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इंडियन साइंटिस्ट ने एक पेपर लिखा और फिजिक्स के नियम बदलने पड़ गए

महान वैज्ञानिक सत्येंद्र नाथ बोस का रिसर्च पेपर जब अंग्रेज़ी मैगजीन ने नहीं छापा तो बोस ने उसे आइंस्टीन के पास भिजवाया. यहां से शुरूआत हुई उस कहानी की जिसने भौतिकी को हमेशा-हमेशा के लिए बदल कर रख दिया.

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हिग्ग्स-बोसॉन पार्टिकल की साल 2012 में हुई थी. इसमें बोसॉन नाम भारतीय वैज्ञानिक सत्येन्द्रनाथ बोस के नाम पर रखा गया है (तस्वीर: getty)
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4 जुलाई 2022 (Updated: 4 जुलाई 2022, 09:33 IST)
Updated: 4 जुलाई 2022 09:33 IST
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एरिक वीनर नाम के एक अमेरिकी लेखक हैं. बड़ी फेमस किताब है उनकी, “द जियोग्राफी ऑफ जीनियस: अ सर्च फॉर द वर्ल्ड मोस्ट क्रिएटिव प्लेसेस फ्रॉम अन्सिएंट एथेंस टू सिलिकॉन वैली”. इस किताब में वीनर लिखते हैं, “कुछ निश्चित जगहें, किसी निश्चित समय काल के दौरान अति मेधावी दिमाग और उच्च विचार पैदा करती हैं”

वीनर की लिस्ट में भारत के एक शहर का नाम भी शामिल था. कलकत्ता (आज जिसे हम कोलकाता कहते हैं). और जो कालखंड वीनर बताते हैं, वो था साल 1840 से 1920. खासकर 1920 के दशक पर गौर कीजिए. इस दौर में कलकत्ता में सी वी रमन, सत्येंद्र नाथ बोस, और मेघनाद साहा जैसे भौतिकशास्त्री एक साथ सक्रिय थे. इसी दौर में भारत में फिजिक्स के क्षेत्र में तीन बड़ी खोजें हुई. 1920 में मेघनाद साहा ने थर्मल आयोनायजेशन इक्वेशन की खोज की. 1928 में रमन इफेक्ट की खोज़ हुई और तीसरी चीज वो थी जिसकी आज हम चर्चा करने वाले हैं.

सत्येंद्र नाथ बोस और ‘द गॉड पार्टिकल’ 

4 जुलाई यानी आज ही के दिन साल 2012 में जिनेवा लार्ज हेड्रॉन कोलाइडर में परिक्षण के दौरान एक भौतिकीय कण की खोज हुई थी. नाम था हिग्स- बोसॉन, जिसे तब गॉड पार्टिकल भी बोला गया. आसान भाषा में कहें तो हिग्स बोसॉन वो पार्टिकल है, जो इलेक्ट्रॉन-प्रोटोन जैसे अणुओं को द्रव्यमान या कह लीजिए भार प्रदान करता है. अब हिग्स-बोसॉन नाम दो हिस्सों से मिलकर बना है. पहला, हिग्स, जो वैज्ञानिक पीटर हिग्स के नाम से लिया गया है. पीटर हिग्स वो वैज्ञानिक थे जिन्होंने 1964 में पहली बार बताया था कि ऐसा कोई पार्टिकल होना जरूर चाहिए. हिग्स की बात 47 साल बाद जाकर सच साबित हुई.

जिनेवा में लार्ज हैड्रन कोलाइडर (तस्वीर: Getty)

हिग्स-बोसॉन का दूसरा हिस्सा यानी बोसॉन नाम भी नया नहीं है. आज से लगभग 98 साल पहले विशेष प्रकार के अणुओं को बोसॉन नाम मिल चुका था. इन अणुओं को बोसॉन नाम देने वाले थे, पॉल डाइरैक. जिन्हें 20 वीं सदी के सबसे महान वैज्ञानिकों में से एक माना जाता है. 1933 में फिजिक्स का नोबल जीतने वाले डाइरेक के बारे में आइंस्टीन का कहना था, ‘या तो ये आदमी पागल है या जीनियस’. 

