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लाल किले पर लड़ा गया मुकदमा, जिसने अंग्रेजों की कब्र खोद दी

लालकिले पर आजाद हिंद फ़ौज के मुकदमे की कहानी

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अंग्रेजों ने जिस वजह से ये मुकदमा लाल किले पर चलवाया, पासा उल्टा पड़ गया | फोटो: विकिमीडिया कॉमन्स
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अभय शर्मा
13 अक्तूबर 2022 (Updated: 13 अक्तूबर 2022, 18:53 IST)
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लाल किले में उस दिन अदालत बुलाई गई थी. आजाद हिन्द फौज के तीन अफसरों पर मुक़दमा चल रहा था. मुकदमा जिसका हासिल सबको पता था. इन तीन अफसरों और फांसी के बीच खड़ा था एक वकील. जिसकी तबीयत नासाज थी. इतनी नासाज कि जिंदगी सिर्फ चंद महीनों की मेहमान थी. वो वकील जो कभी कांग्रेस का बड़ा नेता हुआ करता था और जिसे कांग्रेस ने दग़ाबाज़ी के इल्जाम में किनारे लगा दिया था. इसके बावजूद जब बुलावा आया तो 68 साल का वो बुजुर्ग एक बार फिर बिस्तर से उठ खड़ा हुआ. और काले कोट और लाल पगड़ी में लाल किले में पहुंच गया. उसने 10 घंटे लगातार जिरह की. दो दिन लगातार. वो भी बिना नोट्स के. नतीजा हुआ कि दिल्ली से लेकर कराची तक हंगामा मच गया. अंग्रेज़ों को बगावत के डर से फांसी टालनी पड़ी. ये कहानी है 1945 में हुए आजाद हिन्द फौज के मुक़दमे की. और उस वकील की जो कहता था, नेताजी अभी जिंदा हैं.

हम बात कर रहे हैं वरिष्ठ वकील और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भूलाभाई देसाई की. आज ही के दिन 13 अक्टूबर 1877 को उनका जन्म हुआ था. भूलाभाई देसाई के जीवन में 2 बड़ी घटनाएं हुईं. एक में उन पर धोखेबाजी का आरोप लगा तो दूसरी ने उन्हें हिन्दुस्तान के लोगों का हीरो बना दिया. आज हम इन दोनों ही घटनाओं की बात करेंगे.

जब Desai-Liaquat Pact का खुलासा हुआ 

बात 1940 की है, इसी साल 23 मार्च को मुस्लिम लीग के मोहम्मद अली जिन्ना ने पहली बार साफ कह दिया था कि उन्हें एक अलग मुल्क पाकिस्तान चाहिए. इस मुद्दे पर कांग्रेस पार्टी जिन्ना के खिलाफ थी. दोनों पार्टियों में तनातनी का आलम ये था कि कांग्रेस के लगभग हर फैसले का मुस्लिम लीग विरोध करती थी. 8 अगस्त 1942 को जब 'भारत छोड़ो आंदोलन' शुरू हुआ तो जिन्ना ने इसका भी विरोध किया. जिन्ना का मानना था कि पहले देश का बंटवारा हो फिर आजादी की लड़ाई लड़ी जाएगी.

उधर, अंग्रेज इस बात का इशारा कर चुके थे कि जब तक कांग्रेस और मुस्लिम लीग भारत के भविष्य और अंतिरम सरकार के गठन को लेकर किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचते, तब तक आजादी नहीं दी जा सकती. इस वजह से कांग्रेस पार्टी ने जिन्ना के सामने कई प्रस्ताव रखे. कांग्रेस नेता सी राजगोपालाचारी ने जिन्ना के सामने सीआर फार्मूला रखा. इसमें कहा गया कि पहले मुस्लिम लीग देश की आजादी में कांग्रेस का साथ दे. देश के आजाद होने के बाद एक समिति बनाई जाएगी, जो पूर्वी और पश्चिमी हिस्सों में मुस्लिम क्षेत्रों को चिन्हित करेगी. फिर इन मुस्लिम इलाकों में पाकिस्तान बनाने को लेकर एक जनमत संग्रह होगा. अगर लोग चाहेंगे तो पाकिस्तान बना दिया जाएगा. लेकिन, रक्षा, संचार और व्यापार पर दोनों देशों को एक समझौता करना होगा. मोहम्मद अली जिन्ना ने राजगोपालाचारी का ये फार्मूला सुनते ही ख़ारिज कर दिया.

