जब भारत रत्न जेआरडी टाटा को सुधा मूर्ति ने लिखी चिट्ठी
सुधा मूर्ति के जन्मदिन पर पढ़िए कैसे एक पोस्टकार्ड ने बदल दी थी टाटा ग्रुप की पॉलिसी.
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भारत रत्न जहांगीर रतनजी दादाभाई टाटा यानी जेआरडी टाटा 29 जुलाई 1904 को पेरिस में पैदा हुए.
# आइए देखें उनकी कुछ उपलब्धियां: # भारत रत्न जहांगीर रतनजी दादाभाई टाटा यानी जेआरडी टाटा 29 जुलाई, 1904 को पेरिस में पैदा हुए. # महज 19 साल के उम्र में टाटा एंड संस में ट्रेनी के तौर पर करियर शुरू किया. # 34 साल में टाटा एंड संस के चेयरमैन बने. # टाटा एयरलाइंस, टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान, टाटा मेमोरियल सेंटर फॉर कैंसर रिसर्च एंड ट्रीटमेंट और टेल्को की स्थापना की. # टाटा कंप्यूटर सेंटर (अब टीसीएस) और टाटा स्टील जैसी कंपनियां बनाईं. # एयर इंडिया इंटरनेशनल की शुरुआत की. # फ्रांस का सर्वोच्च सम्मान 'लीजन ऑफ द ऑनर' मिला. # भारत सरकार ने 'भारत रत्न' दिया. # जेआरडी टाटा ने कर्मचारियों के लिए 8 घंटे काम, फ्री मेडिकल और एक्सीडेंट क्लेम जैसी पॉलिसी लागू कीं.
29 नवंबर, 1993 को 89 साल की उम्र में जेनेवा में उनका निधन हुआ. उनकी मृत्यु पर भारत की संसद स्थगित कर दी गई थी. ऐसे जेआरडी टाटा के बारे में इन्फोसिस फाउंडेशन की चेयरपर्सन सुधा मूर्ति ने कुछ साल पहले टाटा ग्रुप को एक चिट्ठी लिखी थी. आइए पढ़ते हैं-
सुधा मूर्ति और जेआरडी टाटा.
मेरे ऑफिस में दो फोटो लगे हैं. ऑफिस पहुंचते ही सबसे पहले मैं इन दोनों फोटो को ज़रूर देखती हूं. ये दो बुज़ुर्गों की तस्वीरें हैं. एक शख़्स नीले सूट में हैं और दूसरा फ़ोटो ब्लैक एंड व्हाइट है. मेरे ऑफिस आऩे वाले लोग अक्सर मुझसे इन दोनों के बारे में सवाल करते हैं. पूछते हैं कि मेरा इनसे क्या संबंध है? ब्लैक एंड व्हाइट फ़ोटो वाले सज्जन को तो कई बार लोग सूफ़ी संत या धर्म गुरु समझ लेते हैं. मैं धीरे से मुस्कुराकर उनको जवाब देती हूं, ' नहीं इनका मेरे से कोई रिश्ता नहीं है. लेकिन इन्होंने मेरी ज़िंदगी पर गहरा असर डाला है. मैं इनकी शुक्रगुजार हूं.' कौन हैं ये लोग? ब्लू सूट वाले शख़्स हैं- जेआरडी टाटा और ब्लैक एंड व्हाइट फोटो जमशेदजी टाटा का है. लेकिन ये मेरे ऑफिस में क्यों हैं? आप इसे मेरी ओर से उनको दिया जाने वाला सम्मान कह सकते हैं.
