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जब भूतों के नाम से डरी औरंगज़ेब की सेना!

1761 में मुग़ल सेना और अहोम कमांडर लाचित बोरफुकन की फौज के बीच सराईघाट की लड़ाई हुई थी.

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battle of Saraighat
सराईघाट की लड़ाई में मुगलों की ताकतवर सेना अहोम छापमार युद्ध में हार गई थी (तस्वीर: Wikimedia Commons)
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कमल
24 नवंबर 2022 (Updated: 23 नवंबर 2022, 18:48 IST)
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भारत में एक से एक बड़े राजा हुए. और उन राजाओं के बीच हुए कई भयंकर युद्ध. अधिकतर यही होता था कि एक ताकतवर सेना कमजोर सेना को हरा देती थी. लेकिन गिनती के मामलों में ऐसा भी हुआ कि एक कमजोर सेना ने अपने से कहीं ताकतवर सेना को हरा दिया. ऐसा ही एक युद्ध हुआ था भारत के उत्तरपूर्वी राज्य आसाम में. 1830 से पहले आसाम में अहोम राजाओं का शासन हुआ करता था. और अपने शासन काल में उन्होंने कई युद्धों को लड़ा और जीता था. इनमें से एक युद्ध ऐसा था जिसे जीतना लगभग नामुमकिन था. लेकिन एक नायक ने इस असंभव को संभव कर दिखाया, और उसके नेतृत्व में अहोम सेना ने अपने से कहीं ताकतवर मुग़ल सेना को धूल चटा दी (Battle of Saraighat). इस नायक का नाम था लाचित बोरफुकन (Lachit Borfukan).

कौन थे लाचित बोरफुकन?

भारत का उत्तरपूर्वी राज्य असम. ब्रह्मपुत्र और बराक नदियों के किनारे बसा ये इलाका, प्राचीन भारतीय ग्रंथों में प्रागज्योतिषपुर के नाम से दर्ज़ है. 13 वीं सदी में असम में अहोम राजाओं का शासन शुरू हुआ. उनका राज्य ब्रह्मपुत्र के किनारे 600 मील में फैला हुआ था. जिसके आसपास घने जंगल और ऊंची पहाड़ियां थीं. ब्रह्मपुत्र नदी इनके व्यापार का मुख्य रास्ता था. असम का इलाका नेचुरल रिसोर्सेज से भरा था. इसलिए असम पर हमेशा युद्ध का खतरा मंडराता रहता था. इससे बचने के लिए उन्होंने ब्रह्मपुत्र के किनारे कई सारे किले बनाए हुए थे. 

लाचित बोरफुकन (तस्वीर: thenortheasttoday.com) 

16 वीं शताब्दी में जब मुग़ल ताकतवर हुए तो उन्होंने इस इलाके में अपना वर्चस्व बढ़ाने की सोची. लेकिन कई दशकों तक मुगलों और अहोमों के बीच कूच राज्य एक बफर की तरह काम करता रहा. हालांकि दोनों के बीच तनातनी बरकारर रही. और 1615 में ये तनातनी दोनों को युद्ध के मैदान में खींच लाई. अगली आधी सदी तक मुग़ल और अहोम आपस में टकराते रहे. इन युद्धों में कभी अहोम दो कदम आगे रहते तो कभी मुग़ल. 1661 में बंगाल के गवर्नर मीर जुमला ने असम पर हमला किया और गुवाहाटी समेत एक बड़े इलाके पर कब्ज़ा कर लिया. अहोम इस हमले का जवाब देने में नाकाम रहे और उन्हें पीछे हटना पड़ा.

इस हार से शर्मिंदा हुए अहोम राजा जयध्वज सिंह की कुछ ही सालों में मृत्यु हो गई. आख़िरी वक्त में उन्होंने अपने उत्तराधिकारी चक्रध्वज सिंह को बुलाया और कहा, ”हमारे देश के सीने में गड़े की शर्मिंदगी की कांटे को तुम्हें निकालना होगा”. राजा चक्रध्वज सिंह ने गद्दी संभालते ही अपने राज्य को बटोरना शुरू किया. मुगलों से निपटने के लिए उन्हें एक ताकतवर सेना की जरुरत थी.

