चित्तौड़ में जब अकबर ने 30,000 क़त्ल कर डाले!
1567 ईस्वीं में अकबर ने मेवाड़ को अपने अधीन करने के लिए चित्तौड़ के क़िले पर आक्रमण किया था. अकबर ने क़िले पर अधिकार के बाद लगभग 30,000 राजपूतों का कत्ल करवा दिया.
मुगलों से लड़ने के लिए महाराणा प्रताप जंगलों में फिरते रहे. घास की बनी रोटियां खाई लेकिन झुके नहीं. प्रतिज्ञा ली कि चित्तौड़ को दुबारा जीत कर ही दम लेंगे. महराणा की वीरता के ये किस्से हमने आपने कई बार सुने हैं. लेकिन फिर एक सवाल है, महाराणा प्रताप और मुग़ल बादशाह अकबर के बीच दुश्मनी पैदा कैसे हुई. इस सवाल का जवाब छुपा है एक दुर्ग में. एक दुर्ग जिसे कभी अभेद्य माना जाता है. लेकिन जिस तरह हर चमकती चीज पर अभिशाप होता है कि वो सबसे पहले हमलावरों की नज़र में आएगी, यही चित्तौड़गढ़ दुर्ग के साथ भी हुआ. इसी चित्तौड़गढ़ दुर्ग पर 1303 ईस्वी में अलाउद्दीन खिलजी ने हमला किया. जिसकी एक कहानी हमें रानी पद्मिनी के जौहर के रूप में सुनाई जाती है. लेकिन ये आख़िरी बार नहीं था कि चित्तौड़गढ़ में जौहर किया गया हो. चित्तौड़गढ़ पर 3 बार हमला हुआ था. (Siege of Chittorgarh 1567–1568)
यहां पढ़ें- दिल्ली के बर्बाद और आबाद होने की कहानी!
अलाउद्दीन खिलज़ी के बाद साल 1535 में गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह ने चित्तौड़गढ़ पर हमला किया. बहादुर शाह तो लौट गया लेकिन इसके कुछ दशक बाद ही चित्तौड़गढ़ मुगलों की नजर में आ गया. मुग़ल बादशाह अकबर मेवाड़ पर कब्ज़ा चाहते थे. ताकि उन्हें दिल्ली से गुजरात के बंदरगाहों तक सीधा रास्ता मिल जाए. इस अभियान में सबसे बड़ा कांटा था चित्तौड़गढ़. चित्तौड़गढ़ पर महाराणा प्रताप के पिता महाराणा उदय सिंह का शासन था. उन्हें जैसे ही खबर मिली कि अकबर चित्तौड़गढ़ पर कब्ज़ा करने आ रहे हैं. वो अपने खास सिपहसालारों के साथ उदयपुर चले गए. और अपने दो सरदारों को चित्तौड़गढ़ की जिम्मेदारी सौंप दी. (Siege of Chittorgarh by Akbar)
यहां पढ़ें- मोदी से भिड़ने वाले इलेक्शन कमिश्नर की कहानी!
अकबर और महाराणा उदय सिंह23 अक्टूबर 1567 वो तारीख थी, जब अकबर(Akbar Mughal Emperor) ने चित्तौड़गढ़ पर डेरा डाला और दुर्ग को चारों ओर से घेर लिया. यहां से शुरू हुई एक मुहीम जो 6 महीने चली. इस दौरान कभी राजपूतों का पलड़ा भारी होता तो कभी मुगलों का. कहीं सुरंगें खोदी जा रही थी तो कहीं मजदूरों को चांदी से ख़रीदा जा रहा था. इसके बाद भी मुग़ल सेना को दुर्ग भेदने के लिए नाकों चने चबाने पड़े.
अकबर ने चित्तौड़गढ़ दुर्ग(Chittorgarh Fort) पर कैसे कब्ज़ा किया. क्या थी उन दो राजपूत सरदारों की कहानी, जिनकी वीरता ने अकबर को इतना प्रभावित किया कि उन्होंने खुद उनकी मूर्तियां अपने महल के आगे लगवाईं. चित्तौड़गढ़ पर मुग़ल कब्ज़े की कहानी या जिसे चित्तौड़गढ़ का तीसरा साका कहा जाता है. अपनी किताब 'Allahu Akbar: Understanding the Great Mughal in Today's India' में लेखक मणिमुग्ध शर्मा लिखते हैं, मेवाड़ कैम्पेन के दौरान हमें अकबर के रणनीतिक प्रबंधन का अच्छा उदहारण मिलता है. अकबर के उम्र तब करीब 25 साल थी. लेकिन मेवाड़ पर हमले के दौरान उन्होंने कोई जल्दबाज़ी नहीं दिखाई. वो एक-एक कर रास्ते में पड़ने वाले दुर्गों को जीतते गए और हर दुर्ग पर अपना एक नुमाइंदा तैनात करते गए.
