The Lallantop
Advertisement

गुरु अर्जन देव के बलिदान ने सिख धर्म को कैसे बदला? 

1605 में मुगल बादशाह अकबर की मृत्यु के बाद खुसरो मिर्जा और सलीम उर्फ ​​जहांगीर के बीच उत्तराधिकार की लड़ाई छिड़ गई. जहांगीर के आगरा की गद्दी पर बैठने के बाद खुसरो ने विद्रोह कर दिया और लाहौर चले गए. इस यात्रा के दौरान, खुसरो की मुलाकात 5वें सिख गुरु अर्जन देव से हुई. जहांगीर ने अर्जन देव को जेल में डालने का आदेश दिया, जहां उन्हें यातनाएं दी गईं और बाद में उनकी मृत्यु हो गई. खुसरो ने अपना जीवन जेल में बिताया और बाद में शाहजहां ने उसे मार डाला

Advertisement
गुरु अर्जन देव
1581 में गुरु अर्जुन देव सिखों के पांचवे गुरु बने (तस्वीर: Sikhwiki.org)
pic
लल्लनटॉप
15 अप्रैल 2022 (Updated: 15 जून 2022, 18:55 IST)
font-size
Small
Medium
Large
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share

साल 1605. 26 अगस्त की रात फतेहपुर सीकरी पर भारी है. किले के अंदर देर रात तक रौशनी जल रही है. रानियां खुसफुसाहट में मशगूल हैं. और इसी बीच चोरी-छुपे शहजादे को शाही क्वार्टर में लाया जाता है. किले की सुनहरी कोठरी में बादशाह लेटा हुआ है. बीमारी की हालत है और आखें किसी को तलाश रही हैं. आसपास हुजूम लगा है रानियों का और उन्हीं के बीच खड़ा है शहजादा.

बादशाह को इस बात का एहतराम है कि वक्त कम है. वो अपनी मुंडी हिलाकर शहजादे को सामने आने को कहता है. शहजादा आगे बढ़कर गर्दन झुकाता है. एक आख़िरी सलाम. बादशाह अपने गले से जुब्बा (बादशाह का लबादा) और सर से ताज निकालकर शहजादे के हाथ में रख देता है. इसके बाद वो अपनी गर्दन पीछे तकिये पर रखता है. और आखें बंद कर लेता है.

बादशाह का ताज मिला तो राज मिला. शहजादे को यही लग रहा था. लेकिन उसे नहीं पता था कि यहीं से मुगलिया सल्तनत में एक नई कहावत की शुरुआत होने वाली थी. “या तख़्त या ताबूत”. सत्ता के लिए होने वाली इस गुत्थम गुत्था में शरीक होने वाला था एक धर्म. जिसके लिए सेवा और भक्ति ही सब कुछ थी. जिसे अब तक हथियार उठाने की जरुरत नहीं महसूस हुई थी. जल्द ही ये सब कुछ बदलने वाला था.

आज 15 अप्रैल है और आज की तारीख का संबंध है सिख धर्म से. गेम ऑफ थ्रोंस के राइटर GRR मार्टिन से जब लॉर्ड ऑफ़ द रिंग्स के बारे में पूछा गया तो उन्होंने जवाब दिया,  कमाल की कहानी थी, सब कुछ था उसमें. प्रेम, सत्ता, युद्ध और राजनीति. लेकिन एक चीज की कमी थी. वो चीज थी धर्म. और धर्म के बिना कोई इंसानी कहानी कभी पूरी नहीं हो सकती.

तीन सदियां, तीन साल, तीन शख्स और एक तारीख. 

1469 में आज ही के दिन (15 अप्रैल) को गुरु नानक का जन्म हुआ था. उन्होंने सिख धर्म की शुरुआत की. सिख धर्म के जिस खालसा स्वरूप को हम जानते हैं, वो उस वक्त नहीं था. गुरुनानक देव के दौर में सिख धर्म भक्ति और सेवा की परंपरा में दीक्षित करने वाला एक धर्म था, जो हिन्दू धर्म और मुसलमान धर्म की कुरीतियों का नकार करता था.

गुरु नानक देव (तस्वीर: इंडिया टुडे)

आज की तारीख से सिख धर्म के एक और गुरु का रिश्ता है. इत्तेफाक कहिये कि आज ही के दिन यानी 15 अप्रैल, 1563 को सिख धर्म के पांचवे गुरु अर्जन देव का जन्म हुआ था. वो अपने पिता गुरु राम दास के सबसे छोटे बेटे थे, इसके बावजूद उन्हें गुरु चुना गया.

