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'आर्टिकल 370' पर आया सुप्रीम कोर्ट का फैसला, केंद्र सरकार के फैसले को बताया सही

अब सुप्रीम कोर्ट ने सितंबर 2024 तक चुनाव कराने को कहा है. इससे पहले सरकार कई बार जम्मू-कश्मीर के राज्य के दर्जे को बहाल करने और चुनाव को लेकर बयान दे चुकी है. उम्मीद है कि अदालत के फैसले की जल्द तामील होगी.

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सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र से 2024 तक जम्मू कश्मीर में विधान सभा चुनाव कराने के लिए कहा है.
11 दिसंबर 2023 (Updated: 29 दिसंबर 2023, 18:00 IST)
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चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़

जस्टिस बीआर गवई

जस्टिस सूर्यकांत

जस्टिस संजय किशन कौल

जस्टिस संजीव खन्ना

ये पांच वो जज हैं, जो आर्टिकल 370 में परिवर्तन किये जाने को लेकर सुन रहे थे. जब साल 5 अगस्त 2019 को संसद से आर्टिकल 370 को निष्प्रभावी बनाने का बिल पास हुआ. तो बहुत सारे याचिकाकर्ता सुप्रीम कोर्ट पहुंचे. सुप्रीम कोर्ट ने सभी याचिकाओं को मिला दिया और कहा कि इसे हमारी संवैधानिक बेंच सुनेगी. मामला कोर्ट में लगभग 4 साल तक रहा. कोरोना की वजह से जो देरी हुई, सो हुई. अगस्त और सितंबर 2023 में कोर्ट ने 16 दिन इस केस को सुना. सुनवाई में याचिकाकर्ताओं के वकील थे - कपिल सिब्बल, गोपाल सुब्रमण्यम, राजीव धवन, जफर शाह, दुष्यंत दवे और अन्य वरिष्ठ वकील. याचिका दायर करने वालों का तर्क था कि-

- संविधान जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में किसी भी कानून में बदलाव करते समय राज्य सरकार की सहमति को अनिवार्य बनाता है.

- जब अनुच्छेद 370 को निरस्त किया गया था तब जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन था और राज्य सरकार की कोई सहमति नहीं थी.

- राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह के बिना विधानसभा को भंग नहीं कर सकते थे.

- केंद्र ने जो किया है वह संवैधानिक रूप से स्वीकार्य नहीं है और अंतिम साधन को उचित नहीं ठहराता है.

- केंद्र सरकार ने संसद में अपने बहुमत का उपयोग किया, और एक संपूर्ण राज्य को दो केंद्रशासित प्रदेशों में बांट दिया. ये संविधान के खिलाफ तो है ही, राज्य की संप्रभुता के भी खिलाफ है.

- अनुच्छेद 3 के तहत केंद्र सरकार अपनी शक्तियों का उपयोग किसी राज्य को केंद्रशासित प्रदेश बनाने में नहीं कर सकती है.

- अनुच्छेद 370 परमानेंट हो गया था, जब साल 1970 में संविधान सभा खत्म हो गई थी. और अनुच्छेद 370 तभी वापिस लिया जा सकता है, जब जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा ऐसी अनुशंसा करे.

- अगर भारत सरकार जम्मू-कश्मीर को पूरी तरह देश में शामिल करना चाहती है तो एक विलय का अग्रीमेंट होना चाहिए था. जैसा भारत की अन्य रियासतों के साथ किया गया था.

सुनवाई में केंद्र सरकार ने अपने हिस्से की दलील दी. सरकार की तरफ से जो वकील आए, वो थे अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमाणी, सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता, वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे, राकेश द्विवेदी, वी गिरी और उनके अन्य साथी वकील.

सरकार के क्या तर्क थे? सरकार ने कहा कि -

- संविधान के तहत निर्धारित उचित प्रक्रिया से कोई उल्लंघन नहीं हुआ है. केंद्र के पास राष्ट्रपति का आदेश जारी करने की शक्ति थी.

- अनुच्छेद 370 कोई विशेषाधिकार नहीं था, जिसे वापिस नहीं लिया जा सकता है.

- अनुच्छेद 370 को खत्म करने से राज्य के बाशिंदों को उनके मूल अधिकार मिले.