इससे हुआ ये कि मेवाड़ कैम्पेन के दौरान उन्हें कभी ये डर नहीं लगा कि पीछे से कोई हमला कर देगा. आगरा से कैम्पेन की शुरुआत कर सबसे पहले मुग़ल सेना ने हिंदवाड़ा में डेरा डाला. यहां के दुर्ग पर उन्होंने नज़्र बहादुर को तैनात किया और खुद आगे कोटा बढ़ गए. कोटा में उन्होंने मुहम्मद कंधारी के नेतृत्व में अपनी एक टुकड़ी तैनात की. इसके बाद एक-एक कर उन्होंने गागरोन और मंडलगढ़ के दुर्ग अपने कब्ज़े में किए. जब ये दुर्ग कब्ज़े में आ गए तो अकबर ने तय किया कि वो तेज़ी से चित्तौड़ पर धावा बोलेंगे. इसके पीछे उनकी मंशा थी राणा उदय सिंह को प्रलोभन देना.
अकबर को लगा था की शायद महराणा इसे मौका समझकर मुग़ल सेना पर हमला करने की कोशिश करेंगे. लेकिन महाराणा उदय सिंह अकबर के इस जाल में नहीं फंसे. वो अपने परिवार को लेकर दुर्ग से निकल गए. और जंगलों के रास्ते उदयपुर की तरफ बढ़ गए. पीछे उन्होंने अपने धुरंधर सरदारों, जयमल राठौड़ और पत्ता सिसोदिया को दुर्ग की जिम्मेदारी सौंप दी. इसके अलावा उन्होंने दुर्ग के आसपास की जमीन को रौंद डाला ताकि वहां मुग़ल सेना को वहां घास का एक तिनका भी न मिले. अंदर दुर्ग में राशन का भंडार था. जो हजारों लोगों के महीनों तक खिला सकता था.
चित्तौड़गढ़ पर हमलामुग़ल सेना जब दुर्ग तक पहुंची, महराणा उदय जंगलों के तरफ निकल चुके थे. अकबर ने उनका पीछा न कर दुर्ग की घेराबंदी करना उचित समझा. हालांकि चित्तौड़गढ़ का दुर्ग तब तक दो बार फतह किया जा चुका था. लेकिन फिर भी मुग़ल सेना के लिए दुर्ग की चढ़ाई एक टेढ़ी खीर थी. दुर्ग की ऊंचाई से आप आती हुई सेना को दूर से देख सकते थे. आईने अकबरी में अबुल फज़ल लिखता है,
“मुग़ल सेना के चित्तौढ़ पहुंचते ही धरती हिलने लगी. भयंकर तूफ़ान आया.”
इसके बावजूद मुग़ल सेना दुर्ग की घेराबंदी करने में कामयाब रही. अगली सुबह अकबर खुद अपने घोड़े पर चढ़े और पास की एक पहाड़ी से दुर्ग का मुआयना किया. गोलाई में दुर्ग 13 किलोमीटर तक फैला हुआ था. जिसे भेदना अति दूभर काम था. नैपोलियन ने एक बार कहा था,
“युद्ध में ईश्वर उसकी तरफ होता है, जिसके पास सबसे मजबूत आर्टिलरी होती है”.
अकबर भी आर्टिलरी का महत्व जानते थे. इसलिए उन्होंने अतिरिक्त तोपें मंगवाकर उन्हें दुर्ग के आगे खड़ा करवा दिया. इस काम में उन्हें पूरा एक महीना लगा. इसके बाद मुग़ल तोपों ने दुर्ग पर गोले बरसाने शुरू किए. लेकिन उस अभेद्य दुर्ग के सामने, तोप के गोले, रुई की फाई साबित हो रहे थे. अबुल फज़ल ने लिखा है, मुग़ल सेना की कई टुकड़ियों ने बारी-बारे से दुर्ग पर धावा बोला लेकिन दुर्ग पर कोई असर न हुआ. उधर दुर्ग की सुरक्षा में लगे राजपूत सैनिक ऊंचाई से तीरों की वर्षा कर रहे थे. जिनके निशाने पर आकर मुग़ल सैनिक मरते जा रहे थे. अपनी फौज का ये हश्र देखकर अकबर ने रणनीति चेंज की. और एक नया प्लान बनाया.
