वो भारतीय डॉक्टर जिसकी चीन के लोग पूजा करते हैं
द्वारकानाथ शांताराम कोटनिस एक भारतीय डॉक्टर जिन्होंने 1938 में द्वितीय चीन-जापान युद्ध के दौरान चीन में रहकर अपनी सेवाएं दी. उन्हें भारत-चीनी मित्रता के एक प्रतीक के रूप में देखा जाता है. डॉ.कोटनिस को चीन में आज भी उनकी मेहनत और निस्वार्थ सेवा के लिए याद किया जाता है.
आज शुरुआत एक पुरानी चीनी कहावत से,
“कुछ लोग पूरा पहाड़ जला सकते हैं, जबकि कुछ को उनका चूल्हा भी नहीं जलाने दिया जाता”
इस कहावत के पीछे है एक बहुत पुरानी कहानी.
बात सातवीं सदी की है. तब चीन(China) का साम्राज्य टुकड़ों में बंटना शुरू हुआ और सूबे के सरदारों की ताकत बढ़ती चली गई. ऐसा ही एक सूबा था ‘जिन’ नाम का. यहां का सरदार ताकतवर था और उसकी कई बीवियां थीं. इनमें से एक का नाम था ‘ली जी’. ली जी नीचे तबके से आती थी लेकिन उसने कई षड्यंत्र रचे और खुद को सबसे ताकतवर बना लिया. साथ ही वो अपने बेटे को अगला वारिस बनाने में भी कामयाब हो गई. ये देखकर सरदार के दूसरे बेटों ने बगावत कर दी. नतीजा हुआ कि नए वारिस को अपनी मां सहित जंगल में शरण लेनी पड़ी. उनके साथ उनका एक वफादार सिपाही भी गया. नाम था जी झितुई. कहते हैं झितुई इतना वफादार था कि एक बार खाना कम पड़ने पर उसने अपना मांस काटकर, उसका सूप बनाकर अपने मालिक को पीने के लिए दिया.
फिर कुछ साल बाद वारिस ने अपनी सत्ता हासिल की और सरदार बन बैठा. और जिन लोगों ने मुसीबत के वक्त उसकी मदद की थी, उनको खूब ईनाम और पदवियां दी. लेकिन इस दौरान वो जी झितुई को भूल गया. झितुई इससे इतना निराश हुआ कि अपने परिवार सहित जंगल में रहने के लिए चला गया.
कुछ साल बाद जब नए सरदार को अपने वफादार सैनिक की याद आई तो उसने उसे बुलावा भेजा. लेकिन झितुई ने लौटने से इंकार कर दिया. इस बात से खफा होकर सरदार ने अपने सैनिकों से कहा कि उस पूरे जंगल को ही जला डालो, ताकि झितुई को बाहर निकलना पड़े. झितुई और उसकी मां इस आग में जलकर मर गए. जब सरदार को ये पता चला तो उसे बहुत ग्लानि हुई. और उसने झितुई की याद में एक मंदिर बनवाया.
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डॉक्टर के दिहुआ उर्फ़ द्वारकानाथ कोटनिसयहां से शुरुआत हुई एक परंपरा की. ‘जिन’ प्रान्त के लोगों ने फैसला किया कि झितुई की याद में वो हर साल दिसंबर के महीने में आग नहीं जलाएंगे. चूंकि दिसंबर में जबरदस्त ठण्ड पड़ती थी, इसलिए इस परम्परा के चलते ‘जिन’ प्रान्त के लोगों को बहुत दिक्कत होती. खासकर बूढ़ों और बच्चों को. चीन के सम्राट ने इस परंपरा को बैन करने की कोशिश की लेकिन वो इसमें सफल नहीं हुआ. अंत में तय हुआ कि साल में सिर्फ तीन दिन के लिए इस परंपरा को एक त्यौहार के रूप में मनाया जाएगा. वो भी बसंत में.
आगे चलकर ये त्यौहार अपने पूर्वजों को याद करने का तरीका बन गया. चीन में इसे ‘कोल्ड फ़ूड फेस्टिवल’ या ‘चिंग मिंग फेस्टिवल’(Qingming Festival) के नाम से जाना जाता है. इस त्यौहार के दिन हर साल चीन के लोग अपने पूर्वजों की कब्र पर फूल चढ़ाते हैं और उन्हें याद करते हैं. इस दिन चीन द्वारा लड़े गए युद्धों में शहीद हुए लोगों को भी श्रद्धांजलि दी जाती है. खास तौर पर चीन के उत्तर में बसे हीबे प्रान्त की राजधानी शीज़ीयाज़ूआंग में. जहां एक शहीद स्मारक पार्क बना हुआ है. इस शहीद स्मारक पार्क में बनी कई कब्रों में से एक पर एक भारतीय का नाम है.
