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जब बीच जंग में पागल हाथी औरंगज़ेब की ओर दौड़ पड़ा!

मुग़ल गद्दी के लिए आख़िरी जंग 1569 में औरंगज़ेब और शाह शुजा के बीच हुई थी

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औरंगज़ेब आलमगीर को दिल्ली तख़्त तक पहुंचने के लिए अपने बड़े भाइयों से जंग लड़नी पड़ी, पहले दारा शिकोह और बाद में शाह शुजा से (तस्वीर: Commons)
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5 जनवरी 2022 (Updated: 5 जनवरी 2022, 02:50 IST)
Updated: 5 जनवरी 2022 02:50 IST
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हुई मुद्दत के ग़ालिब मर गया पर याद आता है वो हर एक बात पे कहना कि यूं होता तो क्या होता
ग़ालिब ये शेर लिख गए बादशाह जफ़र के काल में. पढ़ा जाता है आज. लेकिन मौजू होता है ज़फ़र के पुरखों पर. सब पर नहीं, सिर्फ़ आलमगीर औरंगज़ेब पर. कैसे कि औरंगज़ेब पर एक सवाल आज भी सूपरहिट है. “अगर औरंगज़ेब के बदले दारा शिकोह बादशाह बनता तो क्या होता?”
इस सवाल का जवाब तो शायद साइंस फ़िक्शन ही दे पाए. टाइम ट्रैवल नुमा कोई थियोरी देकर. इतिहास तो सिर्फ़ इतना ही जवाब दे सकता है, कि औरंगज़ेब बादशाह बने कैसे? सवाल शायद बोरिंग है. लेकिन जवाब नहीं. आप भी शायद कहें कि कैसे बना क्याa, दारा शिकोह को हरा के बना. लेकिन ये जवाब सही तो है, लेकिन है अधूरा. काहे कि शाहजहां  की गद्दी के सिर्फ़ दो हक़दार नहीं थे. दावा चार भाइयों के बीच था. सबसे बड़ा और बादशाह का सबसे दुलारा, दारा शिकोह. फिर शाह शुजा, फिर औरंगज़ेब और सबसे छोटा शहज़ादा मुरादबक्श.
दारा शिकोह से औरंगज़ेब की लड़ाई सबसे फ़ेमस है. लाज़मी भी है, चूंकि दारा शिकोह के पास ज़्यादा ताकतवर सेना थी. लेकिन फिर भी आलमगीर उसे हराने में सफल हो गया. एक और जंग हुई थी. आमने-सामने थे दिल्ली तख़्त के दो हक़दार. लेकिन इस जंग में पासे उल्टे पड़े थे. औरंगज़ेब के पास दिल्ली की सेना थी. जबकि दूसरी तरफ़ इसकी सिर्फ़ एक चौथाई सेना. आम समझ यही बनती है कि औरंगज़ेब को आसानी से जीत जाना चाहिए था.
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दारा शिकोह और औरंगज़ेब के बीच समुगढ़ की लड़ाई (तस्वीर: Wikimedia Commons)