अकबर राणा से कम पर तैयार न थेनए प्लान के तहत दुर्ग की दीवारों के नीचे से दो सुरंगे बनाई जानी थी. जिनमें बारूद भरकर विस्फोट किया जाता और दुर्ग की दीवार ढह जाती. लेकिन ये काम भी आसान नहीं था. सुरंग बनाने में लगे मजदूरों पर लगातार राजपूत सैनिकों का हमला हो रहा था. हर रोज़ 200 मजदूर मारे जा रहे थे. फिर भी वो लोग पीछे न हटे. वजह- अकबर ने उन्हें सोने और चांदी में तोल दिया था. सुरंग बनाने का काम दो लोगों के मत्थे था. राजा टोडरमल और कासिम खान. दोनों निर्माण के काम में माहिर थे. बड़ी मुश्किल से दोनों ने दुर्ग की दीवार तक पहुंचने का एक रास्ता बनवाया. जो दो तरफ से मिट्टी की दीवार से ढका हुआ था. ये रास्ता इतना चौड़ा था कि उसमें से एक साथ 10 सैनिक चल सकते थे. और ऊंचाई इतनी कि एक हाथी पार हो सके.
इस बीच जैसे-जैसे मुग़ल सेना निर्माण को आगे बढ़ा रही थी. चित्तौड़गढ़ दुर्ग में बैठे सरदारों को अंदाज़ा होने लगा था कि अब किसी भी दिन मुग़ल आर्टिलरी दुर्ग की दीवार के एकदम नजदीक पहुंच जाएगी. इस काम के लिए मुग़ल सेना ने एक बड़ी सी तोप तैनात की हुई थी. हालत की नजाकत देखते हुए जयमल राठौर ने अकबर से समझौता करना उचित समझा और अपने दो नुमाइंदों को अकबर के पास सुलह करने भेजा. दोनों अकबर से मिलने पहुंचे और उनके सामने एक प्रस्ताव रखा. अगर अकबर दुर्ग की घेराबंदी छोड़ दें तो राजपूत अकबर का आधिपत्य स्वीकार कर लेंगे. साथ ही सालाना पेशगी भी भेजा करेंगे.
अकबर इससे तैयार नहीं थे. उन्होंने मांग रखी कि खुद महराणा उदय सिंह को उनके सामने आना होगा. राजपूत सरदारों को ये शर्त हरगिज़ मंजूर नहीं थी. चित्तौड़गढ़ के पास अब युद्ध के अलावा कोई रास्ता न बचा था. जंग के ऐलान के साथ ही राजपूत सैनिकों ने मुगलों पर ताबड़तोड़ हमलों की शुरुआत कर दी. ये हमला इतना भीषण था कि कई बार अकबर हमले की चपेट में आने से बाल-बाल बचे. मणिमुग्ध शर्मा अपनी किताब में लिखते हैं कि इस युद्ध में कई मुसलमान भी राजपूतों की तरफ से लड़ रहे थे. और चूंकि अकबर ने इस जंग को धार्मिक रंग दे रखा था, वो इन सैनिकों से विशेष रूप से गुस्सा थे. राजपुताना बंदूकों को लीड करने वाले एक आदमी का नाम इस्माइल था. एक रोज़ जब अकबर दूर से जंग पर निगरानी रख रहे थे. इस्माइल की बन्दूक का निशाना उनके खासमखास नौकर जलाल खान को लगा. ये देखकर अकबर को इतना गुस्सा आया कि उन्होंने इस्माइल को खुद मारने का निर्णय कर लिया. इसके बाद अकबर के निशाने से ही इस्माइल की मौत हुई.
लड़ाई कई हफ़्तों से चल रही थी. मुग़ल सैनिक एक एक कर दुर्ग में खड़े राजपूत सैनिकों को निशाना बना रहे थे. लेकिन ये सब किसी काम नहीं आ रहा था. मुग़ल सैनिकों जितनी बार दुर्ग की दीवारों को नुकसान पहुंचाते, उतनी ही तेज़ी से उनकी मरम्मत भी हो जाती. अंत में अकबर ने अपने सैनिकों को दुर्ग की नींव में बारूद भरने का हुक्म दिया. 17 दिसंबर के रोज़ दुर्ग में नीच दो स्थानों पर बारूद भरा गया. पहले विस्फोट में दुर्ग का एक हिस्सा ढह गया, और उसके ऊपर ऊपर तैनात सैनिक मारे गए. ये देखकर उत्साह से भरी मुग़ल टुकड़ियों ने धावा बोल दिया. और इस चक्कर में ध्यान ही नहीं दिया कि एक और विष्फोट होना बाकी है. जैसे ही मुग़ल सैनिक दुर्ग के पास पहुंचे, दूसरा विस्फोट हुआ, और 200 सैनिक मौके पर ही मारे गए. साथ ही पास में खड़े 40 सैनिक भी मलबे की जद में आ गए.
