भारतीय कंपनी ने बचाई अफ्रीका के लाखों लोगों की जान
यूसुफ हमीद को फार्मा की दुनिया का रोबिन हुड कहा जाता है. उन्होंने 1935 में एक छोटी सी लेबोरेटरी से CIPLA की शुरुआत की थी जिसकी बदौलत भारत आगे चलकर AIDS और कैंसर की सबसे सस्ती दवा तैयार करने वाला देश बना.
1980’s का दौर. दुनिया ने एक नई बीमारी का नाम सुना. AIDS. ऐसी बीमारी जो हो जाए तो फिर उसका कोई इलाज नहीं. एड्स ने सबसे ज्यादा हाहाकार मचाया अफ्रीका में. साल 2000 आते-आते अफ्रीकी महाद्वीप में हर दिन 8000 लोग एड्स से मरने लगे थे. हालांकि बीमारी का इलाज नहीं हो सकता था. लेकिन रोकथाम और जान बचाने की दवाएं बनने लगी थीं. ये दवाएं बन रहीं थीं यूरोप और अमेरिका में. और कीमत थी लगभग साढ़े पांच लाख रूपये प्रति वर्ष. इन दवाइयों को ताउम्र लेना होता था. किसी गरीब देश के नागरिक ये बोझ उठाने में सक्षम नहीं थे. साल 2000 में साउथ अफ्रीका के डर्बन शहर में पहली HIV कांफ्रेंस हुई. कांफ्रेंस में एक जज साहब भी पहुंचे थे. वो खड़े हुए और बोले,
“मैं जिन्दा हूं क्योंकि मैं हर महीने हजारों रूपये की दवा खरीद सकने की क्षमता रखता हूं. गरीब आदमी के लिए ये दवाइयां होकर भी नहीं हैं”
उसी साल सितम्बर महीने में यूरोप में भी एक कांफ्रेंस हुई. जहां अफ्रीकी देशों के राष्ट्राध्यक्ष और फार्मा कंपनियों के प्रतिनिधि पहुंचे थे. इस कांफ्रेंस में एक शख्स भारत से भी था. जिसे बोलने के लिए सिर्फ 3 मिनट का समय दिया गया था. इस तीन मिनट में इस शख्स ने तीन वादे किए.
पहला वादा- हमारी कंपनी HIV की दवा सिर्फ 36 हजार पांच सौ रूपये प्रति वर्ष की कीमत पर मुहैया कराने को तैयार है.
दूसरा- कंपनी गरीब देशों को इस दवा को बनाने की तकनीक देगी, मुफ्त में.
और तीसरा वादा- मां से बच्चे में फैलने वाले HIV की दवा भी कंपनी मुफ्त में देगी.
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अमेरिकी मल्टीनेशनल कंपनियों के लिए ये एक सदमे के समान था. HIV की दवाइयों से वो मोटा मुनाफा कमा रहे थे. और ऐसे में ये ऐलान ऐसा था मानों कोई सोने का अंडा देने वाली मुर्गी को ही काट दे. बैकडोर से पैंतरे आजमाए गए. और अंत में हुआ ये कि भारतीय कंपनी के पास एक भी आर्डर नहीं आया. फिर आया एक कॉल जिसने कहानी को पलट दिया. 7 फरवरी 2001. अमेरिका के न्यू यॉर्क टाइम्स के पहले पन्ने पर एक खबर छपी. लिखा था, “Indian Company Offers AIDS Cocktail at a Dollar a Day”. यानी भारतीय कंपनी एड्स की दवा सिर्फ एक डॉलर प्रति दिन पर दे रही है”
AIDS और HIV के इलाज में क्रांतिकारी बदलाव लाने वाली इस कंपनी का नाम था CIPLA. कैसे हुई CIPLA की शुरुआत और क्यों कहा जाता था, इसके मालिक को भारत का रॉबिन हुड.?
कहानी की शुरुआत होती है एक नाम से. ख्वाजा अब्दुल हमीद. कौन थे ये? इतिहास से पहचान करें तो पिता की तरफ से ये सूफी संत ख्वाजा अहरार के वंशज थे. वहीं माता की तरफ से, दुर्रानी वंश के आख़िरी सुल्तान शाह शुजा के वंश के थे. वहीं सर सय्यद अहमद खान इनके चचेरे दादा हुआ करते थे. ख्वाजा अब्दुल हमीद की पैदाइश अलीगढ़ में हुई थी. तारीख थी, 31 अक्टूबर, 1898. पिता वकालत किया करते थे. और चाहते थे बेटा भी वकील ही बने. लेकिन उन्होंने दिल लगाया केमिस्ट्री में. इसी सब्जेक्ट में मास्टर्स किया और बतौर शिक्षक कॉलेज में नौकरी करने लगे.
