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हमें बांग्लादेश की स्कूली किताब मिली, भारत के बारे में क्या लिखा था?

बांग्लादेश के लोग भारत के बारे में क्या सोचते हैं? वहां के स्कूल की किताबों में भारत के बारे में क्या पढ़ाया जाता है? बांग्लादेश संकट के मद्देनजर ये जानना बनता है.

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tarikh episode on bangladeshi books
1970 के दशक के एकदम शुरुआती सालों की बात है. अमेरिका और चीन में पिंग पोंग डिप्लोमेसी की शुरुआत हो रही थी. (सांकेतिक फ़ोटो/asian development bank)
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कमल
6 अगस्त 2024 (Updated: 19 अक्तूबर 2024, 10:24 IST)
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बांग्लादेश में इन दिनों जो कुछ हो रहा है, उसे लेकर भारत में दो खेमे बंट गए हैं. एक खेमे को लगता है कि एक तानाशाही सरकार के खिलाफ जनता की जीत हुई है. जबकि दूसरा खेमा मानता है कट्टरपंथियों ने प्रदर्शन हाईजैक कर सत्ता का तख्तापलट कर दिया. इस हंगामे में और कई एंगल भी हैं. असल में क्या हुआ, इसका सही जवाब फिलहाल किसी के पास नहीं है. लेकिन इस मामले में चीन के एक पूर्व प्रधानमंत्री की एक बात क्वोट करने लायक है. 

1970 के दशक के एकदम शुरुआती सालों की बात है. अमेरिका और चीन में पिंग पोंग डिप्लोमेसी की शुरुआत हो रही थी. अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन के सलाहकार हेनरी किसिंजर और चीन के तत्कालीन प्रीमियर, झू इनलाई के बीच मुलाक़ात हुई. इस दौरान किसिंजर ने इनलाई से एक सवाल पूछा- आप फ्रेंच क्रांति के बारे में क्या सोचते हैं?

इनलाई ने जवाब दिया - "It's too early to say” यानी अभी कहना जल्दबाजी होगी. मतलब समझ न आया तो बता दें, फ्रेंच क्रांति 1789 में हुई थी. बांग्लादेश में क्या और क्यों हुआ, असली कहानी हमें उस इतिहास से पता चलेगी, जो आगे चलकर लिखा जाएगा. फ़िलहाल हम चलते हैं उस इतिहास की तरफ जो लिखा जा चुका है. जिसमें आज जानेंगे-

- बांग्लादेश के लोग भारत के बारे में क्या सोचते हैं?
- बांग्लादेश की स्कूली किताबों में भारत के बारे में क्या पढ़ाया जाता है?

‘भारत विरोध' की पुरानी बीमारी

शुरुआत वर्तमान से करते हैं. इसी साल बांग्लादेश के सोशल मीडिया पर कुछ नए ट्रेंड दिखाई दिए. इस ट्रेंड को ‘इंडिया आउट कैम्पेन’ का नाम दिया गया. चूंकि जो दिखता है वही बिकता है, इसलिए इस पूरे वाकये से एक ऐसी छवि बनी मानो बांग्लादेश में भारत विरोधी माहौल है. माहौल बनाने में हालांकि केवल सोशल मीडिया का श्रेय नहीं है. क्रिकेट के फील्ड में अदावत कई बार खेल से आगे गई है. 

तीन वाकये याद दिलाते हैं आपको. साल 2016. ICC T20 वर्ल्ड कप के सेमीफाइनल मैच में भारत वेस्टइंडीज़ से मैच हार गया. बांग्लादेश के विकेटकीपर बल्लेबाज़, मुशफिकुर रहीम ने सोशल मीडिया पर मैच की तस्वीर पोस्ट कर लिखा,

“खुशी है इस बात की कि भारत सेमीफाइनल में हार गया.”

बाद में हालांकि उन्होंने अपनी पोस्ट डिलीट कर दी. और सफाई देते हुए लिखा, “माफ़ करना, मैं वेस्टइंडीज़ का बड़ा सपोर्टर हूं."

इससे एक साल पहले, 2015 में भारत बांग्लादेश से सीरीज़ हार गया था. इस मौके पर बांग्लादेश के एक बड़े अखबार ने उस्तरे का एक एड लगाया, जिसमें भारतीय खिलाड़ियों के सिर आधे मुंडे हुए थे.