इसके शुरुआत बड़ी पुरानी है. मैं कॉलेज में थी. तब मैं बैंगलोर के आईआईएससी यानी इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस से कंप्यूटर साइंस में मास्टर्स कर रही थी. बाद में इसका नाम टाटा इंस्टीट्यूट हो गया. ज़िंदगी उमंग और उत्साह से भरी हुई थी. मैं अन्याय और बेसहारा जैसे शब्दों का मतलब भी नहीं जानती थी. मेरे ख़्याल से ये अप्रैल 74 की बात है. बैंगलोर में गरमी बढ़ रही थी. आईआईएससी कैंपस में गुलमोहर के लाल फूल खिल रहे थे. पोस्ट ग्रेजुएट डिपार्टमेंट में मैं अकेली लड़की थी. मैं गर्ल्स हॉस्टल में रहती थी. दूसरी लड़कियां साइंस के अलग-अलग डिपार्टमेंट्स में रिसर्च करती थीं. उन दिनों मैं विदेश जाकर कंप्यूटर साइंस में डॉक्टरेट करने की सोच रही थी. मुझे यूएस की कुछ यूनिवर्सिटीज से स्कॉलरशिप भी ऑफर हुई थी. मैं भारत में जॉब नहीं करना चाह रही थी.
एक दिन मैं लेक्चर हाल कॉम्प्लेक्स से हॉस्टल की ओर जा रही थी. तभी मैंने नोटिस बोर्ड पर एक एडवर्टीजमेंट यानी विज्ञापन देखा. ये विज्ञापन टाटा की फेमस कंपनी टेल्को के बारे में था, जिसे अब टाटा मोटर्स कहते हैं. इसकी शुरुआत कुछ ऐसी थी, ' कंपनी को शानदार एकेडमिक बैकग्राउंड वाले, यंग, मेहनती और अच्छे इंजीनियर्स की जरूरत है.' और इसी एड में नीचे लिखा था, ' महिला कैंडीडेट्स अप्लाई न करें.' ये पढ़कर मैं बहुत अपसेट हो गई. लाइफ में पहली बार जेंडर डिस्क्रिमिनेशन यानी लिंग भेद के बारे में पढ़कर मुझे बहुत बुरा लगा. वैसे तो मैं इस जॉब के लिए इंटरेस्टेड नहीं थी, लेकिन इन लाइनों को पढ़कर मैंने इसे चेलेंज के तौर पर लिया. रिजल्ट में अपने कई मेल क्लासमेट्स से मैं अव्वल आई. लेकिन मैं ये अच्छे से जानती थी की असल ज़िंदगी में सफल होने के लिए केवल पढ़ाई में अव्वल आने भर से काम नहीं चलेगा.
जेआरडी टाटा
उस नोटिस को पढ़ने के बाद मैं अपने हॉस्टल पहुंची. मैंने इस नोटिस के बारे में टेल्को के टॉप मैनेजमेंट को चिट्ठी लिखने का फैसला लिया. मैं कंपनी की इस भेदभाव वाली पॉलिसी के बारे में बताना चाह रही थी. मैंने एक पोस्टकार्ड उठाया और उस पर लिखना शुरू कर दिया. मगर एक प्रॉब्लम थी. मुझे ये पता नहीं था कि टेल्को को हेड कौन करता है. मैंने सोचा निश्चित तौर पर कोई टाटा ही इस ग्रुप का हेड होगा. मैंने जेआरडी का नाम सुन रखा था. उनका नाम और फोटो अखबारों में देखा था. इस पर मैंने सीधे उन्हीं को संबोधित करके चिट्ठी लिखनी शुरू कर दी.
मुझे अच्छे से याद है कि मैंने उस पोस्टकार्ड में क्या लिखा था. मैंने लिखा, ' महान टाटा ने हमेशा मील के पत्थर स्थापित किए हैं. टाटा ने हिंदुस्तान में बेसिक इन्फ्रास्ट्रक्चर इंडस्ट्री खड़ी की है. लोहा, स्टील, केमिकल, टेक्सटाइल और लोकोमोटिव के क्षेत्र में टाटा का काम क़ाबिले तारीफ है. हायर एजुकेशन में टाटा साल 1900 से ही हैं. उन्होंने इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस को खड़ा किया है. सौभाग्य से मैं इसमें पढ़ी हूं. मैं सरप्राइज्ड हूं कि टेल्को जैसी कंपनी जेंडर के आधार पर भेदभाव कैसे कर सकती है?'