साल 1923, जब हमीद 25 साल के थे उन्होंने अचानक अपनी नौकरी छोड़ने का फैसला किया. और आगे पढ़ने के लिए जर्मनी चले गए. और यहां उन्होंने केमिस्ट्री में PHD पूरी की. जर्मनी में रहकर उन्होंने पाया कि केमिस्ट्री की बदौलत ही जर्मनी एक महशक्ति बना और प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटेन-फ़्रांस जैसे देशों से टक्कर ले पाया था. 1870 तक दुनिया का अधिकतर प्रोडक्शन ब्रिटेन में होता था. लेकिन फिर जर्मनी में आर्गेनिक और इनऑर्गेनिक केमिस्ट्री के क्षेत्र में जबरदस्त परिक्षण हुए. जर्मनी ने डाई, फार्मास्यूटिकल प्रोडक्ट्स और विस्फोटक बनाने शुरू किए. और 1913 तक केमिकल प्रोडक्शन का सिरमौर बन गया.
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ब्रिटेन जर्मन केमिकल्स पर इस हद तक निर्भर था कि प्रथम विश्व युद्ध की शुरुआत के बाद भी ब्रिटिश आर्मी की यूनिफार्म को रंगने की डाई जर्मनी से इम्पोर्ट हो रही थी. दवाइयों का हाल भी ऐसा ही था. ब्रिटेन न्यूट्रल देशों के माध्यम से एस्पिरिन खरीद रहा था. जो जर्मनी में बनती थी. केमिस्ट्री में जर्मनी की ताकत का एक और नमूना देखिए. तब विस्फोटक बनाने में नाइट्रेट की जरुरत पड़ती थी. जर्मनी इसे चिले से इम्पोर्ट करता था. जर्मनी पर लगाम लगाने के लिए ब्रिटेन ने उस पर आर्थिक प्रतिबन्ध लगाने की कोशिश की. नतीजा हुआ कि जर्मनी के पास नाइट्रेट की कमी होने लगी. तब जर्मन केमिस्टों ने रातों-रात नाइट्रिक एसिड को लैब में बनाने का तरीका खोज निकाला. और इसका उपयोग विस्फोटक बनाने में किया. ब्रिटेन और सहयोगी राष्ट्रों को अहसास हुआ कि उन्हें अपने यहां केमिकल इंडस्ट्री को बढ़ावा देना होगा. इसका फायदा भारत को भी मिला. प्रफुल्ल चंद्र रे जैसे लोगों की बदौलत छोटे रासायनिक उद्योगों की शुरुआत हुई. जिसे ब्रिटेन ने खूब बढ़ावा दिया.
छोटी सी लैबोरेटरी से की CIPLA की शुरुआतभारत में बन रहे पोटाश नाइट्रेट और सल्फ्यूरिक एसिड का उन्होंने युद्ध में खूब इस्तेमाल किया. लेकिन जैसे ही विश्व युद्ध ख़त्म हुआ, ब्रिटेन ने इस उद्योग को बढ़ावा देने के बजाय इसके खात्मे की कोशिशें शुरू कर दीं. ब्रिटेन से केमिकल्स आयात कर भारत में खपाए जाने लगे. जिससे यहाँ के घरेलू उद्योगों को घाटा होने लगा. उस दौर में सिर्फ चंद ही यूनिवर्सिटीज केमिस्ट्री में पोस्टग्रेजुएट डिग्री मुहैया कराती थी. इनमें IISC बैंगलौर, और कलकत्ता यूनिवर्सिटी, कॉलेज ऑफ साइंस प्रमुख थे. इनमें भी फंड्स की कमी रहती थी.
नतीज़न भारत में न केमिस्ट तैयार हो पा रहे थे न ही देश में केमिकल इंस्ट्रटी का कोई भविष्य तैयार हो रहा था. हमीद लिखते हैं,
“भारत का एक ग्रेजुएट सिर्फ थियोरिटिकल नॉलेज हासिल कर पाता है. उसकी असली पढ़ाई तब शुरू होती है जब वो फैक्ट्री में कदम रखता है”
हमीद खुद कुछ साल जर्मनी में रहे. और नाजीवाद के उभार की शुरुआत होते ही वहां से लौट आए. हमीद भारत लौटे, तब भारत राष्ट्रीय चेतना के उभार से गुजर रहा था. हमीद पर महत्मा गांधी के विचारों का गहरा प्रभाव हुआ. उन्होंने तय किया कि टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में आत्मनिर्भर होना होगा. कुछ साल एक दूसरी कंपनी के लिए काम करने के बाद 1935 में उन्होंने एक छोटी सी लैबोरेटरी के शुरुआत की. इसे उन्होंने नाम दिया, Chemical, Industrial and Pharmaceutical Laboratories. यही नाम आगे जाकर CIPLA बना. CIPLA बनाने के पीछे ख्वाजा हमीद का उद्देश्य था, गरीब लोगों को सस्ते में दवाइयां मुहैया कराना. कम्पनी के शुरुआत के चंद सालों बाद ही द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत हो गई. तब CIPLA ने बर्मा सहित साउथ ईस्ट एशिया के देशों में डायरिया और मलेरिया की दवाइयां पहुंचाई. बंटवारे के वक्त मुहम्मद अली जिन्ना ने ख्वाजा हमीद से पाकिस्तान चलने को कहा. लेकिन गांधी का शिष्य होने के चलते उन्होंने भारत में ही रहना चुना.