- जिस तरीके से अनुच्छेद 370 को निरस्त किया गया था, वो बिल्कुल संवैधानिक था.

- जब संविधान सभा को डिज़ाल्व किया गया, तो संविधान सभा के सदस्य भी ये नहीं चाहते कि उनके कहने पर अनुच्छेद 370 को रहने दिया जाए, या हटा दिया जाए. क्योंकि आखिरी निर्णय राष्ट्रपति का होता और राष्ट्रपति अपना निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र हैं.

- जब भी राष्ट्रपति शासन होता है, तो देश की संसद राज्य की विधायिका की भूमिका निभाती है, और देश के सभी राज्यों के लिए ये बराबर है.

- दो अलग-अलग संवैधानिक अंग - राष्ट्रपति, राज्य सरकार की सहमति से - जम्मू-कश्मीर के संबंध में संविधान के किसी भी हिस्से में संशोधन करने की शक्ति रखते हैं.

- जम्मू-कश्मीर को केंद्रशासित प्रदेश अस्थायी रूप से बनाया गया है. उसे जल्द पूर्ण राज्य का दर्जा दे दिया जाएगा. जबकि लदाख केंद्रशासित प्रदेश ही बना रहेगा.

सुनवाई पूरी हुई और कोर्ट ने अपना फैसला सुरक्षित रख लिया. लगभग 3 महीने बाद कोर्ट ने अपना निर्णय सुना दिया. निर्णय को संक्षिप्त रूप से भी पढ़ सकते हैं. विस्तार में भी. संक्षिप्त में पढ़ें तो सभी जजों से एकमत से कहा -

"आर्टिकल 370 अस्थायी प्रावधान था, जो युद्ध जैसी परिस्थितियों को ध्यान में रखकर लाया गया था." और अनुच्छेद 370 को स्थायी व्यवस्था कहने वाली याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया.

अब कोर्ट के फैसले को विस्तार से समझते हैं. जजों के कमेंट्स को खंगालते हैं.

सबसे पहले चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डीवाई चंद्रचूड़. फैसला सुनाने की शुरुआत करते हुए CJI डीवाई चंद्रचूड़ ने साफ कर दिया कि अनुच्छेद 370 को लेकर सुप्रीम कोर्ट के सभी जजों ने अपना-अपना फैसला सुनाया है. 5 जजों की बेंच में तीन अलग-अलग फैसले थे मगर निष्कर्ष एक ही था - वही जो हमने अभी आपको बताया.

जानिए CJI के आब्ज़र्वैशन -

> केंद्र, राष्ट्रपति की भूमिका के अधीन सरकार की शक्ति का प्रयोग कर सकता है.

> संसद या राष्ट्रपति उद्घोषणा के तहत किसी राज्य की विधायी शक्तियों का प्रयोग कर सकते हैं.

> भारत में शामिल होते ही जम्मू कश्मीर की संप्रभुता खत्म हो गई थी. जम्मू-कश्मीर के पास कोई आंतरिक संप्रभुता भी नहीं थी.

> जम्मू-कश्मीर का संविधान भारत के संविधान के अधीन था. राष्ट्रपति के पास अनुच्छेद 370 खत्म करने की शक्ति थी.

> संविधान सभा की अनुशंसा राष्ट्रपति पर बाध्य नहीं है. संविधान सभा को एक स्थाई बॉडी नहीं बनाया जा सकता था.

> अदालत राष्ट्रपति द्वारा किए गए किसी निर्णय पर की गई अपील पर सुनवाई नहीं करती रह सकती है. लेकिन कोई भी निर्णय जूडिशल रिव्यू से परे नहीं है.

> हमें लगता है कि राष्ट्रपति की शक्तियों का गलत इस्तेमाल नहीं हुआ. आर्टिकल 370 को निष्प्रभावी बनाने का नोटिफिकेशन जारी करना एकदम वैध था.

> भारत के संविधान के सारे प्रॉविज़न जम्मू-कश्मीर में लागू किए जा सकते हैं.

> हम चुनाव आयोग को सितंबर 2024 तक जम्मू-कश्मीर में चुनाव सुनिश्चित करने के लिए कदम उठाने का निर्देश देते हैं.