उन्होंने अहोम सेना में हर स्तर पर एक लीडर नियुक्त किया. दस सैनिकों को लीड करने वाला डेका कहलाता था. इसी तरह 100 सैनिकों के लीडर को सैनिया, एक हज़ार के लीडर को हज़ारिका, 3 हज़ार के लीडर को राजखोवा और 6 हज़ार जवानों के लीडर को फूकन कहा जाता था. इन सब के ऊपर भी एक लीडर होता था, जो बोरफुकन कहलाता था. राजा चक्रध्वज ने लाचित को अपना बोरफुकन बनाया. लाचित की पैदाइश 24 नवम्बर 1622 को हुई थी. और उनसे पहले उनके पिता मोमाइ तामुली बरबरुआ भी अहोम राजा प्रताप सिंह के मुख्य सेनाध्यक्ष हुआ करते थे.

लाचित ने दोबारा गुवाहाटी को जीता 

बहरहाल बोरफुकन बनते ही लाचित ने अपनी सेना को मजबूत बनाने का काम शुरू किया. उन्हें पता था कि जंग के मैदान में वो सीधे मुगलों से नहीं टकरा सकते. इसलिए ब्रह्मपुत्र में लड़ाई के लिए उन्होंने अपनी एक नेवी तैयार की. इसके अलावा उन्होंने तोपें तैयार की और अपनी सेना को शस्त्रों से लैस किया. 1667 में लाचित ने गुवाहाटी को मुक्त कराने के लिए अपने पहले अभियान की शुरुआत की. लाचित की नेवी काफी ताकतवर थी. लेकिन उनके पास घुड़सवार सैनिक नहीं थे. गुवाहाटी पर कब्ज़े के लिए ईटाखुली के किले पर कब्ज़ा ज़माना जरूरी था. लेकिन घुड़सवारों के बिना किले पर हमला करना संभव नहीं था. इसलिए लाचित ने किले पर कब्ज़े के लिए एक दूसरी रणनीति बनाई.

सराईघाट की लड़ाई ब्रह्मपुत्र में लड़ी गयी थी (तस्वीर: Wikimedia Commons/ Niranjan Borah)

उन्होंने इस्माइल सिद्दीकी उर्फ बाघ हज़ारिका के नेतृत्व में कुछ लोगों को रात में किले पर चढ़ाई के लिए भेजा. इन लोगों ने रात में किले की दीवारें फांदकर, किले के मुहाने पर राखी तोपों में पानी भर दिया. जिससे तोपें ख़राब हो गई. अगली सुबह अहोम सेना ने किले पर हमला किया. और बिना तोपों के मुग़ल सेना किले की रक्षा करने में नाकाम रही. इस तरह लाचित ने गुवाहाटी को दुबारा अपने कब्ज़े में ले लिया.

इधर जब मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब को इस हार की खबर लगी. वो गुस्से से आगबबूला हो गए. और उन्होंने आमेर के राजा राम सिंह के नेतृत्व में एक विशाल जंगी बेड़ा आसाम की ओर रवाना किया. इस बेड़े में 21 राजपूत सरदार, 30 हजार पैदल सिपाही, 18000 घुड़सवार, सैकड़ो तोपें और जंगी नावें शामिल थीं. 1669 में मुग़ल सेना ने असम पहुंचकर गुवाहाटी के बाहर डेरा डाल दिया.