गुरु अर्जन देव ने सिख धर्म के लिए दो महत्वपूर्ण काम किए. पहला उन्होंने हरमंदिर साहब, यानी गोल्डन टेम्पल का निर्माण करवाया. तब रिवाज़ था कि पूजा घरों में एक दरवाजा हुआ करता था. गुरु अर्जन देव ने गोल्डन टेम्पल में चार मीनारों का निर्माण करवा कर चार तरफ से आने जाने के द्वार बनाए . ये चार दरवाजे इस बात का प्रतीक थे, कि बिना जाति, धर्म, और लिंग के भेदभाव के हर कोई सिख धर्म में दीक्षित हो सकता था.

इसके अलावा उन्होंने आदि ग्रन्थ को संकलित किया. जिसमें उन्होंने गुरु नानक सहित 32 और हिन्दू मुस्लिम संतों की वाणियों को जोड़ा. इनमें शामिल थे , शेख फरीद, कबीर, रविदास, रामानंद त्रिलोचन, पीपा, सूरदास और बेनी. यही ग्रंथ आगे चलकर बाकी गुरुओं की वाणी जोड़कर गुरु ग्रंथ साहिब बना. 17 वीं सदी की शुरुआत में पंजाब में सिख धर्म उभार पर था. जाति परंपरा के सताए हिन्दू सिख धर्म में शामिल हो रहे थे. साथ ही मुसलामानों में निचले समझे जाने वाले तबके सिख धर्म में दीक्षा हासिल कर रहे थे. साल 1598 में बादशाह अकबर ने गुरु अर्जन देव से मुलाक़ात की. और उनके कहने पर माझा में लगने वाले टैक्स को भी ⅙ कर दिया. जिसके चलते गुरु अर्जन देव की ख्याति और बड़ी.

अकबर-सलीम के बीच तनातनी

अकबर के तीन बेटे थे. सलीम, मुराद और दानियाल. लेकिन 1605 तक इनमें से सिर्फ एक जीवित रहा. सलीम यानी जहांगीर. बाकियों को अफीम और शराब की लत ने लील लिया. सलीम मुगलिया सल्तनत का एकमात्र वारिस था. हालांकि वो भी अफीम की लत का शिकार था. और इसी के चलते उसे कब किस चीज की झनक चढ़ जाए, कह नहीं सकते थे. 1600 से 1605 के बीच उसने अपने पिता के खिलाफ कई बार विद्रोह किया. साथ ही अकबर के दरबार के नवरत्न अबुल फ़ज़ल की भी हत्या कर दी.

गुरु अर्जन देव (तस्वीर: Sikhhistory)

अकबर पसोपेश में था कि उसके बाद आगरे की गद्दी कौन संभालेगा. उसका एकमात्र वारिस गद्दी संभालने के लायक नहीं था. अकबर की नजर में सलीम से कहीं ज्यादा लायक था खुसरो मिर्ज़ा. जो सलीम और आमेर की राजकुमारी मान बाई का सबसे बड़ा बेटा था. एडवर्ड टेरी जो तब मुग़ल दरबार में एक पादरी था, उसके अनुसार, “खुसरो अकबर का सबसे चहेता था. और दरबार सहित सभी लोग उसे पसंद करते थे.”

अकबर को खुसरो से इतना लगाव था कि 6 साल की उम्र में उसे पांच हजारी मनसबदार बना दिया गया था. वो नशे और शराब से दूर रहता था. और अपने पिता के बरक्स, जिसने 20-20 औरतों को अपने हरम में रखा था, इन सब चीजों से दूर रहता था. सलीम की हरकतों के चलते अकबर ने कई बार दरबार में खुसरो को वारिस बनाने के जिक्र किया था. सलीम को जब पता चला कि अकबर खुसरो को गद्दी पर बिठाना चाहता है तो उसकी अपने ही बेटे से ठन गई. बाप बेटे की लड़ाई में मान बाई इतनी परेशान हुई कि मई 1605 में उन्होंने अफीम की ओवरडोज़ से आत्महत्या कर ली.

जहांगीर बादशाह बना

सलीम का साथ देने वालों में अकबर की सीनियर रानियां थी. वहीं खुसरो के पीछे खड़े थे आमेर के राजा मान सिंह, अजीज खान कोका, (खुसरो के ससुर). ये दोनों अकबर के दरबार में सबसे बड़ा ओहदा रखते थे. इसलिए खुसरो को भी लग रहा था कि उसके सितारे उरोज़ पर हैं. वो अपने पिता को पिता ना कहकर भाई कहकर बुलाता था. लेकिन जब अकबर की मौत के दिन नजदीक आए तो अकबर की रानियों ने एक चाल चली. उन्होंने मरणासन्न हालत में अकबर के सामने सलीम को पेश किया. और अधमरी हालत में अकबर ने उसे अपना ताज दे दिया.