लेकिन जंग और आसानी, ये दो शब्द म्यूचली एक्स्क्लूसिव हैं. जंग की शुरुआत से ही औरंगज़ेब को एक बड़ा झटका लगा. एक पुरानी रंजिश के चलते. उसका एक सिपह सलाहकार उसे बीच मैदान में छोड़ कर चलता बना. जंग शुरू हुई तो एक पागल हाथी से पाला पड़ा जिसने लगभग औरंगज़ेब को मार ही डाला था. लेकिन किस्मत अच्छी थी कि  औरंगज़ेब के दुश्मन ने ठीक वही गलती कर दी. जो दारा शिकोह ने की थी. क्या थी ये जंग? कैसे बने थे इसके हालात? मैदान में क्या तरकीबें चली गई? और कैसे हुआ जीत और हार का फ़ैसला? आइए जानते हैं. औरंगजेब का ख़त मई 1658 में औरंगज़ेब ने अपने बड़े भाई शाह शुजा को एक चिट्ठी लिखी. जिसमें उसने उसे बिहार की सूबेदारी सौंपते हुए संधि की बात कही. लिखा कि एक सच्चे भाई के तरह मैं तुम्हें ज़मीन और दौलत, किसी की कमी नहीं होने दूंगा. चिट्ठी मिली तो शाह शुजा ने सधन्यवाद लिखते हुए चिट्ठी का जवाब भेजा. और जंग की तैयारी में जुट गया.
शाहजहां के चार बेटों में शाह शुजा दूसरे नम्बर पर था. उसे बंगाल का गवर्नर नियुक्त किया गया था. और जैसे ही उसे मालूम चला कि शाहजहां अपने अंतिम दिन गिन रहा है, उसने बादशाह बनने की तैयारी शुरू कर दी. बिलकुल उस छात्र की तरह जो इम्तिहान से पहले कलम-दवात रख लेता है. और जब उससे पूछा जाता है, हो गई तैयारी? तो जवाब देता है, सिर्फ़ एक चीज़ बची है, पढ़ाई. शाह शुजा का भी यही हाल था. उसने खुद को बादशाह घोषित करते हुए, खुतबा पढ़वाया. और अपने नाम के सिक्के भी चलवा दिए. सिर्फ़ एक चीज़ बची थी. अपने तीन भाइयों से लड़ाई में जीत हासिल करना.
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शाह शुजा (तस्वीर: wikimedia Commons)


पहली लड़ाई में ही उसे मुंह की खानी पड़ी. बनारस के नज़दीक बहादुरपुर में उसके और दारा शिकोह के बीच पहली लड़ाई हुई. जिसमें शिकस्त मिली और उसे पीछे हटना पड़ा. लेकिन दारा ने संधि करते हुए उसे बंगाल और उड़ीसा का गवर्नर बना दिया. इसके बाद औरंगज़ेब की दारा के साथ दो जंग हुई. पहली जंग धर्मतपुर में हुई. और दूसरी जंग हुई समुगढ़ में.
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इन दोनों जंगों में दारा को हार मिली. औरंगज़ेब आगरे के तख़्त पर क़ाबिज़ हो गया. जंग में हार कर दारा अपने परिवार सहित लाहौर की तरफ़ भाग गया. औरंगज़ेब उसका नामों निशान मिटा देना चाहता था. इसलिए उसने भी लाहौर की ओर कूच किया. लाहौर कूच के दौरान ही उसने शाह शुजा को वो ख़त लिखा, जिसके बारे में हमने पहले बताया था. ख़त लिखने का कारण ये था कि औरंगज़ेब नहीं चाहता था कि वो लाहौर में रहे और बंगाल से शुजा हमला कर दे. शुजा भी सुजान था. उसने आलमगीर पर रत्ती भर भी भरोसा नहीं किया. उसे मुराद के साथ हुए सुलूक का अहसास था. मुराद ने तख़्त पर क़ाबिज़ होने के लिए औरंगज़ेब का साथ दिया था लेकिन फिर औरंगज़ेब ने उसे ही कैद कर मरवा डाला. शाह शुजा की तैयारी औरंगज़ेब का ख़त मिलते ही शुजा ने बंगाल में जंग की तैयारी शुरू कर दी. ध्यान रखिए, ये सब 1658 मई महीने के आसपास हो रहा था. शुजा को लगा, भैया गए परदेश तो फिर डर काहे का. औरंगज़ेब लाहौर में था. आगरा में सल्तनत खाली थी. शुजा को लगा, चलो ख़ालीपन भर दिया जाए. और अक्टूबर 1658 में उसने इलाहाबाद पर चढ़ाई कर दी. क़िस्मत अच्छी थी. दारा ने जाते-जाते शुजा को एक भेंट दी थी. उसने पूर्व में अपने किलों के सरदारों को बोला था, शुजा आए तो स्वागत करना. कि वो नहीं चाहता था पूर्व में ये सब किले औरंगज़ेब के हत्थे चढ़ जाएं.
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खजवा की जंग में कम सेना होने के बावजूद शाहशुजा ने औरंगज़ेब को हार के मुहाने पर खड़ा कर दिया था (तस्वीर: Wikimedia commons)