शेर रात में लड़ाई करते हैं

लाचित को खुले मैदान में अपनी सेना की कमजोरियों का पता था. इसलिए उन्होंने गुवाहाटी के पास कामाख्या मंदिर तक मुग़ल सेना को आने दिया. ये इलाका दोनों तरफ पहाड़ियां, घने जंगलों से घिरा था. ये छापामार युद्ध के लिए एकदम मुफीद जगह थी. इससे आगे जाने का रास्ता सिर्फ ब्रह्मपुत्र नदी से होकर जाता था. लाचित ने सराईघाट नामक जगह पर अपना मोर्चा जमाया, क्योंकि यहां नदी सबसे संकरी थी, इसलिए मुग़ल जहाज़ों को यहां रोक कर रखना कमोबेश आसान था. 

आमेर के राजा राम सिंह (तस्वीर: Wikimedia Commons)

मुग़ल सेना ने पहाड़ी रास्तों से गुवाहाटी में प्रवेश की खूब कोशिशें की. और जब वो इसमें सफल न हुए तो नदी में लड़ाई करने की ठानी. लाचित ने यहां छापामार युद्ध की रणनीति अपनाई. रात में उनकी सेना का एक दस्ता नदी के पार जाता और मुग़ल शिविर पर हमला कर देता. एक बार तो यूं हुआ कि अहोम सैनिक मुग़ल कमांडरों के कैम्प तक पहुंच गए, और उन्हें वहां से चांदी के थाल लेकर जाते हुए पकड़ा गया. राजा राम सिंह ने परेशान होकर लाचित को एक खत भेजा, और छापामार युद्ध रोकने की गुजारिश की. इस पर लाचित ने जवाब दिया, ‘ये याद रखा जाना चाहिए कि शेर रात में लड़ाई करते हैं’

सराईघाट के पास मुग़ल सेना फंस चुकी थी. धीरे-धीरे सैनिकों का मनोबल गिरता जा रहा था और अजीब अजीब अफवाहें मुग़ल कैम्प में फैलने लगी थीं. एक बार ये अफवाह फ़ैली कि अहोमों के पास राक्षसों की शक्ति है जो रात को बढ़ जाती है, इसलिए वो रात को हमला करते हैं. लाचित ने जब ये सुना तो, उन्होंने भूत के भेष में अपने सैनिक भेजने शुरू कर दिए.

औरंगज़ेब ने शांति से इंकार किया 

लाचित के इन तरीकों से आजिज आकर राम सिंह ने एक चाल चली. उन्होंने अहोम जासूसों को एक झूठा खत भेजा, जिसमें लिखा था कि लाचित ने युद्ध न करने के 1 लाख रूपये लिए हैं, इसलिए वो सीधे युद्ध के मैदान में नहीं उतर रहे हैं. ये चाल काम भी कर गई. जब ये खत अहोम राजा तक पहुंचा, तो उन्हें भी लाचित पर शक हो गया. उन्होंने लाचित से युद्ध न करने का कारण पूछा. लाचित सीधे युद्ध के पक्ष में नहीं थे, उन्होंने राजा से कुछ और वक्त मांगा, लेकिन राजा ने लाचित को जल्दबाज़ी में युद्ध का आदेश दे दिया.

अगस्त 1669 में मुग़ल सेना और अहोम सेना के बीच अलाबोई में युद्ध लड़ा गया. और इस युद्ध में जैसा लाचित ने सोचा था, ठीक वैसा ही हुआ. अहोम सेना युद्ध में हार गई और उन्हें पीछे हटना पड़ा. हालांकि गुवाहाटी अब भी मुगलों की पहुंच से दूर ही रहा. इस बीच अहोम राजा चक्रध्वज सिंह की मृत्यु हो गयी और उदयादित्य नए राजा बने. मुग़ल कमांडर राम सिंह ने मौका देखकर नए राजा को संधि का प्रस्ताव भेजा. लाचित इसके लिए कतई तैयार नहीं थे. उन्होंने राजा को सलाह दी कि मुगलों का कोई भरोसा नहीं है, और वो आज नहीं तो कल दुबारा गुवाहाटी पर हमले की कोशिश करेंगे.