> जम्मू-कश्मीर को दो केंद्रशासित प्रदेशों में पुनर्गठित करने की जरूरत नहीं थी. जल्द से जल्द प्रदेश को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जाए.

अब जानते हैं जस्टिस संजय किशन कौल ने क्या कहा? बता दें कि संजय किशन कौल भी जम्मू-कश्मीर से आते हैं.

- अनुच्छेद 370 एक अस्थायी प्रावधान था.

- संविधान सभा का मकसद था कि राज्य को देश के दूसरे राज्यों के बराबर लाया जाए. और धीरे-धीरे उसे देश का हिस्सा बनाया जाए. Integrate किया जाए.

- जब संविधान सभा भंग हो गई, उसके साथ ही उसकी अनुशंसा करने के अधिकार भी खत्म हो गए.

- राज्य सरकार या राज्य की विधायिका के मत का आकलन नहीं किया जा सकता है क्योंकि उस समय राज्य की विधानसभा नहीं चल रही थी.

- ये बात थोड़ी संवेदनशील भी है. उग्रवाद की वजह से राज्य की जनसंख्या का एक हिस्सा राज्य से बाहर जाने लगा. और ऐसी स्थिति हो गई थी कि आर्मी बुलानी पड़ी. देश को बहुत सारे खतरों का सामना करना पड़ा. राज्य के पुरुषों, महिलाओं और बच्चों ने इसकी भारी कीमत चुकाई.

- जब भी अपने घर जाता था, मैंने देखा कि एक टूटे हुए समाज को और धीरे-धीरे कितनी चोट पहुंचाई जा सकती है.

- आगे बढ़ने के लिए घावों का भरना जरूरी है.

अब जानते हैं कि जस्टिस संजीव खन्ना के आब्ज़र्वैशन के बारे में. उन्होंने 5 अगस्त 2019 को राष्ट्रपति द्वारा दिए गए संवैधानिक आदेश यानी Constitutional Order 272 का उल्लेख किया. हम छोटे में इसे CO272 कहेंगे. इस CO272 में कहा गया था कि भारत का संविधान जम्मू-कश्मीर में भी लागू होगा.

साथ ही इसी ऑर्डर के तहत राष्ट्रपति ने आर्टिकल 367 में परिवर्तन किए थे. अब जानिए कि आर्टिकल 367 क्या है? ये अनुच्छेद संविधान के interpretation को समझाता है. तो अपने ऑर्डर के जरिए राष्ट्रपति ने आर्टिकल 367 में बदलाव करके आर्टिकल 370 की Constituent assembly को legislative assembly से बदल दिया था.  यानी संविधान सभा को विधान सभा से बदल दिया गया.

इसको आसान तरीके से समझिए तो राष्ट्रपति ने अपने आदेश से संविधान के एक अनुच्छेद में बदलाव किए, ताकि एक दूसरे अनुच्छेद में एक शब्द बदल जाए. इसके अगले दिन राष्ट्रपति ने एक और गजट जारी किया. ये था CO273. उन्होंने अनुच्छेद 370 में हुए बदलावों को स्वीकृत किया था. अब वापिस आते हैं जस्टिस संजीव खन्ना पर. क्या कहा उन्होंने?

- CO272 के प्रयोग से अनुच्छेद 367 में बदलाव करना कानून की नजर में गलत है.

- यही काम अनुच्छेद 370 के भाग 3 में भी बदलाव करके किया जा सकता था. इसलिए CO273 वैध है.

चूंकि तीन ही निर्णय आए थे, और बाकी दो जजों ने अपनी बेंच के साथियों के फैसले और आब्ज़र्वैशन से सहमति जताई थी, इसलिए तीन के ही कमेन्ट हम आपको दिखा रहे हैं.

इस फैसले के बाद आई प्रतिक्रियाएं. प्रधानमंत्री मोदी ने सोशल मीडिया एक्स पर लिखा -

"आर्टिकल 370 हटाने को लेकर सुप्रीम कोर्ट का आज का निर्णय ऐतिहासिक है, जो 5 अगस्त, 2019 को संसद में लिए गए फैसले पर संवैधानिक मुहर लगाता है. इसमें जम्मू, कश्मीर और लद्दाख के हमारे भाई-बहनों के लिए उम्मीद, उन्नति और एकता का एक सशक्त संदेश है. माननीय कोर्ट के इस फैसले ने हमारी राष्ट्रीय एकता के मूल भाव को और मजबूत किया है, जो हर भारतवासी के लिए सर्वोपरि है.

