नेताजी ने क्यों दिया था कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा?
सन 1939 में सुभाष चंद्र बोस ने कांग्रेस के अध्यक्ष पद के चुनाव में महात्मा गांधी के उम्मीदवार पट्टाभि सीता रमैया को हरा दिया और कांग्रेस के अध्यक्ष बन गए. बोस की जीत पर गांधी ने कहा था 'सीता रमैया की हार मेरी हार है.' इसके कुछ समय बाद बोस ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया.
29 जनवरी, 1939. इस रोज़ कांग्रेस अधिवेशन में अध्यक्ष पद का चुनाव होना था. पिछली बार यानी 1938 में हरीपुरा अधिवेशन में सुभाष चंद्र बोस निर्विरोध अध्यक्ष चुने गए थे. और इस बार भी वो अध्यक्ष पद की दावेदारी कर रहे थे. हालांकि गांधी नहीं चाहते थे कि सुभाष अध्यक्ष पद की दावेदारी करें. उन्होंने सरदार पटेल के जरिए सुभाष बाबू के भाई शरत चंद्र बोस को तार भिजवाया. और सुभाष को निर्वाचन पर दुबारा सोचने के लिए राजी करने को कहा. सुभाष अपना इरादा पक्का कर चुके थे.
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गांधी के अलावा वर्किंग कमिटी के कुछ सदस्य, मसलन बल्लभ भाई पटेल, राजेन्द्र प्रसाद, जयराम दास दौलत राम, जेवी कृपलानी, जमना लाल बजाज, शंकर राव देव और भूला भाई देसाई भी सुभाष के अध्यक्ष बनने के खिलाफ थे. 24 जनवरी को एक संयुक्त बयान में इन मेम्बर्स ने कहा,
“अध्यक्ष पद के चुनाव का कांग्रेस के नीति या कार्यक्रमों से कोई लेना देना नहीं है. वो काम कांग्रेस की विभिन्न समितियां करती हैं. जबकि अध्यक्ष एक सांविधानिक मुखिया है, जो कांग्रेस की सोच का प्रतिनिधित्व करता है”
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सुभाष ने वर्किंग कमिटी के इस हस्तक्षेप का विरोध किया और साथ ही अध्यक्ष को सिर्फ सांविधानिक मुखिया मानने से इनकार कर दिया. गांधी चाहते थे नेहरू अध्यक्ष पद के लिए अपना नाम आगे करें. नेहरू के इंकार के बाद उन्होंने मौलाना अबुल कलाम आजाद से आग्रह किया. लेकिन मौलाना स्वास्थ्य कारणों से पीछे हट गए. अंत में आंध्र प्रदेश से आने वाले पट्टाभि सीतारमैय्या ने मोर्चा संभाला. चुनाव के दिन और उसके आगे का घटना क्रम जानने से पहले ये जान लेते हैं कि गांधी और बोस के बीच मतभेद का कारण क्या था. एक नरेटिव चलता है कि गांधी अहिंसा वादी थे वहीं बोस हिंसक तरीकों का उपयोग करना चाहते थे. तो ये बात दरअसल इतनी सीधी नहीं थी.
फरवरी 1938 को सुभाष पहली बार कांग्रेस के अध्यक्ष चुने जाते हैं. हरिपुर सेशन में बतौर अध्यक्ष उनकी स्पीच को कांग्रेस की सबसे लम्बी और सबसे महत्वपूर्ण स्पीच माना जाता है. इस स्पीच में सुभाष येन केन प्रकरेण आजादी की बात करते हैं. लेकिन नोट किए जाने लायक बात ये है कि कहीं भी वो गांधी के रास्ते से अलग चलने की बात नहीं करते. रूद्रांग्शु मुखर्जी सुभाष को क्वोट करते हुए लिखते हैं,
“मेरा पूर्ण विश्वास है कि हमारा तरीका सत्याग्रह या सविनय अवज्ञा या अहिंसक असहयोग का होना चाहिए. हालांकि इसे पैसिव विरोध नहीं समझा जाना चाहिए, सत्याग्रह जैसा मैं समझता हूं, एक्टिव रेजिस्टेंस है, जिसे अहिंषक प्रकृति का होना चाहिए.”