कुछ ही दिनों में शुजा ने रोहतास, चुनार और बनारस पर कब्जा कर लिया. इसके बाद उत्तर में जौनपुर को भी कब्जे में ले लिया. आगे बढ़ते हुए 23 दिसम्बर 1658 को शाह शुजा इलाहाबाद पहुंचा. यही मोमेंटम जारी रखते हुए अगर शुजा आगरे पर चढ़ाई करता, तो बहुत मुमकिन है उसे कुछ सफलता मिल जाती. लेकिन शुजा की कमी गिनाते हुए इतिहासकार यदुनाथ सरकार अपनी किताब ‘हिस्ट्री ऑफ़ औरंगज़ेब’ में लिखते हैं,
“शाह शुजा एक होशियार शासक था, उसका अच्छी चीजों का शौक था. लेकिन आरामपसंदी और अय्याशी ने उसे कमजोर बना दिया था. बंगाल का शासन करना आसान था. इसलिए उसने कभी किसी बड़ी लड़ाई में हिस्सा भी नहीं लिया था. वो कमजोर, अकर्मण्य, लापरवाह और कठिन परिश्रम करने में असमर्थ था.”
30 दिसम्बर के रोज़ शाह शुजा अपनी सेना को लेकर खजवा पहुंचा. खजवा आज के फ़तेहपुर ज़िले में पड़ता है. यहां उसका सामना हुआ, औरंगज़ेब के बेटे सुल्तान मुहम्मद से. सुल्तान मुहम्मद खजवा में क्या कर रहा था? ये जानने के लिए थोड़ा पीछे जाना होगा. जुलाई 1658 में, जब औरंगज़ेब लाहौर में था. उसने शुजा को संधि का ख़त तो भेज दिया था. लेकिन साथ ही बंगाल में अपने गुप्तचर भी छोड़ रखे थे. ताकि हालात की पूरी खबर रख सके. पहले दारा को निपटाया जाए शुजा का बनारस और इलाहाबाद पर कब्जा, इसकी पूरी खबर उसे थी. लेकिन वो शुजा को नाकारा और निकम्मा समझता था. इसलिए उसने सोचा, पहले दारा को निपटाया जाए. फिर शुजा की सुध लेंगे. सितम्बर 1658 तक उसके हाथ दारा नहीं लग पाया. इसी बीच उसे इलाहाबाद पर कब्जे की खबर लगी तो उसने सोचा, अब शुजा को इग्नोर करना ठीक ना होगा. उसने दारा को पकड़ने की ज़िम्मेदारी अपने सरदारों को सौंप कर बंगाल का रुख़ किया.
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युवावस्था में शाहशुजा औरंगज़ेब और मुरादबक्श (तस्वीर: Wikimedia Commons)


