1993 में राजकुमार संतोषी ने एक फिल्म बनाई थी - दामिनी. फिल्म आपको याद हो न हो,सनी देओल का एक डायलॉग ज़रूर याद होगा - ''तारीख पे तारीख''. सनी देओल का पात्रवकील है, फिर भी इस बात से परेशान है कि अदालत में इतनी तारीखें क्यों लगती रहतीहैं. वैसे अगर सनी देओल का पात्र सुप्रीम कोर्ट का कैलेंडर और जज साहिबान केकार्यकाल पर नज़र रखता, तो वो तारीखों से परेशान नहीं होता. उसे मालूम होता किकौनसी तारीख को कौनसा मामला हमारे मुल्क की तारीख का हिस्सा बनने वाला है.अब आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग माने EWS के लिए आरक्षण वाले मामले को ही ले लीजिए.सब जानते थे कि 8 नवंबर को गुरु नानक जयंती की छुट्टी है. और 9 नवंबर को जस्टिसडीवाई चंद्रचूड़ भारत के 50 वें मुख्य न्यायाधीश के रूप में शपथ लेंगे. इसका मतलबमौजूदा CJI यूयू ललित के कार्यकाल का आखिरी कार्यदिवस होना था आज माने 7 नवंबर. औरदी लल्लनलटॉप के नियमित दर्शक तो जानते ही हैं कि CJI साहिबान अमूमन अपने आखिरीकार्यदिवस पर बड़े फैसले सुनाना पसंद करते हैं, जो कि उनकी विरासत का हिस्सा बनें.ठीक यही काम आज भी हुआ. लेकिन एक ट्विस्ट के साथ. सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों वालीसंवैधानिक पीठ ने 3:2 के मत से EWS आरक्षण को संवैधानिक मान लिया. ये भारत मेंवंचित तबकों के उत्थान के लिए बनाई गई सकारात्मक कार्रवाई की नीति के लिहाज़ सेऐतिहासिक निर्णय था. लेकिन CJI यूयू ललित की राय इससे उलट थी.आज के फैसले की बॉटमलाइन यही है, कि सरकारी शिक्षण संस्थानों और सरकारी नौकरियोंमें आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग को 10 फीसदी आरक्षण मिलता रहेगा. पात्र होंगे वोसवर्ण, जिनके परिवार की सालाना आय 8 लाख से कम है. इतनी बात सब जान गए हैं. लेकिनइस निर्णय की यात्रा को भारत में आरक्षण की यात्रा के संदर्भ में देखे बिना बातअधूरी रह जाती है.जिस देश में सरकारी नौकरियां रोज़ घट रही हों, और निजी क्षेत्र में घुड़दौड़ लगातारबेरहम हो रही हो, वहां आरक्षण का एक टची टॉपिक होना लाज़मी है. जिन्हें इसका लाभमिलता है, वो इसे अपना हक मानते हैं. और जिन्हें ये नहीं मिलता, उनमें से ज़्यादातरइसे संस्थागत अन्याय का एक तरीका मानकर कुढ़ते हैं. SC-ST आरक्षण को तो किसी तरहस्वीकार कर लिया गया था. क्योंकि आंबेडकर आज़ादी से भी पहले से इसके लिए लड़ रहेथे. लेकिन जब 7 अगस्त 1990 को वीपी सिंह सरकार ने मंडल आयोग की सिफारिशों को मानतेहुए अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27 फीसदी आरक्षण दिया, ''सामाजिक न्याय बनाम योग्यता''वाली बहस तीखी हो गई. मोर्चों, आंदोलनों और प्रदर्शनों के दौरान ये पूछा जाने लगाकि इतिहास में हुई चूक को सुधारने के लिए सरकार किस हद तक जा सकती है. दो साल बादइस सवाल का जवाब सुप्रीम कोर्ट से आया - 50 फीसदी तक. इंदिरा साहनी मामले में फैसलादेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने माना कि अन्य पिछड़ा वर्ग को आरक्षण देने का संवैधानिकआधार है. बस क्रीमीलेयर को इससे बाहर रखा जाए. ताकि आरक्षण का लाभ पात्र लोगों कोही मिले. साथ ही अधिकतम आरक्षण की सीमा तय कर दी गई.