जब भारतीय डॉक्टर ने मिट्टी से निकाली कैंसर की दवा
डॉक्टर सुरेन्द्रनाथ सहगल ने रापामाइसिन की खोज की जो आज लाखों लोगों की जिंदगी बचाने के काम आती है .यह दवा अंग प्रत्यर्पण के वक्त दी जाती है, इसके अलावा ऑटो-इम्यून डिसऑर्डर्स और कैंसर के इलाज में भी इसका उपयोग होता है.
नीचे दी गई पेंटिंग देखिए. पत्थर के बड़े सर वाला एक बुत बाकी पांच बुतों से कुछ कह रहा है. बीचों-बीच आपको केमिस्ट्री का एक स्ट्रक्चर नज़र आ रहा होगा. किसी मॉलिक्यूल जैसा. अंग-प्रत्यर्पण के क्षेत्र में क्रांतिकारी काम करने वाले एक ब्रिटिश डॉक्टर, सर रॉय काल्न ने इस पेंटिंग को बनाया था. काल्न की इस पेंटिंग के पीछे छुपी है एक कहानी. कहानी एक भारतीय वैज्ञानिक की. जिसने खोज की एक ऐसी दवाई की जो लाखों लोगों की जिंदगी बचाने के काम आती है. ये वही दवा है जिसे पेंटिंग के बीचों-बीच मॉलिक्यूल से दिखाया गया है.
इस दवा का नाम है, रापामाइसिन (Rapamycin). ऑर्गन ट्रांसप्लांट (Organ Transplant) करते वक्त आपने सुना होगा कि शरीर एलियन अंगों को आसानी से स्वीकार नहीं करता. रापमाइसिन वो दवा है जो अंग प्रत्यर्पण के वक्त दी जाती है, ताकि हमारा इम्यून सिस्टम ट्रांसप्लांट किए अंगों पर आक्रमण न करे. इसके अलावा इस दवा का उपयोग कैंसर और लूपस जैसी बीमारियों के इलाज में किया जाता है. इस दवाई को ईजाद किया था डॉक्टर सुरेंद्रनाथ सहगल (Dr. Surendra Nath Sehgal) ने . पेंटिंग में बनी मूर्ति उन्हीं की कहानी बताती है. क्या थी डॉक्टर सहगल की कहानी और कैसे खोज हुई रापमाइसिन की?
यहां पढ़ें-1962 युद्ध में चीन से कैसे बचा लद्दाख?
कहानी शुरू होती है प्रशांत महासागर के बीचों-बीच बसे एक द्वीप से. नाम है ईस्टर आइलैंड. UNESCO ने इसे वर्ल्ड हेरिटेज साइट का दर्ज़ा दिया हुआ है. 1780 के आसपास जब पहले यूरोपियन यात्री यहां पहुंचे तो उन्होंने एक अजीब नजारा देखा. द्वीप में उन्हें सैकड़ों की संख्या में पत्थर की मूर्तियां मिलीं. इनमें से सबसे ऊंची करीब 10 मीटर की थी. जिसका वजन लगभग 80 टन के बराबर था. हर मूर्ति की खास बात थी कि उसका सर बाकी शरीर से आकार में बहुत बड़ा था. तभी से ईस्टर आइलैंड पुरातत्व विदों के लिए कौतुहल का विषय बन गया. ये मूर्तियां आई कहां से, इन्हें किसने बनाया. आगे जाकर खोज में पता चला कि इन मूर्तियों को रापानुई लोगों ने बनाया था. साल 1200 से 1500 के बीच. वो लोग ज्वालामुखी से बड़े-बड़े पत्थर निकाल कर ये मूर्तियां बनाते थे. संभवतः अपने पूर्वजों की याद में. इन मूर्तियों को मोआई कहा जाता है. सालों से इन पर शोध होता रहा है.
यहां पढ़ें-ये लड़का था असली मोगली!