फिर दिसम्बर 1938 में एक घटना हुई जिसके बाद गांधी और सुभाष के बीच पहली बार मतभेद साफ़ तौर पर उजागर हुए. सुभाष बंगाल में कृषक प्रजा पार्टी के साथ गठबंधन सरकार बनाना चाहते थे. जबकि गांधी इसके सख्त खिलाफ थे. गांधी का मानना था कि जहां कांग्रेस को बहुमत न मिले, वहां उन्हें सरकार में शामिल नहीं होना चाहिए. उन्होंने सुभाष को इस बारे में एक खत भी लिखा. उन्होंने जवाब देते हुए कहा कि अगर गांधी अपना विचार नहीं बदलते, तो उन्हें अपने पद के बारे में गंभीरता से पुनर्विचार करना पड़ेगा. इसके बाद आया 1939 का कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव. 29 जनवरी, 1939 को हुए इस चुनाव में सुभाष बाबू को 1580 और पट्टाभि सीतारमैय्या को 1377 वोट मिले. इस नतीजे ने कांग्रेस में खलबली मचा दी. गांधी 1934 में कांग्रेस की प्राथमिक सदस्य्ता छोड़ चुके थे. लेकिन पार्टी के हर कदम पर उनकी छाप साफ़ जाहिर थी. इसलिए पट्टाभि सीतारमैय्या की हार को गांधी की हार की तरह देखा गया. इस बीच कांग्रेस की अगली मीटिंग में एक और हंगामा हुआ.
20- 21 फरवरी को वर्धा में वर्किंग कमेटी की बैठक रखी गयी थी. सुभाष तबीयत ख़राब होने के चलते इसमें शामिल नहीं हो पाए. उन्होंने बल्लभ भाई पटेल से आग्रह किया कि अगले वार्षिक अधिवेशन तक बैठक टाल दें. लेकिन पटेल नेहरू समेत वर्किंग कमिटी के 13 सदस्यों ने सुभाष बाबू पर तानाशाही का आरोप लगाते हुए वर्किंग कमेटी से इस्तीफा दे दिया. उनका आरोप था कि सुभाष अपनी गैरमौजूदगी में कांग्रेस का सामान्य कार्य नहीं चलने दे रहे. इस बीच सुभाष का एक बयान भी विवाद का कारण बना. जिसमें उन्होंने गांधी समर्थकों को हीन बुद्धि कह दिया था. वर्किंग कमिटी ने सुभाष से अपने इस बयान पर खेद जताने की मांग की.
इसके बाद 8 से 12 मार्च, 1939 तक त्रिपुरी (जबलपुर) में कांग्रेस का अधिवेशन रखा गया. गांधी यहां मौजूद न होकर भी मौजूद थे. यहां पंडित गोविंद बल्लभ पंत ने आल इंडिया कांग्रेस कमिटी के 160 सदस्यों की तरफ से एक प्रस्ताव पेश किया. जिसमें लिखा था कि कांग्रेस गांधी के रास्ते पर ही आगे बढ़ेगी. और वर्किंग कमिटी भी उनकी इच्छा अनुसार बनाई जाएगी. 10 मार्च को सब्जेक्ट कमेटी ने 135 के मुकाबले 218 वोटों से इस प्रस्ताव को पारित कर दिया. ये बात कांग्रेस के संविधान, अनुच्छेद 15 के खिलाफ थी. जिसमें साफ़ लिखा था कि वर्किंग कमिटी बनाने के अधिकार अध्यक्ष के पास होगा.
इस अधिवेशन में सुभाष समर्थकों और विरोधियों में जमकर हंगामा हुआ. राज खन्ना लिखते हैं कि बीमारी के कारण जब सुभाष इस अधिवेशन में स्ट्रेचर में पहुंचे तो पीछे से आवाज आई,
“बगल में प्याज तो नही दबाएं हैं?”
राजाजी ने गांधी जी के मुकाबले उनकी तुलना छेद वाली नाव से की. आचार्य कृपलानी ने अपनी आत्मकथा, 'माई लाइफ' में लिखा," सुभाष बोस के बंगाली समर्थकों ने राजेन्द्र प्रसाद के कपड़े फाड़ दिए”.
इस हंगामे की खबर पूरी देश में गूंजी. टैगोर ने गांधी से हस्तक्षेप करने को कहा. लेकिन गांधी तब अनशन पर बैठे हुए थे. टैगोर ने अपने पूर्व सचिव अमिय चक्रवर्ती को लिखा,
"जिस पवित्र मंच से आजादी के मंत्र गूंजने चाहिए वहां फासिस्ट दांत उभर आए हैं."