जौहर और साकाइस हो-हंगामे के बीच मुग़ल सेना में अफरातफरी मच गई और वो दुर्ग में हुए सुराख का फायदा नहीं उठा पाए, राजपूत सैनिकों ने रातोंरात गिरी हुई दीवार को दोबारा खड़ा कर दिया. इस फेलियर से मुग़ल फौज में हताशा फ़ैल गई. अकबर ने तय किया कि वो अपने पुराने प्लान के मुताबिक़ ही चलेंगे. जिस रास्ते का निर्माण कराया जा रहा था, उसे पूरा किया गया. ये रास्ता चारों तरफ से ढका हुआ था. और सिर्फ आगे और पीछे से उसका मुंह खुला था. अकबर ने छज्जे की सुरक्षा में अपनी तोपें लगाई. और 22 फरवरी के रोज़ जोरदार हमला कर दिया. चारो ओर से हुए हमले में दुर्ग में कई जगह सुराख हो गए. राजपूत सैनिकों ने इस छेदों को भरने के लिए खुद को उनके आगे खड़ा कर दिया.
अकबर ने देखा कि राजपूत सैनिकों की अगुवाई करने वाला एक शख्स था, जिसने जंजीरों से बना एक कवच पहना हुआ था. कवच के ऊपर छातीबंद लगा हुआ था. जिसे हजार मिखी कहते थे. हजार मीखी यानी हजार कीलें. इस पहनावे का मतलब था एक खास ओहदा. अकबर को उस समय तो अहसाह नहीं हुआ कि ये कौन है, लेकिन उसे निशाना बनाने के लिए वो अपनी पसंदीदा तोप पर सवार हो गए, जिसका नाम संग्राम था. अकबर का गोला ठीक निशाने पर लगा. कुछ देर में अकबर का एक सरदार दौड़ता हुआ आया. उसने खबर दी कि दुर्ग के अंदर आग की लपटें उठ रही हैं. अकबर को कुछ समझ नहीं आ रहा था. तभी पास खड़े राजा भगवान दास ने अकबर को बताया कि ये राजपूत स्त्रियों का जौहर है. और इसका मतलब है राजपूत आख़िरी लड़ाई यानी साका की तैयारी कर चुके हैं.
अगली सुबह अकबर को पता चला कि उनकी तोप का निशाना जिसको लगा वो और कोई नहीं, राजपूत सरदार, जयमल राठौर थे. जयमल की मृत्यु के साथ ही राजपूतों सरदारों ने जान की परवाह किए बिना मुगलों पर हमला कर दिया. मुग़ल सैनिक अब तक दुर्ग के अंदर घुस चुके थे. अकबर खुद एक हाथी पर चढ़े और दुर्ग के अंदर दाखिल हो गए. करीब 300 हाथियों ने दुर्ग के अंदर तबाही मचानी शुरू कर दी. राजपूत सैनिकों इनमें से कई हाथियों की सूंड काट डाली. अकबर के सामने एक राजपूत सरदार को लाया गया, जिसे एक हाथी ने कुचल डाला था. ये पत्ता सिसोदिया थे. कुछ देर में उन्हें भी मार डाला गया. दुर्ग के अंदर 8 हजार सिपाहियों के अलावा 40 हजार आम लोग थे, अबु फ़ज़ल ने लिखा है कि इन लोगों ने राजपूत सेना का साथ दिया, जिसके चलते 30 हजार की संख्या में उन्हें भी मार दिया गया.
5 महीने चली जंग के बाद फरवरी के आख़िरी हफ्ते में अकबर ने चित्तौड़गढ़ के दुर्ग पर पूरी तरह कब्ज़ा कर लिया. इसके बाद वो अजमेर में मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह के दर्शन के लिए चले गए. अजमेर में ही इस जीत के नाम पर एक फतेहनामा जारी किया गया. आगरा लौटने के बाद अकबर ने इस युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए राजपूत सरदारों, जयमल राठौड़ और पत्ता सिसोदिया की मूर्तियां फतेहपुर सीकरी में लगवाई. हालांकि मेवाड़ से उनकी जंग जारी रही. महराणा उदय सिंह के बाद महराणा प्रताप ने हल्दीघाटी में मुग़ल सेना का सामना किया. और आगे कई सालों तक मुग़ल सेना के लिए सर का दर्द बने रहे.
वीडियो: तारीख़: जब भारत ने एशिया को तबाही से बचाया!