मैं जम्मू, कश्मीर और लद्दाख के अपने परिवारजनों को विश्वास दिलाना चाहता हूं कि आपके सपनों को पूरा करने के लिए हम हर तरह से प्रतिबद्ध हैं. हम यह सुनिश्चित करने के लिए संकल्पबद्ध हैं कि विकास का लाभ समाज के हर वर्ग तक पहुंचे. आर्टिकल 370 का दंश झेलने वाला कोई भी व्यक्ति इससे वंचित ना रहे.

आज का निर्णय सिर्फ एक कानूनी दस्तावेज ही नहीं है, बल्कि यह आशा की एक बड़ी किरण भी है. इसमें उज्ज्वल भविष्य का वादा है, साथ ही एक सशक्त और एकजुट भारत के निर्माण का हमारा सामूहिक संकल्प भी है."

जब ये फैसला आना था, उसके पहले जम्मू कश्मीर में क्या चल रहा था? खबरों में बताया गया कि नेताओं को नजरबंद किया गया है. पाबंदियां लगा दी गई हैं. लेकिन थोड़ी देर में एलजी मनोज सिन्हा नमूदार हुए, और कहा कि ऐसा कुछ नहीं है. मनोज सिन्हा के इस दावे पर प्रतिदावा किया उमर अब्दुल्ला ने. एक्स पर अपने गेट की फ़ोटो डाली. गेट पर जंजीर पड़ी हुई थी. कहा कि मनोज सिन्हा जी, क्या आप झूठ बोल रहे हैं? या आपकी पुलिस आपके आदेशों से अलग काम कर रही है?

ये सब थी ताज़ा खबरें. अब जानिए बैकग्राउंड. आर्टिकल-370 के इतिहास को समझते हैं. क्योंकि दलीलों को सुनने के लिए इतिहास को पलटना पड़ता है. तो थोड़ा टाइम ट्रैवल करते हैं. 15 अगस्त 1947 में आजादी मिलने के बाद देश की यात्रा शुरू हुई. लेकिन जम्मू-कश्मीर को लेकर विवाद बना रहा. कश्मीर रियासत के महाराज हरि सिंह ने कश्मीर के भारत में विलय को मंजूरी दे दी, जिस पर 27 अक्टूबर 1947 को तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड माउंटबेटन ने दस्तखत कर दिए. और जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा दे दिया गया. इसके लिए संविधान में अक्टूबर, 1949 में एक अनुच्छेद लाया गया था. आर्टिकल-370. ये संविधान के भाग 21 का पहला अनुच्छेद है. इसके जरिये जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा हासिल था.

आर्टिकल-370 तीन हिस्से थे:

1 - इसके तहत राष्ट्रपति संसद के बने कानूनों और भारतीय संविधान के अनुच्छेदों को जम्मू-कश्मीर राज्य की विधानसभा की इजाजत से राज्य में लागू कर सकते हैं.

2 - राज्य के लिए अगर कोई कानून बनना है तो उसे बनाने से पहले राज्य की संविधान सभा की मंजूरी लेनी होगी.

3 - राष्ट्रपति इस अनुच्छेद को पब्लिक नोटिफिकेशन जारी करके खत्म कर सकता है. लेकिन इसके लिए राष्ट्रपति को राज्य की संविधान सभा की मंजूरी लेनी होगी.

ध्यान रहे कि इन्हीं प्रावधानों पर सुप्रीम कोर्ट में बहस हो रही थी, जो थोड़ी देर पहले हमने आपको बताया.

अब आपको ये भी बता देते हैं कि विशेष दर्जे के तहत जम्मू-कश्मीर को अलग से क्या ताकत मिली हुई थी. इसके तहत

- जम्मू-कश्मीर के बारे में संसद सिर्फ रक्षा, विदेश मामले और संचार के मामले में ही कानून बना सकती थी.

