अस्सी घाव, बिना हाथ और आंख के बाबर से कैसे लड़े राणा सांगा?
1528 में मेवाड़ के राजा राणा सांगा और बाबर के बीच खानवा में जंग हुई. पानीपत की पहली लड़ाई में इब्राहिम लोधी को हराने के बाद बाबर ने आगरे के तख़्त पर कब्ज़ा जमा लिया था. इसके बाद बयाना में मुग़ल सेना को राजपूत अलायन्स से हार का सामना करना पड़ा. खानवा की जंग में राणा सांगा को गोली लगने के कारण उन्हें युद्ध के मैदान से दूर ले जाया गया. उनका एक साथी ऐन मौके पर बाबर की सेना से जा मिला. जिसकी वजह से राजपूत सेना को खानवा में हार का सामना करना पड़ा. और मुग़ल हिंदुस्तान में काबिज़ हो गए.
फ़िरदौस मकानी का दिल हिंदुस्तान में नहीं लगता था. यहां न अंगूर मिलते थे, ना ही अच्छी शराब. जिन घोड़ों को वो समरकंद में दौड़ाया करता था, उनकी भी यहां आमद नहीं थी. तैमूर और चंगेज़ खान दोनों का खून उसकी रगों में दौड़ता था. और उन्हीं की खातिर वो हिंदुस्तान में रुका हुआ था.
पानीपत में लोधियों को हराकर उसे खूब धन दौलत हासिल हुई थी. इसका एक हिस्सा काबुल भेजा गया. साथ ही बतौर शुक्रिया, ग्वालियर घराने को 40 ग्राम का एक हीरा गिफ्ट किया गया. इस इनायत के चलते बादशाह को कलंदर कहा जाने लगा था. जिसे सुनकर वो फूल कर कुप्पा हुआ जाता था. लेकिन इनायत सबको हजम होती नहीं थी. इब्राहिम लोधी की मां को उसने तोहफे में एक बड़ा महल गिफ्ट किया था. लेकिन बदले में उन्होंने बाबर के खाने में जहर मिला दिया. मुग़ल खुदा का शुक्रियाअदा करते नहीं थकते थे कि उस दिन बाबर का गोश्त खाने का ज्यादा जी नहीं था. इसी वजह से उसकी जान बच गई. लेकिन वो बहुत बीमार पड़ा. और जब बिस्तर से उठा, बदन में पहले जैसे खुमारी नहीं रह गई थी.
फिर एक खबर आई. चित्तौड़ से राणा आ रहे हैं. एक लाख राजपूतों के साथ. बादशाह को जंग के नगाड़े एक बार फिर सुनाई देने लगे. उसके लिए आगरा और समरकंद में अब कोई अंतर न रह गया था.
राणा सांगासाल 1482 की बाद है. मेवाड़ में सिसोदिया राजपूतों का राज था. आज ही दिन यानी 12 अप्रैल दिन राणा रायमल के यहां एक बेटे का जन्म हुआ. नाम रखा गया, राणा संग्राम सिंह. आगे चलकर लोग उन्हें राणा सांगा के नाम से बुलाने लगे.
राणा रायमल के इससे पहले भी दो बेटे पैदा हो चुके थे. परंपरा के हिसाब से मेवाड़ की गद्दी पर राणा संग्राम सिंह का नंबर सबसे आख़िरी था. लेकिन होनी ऐसी हुई कि राणा रायमल की मृत्यु के बाद गद्दी उन्हें ही मिली. भाइयों से हुई लड़ाई में उनकी एक आंख भी चली गयी थी.
अपने शासन काल में राणा सांगा ने राजपूतों को एक किया. और अपनी शक्ति बड़ाई. कुछ ब्योरों के हिसाब से उन्हें 100 से भी ज्यादा लड़ाइयां लड़ी. जिसके चलते उनके शरीर पर 80 घाव हो गए थे. एक हाथ कट गया था और एक पैर ने भी काम करना बंद कर दिया था. इसके बावजूद उन्होंने दिल्ली, मालवा और गुजरात के शासकों को हराया और आज के राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर गुजरात, और अमरकोट, सिंध तक अपनी रियासत को फैला दिया था. चित्तौड़ उनकी राजधानी हुआ करती थी. बाबरनामा में बाबर ने राणा सांगा के बारे में लिखा है,
पानीपत की जंग“हिंदुस्तान में राणा सांगा और दक्कन में कृष्णदेव राय से महान शासक कोई नहीं है.”