अकबर खुसरो के साथ (तस्वीर: Wikimedia Commons)

अकबर की मृत्यु के बाद जब इस बात की मंत्रणा बैठी कि अगला बादशाह कौन होगा, तो सलीम को चोगा और ताज मिलने की बात उसके फेवर में गई. वो गद्दी में बैठा और सत्ता के नशे ने अफीम की जगह ले ली. तब रिवाज था कि शहजादों को सूबेदार बनाया जाता. लेकिन सत्ता के लिए हुई लड़ाई से नाराज जहांगीर ने खुसरो को किले तक सीमित कर दिया. उसका साथ देने के लिए सिर्फ उसकी बेगम थी.

कोई रिश्ता बादशाहत से बड़ा नहीं होता

18 साल का खुसरो इस घटना के बाद लगभग डिप्रेशन में चला गया. गद्दी पाने का उसका सपना चकनाचूर हो चुका था. साथ ही उसे महल में नजरबंद रहना पड़ता था. जबकि अकबर के वक्त उसका ओहदा सलीम से भी ऊंचा था. इस सब से परेशां होकर खुसरो ने बगावत की ठानी.

और आज ही दिन यानी 15 अप्रैल 1606 को पहरेदारों को चकमा देकर आगरा से भाग गया. खुसरो के फरार होने की खबर आग की तरह फ़ैली. जहांगीर से नाराज चुगताई और राजपूत सरदार उसके साथ हो लिए. उसने लाहौर का रुख किया. रास्ते में वो तरण तारण में रुका. यहां उसकी मुलाकात गुरु अर्जन देव से हुई. खुसरो अकबर के साथ पहले भी गुरु अर्जन देव से मिल चुका था. और उनकी बड़ी इज्जत किया करता था. उसकी हालत देखकर गुरु अर्जन देव ने उसे ढांढस बंधाया और आशीर्वाद दिया. जहांगीर को जब खुसरो के लाहौर की तरफ रुख करने की खबर लगी तो उसने दिलावर खान को लाहौर भेजा. दिलावर ने पूछा, अगर खुसरो ने सरेंडर करने से इंकार कर दिया तो? तब जहांगीर ने दिलावर से कहा, “बादशाही में न बेटा होता है ना दामाद, बादशाह के लिए कोई रिश्ता बादशाहत से बड़ा नहीं होता.”

 

भाले पर टंगे बागियों के सामने खुसरो की परेड कराई गई जो इस पूरे वक्त चीखते चिल्लाते रहे (तस्वीर: Wikimedia Commons)

दिलावर खान ने लाहौर पहुंचकर शहर की सुरक्षा मजबूत की. पीछे-पीछे जहांगीर भी अपनी 50 हजार की सेना को लेकर पहुंचा. जब खुसरो को इस बात की खबर लगी तो उसने रावी पार कर काबुल भागने की कोशिश की. लेकिन इससे पहले ही जहांगीर की सेना ने उसका रास्ता रोक लिया. दोनों सेनाओं में युद्ध हुआ. युद्ध में खुसरो की हार हुई और उसे कैद कर लाहौर ले जाया गया. लाहौर में में विद्रोही सरदारों को सड़क के किनारे भाले पे लटका दिया गया. और खुसरो को इस रास्ते परेड कराई गई. ताकि वो देख सके कि बागियों का क्या हश्र होता है. भाले पर लटकाए लोग चीखते-चिलाते रहे. और खुसरो को मजबूरन ये सब देखना पड़ा.

गुरु अर्जन देव को टॉर्चर दिया गया

इसके बाद खुसरो को वापस आगरा ले जाया गया. उसकी जान बख्स दी गई. लेकिन बादशाह ने हुक्म जारी किया कि उसकी आंखें फोड़ दी जाएं. खुसरो की आखों ने तार डाल कर उसकी आंखें फोड़ दी गई. इसके बाद उसे लोहे की बेड़ियों में जकड़ कर काल कोठरी में डाल दिया गया.

इसके बाद जहांगीर ने खुसरो का साथ देने वालों पर नज़र डाली. गुरु अर्जन देव से वो पहले ही खार खाया हुआ था. चूंकि सिख धर्म और गुरु अर्जन देव के अनुयायियों की संख्या दिन पर दिन बढ़ रही थी. और वो पंजाब में एक बड़ी ताकत बनते जा रहे थे. साथ ही गुरु अर्जन देव ने हिंदुओं और मुसलमानों को सिख धर्म की दीक्षा दी थी. इस बात से उलेमा और हिन्दू दरबारी भी खफा थे. उसे पता चला कि गुरु अर्जन देव ने खुसरो को आशीर्वाद दिया है. तो उसने उन्हें कैद कर लाहौर की काल कोठरी में डलवा दिया. यहां गुरु अर्जन देव प्रताड़नाएं दी गई. उनसे 2 लाख रूपये बतौर जुर्माना जमा करने और आदि ग्रन्थ से हिन्दू और मुस्लिम धर्म से जुड़ी बातें हटाने को कहा. गुरु अर्जन देव ने इंकार कर दिया. कुछ इतिहासकार मानते हैं की इसके बाद गुरु अर्जन देव को शारीरिक प्रताड़नाएं दी गई. उन्हें गर्म तवे में बिठाकर गर्म रेत से नहलाया गया. जिससे उनकी मौत हो गई. कहीं कहीं जिक्र आता है कि उन्हें नदी में डुबाकर मार डाला गया.