- अगर संसद ने कोई कानून बनाया है और उसे जम्मू-कश्मीर में लागू करना है तो राज्य की विधानसभा को भी इसकी मंजूरी देनी पड़ती थी.

- जम्मू-कश्मीर में भारतीय संविधान का अनुच्छेद-356 लागू नहीं होता था. इस अनुच्छेद के तहत भारत के राष्ट्रपति किसी भी राज्य की चुनी हुई सरकार को बर्खास्त कर सकते हैं.

- जम्मू-कश्मीर में जम्मू-कश्मीर के अलावा किसी दूसरे राज्य का नागरिक ज़मीन नहीं खरीद सकता था.

- जम्मू-कश्मीर की विधानसभा का कार्यकाल 6 साल होता था.

- जम्मू-कश्मीर में पंचायत के पास कोई अधिकार नहीं था.

- जम्मू-कश्मीर का झंडा अलग था.

आर्टिकल-370 के सेक्शन-3 में इसे हटाने का भी प्रावधान किया गया था. इसके तहत अगर जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा आर्टिकल 370 को हटाने की सिफारिश करती है, तो राष्ट्रपति उसे हटा सकता है. 26 जनवरी, 1957 को जब जम्मू-कश्मीर का संविधान लागू हो गया, तो संविधान सभा खत्म हो गई और उसकी जगह ले ली विधानसभा ने. ठीक उसी तरीके से, जैसे भारत की संविधान सभा खत्म हो गई और संसद अस्तित्व में आ गई.

संविधान निर्माताओं का शुरुआती मत था कि ये एक अस्थायी प्रावधान ही होगा और जम्मू-कश्मीर राज्य के संविधान के अपनाए जाने तक ही प्रभावी रहेगा. मगर 1957 में राज्य की संविधान सभा भंग होने के बाद इस पर कोई स्पष्टता नहीं आई कि अनुच्छेद 370 का क्या होगा? क्या ये स्थाई हो जाएगा? आम जनमानस में ऐसा मान लिया गया कि आर्टिकल-370 को बिना संविधान में संशोधन किए निष्क्रिय नहीं किया जा सकता.

लेकिन आर्टिकल-370 को हटाना भारतीय जनता पार्टी के लिए एक बड़ा एजेंडा था. इसके खिलाफ बीजेपी जनसंघ के समय से काफी क्लियर रही. इरादा था कश्मीर को भारत में पूरी तरह जोड़ना. साल 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले घोषणापत्र में भी पार्टी ने कहा था कि वो आर्टिकल-370 को हटाएगी. फिर आया 5 अगस्त 2019. राष्ट्रपति ने एक अधिसूचना जारी कर जम्मू-कश्मीर राज्य में अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी कर दिया. इसके तहत मिलने वाला विशेष राज्य के दर्जे को भी खत्म कर दिया. साथ ही 9 अगस्त, 2019 को जम्मू-कश्मीर री-ऑर्गेनाइज़ेशन एक्ट भी पारित कर दिया गया. जिसके तहत जम्मू-कश्मीर का पूर्ण राज्य का दर्ज खत्म करते हुए जम्मू-कश्मीर और लद्दाख को दो अलग-अलग केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया. भाजपा का दशकों पुराना एजेंडा कामयाब हुआ था.

जब ये फैसला लिया गया तो कश्मीर में टोटल ब्लैकआउट था. इस फैसले के बाद राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (NSA) अजीत डोभाल को कश्मीर भेजा गया. पहला वीडियो आया 7 अगस्त 2019 को. इस वीडियो के सहारे दिखाया गया था कि घाटी में पूरी शांति है. इस वीडियो में डोभाल दक्षिणी कश्मीर के शोपियां में कुछ स्थानीय लोगों के साथ खाना खाते हुए बातें कर रहे थे. हाल-चाल पूछ रहे थे.