इसके बाद से आरक्षण की लड़ाई का चरित्र ज़्यादा नहीं बदला. नए गुट आरक्षित वर्गोंमें शामिल होने की कोशिश करते रहे. पुराने गुट इन्हें रोकने की कोशिश करते रहे. औरएक तीसरा पक्ष अदालतों के रास्ते ये सुनिश्चित करने में लगा रहा कि 50 फीसदी वालीसीमा का जहां तक संभव हो, सम्मान हो. जाट - गुर्जर - मराठा आंदोलन. बड़े बड़ेउदाहरण हैं, जब मांग, विरोध और कोर्ट कचहरी की ये कहानी दोहराई गई. जिन्होंनेआरक्षण को मन से स्वीकार नहीं किया, वो अपनी बात पर अडिग रहे. कहीं कोई पुल गिरता,तो वो इंजीनियर का ''पूरा नाम'' खोजकर बता देते. कि कैसे भारत में योग्यता की पूछनहीं है, इसीलिए नींव कमज़ोर रह गई.लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव से ऐन पहले ये पूरी बहस सिर के बल खड़ी हो गयी. मोदीसरकार ने शीत सत्र के आखिरी दो दिनों में आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग को शिक्षणसंस्थानों और नौकरियों में आरक्षण देने के लिए एक विधेयक पेश कर दिया. आर्थिक रूपसे कमज़ोर माने कौन? वो, जो SC, ST या OBC में नहीं आते - माने सवर्ण. बशर्तेपरिवार की सालाना आय 8 लाख से कम हो. माने यहां OBC क्रीमीलेयर की आय सीमा का हीइस्तेमाल होना था. आय के अलावा ज़मीन को भी आधार बनाया गया.> कृषि भूमि 5 एकड़ से कम हो.> 1 हज़ार स्क्वेयर फीट से कम क्षेत्रफल में घर हो.> नगर पालिका क्षेत्र में 900 स्क्वेयर फीट से छोटा प्लॉट हो.> ग्रामीण क्षेत्र में 1800 स्क्वेयर फीट से छोटा प्लॉट हो.भारत के संविधान का अनुच्छेद 15 कहता है कि सरकार जाति, धर्म, नस्ल आदि के मामलेमें भेदभाव नहीं कर सकती. और अनुच्छेद 16 कहता है कि राज्य द्वारा दी जाने वालीनौकरियों में सभी को समान अवसर दिया जाएगा. इसीलिए EWS आरक्षण देने के लिए मोदीसरकार ने संविधान संशोधन क्र. 103 तैयार किया. तेज़ी से काम हुआ.8 जनवरी 2019 को सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री थावरचंद गहलोत ने बिल लोकसभामें पेश किया. 9 जनवरी को ये वहां से पास हो गया. अगले दिन बिल राज्यसभा में पेशहुआ और 10 घंटे की बहस के बाद पास हो गया. विपक्ष न इसमें कोई संशोधन करा पाया और नही बिल को स्टैंडिंग कमेटी को सौंप पाया. 12 जनवरी को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद नेबिल पर दस्तखत किए. और इसी दिन इसे गजट में छाप दिया गया. और 14 जनवरी से भारत मेंEWS कोटा लागू भी हो गया. सिर्फ ऐसे शिक्षण संस्थानों को EWS कोटा से बाहर रखा गया,जो संविधान के अनुच्छेद 30(1) के तहत ''माइनॉरिटी इंस्टीट्यूशन'' थे.अब तक आरक्षण का लक्ष्य परंपरागत रूप से हाशिये पर रहे लोगों को मुख्यधारा में लानाथा.ये पहली बार था कि भारत में आरक्षण को आर्थिक कल्याण की योजना की तरह पेश किया गया.EWS का 10 फीसदी आरक्षण पहले से चले आ रहे 49.5 फीसदी आरक्षण के बाद दिया गया था.