‘डॉक्टर के दिहुआ’, जिनका असल नाम डॉक्टर द्वारकानाथ कोटनिस(Dr. Dwarkanath Kotnis) था. कोटनिस को चीन में बहुत सम्मान दिया जाता है. 1949 में पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना की स्थापना के बाद से 7 चीनी राष्ट्राध्यक्ष भारत का दौरा कर चुके हैं. हर दौरे में कोई भी राष्ट्राध्यक्ष डॉक्टर कोटनिस के परिवार से मिलना नहीं भूलता. साल 2014 में जब शी जिनपिंग(Xi Jinping) भारत दौरे पर आए, तब उन्होंने भी इस परिवार से मुलाक़ात की थी. जिनपिंग डॉक्टर कोटनिस की बहन से दिल्ली में मिले और झुककर उनका अभिवादन किया. तो आज अपन जानेंगे कि क्या है डॉक्टर कोटनिस की कहानी. वो चीन कैसे पहुंचे? और क्यों चीन के लोग उनका इतना सम्मान करते हैं.
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जब चीन ने नेहरू से मांगी मददआधिकारिक रूप से द्वितीय विश्व युद्ध(WWII) की शुरुआत 1939 में मानी जाती है. लेकिन अगर एशिया महाद्वीप की बात करें तो यहां युद्ध के बीज 1937 में ही पड़ गए थे. साल 1937 में चीन और जापान के बीच युद्ध की शुरुआत हुई. चीन तब अमेरिका, ब्रिटेन सहित तमाम देशों से मदद मांग रहा था. चीन के जनरल झू डे और जवाहरलाल नेहरू(Jawaharlal Nehru) के अच्छे सम्बन्ध थे. उन्होंने नेहरू को भी पत्र लिखकर मदद की दरख्वास्त की. भारत स्वयं गुलाम था. नेहरू मदद करने की हालत में नहीं थे. फिर भी युद्ध में डॉक्टरों की कमी को देखते हुए उन्होंने एक मेडिकल मिशन भेजने की वकालत की. तब कांग्रेस के अध्यक्ष नेताजी सुभाष चंद्र बोस थे. 30 जून 1938 को उन्होंने प्रेस के माध्यम से एक अपील की. जिसमें कहा गया था कि कांग्रेस चीन की मदद के लिए एक मेडिकल मिशन भेजना चाहती है. जो लोग वालंटियर बनना चाहते हैं, आगे आएं.
10 अक्टूबर 1910 में जन्में डॉक्टर द्वारकानाथ कोटनिस एक मध्यमवर्गीय महाराष्ट्रीय परिवार से आते थे और इन दिनों पोस्ट ग्रेजुएशन की तैयारी कर रहे थे. डॉक्टर कोटनिस की बहन मनोरमा बताती हैं कि डॉक्टर कोटनिस दुनिया घूमना चाहते थे और अलग-अलग देशों में मेडिकल प्रैक्टिस करने का सपना देखा करते थे. जैसे ही उन्होंने नेताजी की अपील सुनी, वो एकदम तैयार हो गए. इसके बाद पांच लोगों की एक मेडिकल टीम तैयार हुई. जिसमें डॉक्टर कोटनिस के साथ डॉक्टर एम. अटल, डॉक्टर चोलकर, डॉक्टर BK बसु और डॉक्टर देबाश मुखर्जी शामिल थे. कांग्रेस ने 22 हजार रूपये चंदा जमा कर इन पांच डॉक्टरों सहित एक एम्बुलेंस चीन के लिए रवाना की.
लगातार 72 घंटों बिना सोए किये ऑपरेशनये डेलिगेशन सबसे पहले वुहान पहुंचा. यहां से उन्हें येनान भेजा गया. येनान में इस डेलिगेशन को रिसीव करने वाले लोगों में चीनी क्रांति के जनक माओ जेदोंग और जनरल झू डे भी शामिल थे. एशिया के किसी देश से मदद के लिए पहुंचने वाली ये पहली टीम थी. इस डेलिगेशन का महत्व इसलिए भी ज्यादा था क्योंकि भारत तब खुद एक ग़ुलाम देश था.