साल 1526 में पानीपत की पहली जंग हुई. इब्राहिम लोधी और बाबर के बीच. पानीपत में. इस जंग में बाबर की जीत हुई. लेकिन आगरे के तख़्त पर अभी भी दो इलाकों से खतरा बना हुआ था. चित्तौड़ में राणा सांगा. और पूर्व में अफगान. बाबर ने हिसाब किताब जमाया तो उन्हें लगा, पूर्व में खतरा ज्यादा है. बाबर ने शहजादे हुमायूं को बुलाया. और उनके साथ एक टुकड़ी पूर्व में अफ़ग़ानों से लड़ने के लिए भेज दी.
इसी दौर में राणा सांगा राजपूतों को इकठ्ठा कर चुके थे. और उन्होंने आगरे पर चढ़ाई की तैयारी पूरी कर ली थी. जैसे ही बाबर को इसकी खबर लगी. उन्होंने हुमायूं को बुलावा भेजा. आगरे के बाहर धोलपुर, ग्वालियर और बयाना के मजबूत किले पड़ते थे. बाबर ने पहले इन किलों पर कब्ज़ा जमाने का प्लान बनाया. बयाना के किले पर निजाम खां का कब्ज़ा था. बाबर ने उससे समझौते की कोशिश की. लेकिन बाद में पता चला कि निजाम खां ने राणा सांगा से पहले ही संधि कर ली थी. 21 फरवरी 1527 को बयाना में बाबर और राणा सांगा की सेनाएं आपस में टकराई. इस जंग में बाबर की सेना की सेना हारी और उन्हें वापस आगरा लौटना पड़ा. स्कॉटिश इतिहासकार विलियम एर्स्किन के अनुसार,
“बयाना में मुग़लों को अहसास हुआ कि उनका सामना अफ़ग़ानों से कहीं भयंकर सेना के साथ हुआ है. राजपूत किसी भी वक्त जंग के मैदान में दो-दो हाथ करने के लिए तैयार रहते थे, और अपने सम्मान के लिए जान देने से भी उन्हें रत्ती भर गुरेज नहीं था.”
इतिहास के किस्से सुनाते हुए अक्सर बातों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश कर दिया जाता है. विपक्षी के लिए ‘बुरी तरह हराया’, ‘डरकर कांपने लगे’ जैसे जुमलों को यूं ही उछाल दिया जाता है. लेकिन इस लड़ाई में अगर कहा जाए कि मुग़लों की हालत खस्ता हो गयी थी. तो इसमें रत्ती भर भी अतिशयोक्ति नहीं होगी. बाबरनामा में बाबर ने खुद लिखा,
बयाना की लड़ाई“काफिरों ने वो भयंकर युद्ध किया कि मुग़ल सेना का मनोबल टूट गया, वो घबरा गए थे”
बयाना की जंग में हार के बाद बाबर की सेना में शामिल अफ़ग़ान सैनिकों ने उनका साथ छोड़ दिया. तुर्क भी शिकायत करने लगे थे. एक पराया मुल्क जो उन्हें रत्ती भर रास नहीं आ रहा था, उसे डिफेंड करने का क्या ही तुक था. इब्राहिम लोधी को हराकर उन्हें बहुत बहुत सा सोना मिला था (स्पॉइल्स ऑफ वॉर). उन्होंने बाबर से गुजारिश की कि वापस काबुल लौट चलते हैं. 2000 साल से शासक ऐसा ही करते आए थे. खैबर के रास्ते, हिंदुस्तान में घुसो, सिंधु के आसपास लूटपाट मचाओ. दिल्ली के तख़्त पर अपना वसाल बिठाओ, और चलो वापिस घर को.
बयाना में मुगलों को हराकर राजपूतों के हौंसले आसमान पर थे. हरौती, जालोर, सिरोही, डुंगरपुर राजघराने सब उनके साथ हो चुके थे. मारवाड़ के राजा राव गंगा स्वयं नहीं आए, लेकिन अपने बेटे की रहबरी में उन्होंने भी अपनी सेना राणा सांगा के साथ भेजी. राव मेदिनी राव, चंदेरी से जंग लड़ने पहुंचे. महमूद लोदी, सिकंदर लोधी का बेटा भी अपने पिता की हार का बदला लेने के लिए इस अलायन्स का हिस्सा बना.