डाइरैक ने जिस वैज्ञानिक के नाम पर बोसॉन नाम रखा, वो थे सत्येंद्र नाथ बोस. क्यों रखा गया बोस के नाम पे बोसॉन का नाम? इसके लिए बोस की कहानी और उनका योगदान क्या था, ये जानना होगा. 

आइंस्टीन के पेपर का अंग्रेज़ी ट्रांसलेशन 

सत्येंद्र नाथ बोस के करियर की शुरुआत होती है 1919 में. जब उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय में पढ़ाते हुए आइंस्टीन और मिन्कोवस्की के प्रिंसिपल ऑफ रिलेटीवी पेपर का में पहला ट्रांसलेशन अंग्रेज़ी में किया. इस काम में उनके साथी थे मेघनाद साहा. और इस पेपर की प्रस्तावना लिखी थी पीसी माहॉलोनोबिस ने. महालनोबिस और साहा की कहानी हम आपको क्रमशः 28 जून और 16 फरवरी के एपिसोड में बता चुके हैं. लिंक आपको डिस्क्रिप्शन में मिल जाएगा.

इसके बाद ढाका में काम करने के दौरान 1924 में सत्येंद्र नाम बोस ने दो पेपर और लिखे. इनमें से एक का नाम था, ‘प्लांक्स लॉ, एंड द हाइपोथिसिस ऑफ़ लाइट क्वांटा’. ये पेपर पार्टिकल फिजिक्स में क्रांति लाने वाला था. लेकिन क्रांति होती तब जब कोई इसे समझ पाता. बोस ने अपना पेपर रॉयल सोसायटी लन्दन की फिलोसोफिकल मैगज़ीन में छपने के लिए भेजा. लेकिन सोसायटी ने इसे छापने से इंकार कर दिया. इसके बाद बोस ने इस रिसर्च पेपर को भेजा जर्मनी, अल्बर्ट आइंस्टीन के पास. साथ में भेजा एक नोट, जिसमें लिखा था कि अगर उन्हें ये काम का लगे तो प्लीज़ उसे जर्मनी की रिसर्च मैगज़ीन में छपवा दें. आइंस्टीन ने बोस के रिसर्च पेपर को जर्मन भाषा में ट्रांसलेट करवाया और छपवा भी दिया. इसी रिसर्च पेपर के साथ आइंस्टीन ने अपनी एक टिप्पणी भी छपवाई.

आइंस्टीन के पेपर का अंग्रेज़ी ट्रांसलेशन और बोस का आइंस्टीन को लिखा खत (तस्वीर: 
S. N. Bose Archive)

अब ये टिप्पणी क्या थी, इसके लिए थोड़ा समझाना पड़ेगा कि बोस ने रिसर्च पेपर में लिखा क्या था. खीर का स्वाद तो खाने पर ही पता चलता है. इसलिए थोड़ा विज्ञान पर चलते हैं. साल 1900 की बात है. मैक्स प्लान्क ब्लैक बॉडी रेडिएशन पर काम कर रहे थे. साधारण भाषा में समझे, तो चीजें अलग-अलग टेम्प्रेचर में अलग-अलग रंगों का विकिरण करती हैं. मसलन जब लोहे को गरम किया जाता है तो वो लाल रंग का दिखाई देने लगता है. इसी कारण आपको दूर आकशगंगाओं की तस्वीरों में पीले नील रंग दिखाई देते हैं. अब इस विकिरण में सभी प्रकार की किरणें होती हैं, मसलन UV, इंफ्रारेड आदि.