दरअसल, इस फैसले से पहले चार और पांच अगस्त 2019 की दरम्यानी रात महबूबा मुफ्ती, उमर अब्दुल्ला सहित कई नेताओं को नजरबंद कर लिया गया था. महीनों तक ये सभी नेता हाउस अरेस्ट में रहे. कई दिनों से घाटी में सुरक्षाबल बढ़ाए जा रहे थे. हालांकि कहा जा रहा था कि अमरनाथ यात्रा के लिए ये व्यवस्था की जा रही है. अलग-अलग रिपोर्ट्स बताती हैं कि 40 से 50 हजार अतिरिक्त जवानों को तैनात किया गया. महीनों तक घाटी में इंटरनेट बंद रहा. जनवरी 2020 यानी करीब 6 महीने बाद 2जी इंटरनेट को बहाल किया गया. 4जी इंटरनेट आने में इसके बाद एक साल और लग गया.

इसी तरह आर्टिकल-35(A) को भी हटाया गया, जिससे राज्य के 'स्थायी निवासी' की पहचान होती थी. इसे साल 1954 में राष्ट्रपति के आदेश से संविधान में जोड़ा गया था. अनुच्छेद 35ए जम्मू-कश्मीर की विधानसभा को यह अधिकार देता था कि वो राज्य में स्थायी निवासियों की परिभाषा तय कर सके. साथ में जम्मू-कश्मीर से बाहर के लोगों को राज्य में कई अधिकारों से वंचित करता था. मसलन-

> इस आर्टिकल के मुताबिक जम्मू कश्मीर के बाहर का कोई व्यक्ति राज्य में ना तो हमेशा के लिए बस सकता था और ना ही संपत्ति खरीद सकता था.

> जम्मू-कश्मीर के मूल निवासी को छोड़कर बाहर के किसी व्यक्ति को राज्य सरकार में नौकरी भी नहीं मिल सकती थी.

> बाहर का कोई व्यक्ति जम्मू-कश्मीर राज्य द्वारा संचालित किसी प्रोफेशनल कॉलेज में एडमिशन भी नहीं ले सकता था और ना ही राज्य सरकार द्वारा दी जाने वाली कोई मदद ले सकता था.

> अगर राज्य की कोई महिला बाहरी राज्य के किसी व्यक्ति से शादी करती थी तो राज्य में मिले उसके सारे अधिकार खत्म हो जाते थे. उसे संपत्ति के अधिकार से भी वंचित कर दिया जाता था. ऐसी महिलाओं के बच्चे भी संपत्ति के अधिकार से वंचित हो जाते थे.

> लेकिन राज्य का कोई पुरुष अगर बाहर की किसी महिला से शादी करता था, तो उसके अधिकार खत्म नहीं होते थे. उस पुरूष के साथ ही उसके होने वाले बच्चों के भी अधिकार कायम रहते थे.

बता दें कि आर्टिकल-370 को हटाने की वैधता पर सुनवाई के दौरान चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा था कि 35A ने देश के अन्य हिस्सों में रहने वाले लोगों के मूल अधिकारों को छीन लिया था.

जब 370 हटाने की घोषणा हुई, तब कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लागू था. राष्ट्रपति शासन से पहले PDP-BJP गठबंधन की सरकार थी. जून 2018 में भाजपा ने गठबंधन से हाथ खींच लिया. बाद में मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती को इस्तीफा देना पड़ा. 19 जून 2018 को राज्यपाल शासन लगाया गया, जो 6 महीने तक चला. फिर राष्ट्रपति शासन लग गया. 30 अक्टूबर 2019 तक. खत्म हुआ अनुच्छेद-370 के निष्प्रभावी होने के साथ. सरकार गिरने के बाद अगस्त 2018 में सत्यपाल मलिक को कश्मीर का राज्यपाल बनाया गया था.

370 हटने के साथ बताया गया कि जम्मू-कश्मीर की जगह अब दो केंद्रशासित प्रदेश होंगे. जम्मू-कश्मीर और लद्दाख. तब से दोनों प्रदेश का शासन लेफ्टिनेंट गवर्नर के हाथ में है. ये बताया गया कि जम्मू-कश्मीर में दिल्ली की तरह विधायिका होगी. जबकि लद्दाख में ऐसा कुछ नहीं होगा. हालांकि आजतक जम्मू-कश्मीर में विधानसभा का चुनाव नहीं हुआ. या ऐसे कहें कि साल 2014 के बाद राज्य में विधानसभा चुनाव नहीं हुआ.