माने कुल आरक्षण पहुंच गया 59.5 फीसदी. माने सुप्रीम कोर्ट द्वारा दी गई 50 फीसदीकी सीमा से साढ़े 9 फीसदी ज़्यादा. जैसा कि अपेक्षित था, सरकार के इस कदम के खिलाफविरोध प्रदर्शन हुए. लेकिन जल्दी ठंडे भी पड़ गए. दूसरा रास्ता था न्यायालय का. सोसुप्रीम कोर्ट में धड़ाधड़ याचिकाएं लगने लगीं. तब जस्टिस रंजन गोगोई देश के मुख्यन्यायाधीश होते थे. अदालत ने कानून पर रोक लगाने से तो इनकार कर दिया, लेकिन इतनाज़रूर कहा कि वो याचिकाओं को सुनेगी. और इस तरह EWS कोटा की न्यायिक समीक्षा कीशुरुआत हुई, जिसके बारे में दी लल्लनटॉप आपको 2019 से ही सूचित करता आया है.करीब 3 दर्जन अलग अलग याचिकाएं थीं, जिन्हें सुप्रीम कोर्ट ने साथ में सुना. मामलेका नाम पड़ा -'जनहित अभियान बनाम भारतीय गणराज्य और अन्य 32 मामले' सारी याचिकाओं के तर्क और 3 साल चली सुनवाई के दौरान पेश की गई दलीलों को यहांदोहराना मुश्किल है. लेकिन जैसा कि आज फैसला सुनाते हुए जस्टिस दिनेश माहेश्वरी नेलिखा, न्यायालय के सामने तीन बड़े प्रश्न थे -1. क्या महज़ आर्थिक आधार पर आरक्षण देने वाला संविधान संशोधन क्र. 103 संविधान कीमूल भावना के खिलाफ जाता है?2. क्या SC, ST और OBC को EWS से बाहर रखते हुए संविधान की मूल भावना का उल्लंघनहुआ?3. क्या 50 फीसदी आरक्षण की सीमा को लांघना संविधान की मूल भावना के खिलाफ जाता है?तीनों बड़े प्रश्न मूल भावना से जुड़े थे. यही कारण था कि 5 अगस्त 2020 को तत्कालीनCJI एस ए बोबड़े, जस्टिस आर सुभाष रेड्डी और जस्टिस बी आर गवई की बेंच ने तकरीन सालभर की सुनवाई के बाद मामला संविधान पीठ को सौंप दिया. दर्शक जानते ही हैं किसंविधान पीठ के लिए न्यूनतम पांच जजों की आवश्यकता पड़ती है. और इसीलिए ऐसे मामलोंकी सुनवाई में कुछ वक्त लग जाता है. मामले को रफ्तार मिली तब, जब 27 अगस्त 2022 कोजस्टिस यूयू ललित CJI बने. उन्होंने साफ किया कि अकारण लंबित मामलों को तुरंत सुनाजाएगा और रोज़ कम से कम एक संविधान पीठ भी सुनवाई करेगी. अपने कहे पर अमल करते हुएCJI ललित ने कई हाई प्रोफाइल मामलों को लिस्ट किया और संविधान पीठ ने लगातार 7दिनों तक सुनवाई करके 27 सितंबर को अपना फैसला सुरक्षित कर लिया.इस संविधान पीठ की अध्यक्षता कर रहे थे CJI यूयू ललित. उनके साथ थे जस्टिस एसरवींद्र भट, जस्टिस दिनेश माहेश्वरी, जस्टिस बेला त्रिवेदी और जस्टिस जेबीपारदीवाला. 6 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर आज के लिए कॉज़ लिस्ट छपी, तभीसाफ हो गया था कि फैसला 3:2 के मत से आएगा. ये भी तय था कि CJI यूयू ललित और जस्टिसएस रवींद्र भट एक राय रखते हैं और जस्टिस दिनेश माहेश्वरी, जस्टिस बेला त्रिवेदी औरजस्टिस जेबी पारदीवाला दूसरी राय. बाद में कॉज़ लिस्ट को अपडेट किया गया और कहा गयाकि दो नहीं, चार फैसले पढ़े जाएंगे. इसके चलते थोड़ी उत्सुकता बढ़ी, लेकिन सुबहसाढ़े 10 बजे साफ हो गया, फैसला 3:2 के मत से ही आया, और EWS कोटे के पक्ष में हीआया.पहले जानिए कि EWS कोटा को संविधान सम्मत बताते हुए जस्टिस दिनेश माहेश्वरी, जस्टिसबेला त्रिवेदी और जस्टिस जेबी पारदीवाला ने क्या कहा.