जब दाढ़ी बाल बढ़ाकर हिजबुल मुजाहिदीन के कैम्प में घुसे मेजर मोहित शर्मा!
13 जनवरी 1978 को पैदा हुए मेजर मोहित शर्मा साल 2009 में आतंकियों से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे.
मार्च 2004 की बात है. जम्मू कश्मीर में शोपियां जिले में आतंकियों के एक सीक्रेट ठिकाने पर शाम का वक्त हो रहा है. खाट पर लेटा हुआ अबू तोरारा बगल में लेते अपने साथी से कहता है, “लगता है कुछ गड़बड़ है”. उसका साथी अबू सबजार अपनी जेब से एक सिगरेट निकलकर उसे सुलगाते हुए तोरारा की तरफ गर्दन घुमाता है. तोरारा अब तक खड़ा हो चुका था. दीवार से टेक लगाए तोरारा के पैरों में एक AK 47 रखी हुई है. उसकी नजर किचन की तरफ है. जहां दरवाजे को पार कर गर्म गर्म कहवे की खुशबू उन दोनों तक पहुंच रही है.अपनी सिगरेट बुझाते हुए अबू सबजार तोरारा से कहता है, क्या तुझे उससे कुछ और बात भी करनी है.
जिसकी बात करने की बात हो रही थी, वो शख्स अब तक ट्रे में कहवे के दो कप लेकर उनके सामने आ चुका था. 6 फुट, 2 इंच लम्बा वो शख्स कंधे तक जुल्फें लिए हुए था. चेहरा घनी दाढ़ी से ढका हुआ और चेहरे पर एक शांत गंभीरता. इस शख्स का नाम था इफ्तिखार भट्ट. भट्ट के कंधे से एक राइफल लटक रही थी. अपने दोनों साथियों को कहवा पिलाने के बाद उसने थोड़ा सा कहवा एक गिलास में डाला, और उठाकर पीने लगा.
तीनों के बीच उस एक घंटे में कोई बात नहीं हुई. बात करने को ज्यादा कुछ था भी नहीं. प्लान तय हो चुका था. भारतीय फौज जब शोपियां के पास गश्त पर होगी. तो उन पर आतंकियों की एक टुकड़ी हमला करेगी. मकसद सिर्फ ज्यादा से ज्यादा फौजियों को मारना था. इस प्लान का मास्टरमाइंड खुद इफ्तिखार था. उसने बाकायदा सेना के गश्त रुट का पूरा नक्शा बना लिया था. बस अब ऑपरेशन को अंजाम देने की बारी थी.
इफ्तिखार भट्ट की कहानीउस रोज़ जब शाम को तीनों लोग मिले, तोरारा के मन में कुछ सवाल थे. इफ्तिखार से उनकी मुलाक़ात सिर्फ दो हफ्ते पहले हुई थी. नाम के अलावा उन्हें इफ्तिखार के बारे में ज्यादा कुछ पता भी न था. हालांकि उसका प्लान सॉलिड था, इसलिए वो उसे अपने साथ ले आए थे. प्लान को अमली जामा पहनाने से पहले उस शाम तोरारा ने उससे एक आख़िरी बार पूछा, “तू है कौन?”
इफ्तिखार भट्ट (Iftikhar Movie)की कहानी शुरू होती है 2001 से. शोपियां के पास एक गांव में रहने वाला आम लड़का. फिर एक रोज़ भारतीय फौज की कार्रवाई में उसके भाई की मौत हो गई. यहीं से इफ्तिखार ने ठान लिया कि वो अपने भाई की मौत का बदला लेगा. इसके लिए उसे मदद की जरुरत थी. उसे पता था मदद सिर्फ एक जगह से मिल सकती थी. हिजबुल मुजाहिदीन. पाक समर्थित आतंकी संगठन, जो जम्मू कश्मीर में लोगों को आतंकी गतिविधियों के लिए रिक्रूट करता था. हालांकि हिजबुल के कमांडर हर वक्तहोशियार रहते थे. इसलिए उनसे मुलाक़ात करना इतना आसान नहीं था. तीन साल और कई कोशिशों के बाद इफ्तिखार को नो नामों का पता चला, अबु तोरारा और अबु सबज़ार. दोनों हिजबुल के कमांडर थे. और घाटी में उनका नाम हर कोई जानता था.
दक्षिणी कश्मीर में दोनों अब तक हजारों लोगों को रिक्रूट कर चुके थे. इफ्तिखार को अगर बदला लेना था, तो मदद के लिए इन दोनों से बेहतर कोई नहीं हो सकता था. एक रोज़ किसी तरह इफ्तिखार इन दोनों से मिलने में कामयाब हो गया. उसने दोनों को अपनी कहानी सुनाई. और दरख्वास्त की कि भारत की फौज से बदला लेने के लिए उसे उनकी मदद चाहिए. सबज़ार और तोरारा को ऐसे ही लड़कों की जरुरत थी. बदला लेने को आतुर ये गठीला जवान उनके बहुत काम आ सकता था. दोनों उसे अपने साथ अपने ठिकाने तक लेकर गए. शुरुआत में इफ्तिखार चुप चुप रहता था. फिर एक रोज़ अचानक उसने सबजार और तोरारा के आगे एक नक्शा रख दिया.
भरोसा नहीं तो गोली मार दोनक़्शे में फौज के गश्त के रुट का पूरा लेखा-जोखा था. उसकी तैयारी से मालूम पड़ता था कि उसने कई सालों तक सेना पर नजर रख ये नक्शा तैयार किया था. तोरारा और सबजार बहुत इम्प्रेस हुए. और अगले दो हफ्ते तक दोनों ने उसकी ट्रेनिंग करवाई. उसे अलग अलग-सिनारियो देकर पूछा गया कि अगर सिचुएशन ऐसी हुई, तो वो क्या करेगा. हर बार उसका जवाब एक ही होता, “मुझे आपकी मदद चाहिए, मैं कुछ भी सीखने को तैयार हूं”.