तीसरा उदाहरण 2019 का वर्ल्ड कप. भारत और बांग्लादेश के मैच से पहले पारा इतना ऊपर जा चुका था कि कप्तान मशरफे मुर्तज़ा को कहना पड़ा,

“उत्साह अच्छा है लेकिन अगर फैंस लिमिट क्रॉस करें या किसी को पर्सनली टारगेट करें तो ये स्वीकार्य नहीं है.” 

इस अदावत की एक झलकी 2023 के वर्ल्ड कप में भी दिखी थी, जब कई बांग्लादेशी सपोर्टस ने आरोप लगाया कि स्टेडियम में भारतीय दर्शकों ने उनसे बुरा सुलूक किया. संभव है ये तमाम बातें सिर्फ खेल तक सीमित हों. आखिर ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन देशों के तौर पर जिगरी यार हैं. लेकिन ऐशेज़ के दौरान उनके भी प्लेयर्स और समर्थकों के बीच काफी कहासुनी होती है. हालांकि तब भी इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि बांग्लादेश में, खासकर हालिया सालों में भारत विरोधी सेंटीमेंट्स में इजाफा हुआ है.

इंडिया टुडे के एक आर्टिकल में बांग्लादेश के सीनियर पत्रकार स्वदेश रॉय लिखते हैं, 

“बांग्लादेश में एंटी इंडिया सेंटीमेंट, एक पुरानी बीमारी है.”

रॉय के अनुसार बांग्लादेश में भारत विरोधी विचारों की जड़ें 1947 से पहले के पाकिस्तान आंदोलन से निकलीं. पाकिस्तान के गठन के पीछे एक धार्मिक सोच थी. ईस्ट पाकिस्तान यानी वर्तमान बांग्लादेश में भाषायी अस्मिता को लेकर आंदोलन शुरू हुआ. जो 1970 में अपने चरम पर पहुंच गया. 1970 में भी हालांकि जब चुनाव हुए, तो महज 24 पर्सेंट लोग थे जो आजाद बांग्लादेश के पक्ष में थे. बाद में जब टिक्का खान ने बांग्लादेश में नरसंहार शुरू किया, तब जाकर बहुमत ने आजाद बांग्लादेश की अहमियत को समझा. 

#विरोधाभास

ऊपर कही तमाम बातों से आपको शायद लगे कि अधिकतर बांग्लादेशी भारत विरोधी हैं. लेकिन क्या ये बात पूरी तरह सही है? साल 2014 में Pew रिसर्च ने एक पोल किया था. इसमें एशिया के तमाम देशों के नागरिकों से दूसरे देशों के बारे में विचार पूछे गए थे. इस पोल में जब बांग्लादेश के लोगों से भारत के बारे में राय पूछी गई तो 70 पर्सेंट लोगों ने पॉजिटिव बातें कहीं. ये पोल 10 साल पुराना है. संभव है तब से आंकड़े कुछ बदल गए हों. लेकिन फिर भी इस पोल से कहीं नहीं लगता कि बांग्लादेश की बहुसंख्यक जनता अचानक भारत विरोधी हो गई है. ऐसे में सवाल उठता है कि इंडिया आउट कैम्पेन और बाकी उदाहरणों का क्या? 

Pew रिसर्च पोल से ही इसका भी जवाब मिलता है. इसी पोल में जब लोगों से पूछा गया कि वे किस देश को सबसे बड़े थ्रेट के रूप में देखते हैं तो बांग्लादेश के 27 पर्सेंट लोगों ने इंडिया का नाम लिया. ये टॉप चॉइस थी. मतलब खतरे के मामले में बाकी देशों का नंबर भारत से पीछे था. तुलना करें तो सेंटीमेंट दोनों तरह के हैं. बांग्लादेश की बहुसंख्यक जनता भारत के प्रति फेवरेबल नजरिया रखती है. जबकि भारत को खतरा मानने वालों की भी अच्छी खासी संख्या है. ये विरोधाभास क्यों है? इस सवाल का जवाब जानने के लिए हमें जरा इतिहास में जाना होगा. 

