7 लाख में ताज महल को कौन खरीदने वाला था?
1831 में ब्रिटिश गवर्नर लार्ड विलियम बेंटिक ने ताजमहल को बेचने की योजना बनाई. वो ताजमहल को बेचकर ईस्ट इंडिया कम्पनी का खज़ाना भरना चाहता था.
1831 का साल. गोरी चमड़ी वाले अंग्रेज़ दमड़ी से परेशान थे. बर्मा पर कब्ज़ा करने के चक्कर में फौज का काफी खर्चा हुआ और ऊपर से बंगाल आर्मी के अफसर तनख्वाह बढ़ाने की मांग करने लगे. लन्दन के लाल अंटी से कुछ निकालने को तैयार नहीं थे. इसलिए उन्होंने एक दूसरा रास्ता अपनाया. एक सेल लगी. आगरा(Agra) में ऐतिहासिक धरोहर की इमारतें गिराकर उनका संगमरमर नीलामी में रख दिया गया. बारी ताजमहल की भी आई. दो बार बोली लगी. मथुरा के एक सेठ ताज को गिराकर उसके मैटेरियल से वृंदावन में एक मंदिर बनाना चाहते थे. सब तय हो चुका था लेकिन आख़िरी वक्त में एक पेंच फंस गया. ताजमहल बच गया. कैसे?
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शुरुआत साल 1602 से. शहजादे खुर्रम का दिल उस दिन महल में न था. उसने कुछ दरबारी बुलाए और बाज़ार की ओर निकल पड़े. चांदनी चौक का मीना बाज़ार रोज़ की तरह रौशन था. रंगीन कांच के मोतियों और कीमती रेशम से बनी पोशाकों के बीच खुर्रम को एक ऐसी पोशाक दिखाई पड़ी जो हिल-डुल रही थी. खुर्रम ने जरा गौर से देखा तो उसे पोशाक पर लदा एक चेहरा दिखाई दिया. ऐसा खूबसूरत चेहरा उसने जिंदगी में न देखा था. दिल के अरमान पंख पकड़ने लगे.
खुर्रम लौटकर महल तक गया लेकिन लड़की का चेहरा उसके दिमाग में घूमता रहा. आखिरकार जब उससे रहा न गया तो वो बादशाह के पास पहुंचा और उसने लड़की से शादी की मंशा पेश की. लड़की का नाम था, अर्जुमंद बानू बेगम. जो आगे जाकर मुमताज़ महल(Mumtaz Mahal) के नाम से मशहूर हुई. और बादशाह बनकर खुर्रम हो गए शाहजहां(Shah Jahan). मुमताज़ शाहजहां की सबसे प्यारी बेगम थी. और जब उनकी मौत हुई तो शाहजहां ने उसकी याद में बनाई वो इमारत, जिसके लिए एक ब्रिटिश लेखक एडवर्ड लियर ने कहा था,
ताजमहल को किराए पर चढ़ा दिया“दुनिया में दो तरह के लोग हैं, एक वो जिन्होंने ताजमहल देखा है और दूसरे वो जिन्होंने नहीं देखा.”
ताजमहल मुग़ल सल्तनत का सबसे नायाब हीरा था. लेकिन वक्त बदला. मुग़ल सल्तनत का सूरज ढला तो ताज पर भी शाम उतर आई. 1803 में जनरल लेक ने आगरा पर कब्ज़ा किया. धीरे-धीरे ताजमहल में जड़े बेशक़ीमती और नायाब पत्थर गायब होने लगे. कालीन बेच दिए गए. मुग़ल पेंटिंग लन्दन पहुंचा दी गई. और इसके बाद भी मन न भरा तो अंग्रेज़ों ने ताजमहल को किराए पर चढ़ा दिया. वहां पार्टियां होने लगी. ताजमहल के आसपास लॉज बनाकर हनीमून के लिए दिए जाने लगे. फिर 1828 का साल आया. लार्ड विलियम बेंटिक(Lord William Bentinck) बंगाल के गवर्नर बने. उन दिनों ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी बर्मा के साथ युद्ध से परेशान थी. क्योंकि इस जंग में काफी खर्चा हुआ था जिसके चलते कंपनी कर्जे में आ गई.