नेहरू ने बीच-बचाव की कोशिश करते हुए सुभाष से कहा कि वो अपना कार्यकाल पूरा करें. लेकिन अब तक सुभाष इस्तीफ़ा देने का मन बना चुके थे. 29 अप्रैल 1939 को उन्होंने कांग्रेस का अध्यक्ष पद छोड़ दिया. और फिर आल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक् नाम से एक नई पार्टी का गठन कर लिया. यहां से गांधी और बोस के रास्ते पूरी तरह अलग हो गए थे. इसके बावजूद ये छुटभैये नेताओं का मतभेद नहीं था.
दोनों की मंजिल एक थी. इसलिए इज्जत भी उतनी ही थी. 1940 में सुभाष को गिरफ्तार किया गया. जब गांधी से पूछा गया तो बोले,
“सुभाष बाबू जैसे महान व्यक्ति की गिरफ्तारी मामूली बात नहीं है. लेकिन सुभाष बाबू ने अपनी लड़ाई की योजना बहुत समझ-बूझ और हिम्मत से बनाई है. वह मानते हैं कि उनका तरीका सबसे अच्छा है. उन्होंने मुझसे बड़ी आत्मीयता से कहा कि जो कुछ कार्य समिति नहीं कर पायी, उसे कर दिखाएंगे. वह विलम्ब से ऊब चुके हैं. मैंने उनसे कहा कि आपकी योजना के फलस्वरुप मेरे जीवनकाल में स्वराज मिल गया तो बधाई का पहला तार मेरी ओर से आपको मिलेगा."
अब देखिए नेताजी सुभाष का गांधी के बारे में क्या मत था. 6 जुलाई, 1944. आजाद हिन्द रेडियों पर एक जरूरी ब्रॉडकास्ट होना था. रेडियो रूम में गहमा-गहमी के बीच नेताजी एंटर होते हैं. लोग अब तक खुसुर फुसुर कर रहे थे कि अब तो आजादी की लड़ाई गांधी से मुक्त है. हम नहीं मानते उनके आदर्श. भारत छोड़ो आंदोलन से क्या हासिल हुआ. लोगों को मार पड़ी और क्या मिला. लोगों के चेहरों पर गुस्सा और आग थी. उस दिन उस दिन सुभाष ने मिलिट्री यूनिफॉर्म पहनी थी. उन्होंने राष्ट्र के नाम अपना सम्बोधन शुरू किया.
“भारत की आजादी की आखिरी लड़ाई शुरू हो चुकी है. आजाद हिंद फौज हिंदुस्तान की धरती पर लड़ रही है. सारी दिक्कतों के बावजूद आगे बढ़ रही है. ये हथियारबंद संघर्ष तब तक चलेगा जब तक कि ब्रिटिश राज को देश से उखाड़ नहीं देंगे. दिल्ली के वॉयसराय हाउस पर तिरंगा फहरेगा."
सुभाष बाबू ने पॉज लिया. सबको लगा कि अब कुछ नारे लगेंगे. पर ऐसा नहीं हुआ. सुभाष बाबू ने कहा- राष्ट्रपिता, हिंदुस्तान की आजादी की लड़ाई में हम आपका आशीर्वाद मांगते हैं. सबकी आंखें नम थीं. सुभाष बाबू ने बता दिया था कि गांधी ही सेनापति हैं. बाकी लोग सैनिक. नेताजी के जन्मदिन पर श्रधांजलि देते हुए, गांधी का वो बयान आपके सामने रखते हुए चलते हैं, जो उन्होंने विमान दुर्घटना की खबार मिलने पर दिया था. गांधी ने कहा,
“उन जैसा दूसरा देशभक्त नहीं. वह देशभक्तों के राजकुमार थे.”
24 फरवरी, 1946 को हरिजन में अपने लेख में गांधी लिखते हैं,
"आजाद हिंद फौज का जादू हम पर छा गया है. नेताजी का नाम सारे देश में गूंज रहा है. वे अनन्य देश भक्त हैं. (वर्तमान काल का प्रयोग जानबूझकर कर रहा हूं). उनकी बहादुरी उनके सारे कामों में चमक रही है.”
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