#बांग्लादेश की स्कूली किताबें

बांग्लादेश की स्कूली किताबों में भारत के बारे में क्या पढ़ाया जाता है, ये जानने के प्रयास में हमें कक्षा नौवीं-दसवीं की एक किताब में मिलीं. बांग्लादेश एन्ड ग्लोबल स्टडीज़. जिसमें हिस्ट्री, सिविक्स, इकोनॉमिक्स, जियोग्रॉफी सब आ जाते हैं. किताब में एक जगह 1971 युद्ध का जिक्र करते हुए लिखा है, 

“भारतीय सेना ने बांग्लादेश मुक्ति संग्राम में मित्र वाहिनी के तौर पर भाग लिया. पाकिस्तान आर्मी को हराने में उनका योगदान भुलाया नहीं जा सकता.” 

आगे लिखा है, 

“युद्ध के बाद बंगबंधु (मुजीबुर रहमान) ने भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से रिक्वेस्ट की, कि वे सेना वापिस बुला लें. ताकि स्थानीय और अंतराष्ट्रीय बिरादरी को प्रोपेगैंडा फैलाने का मौका न मिले. मार्च 1972 में भारतीय सेना ने बांग्लादेश छोड़ दिया. विदेशी सेना द्वारा किसी देश को इस तरह छोड़े जाने के ऐसे उदाहरण बहुत दुर्लभ हैं. इस घटना ने दुनिया में बांग्लादेश की छवि और मजबूत की.”

हमने कुछ और किताबें भी देखीं. लेकिन कहीं नहीं दिखा कि इतिहास को गोलमोल किया गया हो. पाकिस्तान में पढ़ाई जाने वाली इतिहास की किताबों के बारे में एक एपिसोड में हम चर्चा कर चुके हैं. उस तरह की हेराफेरी बांग्लादेश की किताबों में नहीं दिखती, बल्कि अधिकतर जगह 1971 युद्ध में भारत के योगदान को बताया गया है. क्लास 7th में पढ़ाई जाने वाली हिस्ट्री और सोशल साइंस की किताब कहती है, 

“भारत ने बांग्लादेश की मुक्तिवाहिनी को हथियार दिए. करीब 4 हजार भारतीय सैनिकों ने अपनी जान दी. इस तरह भारत ने बांग्लादेश की आजादी में एक महत्वपूर्ण रोल निभाया.” 

किताबों से इतर कुछ और चीजें छानने की कोशिश में हमें साल 2012 की BBC की एक रिपोर्ट मिली. इसके अनुसार नोआखाली में आज भी लोग महात्मा गांधी को याद करते हैं. पार्टीशन से कुछ समय पहले बंगाल में दंगे शुरू हो गए थे. तब नोआखाली में हिन्दुओं को निशाना बनाया जा रहा था. ऐसे में गांधी नोआखाली गए थे. और गांव-गांव घूमकर लोगों को शांत कराया था. BBC की रिपोर्ट के अनुसार नोआखाली में एक गांधी आश्रम ट्रस्ट बनाया गया है. ट्रस्ट की मेंबर झरनादी चौधरी बताती है,

“मार्च 1947 में गांधी जब नोआखली से वापस लौटे. उन्होंने अपने कुछ शिष्यों से वहीं रुकने को कहा था और वादा किया था कि वो एक बार फिर आएंगे. उनके कुछ शिष्य इसके बाद हमेशा के लिए नोआखली में ही रुक गए. इनमें से एक चारु चौधरी थे. जिन्हें आजादी के बाद ईस्ट पाकिस्तान में गिरफ्तार कर लिया गया था. और 1971 में बांग्लादेश की आजादी के बाद ही रिहा किया गया.” 

BBC की रिपोर्ट बताती है कि गांधी के चार अनुयायियों की पाकिस्तानी फौज ने हत्या कर डाली थी. 

# बांग्लादेश में बचा रह गया पाकिस्तान 

बांग्लादेश में मौजूद एंटी इंडियन सेंटीमेंट्स को इतिहास के परिपेक्ष्य से देखेंगे तो इस सोच की जड़ में पाकिस्तान का विचार नज़र आएगा. 1971 में बांग्लादेश पाकिस्तान से अलग जरूर हो गया था. लेकिन एक प्रकार का ‘Residue Thought’ बचा रह गया. क्या था ये ‘Residue Thought’? 