पेटेंट लॉ की लड़ाईआजादी के बाद CIPLA को गांधी, पटेल जैसे नेताओं और CV रमन जैसे वैज्ञानिकों का समर्थन मिला, जो चाहते थे कि भारत हेल्थकेयर के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बन सके. 1961 में ख्वाजा हमीद के बेटे युसुफ ने CIPLA जॉइन की. यूसुफ कैंब्रिज से केमिस्ट्री की पढाई करके लौटे थे. उनके नेतृत्व में कम्पनी ने 1968 में पहली बार 1 करोड़ रूपये का टर्नओवर हासिल किया. CIPLA की कमान संभालने के बाद यूसुफ भी अपने पिता के नक़्शे कदम पर चले. कंपनी सौंपते हुए उनके पिता ने उनसे कहा था,
“बाकी फार्मा कंपनियों की तरह ये कंपनी सिर्फ प्रॉफिट बनाने के लिए नहीं है. इस कंपनी का मकसद है उन लोगों को दवाइयां देना, जो गरीब हैं.”
इसी दिशा में कदम बढ़ाते हुए CIPLA ने साल 1968 में प्रोप्रानोलोल नाम की दवाई का जेनेरिक वर्जन बनाया. ये दवा बल्ड प्रेशर काबू रखने के काम आती थी. लेकिन इसका पेटेंट एक ब्रिटिश कम्पनी के पास था. कंपनी सरकार के पास गई. इसी के साथ शुरू हुई, पेटेंट लॉ को लेकर एक लम्बी लड़ाई. उस दौर में भारत में 1911 का एक पेटेंट लॉ चलता था. जिसके तहत अंतर्राष्ट्रीय फार्मा कंपनियों ने ड्रग मार्केट पर मोनोपोली बना रखी थी. दवाइयों के दाम आसमान पर थे. यूसुफ ने इस क़ानून के खिलाफ जंग छेड़ दी. उन्होंने बाकी भारतीय कंपनियों के साथ मिलकर भारत सरकार पर दबाव डाला ताकि पेटेंट लॉ बदला जा सके. जिसके बाद 1970 में एक नया पेटेंट लॉ पास हुआ. और इसी के साथ भारत में फार्मास्यूटिकल क्रांति की शुरुआत हुई. नए पेटेंट लॉ के तहत दवाओं का जेनेरिक वर्जन बनाया जा सकता था. बशर्ते बनाने की प्रोसेस सेम न हो. नया लॉ आने के बाद CIPLA और बाकी भारतीय कंपनियों ने जेनेरिक ड्रग बनाना शुरू किया.
भारत में बनी AIDS की सबसे सस्ती दवाअगले बीस सालों में भारत ने फार्मास्यूटिकल मैन्युफैक्चरिंग में जबरदस्त तरक्की की. 1990 तक भारत, AIDS और कैंसर की सबसे सस्ती दवा तैयार करने वाला देश बन गया था. और इस काम में सबसे आगे थी CIPLA. साल 2000 के बाद CIPLA ने HIV की जेनेरिक दवाइयों के वर्जन अफ्रीका भेजे जो बाकी देशों की दवाओं से कहीं सस्ते थे. जिनसे अफ्रीका में हजारों-लाखों लोगों को फायदा हुआ. 2013 की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत दुनिया में HIV दवाओं का 92% मैन्युफैक्चर कर रहा था. साथ ही HIV की जो दवा अमेरिका में 14 लाख रूपये प्रति वर्ष मिल रही थी. वो CIPLA मात्र 5800 रूपये के आसपास मुहैया करा रहा था. इसी दौर में भारत ने TB, मलेरिया, हेपिटाइटिस सी, जैसी बीमारियों की दवाइयां बनाई, जो बाकी देशों से 99% कम दाम पर उपलब्ध थीं.
यूसुफ हमीद 2013 में CIPLA से रिटायर हो गए. उन्हें फार्मा की दुनिया का रोबिन हुड कहा जाता है. न्यू यॉर्क टाइम्स सहित दुनिया के सभी बड़े अखबारों में उनकी प्रोफ़ाइल छप चुकी है. भारत सरकार ने उनके योगदान के लिए साल 2005 में उन्हें पद्म भूषण पुरस्कार से नवाजा. अफ्रीकी देशों की HIV से लड़ाई में CIPLA और हामिद ने जो योगदान दिया, उसे बेहतर जानने के लिए आप एक डॉक्यूमेंट्री देख सकते हैं. ‘फायर इन द ब्लड’ नाम की इस डाक्यूमेंट्री को रिव्यू करते हुए इंडिया टुडे ने लिखा था,
‘यूसुफ हमीद की कहानी हर भारतीय के लिए गौरव का विषय है. क्योंकि वे एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने मुनाफे का ख्याल किए बिना जीवन बचाने पर ध्यान दिया”
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