30 सितंबर को औरंगज़ेब मुल्तान से रवाना हुआ. वक्त कम था इसलिए उसने अपने साथ सिर्फ़ कुछ घुड़सवार रखे. एक दिन में दो दौर का सफ़र किया. 20 नवंबर को वो दिल्ली पहुंच गया. और 23 तारीख़ को उसने सुल्तान मुहम्मद के साथ एक सेना को बंगाल की ओर रवाना किया. ताकि शुजा को रास्ते में रोका जाए.
शुजा के हाथ से मौक़ा छिटक गया था. औरंगज़ेब को लगा किसी भी समझदार आदमी की तरह शुजा अब पीछे हट जाएगा. बंगाल जाने के बजाय उसने सोरों का रुख़ किया. आज का कासगंज ज़िला. और वहां शिकार में लगा रहा. दूसरी तरफ़ शुजा ने अपना कैम्पेन जारी रखा. उसकी स्थिति अब मज़बूत नहीं रह गई थी. लेकिन फिर भी उसने चढ़ाई जारी रखी. काहे कि सामने कोई और होता तो शायद शुजा पीछे हट जाता. लेकिन अपने ही छोटे भाई के सामने वो पीछे हट जाए, ये उसे हरगिज़ मंज़ूर न था.
21 दिसम्बर के रोज़ औरंगज़ेब सोरों से निकला. साथ ही सुल्तान मुहम्मद को खबर भिजवाई कि अभी कुछ ना करे. उसके पहुंचने का इंतज़ार करे. 2 जनवरी 1669 को खजवा में औरंगज़ेब और सुल्तान मुहम्मद की फ़ौजें इकट्ठा हुई. शुजा से 8 मील दूर. इसी बीच मीर जुमला भी दक्कन से पहुंचा. और अपनी फ़ौज सहित औरंगज़ेब की सेना में शामिल हो गया. औरंगज़ेब के कैम्प में भगदड़ 3 जनवरी के रोज़ दोनों सेनाओं ने अपनी अपनी पोजिशन ली. 4 जनवरी तड़के ढोल नगाड़ों के साथ आदेश जारी हुआ कि युद्ध होगा. जंग में क्या हुआ? ये जानने से पहले सेना का फ़ॉर्मेशन देख लेते हैं. औरंगज़ेब के लिखित इतिहास, आलमगीरनामा के हिसाब से औरंगजेब की सेना को अलग-अलग डिविज़न में बांटा गया था. हर डिविज़न के आगे हाथी और बंदूक़ें तैनात थी. और पीछे 70 हज़ार बख़्तरबंद घुड़सवार. थे.
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औरंगज़ेब आलमगीर (तस्वीर: getty)


चार जनवरी सुबह आठ बजे औरंगज़ेब अपने शाही हाथी में सवार होकर सेना का मुआयना करने पहुंचा. शाही सेना ने मूवमेंट शुरू किया और 3 बजे तक वो शुजा की सेना से सिर्फ़ एक मील की दूरी पर थे. 4 जनवरी की शाम तक कुछ ख़ास लड़ाई नहीं हुई. मीर जुमला ने इस दौरान दुश्मन सेना के नज़दीक एक ऊंची जगह पर पोजिशन ले ली. और 40 बंदूक़ें दुश्मन की ओर माउंट कर दी. अगली सुबह भारी जंग होने वाली थी. औरंगज़ेब ने सेना को निर्देश दिया कि वो अपना बख्तर न उतारें. घोड़ों से जीन भी नहीं उतारी गई.
सैनिक अपनी पोस्ट पर ही सो गए. औरंगज़ेब में भी जंग के मैदान में एक टेंट लगाया और वहीं सो गया. उसके जनरल बाहर पहरा देते रहे. रात को अचानक सेना में भगदड़ मची. लगा कि शुजा ने हमला कर दिया है. सैनिक उठे और उन्होंने अपना सामान घोड़ों पर लाद दिया. तभी सामने से कुछ घुड़सवार आए और इन घोड़ों को अपने साथ लेकर भागते बने. किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या हुआ था. आख़िर किसने अचानक हमला कर दिया, जिसकी खबर भी ना लगी! ये हमला नहीं बदला था किसका? मारवाड़ के राजा जसवंत सिंह का. धर्मतपुर में हुई जंग में राजा जसवंत सिंह को औरंगज़ेब के हाथों शिकस्त का सामना करना पड़ा था. और वो शाह शुजा से जंग करने के लिए अपने 14 हज़ार सैनिकों सहित पहुंचे थे. लेकिन ऐन मौक़े पे उन्होंने आलमगीर का साथ छोड़ दिया. यदुनाथ सरकार अपनी किताब ‘हिस्ट्री ऑफ़ औरंगज़ेब’ में इस घटना का ब्योरा देते हैं. राजा जसवंत सिंह से शाह शुजा को रात में एक संदेश भिजवाया. मज़मून कुछ यूं था कि मैं पीछे से शाही सेना पर हमला करुंगा. मजबूरी में औरंगज़ेब को सेना सहित पीछे का रुख़ करना पड़ेगा. मौक़ा पाकर तुम आगे से हमला कर देना.
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मारवाड़ के राजा जसवंत सिंह और औरंगज़ेब (तस्वीर: Wikimedia Commons)