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कांग्रेस नेता  भूलाभाई देसाई (बाएं) और सी राजगोपालाचारी

जैसा की हमने पहले बताया उस समय भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हो चुका था, ब्रिटिश सरकार ने लगभग सभी बड़े कांग्रेसी नेताओं को जेल में डाल दिया था. बीमारी के चलते कांग्रेस वर्किंग कमिटी के सदस्य और केंद्रीय विधान परिषद के सदस्य भूलाभाई देसाई आंदोलन में हिस्सा नहीं ले पाए, सो वो जेल से बाहर थे.

इसी दौरान देसाई ने मुस्लिम लीग के दूसरे बड़े नेता लियाकत अली खान से एक गुप्त बातचीत शुरू की. इस बातचीत का मकसद भी जिन्ना को अलग देश बनाने से रोकना ही था. बताते हैं कि इसमें सहमति बनी कि आजादी मिलने के बाद जो अंतरिम सरकार बनेगी उसमें आधे-आधे सदस्य कांग्रेस और मुस्लिम लीग से चुने जाएंगे. इसके आलावा 20 परसेंट सदस्य अल्पसंख्यक होंगे.

इससे पहले कि इस बातचीत को लेकर देसाई या लियाकत अली कुछ भी सार्वजिनक करते, 1945 के शुरूआती दिनों में इस गुप्त बातचीत की खबर मीडिया को लग गई. और खबर पूरे देश में फैल गई. गांधी और नेहरू सहित कांग्रेस के सभी नेताओं का कहना था कि इस बातचीत के बारे में उन्हें कोई जानकारी नहीं थी. उधर जिन्ना ने भी लियाकत अली खान को लेकर ऐसा ही बयान दिया.

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मोहम्मद अली जिन्ना और लियाकत अली खान

आखिरकार भूलाभाई देसाई को कठघरे में खड़ा कर दिया गया. कांग्रेस के नेताओं ने उनपर पार्टी से दगाबाजी करने का आरोप लगाया. उन्हें कांग्रेस में अलग-थलग कर दिया गया. केंद्रीय विधान परिषद के अगले चुनाव में उनका टिकट भी काट दिया गया और इसका कारण उनका बीमार होना बताया गया. हालांकि, इस पूरे घटनाक्रम को लेकर भूलाभाई देसाई के करीबी और मशहूर वकील चिमनलाल हरिलाल सीतलवाड़ का दावा था कि देसाई और लियाकत अली की गुप्त बातचीत के बारे में महात्मा गांधी को सबकुछ पता था. बहरहाल, उस समय इस पूरे मामले ने भूलाभाई देसाई की छवि को खराब कर दिया था.

छह महीने बाद ही Bhulabhai Desai को दाग धोने का मौका मिला

इस घटनाक्रम के कुछ महीने बाद 1945 में ही इस नामी वकील के हाथ में एक ऐसा केस आया, जिसने न केवल धोखेबाज होने का आरोप धो दिया, बल्कि उन्हें देश का हीरो बना दिया. ये केस था आजाद हिंद फ़ौज से जुड़ा.