इधर मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब ने भी संधि के प्रयासों को दरकिनार कर दिया. और अपने नौसेना कमांडर मुन्नावर खान और शाइस्तां खान से राम सिंह को एक सन्देश भिजवाया. शाइस्तां खान ने राम सिंह को लिखा कि वो अहोमों पर फतह हासिल करने आए हैं, ना कि दोस्ती करने. जब शान्ति के सारे रास्ते बंद हो गए, तो राम सिंह ने एक आख़िरी हमले के लिए मोर्चाबंदी शुरू कर दी. मुगलों ने अपनी नावों पर तोपें लादी और अहोम सेना के बैरिकेड को तोड़ते हुए नदी में आगे की यात्रा शुरू कर दी. ये देखकर राजा उदयादित्य ने 20 हजार अहोम सैनिकों को मुगलों का सामना करने भेजा. इस दौरान लाचित बोरफुकन बीमार थे, इसलिए युद्ध में नहीं जा पाए.

सरईघाट की जंग 

लाचित की गैरमौजूदगी ने सेना का उत्साह ठंडा कर दिया और उन्हें युद्ध में हार मिलने लगी. लाचित ईटाखुली के किले में बिस्तर पर पड़े थे. युद्ध में अपनी सेना का हाल सुन उन्होंने अपने लिए 6 नावें मंगाई और उन्हें लेकर युद्ध में उतर गए. कहानी कहती हैं कि जब कुछ लोगों ने उन्हें बीमारी का वास्ता दिया तो उन्होंने चिल्लाकर कहा, “राजा ने इस देश के लोगों की जिम्मेदारी मुझे दी है, ऐसे में क्या मैं अपने बीवी बच्चों के पास चला जाऊं?”

सराईघाट की लड़ाई का नक्शा (तस्वीर: Wikimedia Commons/Chaipau) 

लाचित के युद्ध में उतरने से सैनिकों में ऊर्जा का एक नया संचार हुआ और वो दोगुनी ताकत से लड़ने लगे. 6 नावों का बेड़ा लेकर लाचित ने नदी में बने एक त्रिभुज की बीचों बीच खुद को झोंक दिया. कामाख्या, ईटाखुली और अश्वक्रान्ता के बीचों बीच उन्होंने नावों को एक सीध में खड़ा किया और उनके सैनिक एक नाव से दूसरी नाव में कूदते हुए मुगलों पर हमला करने लगे. इसी दौरान अहोम सैनिकों की एक गोली मुग़ल एडमिरल मुन्नावर खान को लगी और वो वहीं ढेर हो गया. अहोम सेना को भी भारी नुकसान हुआ लेकिन उन्होंने 4000 मुग़ल सैनिकों को मार गिराया. मुग़ल नावें आगे बढ़ने में नाकाम रही और सराईघाट का युद्ध अहोमों के लिए निर्णायक साबित हुआ.

इस जीत के नायक रहे लाचित बोरफुकन ने अप्रैल 1672 में अपनी अंतिम सांस ली. उनके सम्मान में राजा उदयादित्य ने जोरहाट में उनके नाम का एक स्मारक बनाया. सराईघाट की लड़ाई के 150 साल बाद तक अहोम राजाओं ने असम पर राज किया. और 1826 में यहां ब्रिटिशर्स का कब्ज़ा हो गया. सराईघाट के युद्ध में मुग़लों को हराने के चलते लाचित बोरफुकन को असम के इतिहास का सबसे बड़े युद्ध नायक बन गए. हर साल उनके जन्मदिन 24 नवंबर को आसाम में लाचित दिवस के रूप में मनाया जाता है. और नेशनल डिफेन्स अकादमी में हर साल सबसे बेहतर प्रदर्शन करने वाले कैडेट को लाचित गोल्ड मैडल के सम्मान से नवाजा जाता है. ये प्रथा साल 1999 में सेना प्रमुख VP मलिक ने शुरू की थी. 

वीडियो देखें- जब सत्य साईं बाबा का सामना 'असली जादूगर' से हुआ?

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