370 खत्म होने के एक साल बाद घाटी के राजनीतिक दल साथ आए. एक अलायंस बना था- पीपल्स अलायंस फॉर गुपकार डेक्लेरेशन (PAGD). शुरुआत में 'गुपकार घोषणापत्र' पर 7 दलों ने हस्ताक्षर किए थे. नेशनल कॉन्फ़्रेंस, पीडीपी, पीपल्स कॉन्फ़्रेंस, सीपीएम, कांग्रेस, जम्मू कश्मीर पीपल्स मूवमेंट और अवामी नेशनल कॉन्फ़्रेंस. सभी दलों ने अनुच्छेद-370 और 35ए को फिर से बहाल करने की मांग की. राज्य का दर्जा वापस देने की भी मांग की गई. बाद में तीन दल इससे अलग हो गए. नवंबर 2020 में कांग्रेस इस गुट से अलग हो गई. जनवरी 2021 में पीपल्स कॉन्फ़्रेंस अलग हुई और फिर जुलाई 2022 में पीपल्स मूवमेंट भी चली गई.

इधर, सरकार ने डिस्ट्रिक्ट डेवलपमेंट काउंसिल (DDC) का गठन किया. जम्मू-कश्मीर जब पूर्ण राज्य था, तो पंचायती राज अधिनियम के तहत सभी जिले में एक जिला योजना और विकास बोर्ड हुआ करता था. इस बोर्ड की अध्यक्षता की जिम्मेदारी राज्य के मंत्रियों को दी जाती थी. पंचायती राज अधिनियम में संशोधन कर डीडीसी बनाया गया. दिसंबर 2020 में डीडीसी के चुनाव हुए. कुल 278 सीटों में से गुपकार अलायंस को 110 सीटों पर जीत मिली. बीजेपी 75 सीट जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी. जम्मू में 72 और कश्मीर में तीन सीटें जीती. 50 सीटों पर निर्दलीय उम्मीदवारों को जीत मिली.

370 हटने के बाद राजनीतिक दलों के साथ बातचीत की पहली बड़ी कवायद जून 2021 में हुई. प्रधानमंत्री मोदी ने दिल्ली में सर्वदलीय बैठक बुलाई. जम्मू-कश्मीर के चार पूर्व मुख्यमंत्रियों डॉ फारूक अब्दुल्लाह, उमर अब्दुल्लाह, महबूबा मुफ्ती और गुलाम नबी आजाद सहित कश्मीर के 14 नेता शामिल हुए. इस बैठक के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट कर लिखा था, "हमारी प्राथमिकता जम्मू-कश्मीर में जमीनी स्तर पर लोकतंत्र को मजबूत बनाने पर है. परिसीमन तेज गति से होनी चाहिए ताकि चुनाव हो सकें और जम्मू-कश्मीर को एक चुनी हुई सरकार मिले जो राज्य के विकास कार्यों को और मजबूती दे."

फिर जम्मू-कश्मीर के परिसीमन पर काम शुरू हुआ. पिछले साल मई में चुनाव आयोग ने परिसीमन आयोग की रिपोर्ट के बाद विधानसभा और लोकसभा सीटों को लेकर नोटिफ़िकेशन जारी किया था. राज्य की मौजूदा विधानसभा सीटों की संरचना में भी बड़ा बदलाव किया गया.

- जम्मू में सीटें 37 से बढ़ाकर 43 की जाएंगी.

- कश्मीर में सीटें 46 से 47 की जाएंगी.

- कुल 90 विधानसभा सीटें होंगी.

- 7 सीटें अनुसूचित जाति और 9 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित होंगी.

पांच लोकसभा सीटें होंगी -

- बारामूला

- श्रीनगर

- अनंतनाग-राजौरी

- उधमपुर

- जम्मू

अब सुप्रीम कोर्ट ने सितंबर 2024 तक चुनाव कराने को कहा है. इससे पहले सरकार कई बार जम्मू-कश्मीर के राज्य के दर्जे को बहाल करने और चुनाव को लेकर बयान दे चुकी है. इस साल फरवरी में ANI को दिए एक इंटरव्यू में शाह ने कहा कि चुनाव के बाद जम्मू-कश्मीर में राज्य का दर्जा बहाल किया जाएगा. उम्मीद है कि अदालत के फैसले की जल्द तामील होगी.

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