> तीनों जज इस बात पर एकमत थे कि न आर्थिक आधार पर आरक्षण देने में और न ही 50फीसदी की आरक्षण सीमा पार करने से संविधान की मूल भावना का उल्लंघन होता है.> जस्टिस माहेश्वरी ने कहा, आरक्षण का लक्ष्य समावेशी सोच के साथ काम करना है. येसिर्फ सामाजिक या शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर करने का साधन नहीं हो सकता. फिर 50 फीसदीआरक्षण की सीमा लचीली है. माने इसके पार जाकर राज्य कदम उठा सकता है. > जस्टिस बेला त्रिवेदी ने कहा, EWS में SC, ST और OBC को बाहर रखते हुए राज्य नेजो किया, वो रीज़नेबल क्लासिफिकेशन है. माने ऐसा वर्गीकरण, जिसके लिए आधार मौजूदहै. अतः EWS वर्ग को भेदभावपूर्ण नहीं माना जा सकता. और इसीलिए ये संविधान सम्मतहै.> जस्टिस बेला त्रिवेदी और जस्टिस जेबी पारदीवाला ने इस बात पर भी टिप्पणी की, किआरक्षण कब तक लागू रखा जा सकता है. जज साहिबान ने कहा कि अगर जाति रहित और वर्गरहित समाज बनाना है, तो आरक्षण की मौजूदा व्यवस्था को अनिश्चितकाल के लिए नहींचलाया जाना चाहिए. इसकी समीक्षा होती रहनी चाहिए.स्वाभाविक ही है कि 5 में से 3 जजों की राय को ही न्यायालय की राय माना जाएगा.लेकिन दो जजों ने जिन शब्दों में अपनी असहमति व्यक्त की है, उनकी जानकारी भी आपकोदे देते हैं -> भारत के मुख्य न्यायाधीश यूयू ललित और जस्टिस एस रवींद्र भट ने ये नहीं कहा किआर्थिक आधार पर आरक्षण देना संविधान के खिलाफ है. उन्होंने ये कहा कि SC, ST और OBCको सिर्फ इस आधार पर EWS से बाहर रखना सही नहीं है कि उन्हें पहले ही लाभ मिल गयाहै. ऐसा करते हुए संशोधन क्र. 103 ऐसा भेदभाव करता है, जिसकी संविधान में मनाही है.पिछड़े वर्ग को मिले लाभ को फ्री पास की तरह नहीं देखा जा सकता. ये लाफ बराबरी केमकसद से दिया गया है. इसीलिए उन्हें बाहर रखने से समानता के कोड का उल्लंघन होताहै.> दोनों जजों ने इस बात पर भी सहमति जताई कि 50 फीसदी आरक्षण की सीमा का उल्लंघनकरने में ये खतरा है कि समानता के अधिकार को आरक्षण के अधिकार की तरह मान लियाजाएगा. और तब सारी बात चंपकम दोरईराजन मामले वाली स्थिति में पहुंच जाएगी. ये मामला1927 का है. तब मद्रास प्रेसिडेंसी ने एक आदेश निकालकर जाति आधारित आरक्षण शुरूकिया था. आज़ादी के बाद ये मामला सुप्रीम कोर्ट में चला. और 1951 में न्यायालय नेमद्रास प्रेसिडेंसी के आदेश को खारिज कर दिया. इसके नतीजे में भारत का पहला संविधानसंशोधन हुआ था. ताकि आरक्षण दिया जा सके.इस फैसले पर राजनैतिक प्रतिक्रियाएं वैसी ही आईं, जैसी कि अपेक्षित थीं. भारतीयजनता पार्टी ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पुरज़ोर स्वागत किया. ज़्यादातर विपक्षीपार्टियों की तरह कांग्रेस ने भी EWS कोटे को संवैधानिक बताए जाने का स्वागत किया.लेकिन तमिलनाडु में कांग्रेस की साथी DMK इस फैसले से खुश नहीं है. सूबे केमुख्यमंत्री और DMK नेता एम के स्टालिन ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सामाजिक न्यायकी लड़ाई को लगे एक बड़े झटके की तरह बताया.