार भारत में व्यापार और फिर उस पर कब्ज़े को जस्टिफाई काटने के लिए दिए गए थे. लेकिन जैसा कि वॉल्टेयर ने लिखा, इन बातों में बिलकुल सच्चाई नहीं थी. एक जगह वो लिखते हैं, “जैसा कि इतिहास बताता है भारतीय हमेशा से मेहनतकश और ट्रेड में निपुण रहे हैं”
वॉल्टेयर के साथ धोखा और फ़र्ज़ी वेदइन बातों से वॉल्टेयर को भारतीय दर्शन और परंपरा के ज्ञाता के रूप में ख्याति मिली. लेकिन साथ ही आगे जाकर बड़ी बेज्जती भी उठानी पडी. दरअसल जिस किताब के भरोसे वॉल्टेयर ये सब कह रहे थे, वो दरअसल फर्जी थी.
यजुर्वेद नाम की जो किताब वॉल्टेयर को मिली थी दरसअल उसे जेसुइट मिशनरियों ने लिखा था. वो भी फ्रेंच में. और वॉल्टेयर को ये बताया गया कि ये संस्कृत से फ्रेंच में ट्रांसलेट की गई है. इस किताब के जरिए वॉल्टेयर को वही दिखाया गया तो वो देखना चाहते थे. इसमें एकेश्वरवाद की बात कही गयी थी. और इसके पीछे जेसुइट मिशनरियों का उद्देश्य ये दिखाना था कि भारत का धर्म भी ईसाई धर्म जैसा ही है. ताकि उन्हें ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार में आसानी हो.
वॉल्टेयर अपने जीते जी यही समझते रहे कि वो वेद पढ़ रहे हैं. असलियत का खुलासा उनकी मृत्यु के बाद हुआ. आज ही के दिन यानी 30 मई 1778 को वॉल्टेयर की मृत्यु थी. वॉल्टेयर के बाद अब्राहम एंक्वेटिल डुपेरॉ नाम के एक और फ्रेंच विद्वान हुए. जिन्होंने 18 वीं सदी के आख़िरी दशकों में उपनिषदों पर शोध की शुरुआत की. 24 साल की उम्र में डुपेरॉ ने भारत आए. यहां वो काशी जाकर संस्कृत की पढ़ाई करना चाहते थे. इससे पहले किसी यूरोपियन यात्री ने ये काम नहीं किया था. लेकिन डुपेरॉ जब भारत पहुंचे तो चंद्रनगर की फ्रेंच ट्रेड पोस्ट पर ब्रिटिशर्स ने हमला कर दिया.
उपनिषदों का अनुवादडुपेरॉ को पांडिचेरी जाना पड़ा. यहां से वो सूरत गए और पारसी समुदाय के बीच रहकर उनके धर्म पर शोध करने लगे. एक बार फिर उन्हें नाकामी मिली, जब 1761 में एक ब्रिटिश फ्लीट ने सूरत पर भी कब्ज़ा कर लिया. डुपेरॉ को ले जाकर इंग्लैंड में जेल में डाल दिया गया.
इस पूरे घटनाक्रम ने डुपेरॉ के मन में ब्रिटिशर्स के नफरत पैदा कर दी. जेल से निकलकर उन्होंने अपने तरीके से बदला लेते हुए सबसे पहले उपनिषदों का अनुवाद किया. जिसकी कोशिश ब्रिटिश कई सालों से कर रहे थे. उपनिषद की प्रति डुपेरॉ को ज्यां बैप्टिस्ट जेंटिल नाम के एक फ्रेंच एजेंट से मिली थी जो सिराजउद्दौला के साथ मिलकर ब्रिटिशर्स से लड़ा था. उपनिषदों के अनुवाद में डुपेरॉ को 27 साल का वक्त लगा.
डुपेरॉ को उम्मीद थी कि भारतीय दर्शन की समझ से फ्रांस को भारत में स्थापित होने में मदद मिलेगी. 1770 के बाद फ़्रांस ने ब्रिटिशर्स के खिलाफ मैसूर का साथ दिया. इस उम्मीद में कि मैसूर की जीत से वो फायदे में रहेंगे. इस दौरान डुपेरॉ ने कई बार फ्रेंच अधिकारियों को पत्र लिखकर समझाया कि मराठा और निजाम कभी भी हैदर अली और टीपू का साथ नहीं देंगे.
फ्रेंच अधिकारियों ने डुपेरॉ की एक न सुनी और चौथे आंग्ल मैसूर युद्ध के बाद फ्रांस का भारत से लगभग सफाया हो गया.
1805 में डुपेरॉ की भी मृत्यु हो गयी. उनके प्रयासों का फल ये हुआ कि 19 वीं सदी की शुरुआत में पेरिस यूरोप में संस्कृत की पढ़ाई का केंद्र बन गया. मैक्स म्यूलर ने भी संस्कृत की पढ़ाई पेरिस में ही की. और आर्थर शोपेनहावर ने भी उपनिषद पढ़ने के लिए डुपेरॉ के अनुवादों का सहारा लिया.
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