शुजा को संदेश पहुंचा. ये खबर भी लगी कि शाही सेना में भगदड़ मच गई है. लेकिन शुजा के सैनिक अपने स्थान पर जमे रहे. यहां शुजा के हाथ से बहुत बड़ा मौक़ा चूक गया. उसकी सेना सिर्फ़ 24 हज़ार की थी. और शाही सेना 90 हज़ार. अगर इस मौक़ा का फ़ायदा उठाते हुए, शुजा हमला कर देता, तो मुमकिन था कि उसे फ़ायदा मिलता. लेकिन शुजा मौके का फ़ायदा तो तब उठाता, जब उसे ये मौक़ा लगता. उसे इसमें साज़िश की बू आई. उसे लगा जसवंत सिंह और औरंगजेब मिलकर कोई नाटक खेल रहे हैं. ताकि शुजा हमला करे और उसे वहीं धर लिया जाए.
दूसरी तरह औरंगज़ेब अपने टेंट में सजदे में था, जब सैनिकों ने उसे ये खबर दी. उसने बिना कुछ कहे हाथ से इशारा किया. मानो कह रहा हो, जसवंत सिंह जाता है तो चला जाए. राजा जसवंत सिंह अपने साथ 14 हज़ार राजपूत सैनिकों को लेकर मैदान से पीछे हट गए. साथ ही और कई सिपाही मैदान छोड़ गए या शुजा के साथ शामिल हो गए. औरंगज़ेब की ताक़त आधी हो चुकी थी. लेकिन अब भी उसके पास राजा जय सिंह की सेना और मीर जुमला थे. सेना भी शुजा से लगभग ढाई गुनी यानी 60 हज़ार के आसपास थी. सुबह उठकर वो अपने हाथी पर बैठा और ऐलान किया,
“ये ख़ुदा का दिया मौक़ा है. अच्छा हुआ काफिर जंग से पहले ही हमें छोड़कर चले गए. अगर बीच जंग में दगा दी होती तो और भी नुक़सान होता. ये ख़ुदा के फ़ज़ल से हुआ है. हमारी जीत पक्की है."
औरंगज़ेब पर हाथी का हमला आज ही के दिन यानी 5 जनवरी 1659 को सुबह आठ बजे जंग की शुरुआत हुई. उसने 10 हज़ार सैनिकों की डिविज़न बनाते हुए सेना को आगे बढ़ाया. आगे हाथी और पीछे घुड़सवार. खुद औरंगज़ेब 20 हज़ार सैनिकों को लीड कर रहा था.
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अपनी युवावस्था में औरंगज़ेब में एक हाथी का सामना करना पड़ा था. (तस्वीर: wikimedia commons)