18 अगस्त, 1945 को आजाद हिंद फ़ौज के मुखिया नेता जी सुभाष चंद्र बोस की मौत का समाचार आया. इसके कुछ रोज 2 सितम्बर को जर्मनी और जापान की हार के साथ दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति की घोषणा हो गई. विश्व युद्ध के बाद ब्रिटिश सेना ने आजाद हिंद फौज यानी आइएनए के हजारों सैनिकों को बंदी बना लिया था. इन बंदियों में आइएनए के तीन प्रमुख कमांडर कर्नल प्रेम कुमार सहगल, कर्नल गुरबख्श सिंह ढिल्लन और मेजर जनरल शाहनवाज शामिल थे. इन तीनों को अंग्रेज अफसरों ने कोर्ट मार्शल के दौरान ब्रिटेन के खिलाफ युद्ध छेड़ने के अपराध में फांसी की सजा सुनाई थी. अब इन पर कोर्ट में केस चलना था.

देश उस समय आजादी की दहलीज पर खड़ा था. और आजाद हिंद फौज का एक हिंदू, एक मुस्लिम और एक सिख कमांडर मौत की दहलीज पर. इससे भी बड़ी बात ये थी कि तत्कालीन ब्रिटिश वायसराय वावेल और भारतीय सेना के अंग्रेज़ प्रमुख ऑचिनलेक ने इनके खिलाफ खुली अदालत में मुकदमा चलाने का फैसला लिया था. अदालत लालकिले में लगनी थी. इसके पीछे अंग्रेजों की मंशा आजाद हिंद फ़ौज को बदनाम करने की थी. उन्हें देश की जनता को यह जतलाना था कि सुभाष चंद्र बोस के सैनिक गद्दार, कायर, अड़ियल और जापानियों की चाकरी में लगे गुलाम थे, इन्होंने जापान का साथ देते हुए भारत के खिलाफ ही जंग छेड़ी थी.

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दाएं से पहले सेना प्रमुख ऑचिनलेक और बीच में वायसराय वावेल

वायसराय वावेल और सेना प्रमुख ऑचिनलेक को इस बात का भरोसा था कि मुकदमे की सुनवाई के दौरान जब उनके झूठे गवाह आज़ाद हिंद फौज की क्रूरता के झूठे किस्से सुनायेंगे तो नेताजी की फौज के लिए बची-खुची सहानुभूति भी खत्म हो जाएगी. लेकिन, इन दोनों को इस बात का बिलकुल भी अंदाजा नहीं था कि उनका ये पासा उल्टा भी पड़ सकता है.

आज़ाद हिंद फौज के तीन कमांडरों को बचाने के लिए कांग्रेस पार्टी ने देश के सबसे बड़े वकीलों को मैदान में उतारा. इस टीम में जवाहरलाल नेहरू, तेज बहादुर सप्रू, कैलाशनाथ काटजू एवं आसफ अली जैसे नाम शामिल थे. और इस टीम के मुखिया थे भूलाभाई देसाई. बताते हैं कि 68 साल के देसाई उस समय काफी बीमार थे, डॉक्टर्स ने उन्हें मुकदमा लड़ने से साफ़ मना किया था, लेकिन फिर भी वे लाल किले पर पहुंच गए. शायद वे जानते थे कि दगाबाजी का जो आरोप उन पर लगा है, उसे धोने का उनके लिए ये आखिरी मौका है.

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जवाहरलाल नेहरू, भूलाभाई देसाई और राजेंद्र प्रसाद

5 नवंबर, 1945 को मुकदमा शुरू हुआ. भूलाभाई देसाई ने कई दिनों तक पैरवी की. मुकदमे की सुनवाई के दौरान भूलाभाई देसाई ने दलील देते हुए कहा,

‘‘जापान से पराजय के बाद अंग्रेजी सेना के लेफ्टिनेंट कर्नल हंट ने खुद आजाद हिंद फौज के जवानों को जापानी सेना के सुपुर्द कर दिया था. हंट ने उनसे कहा था कि आज से आप हमारे मुलाजिम नहीं क्योंकि मैं अंग्रेजी सरकार की ओर से आप लोगों को जापान सरकार को सौंपता हूं. अब तक आप लोग जिस प्रकार अंग्रेजी सरकार के प्रति वफादार रहे, उसी प्रकार अब जापानी सरकार के प्रति वफादार रहें. हंट ने ये भी कहा कि यदि आप ऐसा नहीं करेंगे, तो आप सजा के भागी होंगे. कर्नल हंट के ऐसा कहने के बाद जापान को सौंपे गए भारतीय सैनिकों पर अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बगावत करने का मुकदमा नहीं बनता.’’