डॉक्टर सुरेन्द्रनाथ सहगलसाल 1964 में शोधकर्ताओं का एक मिशन रापा नुई द्वीप पर पहुंचा और उन्होंने यहां रहने वाले लोगों के डीएनए सैंपल इकठ्ठा किए. साथ ही ये लोग द्वीप से मिट्टी के कुछ सैम्पल भी लाए ताकि उन पर शोध हो सके. ये सैंपल कनाडा ले जाकर दुनिया भर की लैबोरेटरीज में भेजे गए. 70 के करीब मिट्टी के ये सैम्पल एयर्स्ट नाम की फार्मास्यूटिकल कंपनी को दिए गए. और 1969 में एक भारतीय डॉक्टर ने इन पर शोध शुरू किया. इनका नाम था डॉक्टर सुरेन्द्रनाथ सहगल. सहगल कनाडा कैसे पहुंचे, इसकी कहानी भी काफी रोचक है. उनका जन्म 1932 में पश्चिमी पंजाब के खुशाब नाम के एक गांव में हुआ था. उनके पिता दवाई बनाने का ही कारोबार किया करते थे. 1947 में बंटवारा हुआ और सहगल परिवार दिल्ली आ गया. यहां उन्होंने नए सिरे से एक दवा बनाने की फैक्ट्री डाली.
छोटी उम्र से ही सुरेन्द्रनाथ अपने पिता के साथ फैक्ट्री जाने लगे थे, जिसके चलते दवाइयों में उनकी रूचि बढ़ती गई. आगे चलकर उन्होंने बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी ने फार्मेसी में बैचलर्स और मास्टर्स की पढ़ाई की. और BITS पिलानी में बतौर लेक्चरर पढ़ाने लगे. सहगल आगे पढ़ना चाहते थे. उन्हें मौका मिला एक स्कॉलरशिप से. ब्रिटेन की ब्रिस्टल यूनिवर्सिटी ने उन्हें पीएचडी करने का न्योता दिया और वो ब्रिटेन चले गए. ब्रिटेन से लौटकर डॉक्टर सहगल ने कुछ वक्त भारत में काम किया. 1957 में वो एक और बार भारत से बाहर गए. इस बार नार्थ अमेरिका. डॉक्टर सहगल की कहानी पर सुखदा टाटके ने फिफ्टी टू डॉट इन नाम की वेबसाइट के लिए एक बहुत ही उम्दा लेख लिखा है. सुखदा डॉक्टर सहगल की पत्नी उमा के मार्फ़त एक कहानी बताती हैं. 1957 में डॉक्टर सहगल को नॉर्थ अमेरिका जाने का मौका मिला. लेकिन तब उनकी जेब में सिर्फ 10 डॉलर थे. लेकिन ये पैसे भी दिल्ली एयरपोर्ट पर कस्टम द्वारा उनसे ले लिए गए.
ये वो दौर था जब भारत में फॉरेन एक्सचेंज के नियम काफी कड़े थे. डॉक्टर सहगल प्लेन में तो बैठ गए लेकिन उन्हें चिंता थी कि उतरने के बाद उनके पास एक भी पैसा नहीं होगा. हवाई यात्रा दो चरणों में होनी थी. पहले दिल्ली से फ्रैंकफर्ट, जर्मनी और वहां से कनाडा. फ्रैंकफर्ट में एक दिन रुकना था. लेकिन डॉक्टर सहगल के पास खाने के रूपये भी नहीं थे. ऐसे में उन्हें एक जर्मन परिवार ने खाना खिलाया. अगली सुबह प्लेन ने मोंट्रियल कनाडा के लिए फ्लाइट भरी. मोंट्रियल में एक भारतीय दोस्त ने उनके ओटावा जाने का बंदोबस्त किया, जहां डॉक्टर सहगल को रिसर्च एसोसिएट की नौकरी मिल गई.