वीके कृष्ण राव के अनुसार राणा सांगा बाबर को एक आततायी और विदेशी आक्रांता मानते थे. साथ ही वो दिल्ली और आगरा को जीतकर अपनी रियासत का विस्तार करना चाहते थे. उधर बाबर की सेना के हौंसले पस्त थे. इसलिए उन्होंने अपनी सेना में जोश भरने के लिए धर्म का सहारा लिया. उन्होंने ऐलान किया,
“राजपूतों का साथ देने वाला हर अफ़ग़ान काफिर और गद्दार हैं”
साथ ही बाबर ने धार्मिक नियम लागू करते हुए शराब पर पाबंदी लगा दी. अब तक बाबर के कैम्प में ऊंट पर लाद कर गजनी शराब लाई जाती थी. लेकिन बयाना में हार के बाद उन्होंने अपने सोने और चांदी के प्यालों को तोड़कर सारी शराब जमीन में बहा दी. और कुरान पर हाथ रखकर सबसे अहद उठावाया कि कोई एक बूंद शराब को भी नहीं छुएगा. इस्लाम में ऐसा करना हराम है. इस घटना का जिक्र करते हुए बाबरनामा में बाबर ने लिखा,
खानवा की जंग“ये एक बहुत अच्छा प्लान था. इस प्रोपोगेंडा का सेना पर भी अच्छा असर हुआ और दुश्मनों को भी लगा, हम संजीदा हैं”
अब जंग के दूसरे चरण की बारी थी. 16 मार्च 1527 के रोज़ दोनों सेनाओं का आमना सामना हुआ. आगरा के 60 किलोमीटर पश्चिम में स्थित खानवा में. बाबरनामा के अनुसार राणा सांगा की सेना में 2 लाख सैनिक थे. कुछ और इतिहासकार इस संख्या को 40 हजार जो बाकी कुछ एक लाख बताते हैं. हांलांकि इस बात को लेकर सभी एकमत थे, कि राणा सांगा की सेना बाबर से कहीं ज्यादा शक्तिशाली थी.
बाबर को लगा खुले में राजपूत सेना से जीतना मुश्किल है. इसलिए उसने मुदाफ़ि'आना यानी डिफेंसिव फॉर्मेशन तैयार किया. अब यहां बाबर ने वही तुलुगमा रणनीति अपनाई जिसके बारे में हमने आपको 5 नवंबर के एपिसोड में बताया था. इसके तहत सेना को तीन हिस्सों में बांटा गया. लेफ़्ट, राइट और सेंटर डिविज़न. लेफ़्ट और राइट विंग को भी फ़ॉर्वर्ड और रियर डिविज़न में बांटा गया, यानी आगे और पीछे दो हिस्से. सेंटर डिविज़न के आगे की पंक्ति (वैनगार्ड) में बैलगाड़ियां खड़ी की. जिन्हें मज़बूत लोहे की बेड़ियों से आपस में बांधा गया, ताकि हमला होने पर वो भाग ना जाएं. बीच में सिर्फ़ इतनी जगह छोड़ी गई कि दो घुड़सवार सैनिक एक साथ निकल सकें. इस पंक्ति के पीछे तोपखाना लगाया गया जो बैलगाड़ियों से सुरक्षित रहता. बाएं और दाएं फ़्लैंक पर माहिर तीरंदाज़ तैनात थे.
युद्ध से शुरू होते ही बैलगाड़ियों के बीच से घुड़सवार हमला करने निकलते. और हमला कर वापस बाएं और दाएं फ्लैंक में जुड़ जाते. इस दौरान लगातार तोप के गोलों की वर्षा होती रहती. ये रणनीती उज़्बेकों ने ईजाद की थी. और इसी से उन्होंने समरकंद में बाबर को तीन बारे हराया था. इसलिए बाबर ने भी यही रणनीति अपने दुश्मनों पर आजमाई.