शुजा का प्लान दूसरा था. डिविज़न को डिविज़न के सामने रखना सम्भव ना था. ऐसे तो शुजा की एक डिविज़न शाही सेना की डिविज़न से सिर्फ़ एक तिहाई रह जाती. और शाही डिविज़न अपने आकार के चलते शुजा की डिविज़न को हड़प जाती. उसने अलग फ़ॉर्मेशन चुना. सबसे आगे आर्टिलरी और पीछे एक सीध में पूरी सेना. सेम ऐसा ही फ़ॉर्मेशन दाएं और बाएं तरफ़. रिज़र्व में 2000 सैनिक रखे गए. जो मौक़ा देखकर बायीं या दायीं ओर से जुड़ते.
आठ बजते ही दोनों ओर से तोपें दागी गई. जिसे बाद बंदूक़ें चलना शुरू हो गई. शुजा के बाएं फ़्लैंक और दाएं फ़्लैंक ने हमला शुरू किया. दोनों के आगे तीन हाथी थे. जिनके सीने पर ज़ंजीर बंधी थी. शुजा का ये मूव काम आया. औरंगज़ेब का बायां फ़्लैंक टूट गया. जसवंत सिंह आगरा पहुंचे तो वहां भी ये अफ़वाह फैल गई कि औरंगज़ेब हार गया है. सेना में भगदड़ मच गई.
शुजा की सेना ने बाएं फ़्लैंक को गिरा दिया था. इसके बाद उन्होंने सेंटर की ओर मूव किया. औरंगज़ेब के जनरल उसकी मदद को आए. उन्होंने इस फ़ॉर्वर्ड अटैक को रोक दिया. लेकिन तब तक शुजा का एक हाथी मदमस्त हो चुका था. घावों के चलते वो और ख़तरनाक हो गया था. और सेंटर फ़ॉर्मेशन को तोड़ते हुए सीधे औरंगज़ेब के पास पहुंच गया. लड़ाई का सबसे क्रूशियल मोमेंट. अगर यहां पर औरंगज़ेब पीछे हटता तो उसकी सेना का मनोबल टूट जाता. लेकिन औरंगज़ेब हाथी सहित अपनी जगह पर डटा रहा. उसने अपने हाथी के पैरों को लोहे की ज़ंजीरों से बंधवा दिया. ताकि वो भाग ना सके. इसके बाद औरंगज़ेब के सरदारों ने शुजा के हाथी के पैरों में निशाना लगाया. और उसके महावत को भी मार गिराया. औरंगज़ेब की सूझबूझ इस बीच शुजा की फ़ौज ने दाएं फ़्लैंक पर हमला कर दिया. औरंगज़ेब को लगा वहां उसकी ज़रूरत है. लेकिन वो मुड़ा नहीं. यहां उसकी सूझबूझ उसके काम आई. अब तक वो बाएं फ़्लैंक की ओर लड़ रहा था. और ऐसे में अगर वो घूमकर दाएं फ़्लैंक की ओर मुड़ता. तो सेना की नज़र में ऐसा लगता मानो वो जंग से पीछे हट रहा है. उसने सेंटर में बने रहने का निर्णय लिया.
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इतिहासकार यदुनाथ सरकार (तस्वीर: Commons)


उसने बाएं और दाएं ओर के लीडरों को संदेश भिजवाया कि मज़बूती से जमे रहें. और इसी से जंग का पूरा फ़ैसला हो गया. शुजा को जो शुरुआती मोमेंटम मिला था, वो धीरे-धीरे कम होता गया. औरंगज़ेब की तोपों ने उसकी आधी सेना का सफ़ाया कर दिया. इसके बाद शाही सेना ने तेज़ी से मूव करते हुए शुजा के सेंटर फ़ॉर्मेशन, यानी वैनगार्ड को घेर लिया. 10-10 किलो के गोले सैनिकों का सर उड़ाने लगे, तो शुजा ने भी वही गलती कर दी को समुगढ़ की लड़ाई में दारा शिकोह ने की थी.
वो हाथी से उतरकर घोड़े पर सवार हो गया. शुजा की फ़ौज ने खाली हौदा देखा तो उनका मनोबल टूट गया. उन्हें लगा शुजा मारा गया. शुजा ने सेना ही हौंसला अफजाई करनी चाही. हौंसला बढ़ता जब कोई मौजूद होता. कप्तानों ने देखा, पीछे मैदान खाली है. सैनिक भाग चुके थे. जिसको मौक़ा मिला मैदान छोड़कर भाग निकला. खजवा की जंग में शाह शुजा को शिकस्त मिली.
शुजा की 114 तोपें और बंगाली हाथियों पर शाही सेना ने कब्जा कर लिया. हार खाया शाह शुजा बंगाल लौट गया. लेकिन यहां भी मीर जुमला ने उसका पीछा नहीं छोड़ा. वैसे भी कोई जुमला अगर पीछे पड़ जाए तो आसानी से पीछा नहीं छोड़ता. अप्रैल 1660 में शाह शुजा और मीर जुमला के बीच एक आख़िरी जंग हुई. और उसमें भी शाह शुजा को शिकस्त का चेहरा देखना पड़ा. जिसके बाद उसे अराकान (आज के हिसाब से बर्मा) में शरण लेनी पड़ी. जहां 1661 में उसकी मृत्यु हो गई. शुजा पर मिली जीत से औरंगज़ेब का रास्ता साफ़ हो गया. अपने तीनों भाइयों को वो रास्ते से हटा चुका था. और अब सिर्फ़ वही गद्दी का इकलौता हक़दार था.

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