अलग-अलग टेम्प्रेचर पर चीजों से निकलने वाले विकिरण का ग्राफ प्लाट करेंगें तो कुछ ऐसा दिखाई देगा (स्क्रीन पर ग्राफ 1). इस ग्राफ़ से पता चलता है कि विकिरण कैसा होगा, ये फ़्रीक्वेंसी पर निर्भर करता है. अब इस ग्राफ़ को समझने के लिए ज़रूरत थी एक गणीतीय इक्वेशन की. तब तक सिर्फ़ क्लासिकल फ़िज़िक्स के नियम चलते थे, यानी वो फ़िज़िक्स जो न्यूटन के जमाने से चली आ रही थी. लेकिन दिक्कत ये थी कि क्लासिकल फ़िज़िक्स के नियमों से सब उल्टा-सुल्टा हो रहा था. मसलन क्लासिकल फ़िज़िक्स के नियमों के अनुसार ऊंची फ़्रीक्वेंसी पर ऊर्जा इनफिनिटी पर पहुंच जा रही थी, जबकि असल में तो ऐसा कुछ होता नहीं. इसलिए प्लांक बड़े परेशान थे. जैसे-तैसे करके उन्होंने कुछ चीजें परे रखकर एक इक्वेशन निकाली जो कुछ इस प्रकार थी,

E = Nhf. इस इक्वेशन में E माने ऊर्जा और f माने फ्रक्वेंसी है. और nh एक स्थिर गुणांक है जिसे बाद में प्लांक कांस्टेंट कहा गया.

आइंस्टीन को लिखा खत  

यूं तो दुनिया फिजिक्स से चलती है लेकिन इस इक्वेशन ने फिजिक्स की ही दुनिया बदल दी. अब देखिए ये इक्वेशन क्या कह रही है. इस इक्वेशन के अनुसार ऊर्जा निरंतर न होकर छोटे-छोटे पैकेट्स में होती है. उदाहरण के आप किसी को रूपये देते हैं तो आपको उसे किसी मूल्य के गुणांक में देना होगा. जैसे 1 रुपए के 100 सिक्के, 50 पैसे के 200 सिक्के, या 100 का एक नोट. अब इसकी तुलना पानी से कीजिए. पानी का कोई न्यूनतम गुणांक नहीं होता, पानी निरंतर होता है, पैकेट्स में नहीं. अब तक ऐसा माना जाता था कि ऊर्जा निरंतर होती होगी, लेकिन ये इक्वेशन बता रही थी कि ऊर्जा छोटे-छोटे पैकेट्स में चलती है.

सत्येंद्र नाथ बोस का जन्म 1 जनवरी 1894 को हुआ था (तस्वीर: 
S. N. Bose Archive )

प्लांक ने ऊर्जा के इन पैकेट्स को एक नाम दिया, क्वांटा. इस क्वांटा ने देखिए क्या बखेड़ा खड़ा किया. रौशनी भी एक प्रकार की ऊर्जा है. और इस इक्वेशन के अनुसार वो भी छोटे-छोटे पैकेट्स में होगी. लेकिन तब तक प्रकाश को वेव माना जाता था. इसके पार्टिकल नेचर की खोज़ नहीं हुई थी.  यहीं से शुरुआत हुई क्वांटम थिओरी की. प्लांक परेशान थे. इस थियोरी के हिसाब से सब गड़बड़ हो जाना था, इसलिए उन्होंने अपने रिसर्च पेपर में लिखा, मैंने किसी तरह इक्वेशन तो बना दी, लेकिन इसका सिद्धांत नहीं पता है और उसे किसी भी क़ीमत पर पता करना होगा.

साल 1905 में आइंस्टीन प्लांक की मदद को आए और उन्होंने क्वांटा के जरिए फोटोइलेक्ट्रिक इफेक्ट को समझाया. फिर भी अगले 20 साल तक क्वांटम थियोरी किनारे ही पड़ी रही. 1924 के आसपास सत्येंद्र नाथ बोस खुद क्वांटम थियोरी पर शोध कर रहे थे. उनके सामने प्लांक की इक्वेशन थी लेकिन उसका कोई डेरिवेशन नहीं था. मतलब इसके पीछे कौन सा सिद्धांत काम कर रहा है, ये अभी तक नहीं पता चला था. ऊर्जा के पैकेट्स यानी क्वांटा, जिन्हें तब फोटोन का नाम मिला, कैसे काम करते हैं, ये बात साफ नहीं हो पाई थी. इसी पर शोध करते हुए उन्होंने अपना रिसर्च पेपर लिखा और आइंस्टीन के पास भेजा. साथ में लिखा कि उन्होंने बिना क्लासिकल फिजिक्स के नियमों का उपयोग किए प्लान्क लॉ को डीराइव करने की कोशिश की है.