बेंटिक को लन्दन से खास निर्देश दिया गया था कि खर्चे में कटौती लाओ. इसी दौरान 1830 में बेंटिक ने आगरे का दौरा किया. आगरा के किले में बेंटिक की नजर शाही हमाम पर पड़ी. उसने हमाम में लगे संगमरमर को बेचने का फैसला किया. धीरे-धीरे किले का बहुत सा संगमरमर बेच दिया गया. इसके बाद बेंटिक की नजर पड़ी ताजमहल पर. बेंटिक ताजमहल तोड़कर उसका मैटेरियल बेचकर ईस्ट इंडिया कम्पनी(East India Company) का खज़ाना भरना चाहता था.
आधुनिक समय में ब्रिटिश इतिहासकार ताजमहल को बेचने की बात से इंकार करते रहे. उनका कहना था कि ताजमहल को बेचने की बात के कोई साक्ष्य नहीं हैं. JNU में आर्ट हिस्ट्री की प्रोफ़ेसर कविता सिंह(Kavita Singh) ने इस टॉपिक गहरी रिसर्च की और साल 2017 में इस बाबत कई साक्ष्य प्रस्तुत किए. कविता सिंह लिखती हैं कि अंग्रेज़ों ने आगरे का बहुत सारा संगमरमर नीलाम करना शुरू किया. इस तोड़फोड़ के खिलाफ स्थानीय जनता ने शिकायत की. इनमें ब्रिटिश कम्युनिटी भी शामिल थी. ब्रिटिश राजनेता मार्कस बेरेसफोर्ड, ‘जर्नल ऑफ माय लाइफ इन इंडिया’ में लिखते हैं,
“ ऐतिहासिक इमारतों से निकाला गया संगमरमर आधुनिक आवासों के लिए अनुपयुक्त है और इसका उपयोग केवल अन्य उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है. ये संगमरमर साहिब लोगों ने ख़रीदा और पेपरवेट बनाने जैसे कामों के लिए इस्तेमाल किया,”
आगे बेरेसफोर्ड लिखते हैं कि संगमरमर बेचकर मात्र पांच सौ पाउंड हासिल हुए थे. ताजमहल बेचे जाने का जिक्र भी इस दस्तावेज़ में मिलता है. जिसके अनुसार तब ब्रिटिश कमांडर इन चीफ ने लार्ड बेंटिक को ताजमहल बेचने का प्रस्ताव दिया था. भारत से ठगों का सफाया करने वाले विलियम स्लीमैन ने भी इस वाकये का जिक्र किया है. अपनी आत्मकथा में स्लीमैन लिखते हैं,
“अगर आगरा का संगमरमर बिक जाता, तो संभवतः ताज को भी गिराकर उसे बेच दिया जाता”
इन दो बयानों के अलावा फैनी पार्क्स नाम की एक वेल्श यात्री ने भी इस घटना का जिक्र किया है. साल 1850 में लिखी अपनी किताब में उन्होंने कलकत्ता से निकलने वाले एक अखबार द बुल का एक आर्टिकल दर्ज़ किया है. जिसमें लिखा था,
‘ताज बेचने की तैयारी हो गई है. लेकिन सही कीमत नहीं मिल रही. अब तक दो लाख का एक ऑफर आया है. साथ ही अंग्रेज़ों को ये डर भी है कि ताज गिराए जाने से दंगे भड़क सकते हैं.
फैनी लिखती हैं, 'एक हिन्दू ताज को खरीदना चाहता है. और उसके सामन से बृंदाबंद में एक मंदिर बनाना चाहता है.”
यहां फैनी जिसे बृंदाबंद लिख रही हैं, असल में वो वृंदावन है. और जिस हिन्दू का जिक्र हुआ है, उनका नाम था सेठ लक्ष्मीचंद जैन.