भूलाभाई देसाई ने दूसरी अहम दलील देते हुए कहा,

‘‘अंतर्राष्ट्रीय कानून के मुताबिक हर आदमी को अपनी आजादी हासिल करने के लिए लड़ाई लड़ने का अधिकार है. आजाद हिंद फौज एक आजाद और अपनी इच्छा से शामिल हुए लोगों की फौज है और उनकी निष्ठा अपने देश से है. जिसको आजाद कराने के लिए नेता जी सुभाष चंद्र बोस ने देश से बाहर एक अस्थाई सरकार बनाई. उसका अपना एक संविधान है. इस सरकार को विश्व के नौ देशों की मान्यता प्राप्त है. ऐसे में भारतीय कानून के तहत इस मामले की कार्रवाई नहीं की जा सकती.’’

‘लाल किले से आई आवाज-सहगल, ढिल्लन और शाहनवाज़’

ब्रिटिश सरकार ने आजाद हिंद फौज के खिलाफ जो गवाह पेश किए, भूलाभाई देसाई ने उन्हें अपने सवालों में ऐसा उलझाया कि वे खुद आइएनए की बहादुरी के किस्से सुनाने लगे. लालकिले की अदालत मीडिया और जनता दोनों के लिए खुली हुई थी. ऐसे में आईएनए के किस्से देश में तेजी से फैले. अंग्रेजों ने सुभाष चंद्र बोस और उनकी सेना को लेकर जो दुष्प्रचार किया था, उसकी पोल खुल गई. बताते हैं कि इस मुकदमे के जरिये ही देश वासियों को मालूम चला था कि आजाद हिंद फौज ने भारत-बर्मा सीमा पर अंग्रेजों के खिलाफ कई जगहों पर जंग लड़ी थी. और 14 अप्रैल, 1944 को कर्नल एसए मलिक की लीडरशिप में फौज की एक टुकड़ी ने मणिपुर के मोरांग में तिरंगा तक लहरा दिया था.

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कर्नल प्रेम कुमार सहगल, कर्नल गुरबख्श सिंह ढिल्लन और मेजर जनरल शाहनवाज

जब लोगों को ये बातें पता चलीं तो पूरे देश में आजाद हिंद फ़ौज के बंदी सैनिकों के लिए आंदोलन शुरू हो गया. इस ऐतिहासिक मुकदमे के दौरान उठे नारे ‘लाल किले से आई आवाज-सहगल, ढिल्लन और शाहनवाज़’ ने उस समय मुल्क की आजादी के लिए लड़ रहे लोगों को एक सूत्र में बांध दिया. पूरे देश में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ धरने-प्रदर्शन होने लगे.

ब्रिटिश अदालत पर भूलाभाई देसाई की दलीलों और जन आंदोलन का दवाब पड़ा. 4 जनवरी, 1946 को आइएनए कमांडर सहगल, ढिल्लन और शाहनवाज की फांसी की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया गया. हालांकि, कुछ समय बाद इन तीनों को जेल से आजाद भी कर दिया गया.

इस केस ने भूलाभाई देसाई को भी आजादी दी, उस आरोप से जो उनपर 'भारत छोड़ो आंदोलन' के दौरान लगा था. 5 जनवरी 1946 को एक इंटरव्यू में जवाहर लाल नेहरू ने उनके लिए कहा था,

‘‘मैं आईएनए के इन तीन अफसरों की रिहाई से बहुत खुश हूं. वरिष्ठ अधिवक्ता भूलाभाई देसाई ने बहुत ही योग्यता और करीने से ये मुकदमा लड़ा, वो बधाई के पात्र हैं. इस केस के दौरान भारत के लोग पहले से कहीं ज्यादा एकजुट दिखाई दिए. इसलिए ये उन सबकी जीत है.’’

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