सैंपल : नॉट फॉर ईटिंगसाल 1959 में डॉक्टर सहगल को मोंट्रियल की एक फार्मा कंपनी, एयर्स्ट-मेकेना-हैरिसन में नौकरी मिली और वहां वो दवाइयों के शोध में लग गए. 1964 में इस कम्पनी के पास रापा नुई से लाए गए मिट्टी के सैम्पल आए. सहगल और उनकी टीम ने मिट्टी के इन सैम्पल्स से कुछ जीवाणुओं को अलग किया और उन्हें एक पैट्री डिश में ग्रो कर उन पर एक्सपेरिंमेंट करने शुरू कर दिए. डॉक्टर सहगल ने पाया कि इन जीवाणुओं से निकलने वाला एक कम्पांउड जबरदस्त एंटीफंगल प्रॉपर्टीज रखता है. उन्होंने इस कम्पाउंड को नाम दिया रापामाइसिन. क्योंकि ये रापा नुई द्वीप से आया था. लगभग एक दशक के शोध के बाद 28 अक्टूबर 1975 को डॉक्टर सहगल ने रापामाइसिन पर एक शोधपत्र पब्लिश किया. सहगल ने ये भी पाया कि रापामाइसिन में इम्यूनो सप्रेसेंट गुण भी है. यानी ऐसी दवाई जो हमारे प्रतिरक्षा तंत्र के असर को कम कर सके.
ऐसी दवाई का उन बीमारियों में काफी उपयोग था, जिन्हें ऑटो इम्यून बीमारियां कहा जाता है. जैसे कि अर्थराइटिस और लूपस. इन बीमारियों में हमारा प्रतिरक्षा तंत्र हमारे ही शरीर की कोशिकाओं पर हमला करने लग जाता है. इन सब के अलावा डॉक्टर सहगल ने देखा कि रापामाइसिन का उपयोग कैंसर में भी हो सकता है. इस खोज से उत्साहित होकर डॉक्टर सहगल ने अपनी दवा के कम्पाउंड US नेशनल कैंसर इंस्टीट्यूट, NCI के पास भेजे. जहां इस दवा ने कैंसर सेल की रोकथाम में जबरदस्त असर दिखाया. NCI ने रापामाइसिन पर शोध को प्राथमिकता देना शुरू कर दिया. लेकिन कुछ साल बाद सहगल के काम को एक बड़ा झटका लगा जब उनकी कंपनी ने अपने 95% कर्मचारियों को काम से निकाल दिया. कंपनी अमेरिका शिफ्ट हो गई. सहगल की नौकरी तो बच गयी लेकिन उनकी शोध पर भी रोक लग गई. सबसे बड़ी दिक्कत थी कि कंपनी सहगल के सारे सैम्पल्स को नष्ट करने जा रही थी. सहगल ने एक रास्ता निकाला. कनाडा की लैब बंद होने से पहले उन्होंने रापामाइसिन का एक लास्ट बैच बनाया और अपने साथ घर ले गए. घर में उन्होंने इसे एक ग्लास के जार में भरकर फ्रीज़र में रख दिया. और उस पर नोट चिपका दिया, नॉट फॉर ईटिंग.
अब अगला काम था इन सैम्पल्स को अमेरिका ले जाना. डॉक्टर सहगल ने ड्राई आइस मंगाकर एक आइस क्रीम कंटेनर में डाल दिया. जिस कंटेनर में रापमाइसिन के जीवाणु थे, उसमें उन्होंने साथ में फ्रोज़न मीट और बर्फ डाल दी. इस तरह रापामाइसिन को खाना बताकर बॉर्डर पार कराया गया. अमेरिका में सहगल परिवार न्यू जर्सी में रहता था. यहां डॉक्टर सहगल ने रापामाइसिन वाले आइस क्रीम कंटेनर्स को अपने घर के फ्रीज़र में डाल दिया. अगले पांच साल तक ये कंटेनर फ्रीज़र में ही रहे. इस दौरान यदि कंटेनर की बर्फ पिघल जाती तो सैम्पल नष्ट हो जाते. लेकिन डॉक्टर सहगल की किस्मत अच्छी थी. ऐसा हुआ नहीं. शायद अमेरिका में लाइट न जाती हो. बहरहाल साल 1987 में डॉक्टर सहगल की कंपनी को एक दूसरी कंपनी ने खरीद लिया. नए मैनेजमेंट का मतलब था कि सहगल एक और बार रापामाइसिन पर काम कर सकते थे. हालांकि नई कंपनी ने भी शुरुआत में आनाकानी की. लेकिन फिर 1989 में सहगल को शोध जारी रखने की इजाजत मिल गई. डॉक्टर सहगल ने अपना फ्रीज़र खोला तो उनका कल्चर अभी भी जिन्दा था.