चिट्ठी पोस्ट करके मैं भूल गईं. कोई 10 दिन बाद मुझे एक टेलीग्राम मिला. मुझे कंपनी के खर्चे पर इंटरव्यू के लिए पुणे बुलाया गया. मैं टेलीग्राम पाकर भौंचक थी. मेरे हॉस्टल की दोस्त मुझे इस अपॉर्च्युनिटी को लपक लेने के लिए बोलीं. वो चाहते थीं कि मैं पुणे जाऊं और उनके लिए वहां से फेमस साड़ियां भी लेती आऊं. जिनको साड़ियां चाहिए थीं, मैंने सभी से 30-30 रुपए ले लिए. आज जब मैं पीछे मुड़कर देखती हूं तो मुझे हंसी आती है कि आखिर मेरे जाने का मकसद क्या था. खैर मैं पुणे पहुंची और आते ही मुझे इस शहर से प्यार हो गया. वो दिन है और आज का दिन. मुझे ये शहर बहुत प्यारा लगता है. पुणे मेरे होम टाउन हुबली जैसा ही है. इस शहर का मेरी ज़िंदगी पर गहरा असर पड़ा. मूर्ति ( इन्फोसिस जैसी मल्टीनेशऩल कंपनी के संस्थापक केआर नारायण मूूर्ति) से भी यहीं मुलाकात हुई.
अगले दिन मैं पुणे के पिंपरी में टेल्को ऑफिस पहुंची. इंटरव्यू पैनल में 6 लोग थे. मैं कमरे में दाखिल हुई तभी मेरे कानों में आवाज आई, 'यही लड़की है, जिसने जेआरडी को चिट्ठी लिखी है.' इतना सुनते ही समझ गई कि मुझे यहां नौकरी नहीं मिलने वाली. इस एहसास ने मेरे दिमाग से डर निकाल दिया. फिर मैंने इंटरव्यू में फुल कान्फीडेंस के साथ जवाब दिए. इंटरव्यू में मैं सफल रही. टेल्को में जॉब मिल गई. सही मायने में तब मुझे पता चला कि जेआरडी टाटा कौन हैं. भारत के उद्योग जगत के बेताज बादशाह थे वो. अब तक मेरी जेआरडी से मुलाकात नहीं हुई थी.
जेआरडी टाटा की पुरानी तस्वीरें.
जेआरडी टाटा से मेरा साबका बांबे (अब मुंबई) ऑफिस में ट्रांसफर होने के बाद पड़ा. एक दिन मैं मिस्टर एसएम यानी सुमंत मुलगांवकर जो उस वक्त टेल्को के चेयरमैन थे, को उनके ऑफिस में कुछ रिपोर्ट्स दिखा रही थी. तभी वहां जेआरडी आ गए. ये पहला मौका था, जब मैंने 'अपरो जेआरडी' को देखा. अपरो का गुजराती में मतलब होता है 'अपना'. बांबे हाउस में ज्यादातर लोग उनको इसी नाम से संबोधित करते थे. पोस्टकार्ड वाली घटना की वजह से उनको सामने पाकर मैं घबरा रही थी. मिस्टर मुलगांवकर ने उनसे मेरा परिचय कुछ इस तरह कराया, ' जेह!, जेआरडी के करीबी उनको इसी नाम से पुकारते थे, ये लड़की इंजीनियरिंग में पोस्ट ग्रेजुएट है. ये टेल्को के शॉप फ्लोर पर काम करने वाली पहली लड़की है.'