1810 में पैदा हुए सेठ लक्ष्मी चंद(Seth Lakshmi Chand) जयपुर के रहने वाले थे. और बाद में भारतीय राजाओं के साहूकार के तौर पर काम करते थे. उस दौर में उन्हें उत्तर भारत का सबसे अमीर इंसान माना जाता था. और लन्दन के अखबार द टाइम्स ने उन्हें, ‘The Rothschild of India’ की संज्ञा दी थी. Rothschild एक यहूदी परिवार था जिसे 19 वीं सदी में दुनिया का सबसे अमीर परिवार माना जाता था. 1831 में ब्रिटिश सरकार ने ताज के लिए बोलियां शुरू की. सेठ लक्ष्मीचंद ने 2 लाख रुपये की बोली लगाई. इस रकम को कम मानकर खारिज कर दिया गया. इसके कुछ महीने बाद दूसरी बोली लगी. इस बार भी सेठ लक्ष्मीचंद ने 7 लाख रूपये की सबसे ऊंची बोली लगाई. मामला आगे बढ़ता इससे पहले ही लोगों को इस नीलामी के खबर लग चुकी थी. जनता नाराज थी. अंत में इंटेलिजेंस ने आशंका जताई कि ताज गिराया तो दंगे भड़क उठेंगे. बेंटिक ने ताज बेचने का प्लान कैंसिल कर दिया.
इस घटना की पुष्टि सेठ लक्ष्मीचंद के वंशज विजय कुमार जैन ने भी की है. ताज की प्रस्तावित बिक्री के साक्ष्य 2005 में भी सामने आए, जब ताजमहल पर हक़ को लेकर यूपी वक्फ बोर्ड और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के बीच विवाद हुआ. ASI ने सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा पेश किया, जिसमें ताजमहल के इतिहास को सूचीबद्ध किया गया था. इस हलफनामे में ताजमहल की प्रस्तावित बिक्री और विध्वंस का भी जिक्र है. ताजमहल 7 लाख में बिकने वाला था.
ताजमहल को बनाने में पैसा कितना लगा?इतिहासकार यदुनाथ सरकार की किताब स्टडीज इन मुग़ल इंडिया के अनुसार ताजमहल को बनाने में चार करोड़ का खर्चा आया था. वहीं मुग़ल इतिहासकार अब्दुल हमीद लाहौरी के अनुसार ये कीमत 50 लाख थी. वहीं कुछ और इतिहासकारों का मानना है कि 50 लाख तो सिर्फ बनवाई की कीमत थी. अमरीकी इतिहासकार माइलो बीच के अनुसार ताजमहल बनाने के लिए 37 वास्तुकारों ने मिलकर काम किया था. और इसके मुख्य वास्तुकार का नाम था उस्ताद अहमद लाहौरी. जिसने दिल्ली में लाल किले का डिज़ाइन भी बनाया था. इसके अलावा सामान खरीदने, ढुलवाई, मजदूरी आदि का काम मीर-ए-'इमारत यानी चीफ इंजीनियर मुहम्मद हंदीफ के हवाले था. हंदीफ के दस्तावेजों में ताजमहल के कुछ हिस्सों के निर्माण में लगे खर्चे का हिसाब मिलता है. जिसके अनुसार, मार्बल के फर्श, और चार मीनारों के निर्माण में लगभग 51 लाख 77 हजार 674 रूपये का खर्चा आया था.
वहीं मकबरों के निर्माण में 53 लाख का खर्च आया और मकबरों के आसपास बनी जाली के निर्माण में 4 लाख 68 हजार का खर्च आया था. ये पैसा दिया किसने था? जाहिर है शाहजहां ने. ताजमहल के निर्माण का पैसा सरकारी ख़ज़ाने और आगरा प्रांत के ख़ज़ाने से दिया गया. शाहजहां ने इसके रखरखाव के लिए एक वक़्फ़ ट्रस्ट बनाया जिसे 3 लाख की रकम दी गई. इसका एक तिहाई पैसा आगरा के आसपास 30 गांवों से इकठ्ठा किया जाता था. वहीं कुछ रकम ताज के आसपास बाजारों में लगे टैक्स से जमा होती थी. अंत में अब ये भी जान लीजिए कि ताज कमाता कितना है?
साल 2019 की एक रिपोर्ट के अनुसार 2016-19 के बीच 2 करोड़ लोग ताज को देखने पहुंचे. इस दौरान टिकटों की बिक्री से 200 करोड़ की कमाई हुई. हालांकि ताज की असली कीमत इसकी अंतरराष्ट्रीय पहचान है. जिसके चलते जब भी कोई विदेशी राष्ट्राध्यक्ष भारत का दौरा करता है तो उसे ताजमहल का दीदार जरूर कराया जाता है. फिर चाहे वो ब्रिटेन की पूर्व महारानी एलिज़ाबेथ हों या अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनॉल्ड ट्रम्प.
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