उदाहरण से समझते हैं. बांग्लादेश का राष्ट्रगान आप पहचानते होंगे, ‘आमार सोनार बांग्ला’. इसे गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगौर ने लिखा था. चूंकि टैगोर का रिश्ता भारत से है. इसलिए बांग्लादेश के गठन से पहले रवींद्र संगीत को एंटी पाकिस्तानी समझा जाता था. बाकायदा 1971 में टिक्का खान ने जब ऑपरेशन सर्च लाइट शुरू किया, तो रवींद्र संगीत पर पूरी तरह बैन लगा दिया गया था. ये विचार 1971 के बाद भी कैसे बचा रहा, अब इसका भी उदाहरण देखिए. 

साल 2017 में बांग्लादेश में छठवीं की किताब से रवींद्रनाथ टैगोर की एक कविता, ‘आजी बांग्लादेशेर हृदय होते’ को पाठ्यक्रम से हटा दिया गया. ऐसी कुल 16 कविताएं और कहानियां हटाई गईं. जिनमें से एक कहानी लेजेंड्री उपन्यासकार शरतचंद्र की लिखी हुई थी. इस मामले में सरकार ने इसे रूटीन चेंज बताया. लेकिन बांग्लादेशी अखबारों की तब की रिपोर्ट्स बताती हैं कि इसके पीछे हिफाजत-ए-इस्लामी नाम के एक कट्टरपंथी संगठन का हाथ था. उसके प्रेशर के आगे सरकार को झुकना पड़ा था. सभी कविताओं को हटाने के पीछे मुख्य शिकायत ये थी कि ये सब मजहबी सेंटीमेंट्स को ठेस पहुंचाती थीं. 

इन वाकयों से पता चलता है कि बांग्लादेश में भारत विरोधी सेंटीमेंट्स का एक पहलू धर्म से भी जुड़ा हुआ है. जबकि बांग्लादेश के गठन के वक्त बांग्लादेश के राष्ट्रपिता मुजीबुर रहमान ने कहा था, 

"मुस्लिम अपने धर्म का पालन करें. हिंदू, बौद्ध, ईसाई अपने धर्म का पालन करें. हम सिर्फ़ धर्म के राजनैतिक इस्तेमाल का विरोध करेंगे." 

मुजीब एक सेक्युलर राष्ट्र बनाना चाहते थे. हालांकि उनकी हत्या के बाद बांग्लादेश को इस्लामिक राष्ट्र घोषित कर दिया गया. पाकिस्तानी Residual थिंकिंग का एक और उदाहरण आपको बताते हैं.

भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर एक इल्ज़ाम लगता रहा है- 1971 युद्ध के बाद उन्होंने पाकिस्तान के 90 हजार युद्धबंदी यूं ही रिहा कर दिए. इस प्रसंग की चर्चा हम तारीख में पहले कर चुके हैं. डिटेल्स में जाएंगे तो आपको पता चलेगा कि युद्धबंदी रिहा करने के पीछे एक बड़ी वजह ये थी कि इंदिरा मुजीब की जल्द से जल्द रिहाई चाहती थीं. जो उस समय पाकिस्तान की जेल में कैद थे. बांग्लादेश की स्थापना के बाद इंदिरा और मुजीब ने एक फ्रेंडशिप ट्रीटी साइन की थी. जिसे बाद में बांग्लादेश की एक बड़ी पार्टी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी ने ‘ट्रीटी ऑफ स्लेवरी’ (एक तरह से गुलामी का समझौता) की संज्ञा दी थी. इसी कारण 1997 में जब इस ट्रीटी की अवधि पूरी हुई तो इसे आगे रीन्यू नहीं किया गया. 

वर्तमान में बांग्लादेश की जनता भारत के बारे में क्या सोचती है. इसकी हकीकत जानने के लिए शायद हमें एक और Pew रिसर्च पोल का इंतज़ार करना पड़े. लेकिन इतना पक्का है कि पाकिस्तान का रेसिड्यू थॉट जब तक बांग्लादेश में मौजूद रहेगा, वहां पाकिस्तान के सुर में सुर मिलाने वाली कई आवाजें उठती रहेंगी. सच छिपाया जाएगा, झूठ लिखा जाएगा. सच छिपाने का, झूठ लिखने का असर क्या होता है, इसके लिए हम आपको एक पुरानी कहावत के साथ छोड़े चलते हैं. जो कहती है, 

“जमीन में झूठ का बीज बोया जाए तो फलों में खून का स्वाद आता है."

वीडियो: तारीख: 'आतंकियों के लिए मौत का दूसरा नाम' राष्ट्रीय राइफल्स का इतिहास जान लीजिए

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