खुद पर कर डाला प्रयोगसहगल ने लैब में दुबारा एक्सपेरिमेंट की शुरुआत की. अगला चरण जानवरों पर परिक्षण का था. इस दौर में ऑर्गन ट्रांसप्लांट की शुरुआत हो चुकी थी. लेकिन डॉक्टरों के सामने एक बड़ी समस्या थी कि अधिकतर केसेज़ में नए अंग, मसलन लिवर, किडनी आदि को एलियन बॉडी मानकर इम्यून सिस्टम उस पर हमला कर देता था. जिस कारण अधिकतर ऑर्गन ट्रांसप्लांट फेल हो जाते थे. और तब इसके लिए कोई दवा भी मौजूद नहीं थी. ऑर्गन ट्रांसप्लांट में इम्यूनोसप्रेसेंट दवाओं की बहुत जरुरत थी. इसलिए डॉक्टर सहगल ने चूहों में अंग प्रत्यर्पण के दौरान रापमाइसिन का उपयोग शुरू किया. ये प्रयोग सफल रहा. 1989 में चूहों पर रापमाइसिन के सफल उपयोग पर पहला रिसर्च पेपर छपा. और 1996 आते आते मनुष्यों पर इसके प्रयोग शुरू हो गए. किडनी और लिवर ट्रांसप्लांट में इस ड्रग ने जबरदस्त सफलता पाई. और 1999 में इसे अमेरिकी सरकार द्वारा प्रोडक्शन की अनुमति भी मिल गई. आगे चलकर ये दवा रापाम्यून या सिरोलिमस के नाम से बिकने लगी.
डॉक्टर सहगल की कोशिशें सफल हुई लेकिन साथ-साथ उनके लिए एक बुरी खबर भी थी. साल 1998 में उन्हें कैंसर हो गया. डॉक्टर सहगल जिस अस्पताल में इलाज करा रहे थे, उनके बगल में ऐसे मरीज़ लेटे थे, जिन्हें डॉक्टर सहगल की बदौलत नई जिंदगी मिली थी. डॉक्टर सहगल कैंसर का इलाज करा रहे थे. और साथ-साथ अपनी बनाई दवाई भी खा रहे थे. उनकी तबीयत सुधर रही थी लेकिन यहीं पर उनसे एक बड़ी गलती हो गई. उनके मन में ये सवाल उपजा कि क्या उनकी दवाई से उनकी तबीयत बेहतर हो रही है या रेडिएशन जैसे बाकी इलाजों के कारण. ये सोचकर उन्होंने कैंसर का ट्रीटमेंट बंद कर दिया और सिर्फ अपनी दवाई खाने लगे. विडम्बना देखिए कि एक डॉक्टर जिसने विज्ञान के बल पर लाखों लोगों की जिंदगी बचाई उसने खुद पर ही एक अवैज्ञानिक प्रयोग कर डाला. नतीजा हुआ कि कैंसर उनके शरीर में फ़ैल गया और साल 2003 में उनकी मौत हो गई.
डॉक्टर सहगल चले गए लेकिन उनकी बनाई दवा आज भी रीनल कैंसर के इलाज में आजमाई जाती है. साथ ही दिल का दौरा पड़ने पर लगाए जाने वाले स्टेंट भी इसी दवा के कारण काम कर पाते हैं. दिल के दौरे से लेकर डाइबिटीज़ के इलाज के क्षेत्र में रापामाइसिन पर अभी भी शोध जारी हैं. शुक्र है कि वो आइस क्रीम का टब इतने साल पिघला नही.
वीडियो देखें-ये भारतीय न होता तो दुनिया के नक़्शे पर तिब्बत न दिखाई देता