जंग ही शुरुआत हुई तो राणा सांगा ने पारम्परिक युद्द शैली अपनाते हुए सामने से धावा बोला. लेकिन मुग़ल तोपों के चलते उनकी सेना को बहुत नुकसान उठाना पड़ा. राजपूत सेना घोड़ों और हाथियों के बल पर लड़ रही थी. लेकिन मुग़ल सेना के मजबूत डिफेंसिव फार्मेशन के चलते वो सामने से अटैक नहीं कर पा रहे थे. उन्होंने अपने आदमियों को बाएं और दाएं फ्लैंक पर हमला करने का आदेश दिया.
मुगल मस्केट से उन पर दूर से हमला कर रहे थे. जबकि राजपूत सेना केवल क्लोज़ क्वार्टर में हमला कर पा रही थी. राणा की सेना की संख्या काफी ज्यादा थी. इसलिए वो एक के बाद एक टुकड़ियां फ्लैंक की और भेज रहे थे थे. मुग़ल सेना अपने नुकसान की भरपाई के लिए सेंटर फार्मेशन से फ्लैंक को मजबूत करने में लगी थी. यानी जैसे-जैसे दायीं और बायीं तरफ सैनिक कम हो रहे थे, वैसे-वैसे बीच से सैनिक आकर उनकी जगह ले लेते थे. लगभग तीन घंटों तक लड़ाई यूं ही जारी रही.
सिलहड़ी का धोखाराजपूत सेना मुग़ल सेना के डिफेंसिव फॉर्मेशन को तोड़ने में नाकाम रही. लेकिन उन्होंने मुगलों की तुलुगमा रणनीति को भी सफल नहीं होने दिया. जैसे ही मुग़ल घुड़सवार अटैक करने आते, राजपूत सेना भी उतनी ही तेज़ी से उन्हें पीछे खदेड़ देती. दोपहर तक लड़ाई में तराजू के दोनों पलड़े एकदम बराबर थे. लेकिन इसी बीच राजा शिलादित्य जिन्हें सिलहड़ी तोमर के नाम से जाना जाता था. अपनी 30 हजार घुड़सवार सेना को लेकर बाबर की सेना से जा मिले. इस धोखाधड़ी से हैरान राणा को अपनी योजना बदलनी पड़ी. इसी हेरफेर में एक गोली आकर राणा को लगी और वो बेहोश होकर गिर गए.
सेनापति को गायब देख राजपूत सेना में हड़बड़ी मच गई. लगभग एक घंटे तक यही स्थिति बनी रही. तब झाला के सरदार अज्जा ने राणा की जगह ली और उनका भेष धरकर लड़ने लगे. फ्लैंक को बचाते बचाते, मुग़ल सेना का सेंटर कमजोर हो चुका था. ये सही वक्त था कि उस पर हमला किया जाता. लेकिन अज्जा के पास राणा सांगा जितना युद्ध कौशल नहीं था. वो फ्लैंक पर ही हमला करते रहे. जहां मुग़ल सेना मजबूत थी. इसी बीच घनी सेना पर तोपों और गोलियों की लगातार बौछार से काफी संख्या में सैनिक मारे जा रहे थे.
मौका देखकर बाबर ने अपनी सेना को डिफेंसिव फॉर्मेशन छोड़ फॉरवर्ड प्रेस करने का आदेश दिया. राजपूत सेना को पीछे खदेड़ दिया गया. इसके बाद राजपूत सरदारों ने आगे बढ़ने की कोशिश की लेकिन गोलियों के आगे वो भी नहीं टिक पाए. राणा को जंग की जमीन से दूर ले जाया गया. लेकिन जंग में उनकी हार हो चुकी थी. इस जंग के बाद बाबर ने मरे हुए सैनिकों की खोपड़ियों से एक मीनार बनाई. जैसा कभी तैमूर ने किया था.
राणा सांगा को जंगलों में छिपना पड़ा. वो एक और बार जंग के मैदान पर जाने की तैयारी कर रहे थे. लेकिन उनके बाकी सरदार इसके खिलाफ थे. बाबर के खिलाफ दोबारा लड़ना उन्हें खुदकुशी लग रहा था. इसलिए उनमें से किसी एक ने राणा सांगा को जहर दे दिया. और 30 जनवरी 1528 को राणा सांगा की मृत्यु हो गई. बाबर ने इसके बाद भारत में मुग़ल साम्राज्य की नींव रखी. आगे चलकर राजपूतों और मुगलों के बीच कई जंगें हुईं जिनके बारे में मौका मिलने पर हम आपको तारीख में बताते रहेंगे.
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