जादू क्वांटम मेकेनिक्स का

इस पेपर में बोस बताते हैं कि फोटोन इलेक्ट्रान या प्रोटोन कणों जैसा व्यवहार नहीं करते. इनकी संख्या घटती बढ़ती रहती है. कभी ये अब्सॉर्ब हो जाते हैं तो कभी इनका विकिरण हो जाता है. तब क्लासिकल पार्टिकल्स के व्यवहार को स्टडी करने के लिए मैक्सवेल बोल्ट्ज़मन स्टेटिस्टिक्स का उपयोग होता था. भारी शब्द है, लेकिन घबराइए मत, बस यूं समझ लीजिए कि किस ऊर्जा पर कितने अणु होंगे, स्टेटिस्टिक्स इसी को गिनने का तरीका है. बोस ने बताया कि क्वांटम पार्टिकल हमारे आसपास की चीजों की तरह बीहेव नहीं करते. इसलिए इनका व्यवहार जांनने के लिए हमें एक नई तरह ही स्टेटिस्टिक्स यानी सांख्यिकी गढ़नी होगी.

सत्येंद्र नाथा बोस पीसी महालनोबिस के साथ (तस्वीर: 
S. N. Bose Archive)

इसी आइडिया को आइंस्टीन ने आगे बढ़ाया और फोटोन जैसे अणुओं के लिए एक नई तरह की सांख्यिकी की शुरुआत हुई, जिसे नाम मिला, ‘बोस-आइंस्टीन स्टेटिस्टिक्स’. आइंस्टीन ने बताया कि ऐसा सिर्फ फोटोन्स से साथ नहीं होता, कुछ और कण भी हो सकते हैं, जो ऐसा व्यवहार करते हैं. उदाहरण के लिए हीलियम-4 गैस. अब पूछिए ये सब तो है खालिस विज्ञान, इसमें मजेदार बात क्या है?

तो उसके लिए आपको एक काम करना होगा. यूट्यब पर वीडियो सर्च कीजिए, हीलियम-फोर सूपर फ्लूइड. और देखिए जादू. लिक्विड हीलियम-4 को जब -273 डिग्री सेल्सियस तक ठंडा किया जाए तो हीलियम का ये आइसोटोप अजीब तरह से ऐक्ट करने लगता है. तरल हीलियम अचानक ग्लास की दीवारों पर चढ़ने लगती है, मानों उस पर ग्रेविटी का असर ही ना हो रहा हो. हीलियम ग्लास के तले से अपने आप रिसने लगती है मानों ठोस ग्लास के आरपार जा सकती हो. इसके अलावा इसका फ़व्वारा बनाइए तो वो बिना किसी बाहरी ऊर्जा के लागातार चलता रहेगा. (photos ऑन स्क्रीन)

ये जादू है क्वांटम मेकेनिक्स का. और पदार्थ की इस स्टेट को नाम मिला ‘बोस आइंस्टीन कॉन्डनसेट’. और जो अणु तरह बीहेव करते उन्हें नाम मिला बोसॉन. बोस के नाम पर, जिन्होंने पहली बार इस तरह के अणुओं का बिहेवियर समझाया था. बोस ने जब अपना रिसर्च पेपर आइंस्टीन के पास भिजवाया, तो आइंस्टीन ने इसके छपवाते हुए अपनी टिप्पणी भी भेजी. इसमें लिखा था,

‘मेरे ख़्याल से बोस ने प्लांक लॉ का जो डेरिवेशन निकाला है वो क्वांटम इफ़ेक्ट को समझने में हमारी मदद करता है. बोस के तरीक़े से गैसों के व्यवहार की क्वांटम थेयरी भी समझाई जा सकती है”