यूं तो डॉक्टरों की इस टीम में पांच लोग थे. लेकिन डॉक्टर कोटनिस के योगदान को खास तौर पर याद किया जाता है. अगले पांच सालों के दौरान डॉक्टर कोटनिस युद्धस्थल में एक मोबाइल क्लिनिक चलाते रहे. युद्धस्थल में रहना कठिन था. दवाइयों की भयंकर कमी थी. इसके बाद भी डॉक्टर कोटनिस 1940 में हुई एक लड़ाई के दौरान लगातार 72 घंटों तक बिना सोए ऑपरेशन करते रहे. इस एक लड़ाई में उन्होंने 800 घायलों का इलाज किया. कहा जाता है कि चीन में रहते हुए डॉक्टर कोटनिस ने कम्युनिस्ट पार्टी भी ज्वाइन कर ली थी. हालांकि इसके कोई पुख्ता प्रमाण नहीं मिलते. 5 साल चीन में रहने के दौरान वो कम्युनिस्ट पार्टी की ‘Eighth Route Party’ का हिस्सा थे, जिसे खुद माओ लीड कर रहे थे.
साल 1940 में डॉक्टर कोटनिस की मुलाक़ात गुओ किंगलान नाम की एक नर्स से हुई. दोनों में प्यार हुआ और दिसंबर 1941 में दोनों की शादी हो गई. इस शादी से दोनों को एक बेटा भी हुआ. जिसका नाम उन्होंने यिन-हुआ रखा. ये नाम दो शब्दों से मिलकर बना है. यिन, जो चीन में भारत का एक दूसरा नाम है. और हुआ, जिसका मतलब चीन से है. दोनों देशों का नाम मिलाकर उन्होंने अपने बेटे का नाम रखा था. चीन में रहते हुए डॉक्टर कोटनिस ने अपने परिवार को कई खत भी लिखे. उनकी बहन मनोरमा बताती हैं कि डॉक्टर कोटनिस बहुत खुश थे. लोग उन्हें धन्यवाद देने आते थे. और उन्होंने डॉक्टर कोटनिस का एक नया नामकरण भी कर दिया था- के दिहुआ.
स्कूल के बच्चे लेते हैं डॉक्टर कोटनिस के नाम की शपथचीन में मिलने वाले आदर सत्कार के बावजूद डॉक्टर कोटनिस का काम काफी कठिन था. जिसका असर उनकी सेहत पर हुआ और दिसंबर 1942 में अपने बेटे के जन्म के सिर्फ 3 महीने बाद उनका निधन हो गया. डॉक्टर कोटनिस के निधन पर माओ ने लिखा,
“आज चीन ने अपना एक महान दोस्त खो दिया है. हम उनकी याद को हमेशा अपने दिल में बनाए रखेंगे”.
आने वाले सालों में डॉक्टर कोटनिस हिंदी चीनी भाई-भाई का सिम्बल बन गए. यहां तक कि 1962 भारत चीन युद्ध के बाद भी चीन उन्हें लगातार सम्मानित करता रहा. उनके नाम पर दो बार टिकट जारी किए गए. उनके नाम पर चीन में एक म्यूजियम, एक मेडिकल स्कूल और मेडिकल कॉलेज बनाया गया है. कोटनिस का चीन में इतना सम्मान है कि 2020 में, जब भारत-चीन संबंध नाजुक दौर से गुजर रहे थे, चीन में उनकी मूर्ति का अनावरण किया गया. उनके नाम से बने एक मेडिकल स्कूल में आज भी बच्चे जब पास होते हैं तो डॉक्टर कोटनिस के नाम की शपथ लेते हैं.
डॉक्टर कोटनिस की पत्नी का क्या हुआ? उनकी पत्नी ने दूसरी शादी कर ली थी. लेकिन जब भी उन्हें मौका मिला वो भारत दौरे पर आई. आख़िरी बार साल 2006 में वो चीनी राष्ट्रपति हु जिंताओ के साथ भारत आई थी और यहां डॉक्टर कोटनिस के परिवार से भी मिलीं.
डॉक्टर कोटनिस की जिंदगी पर दो फ़िल्में भी बन चुकी हैं. एक भारत में और एक चीन में. साल 1946 में मशहूर एक्टर डायरेक्टर, वी शांतराम ने उनकी जिंदगी पर एक फिल्म बनाई थी. जिसका नाम है, डॉक्टर कोटनिस की अमर कहानी. देखना चाहें तो यूट्यूब पर मुफ्त में उपलबध है.
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