तोरारा और सबजार के लिए आधा काम हो चुका था. कुछ रोज़ बाद उन्होंने इफ्तिखार को बताया कि ऑपरेशन की तैयारी के लिए उन्हें कुछ दिनों के लिए गायब होना होगा. इफ्तिखार ने उनसे कहा कि वो अपना मिशन पूरा किए बिना गांव वापस नहीं जाएगा. इसलिए दोनों उसे अपने साथ एक सीक्रेट ठिकान पर ले गए. अगले दो हफ्ते तक ऑपरेशन की बारीकियां तैयार की गई. मिशन से पहली रात तीनों अपने ठिकाने पर चाय पी रहे थे. उसी रात ग्रेनेड्स का एक कन्साइनमेंट आना था. साथ में हिजबुल के तीन और लोग उनसे मिलने वाले थे. जिसके बाद अगली दोपहर हमले को अंजाम दिया जाता. लेकिन ऑपरेशन से ठीक पहले तोरारा का खुराफाती दिमाग कुलबुलाने लगा. उसके मन में रह रहकर एक ही सवाल उठ रहा था. ये इफ्तिखार आखिर है कौन?
उस शाम जब तोरारा ने चाय के दौरान इफ्तिखार से ये सवाल पूछा तो पहले तो वो चुप रहा. फिर अपना ग्लास जमीन पर पटकते हुए उसने दो कदम पीछे लिए और अपने कंधे से राइफल निकाल ली. तोरारा और सबज़ार कुछ हरकत करते, इससे पहले ही इफ्तिखार ने अपनी राइफल जमीन पर पटकते हुए, तेज़ आवाज़ में उनसे कहा, “अगर मुझ पर भरोसा नहीं तो ये लो बन्दूक और गोली मार दो मुझे”
ये सुनकर तोरारा उठ खड़ा हुआ. उसने इफ्तिखार को गौर से देखा. फिर सबजार की तरफ कुछ कहने के लिए मुड़ा. इतनी देर में गोली की आवाज आई. ये गोली सबज़ार की पीठ पर लगी थी. इसके बाद अगली गोली ने तोरारा की तरफ रुख किया. मिनट से भी कम वक्त में दोनों जमीन पर ढेर हो चुके थे. पिस्तौल से धुंआ अभी भी निकल रहा था. इफ्तिखार खाट पर बैठ गया. उसने कहवा से भरा बर्तन उठाया, उसमें से अपने लिए एक कप में कहवा निकाला और आराम से उसे पीने लगा. उसे अब बस सूरज ढलने का इंतज़ार था. सूरज ढला, और जब अगली बार फिर से उगा, इफ्तिखार भट्ट मोहित शर्मा बन चुका था. मेजर मोहित शर्मा, 1 पैरा स्पेशल फोर्सेस.
मेजर मोहित शर्मा की कहानीअब तक आप समझ गए होंगे कि इफ्तिखार भट्ट असल में मेजर मोहित शर्मा (Major Mohit Sharma) थे. उन्होंने आतंकियों को झूठी कहानी बताकर हिजबुल मुजाहिदीन के कैम्प में घुसपैठ की और दो कुख्यात कमांडर्स को मार डाला. ये किस्सा हमें शिव अरूर और राहुल सिंह की किताब ‘इंडिया मोस्ट फीयरलेस 2’ से मिला.
मेजर मोहित शर्मा का जन्म 13 जनवरी 1978 को हरियाणा के रोहतक जिले में हुआ था. DPS गाज़ियाबाद से स्कूलिंग करने के बाद उन्होंने महाराष्ट्र के एक इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला लिया. और यहीं से SSB क्लियर कर NDA में भर्ती हो गए. NDA में ट्रेनिंग के दौरान उनका निक नेम माइक हुआ करता था. दिसंबर 1999 में वो लेफ्टिनेंट के पद पर कमीशन हुए. उनकी पहली पोस्टिंग हैदराबाद में थी. यहां वो 5 मद्रास में शामिल हुए और 3 साल तक इस बटालियन को अपनी सेवाएं दीं. इसके बाद उन्होंने स्पेशल फोर्सेस की ट्रेनिंग ली और जून 2003 में 1 पैरा स्पेशल फोर्सेस में कमांडो के तौर पर नियुक्त हो गए.
मेजर शर्मा के पहले ऑपरेशन की कहानी हम ऊपर बता चुके हैं. इसके बाद साल बाद कुपवाड़ा में उन्होंने एक और सैन्य ऑपरेशन को अंजाम दिया. 21 मार्च 2009 की बात है. मेजर शर्मा को पता चला कि कुछ आतंकी हफरूदा के जंगलों में छुपे हुए हैं. अपनी टीम को लेकर मेजर शर्मा गश्त पर निकले. इसी दौरान उनकी टीम पर आतंकियों ने हमला कर दिया. जिसमें उनके चार साथियों को गंभीर चोट आई. मेजर शर्मा ने अपनी सुरक्षा की परवाह न करते हुए अपने दो साथियों को बचाया और ग्रेनेड से दो आंतकियों को मार गिराया. इस बीच एक गोली उनकी छाती में लगी. इसके बावजूद वो लड़ते रहे और दो और आतंकी मार गिराए. इस लड़ाई के दौरान मेजर शर्मा खुद भी वीरगति को प्राप्त हो गए. अपने अदम्य साहस के लिए उन्हें अशोक चक्र से सम्मानित किया गया.
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