बहरहाल हुआ जो भी है. इतना जरूर है कि गुरु अर्जन देव की मृत्यु ने सिख धर्म पर गहरा असर डाला. गुरु अर्जन देव के बाद गुरु हरगोविन्द ने सिख धर्म में रक्षा की परम्परा शुरू की.  जब गुरु हरगोबिंद ने गद्दी संभाली, तो वह गुरु नानक के बाद से स्थापित कवि-गुरु परंपरा से विचलित होने वाले पहले सिख गुरु थे. अपनी कमर से लटकी हुई दो तलवारों से लैस, हरगोबिंद ने सिख गुरु की पहचान बदल दी. सिख अब मुगलों द्वारा उत्पीड़न से बचने के लिए सैन्यीकरण को तैयार थे. इसी तर्ज़ पर आगे चलकर खालसा पंथ की स्थापना हुई.

खुसरो का क्या हुआ?

खुसरो को अपनी बाकी जिंदगी काल कोठरी में रहकर गुजारनी पड़ी. साल 1616 में खुसरो की जिंदगी में एक और मोड़ आया. नूर जहां जहांगीर की सबसे पसंदीदा रानी थी. जहांगीर की नशे की लत के चलते परदे के पीछे उसने सारी ताकत अपने हाथ में ले ली थी. जहांगीर से पहले एक उसकी एक बेटी हुई थी. जिसका नाम था मेहरूनिसा. नूर जहां ने जहांगीर को फुसलाकर खुसरो को अपने भाई आसफ खान के पास भिजवा दिया. और यहां उसने खुसरो के सामने एक पेशकश रखी.

जहांगीर और नूर जहां (तस्वीर: Wikimedia Commons)

उसने खुसरो के कहा कि अगर वो मेहरूनिसा से शादी कर ले तो वो उसे आगे चलकर गद्दी का वारिस बना देगी. खुसरो ने इंकार कर दिया. इसका कारण थी खुसरो की बेगम. जिसने बुरे वक्त में उसका खूब साथ दिया था. जहांगीर ने खुसरो की पत्नी को ये आजादी दी थी कि अगर वो चाहे तो खुसरो को छोड़कर कहीं और जा सकती है. लेकिन उसने इसके बजाय अपने पति के साथ काल कोठरी में जिंदगी बिताना बेहतर समझा. और उसकी सेवा करती रही.

खुसरो ने जब शादी के प्रपोजल से इंकार कर दिया तो नूर जहां ने उसे धमकी दी. एक तरफ वो मेहरूनिसा से शादी कर बादशाह बन सकता था तो दूसरी तरह थी मौत. खुसरो ने फिर भी इंकार कर दिया. उसकी पत्नी ने उसे शादी से हामी भरने के लिए कहा, लेकिन पत्नी के प्यार के चलते उसने इंकार कर दिया.

इसके बाद मेहरूनिसा की शादी जहांगीर के दूसरे बेटे शहरयार से कर दी गई. और खुसरो को शाहजहां के पास दक्कन में भेज दिया. शाहजहां अपनी राह के रोड़ों को हटाना चाहता था.इसलिए एक रात उसने एक आदमी को भेजकर खुसरो का गाला घोंट कर उसकी हत्या करवा दी. और जहांगीर को सन्देश भेजा कि बीमारी के चलते खुसरो चल बसा है.

खुसरो के प्रसंग ने तब के हिंदुस्तान पर बड़ा असर डाला. खुसरो के बाद शहजादों में सत्ता के लिए खींचतान की परंपरा बन गयी. शाहजहां ने गद्दी के लिए अपने भाइयों को मरवाया तो औरंगज़ेब ने भी अपने भाइयों को जिंदा न छोड़ा. साथ ही साथ एक बड़ा असर ये भी पड़ा कि सिख धर्म के स्वरूप में परिवर्तन हुआ. एक शांत सम्प्रदाय सैन्यीकरण के लिए तैयार हुआ, और सिख उत्तर भारत में बड़ी ताकत बनकर उभरे.

वीडियो देखें- बाबर के खिलाफ जंग में राणा सांगा को किसने दिया धोखा?

तारीख: बाबर के खिलाफ जंग में राणा सांगा को किसने दिया धोखा?

Comments
thumbnail

Advertisement

Advertisement