इस रिसर्च पेपर के छपते ही बोस का दुनियाभर में नाम हो गया. कुछ समय बाद उन्होंने आइंस्टीन को एक और पेपर भेजा, ये भी छपा तो सही लेकिन कुछ बातों से आइंस्टीन सहमत नहीं थे. बोस ने एक तीसरा पेपर भी भेजा था, लेकिन वो छपा भी नहीं, और आज उसका कोई नामों निशान भी नहीं मिलता है. आइंस्टीन के बायोग्राफ़र और खुद फ़िज़िसस्ट रहे अब्राहम पेरिस ने 1982 में कहा था कि क्वांटम फ़िज़िक्स की शुरुआत करने में बोस का पेपर एक क्रांतिकारी कदम था. उन्होंने इसे मैक्स प्लांक, आइंस्टीन, और नील बोर के पेपरों की श्रेणी में रखा.

उनकी रद्दी से लोग पीएचडी कर लिया करते थे 

साल 1924 से 26 के बीच सत्येन्द्रनाथ बोस ने यूरोप की यात्रा की. इस दौरान उन्होंने मैडम क्यूरी जैसे वैज्ञानिकों के साथ काम किया. भारत लौटने की बारी आई तो ढाका यूनिवर्सिटी में एक प्रोफ़ेसर की पोस्ट खुली थी, लेकिन इसके लिए पीएचडी की ज़रूरत थी. बोस पीएचडी नहीं कर पाए थे, तब खुद आइंस्टीन ने उनके लिए एक रेकेमेंडेशन लेटर लिखा, जिसे देखकर दुनिया में कोई भी बोस को नौकारी दे देता.

सत्येंद्र नाथ बोस नील बोह्र के साथ (तस्वीर: 
S. N. Bose Archive)

बोस का नाम कुल चार बार नोबल प्राइज़ के लिए नोमिनेट हुआ, लेकिन उन्हें नोबल प्राइज़ नहीं मिला. खुद उन्हें कभी इस बात का मलाल नहीं रहा. कहते थे, मैं जिसके काबिल था, उससे कहीं ज़्यादा मुझे मिल चुका है. ज़िंदगी पर पढ़ाने-लिखाने के काम से जुड़े रहे. विज्ञान को बंगाली भाषा में छात्रों के बीच पहुंचाने के लिए बहुत काम किया. साल 1954 में भारत सरकार ने उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया. अपने करियर के अंत तक वो छात्रों के बीस किंवदंती बन चुके थे.

पब्लिक में उनका कैसा क्रेज़ था इसके लिए किस्सा सुनिए. रिटायर्ड IAS अफसर अमिताभ भट्टाचार्य एक जगह लिखते हैं कि 1960 के दौर में जब वो कलकत्ता में पढ़ाई करते थे, तब सत्येंद्र नाथ बोस की कई कहानियां चलती थीं. कि कैसे के बार एक टीचर ने बोस को 100 में से 110 नंबर दे डाले थे. ये भी कि बोस ने यूनिवर्सिटी के दिनों में जो रिकॉर्ड बनाए थे, उन्हें कोई नहीं तोड़ पाया था. एक और किस्सा ये चलता था कि वैज्ञानिक नील बोर ने जब एक बार कलकत्ता में लेक्चर दे रहे थे तो वो एक जगह फंस पड़े, और तब बोस ने उस प्रॉब्लम को एक मिनट में सॉल्व कर दिया था. 

एक कहानी ये भी चलती थी कि बोस जिन पन्नों को कूड़े में फेंक देते, उनसे लोग पीएचडी कर लिया करते थे. दुनिया में जो कुछ है वो दो प्रकार के अणुओं से बना है. इलेक्ट्रॉन और प्रोटॉन जैसे अणु जिन्हें फर्मियान कहा जाता है और फोटोन जैसे अणु जिन्हें बोसॉन कहा जाता है. गौरव की बात ये है कि इनमें से एक का नाम एक भारतीय वैज्ञानिक के नाम पर है, और हमेशा रहेगा. 
 

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