उनकी बात पर जेआरडी ने मेरी ओर देखा. मैं भगवान से प्रार्थना कर रही थी कि वे मुझसे पोस्टकार्ड या मेरे इंटरव्यू के बारे में कुछ न पूछने लगें. खैर उन्होंने इस बाबत कुछ नहीं पूछा. उलटे वे देश में हो रहे बदलाव की तारीफ करने लगे. बोले-लड़कियां भी अब इंजीनियरिंग में आ रही हैं, ये अच्छा है. लेकिन अगले ही पल उन्होंने मुझसे नया सवाल कर दिया. पूछा- तुम्हारा नाम क्या है? मैंने डरते हुए जवाब दिया, ' सर जब मैंने टेल्को ज्वाइन की थी, तब सुधा कुलकर्णी था अब मेरा नाम सुधा मूर्ति है.' जवाब सुनकर वे मुस्कुरा दिए. फिर एसएम के साथ डिस्कसन में ब़िज़ी हो गए. मैं कमरे से तेज़ी से बाहर निकल आई. इसके बाद जेआरडी आते-जाते अक्सर मुझे दिखने लगे. वैसे भी वे टाटा ग्रुप के चेयरमैन थे.और मैं एक नई -नई इंजीनियर. इस वजह से कोई सीधा काम उनसे नहीं पड़ता था.
एक दिन मैं अपने पति मिस्टर मूर्ति का इंतज़ार कर रही थी. काम के बाद वे मुझे लेने आते थे. तभी मैंने देखा कि जेआरडी ठीक मेरे बगल में खड़े हैं. मुझे समझ में नहीं आया कि मैं उनके सामने कैसे पेश आऊं. मेरे ज़ेहन में एक बार फिर पोस्टकार्ड वाला किस्सा तैरने लगा. हालांकि अगले ही पल मुझे एहसास हुआ कि अब शायद उनको कुछ याद नहीं है. क्योंकि उनके लिए ये एक मामूली बात थी. मैं ये सोच ही रही थी तभी जेआरडी ने मुझसे पूछ दिया, 'ऑफिस का टाइम हो चुका है, तुम किसका इंतजार कर रही हो?' मैंने कहा, 'सर, मैं अपने पति का इंतजार कर रही हूं, वे मुझे लेने आते हैं.' इस पर जेआरडी बोले, 'कॉरिडोर में कोई नहीं है और अंधेरा भी हो रहा है. जब तक तुम्हारे हसबैंड नहीं आ जाते हैं, मैं तुम्हारे साथ रुकता हूं.'
मैं मिस्टर मूर्ति का इंतजार करने की आदी थी, लेकिन उस दिन जेआरडी के साथ होने की वजह से मैं असहज थी. मैं बहुत नर्वस थी. बीच-बीच में मैं उनको देखती भी जाती थी. उन्होंने एक सिंपल सफेद पैंट-शर्ट पहन रखे थे. वे उम्रदराज़ थे, लेकिन चेहरा चमक रहा था. मैं सोच रही थी, ' देखो! ये इंसान टाटा ग्रुप का चेयरमैन है. देश भर में इसका कितना सम्मान है. और आज ये एक साधारण इंप्लाई के लिए उसके साथ खड़ा है.' तभी मुझे मेरे पति आते दिखे. मैं उनकी ओर चल दी. इस पर जेआरडी ने मुझे आवाज दी और बोले, ' यंग लेडी, अपने पति से कहो कि दुबारा तुमको इंतज़ार न कराएं.'
जेआरडी टाटा
साल 1982 में मैंने टेल्को से इस्तीफ़ा दे दिया. फाइनल सेटलमेंट के बाद मैं बांबे हाउस की सीढ़ियों से नीचे उतर रही थी, तभी मुझे जेआरडी दिखाई दिए. मैं उनको गुड बाय बोलना चाहती थी. मैं सीढ़ियों पर खड़ी थी. मुझे देख वे भी रुक गए. उन्होंने मुझसे पूछा, 'मिसेज कुलकर्णी (वे मुझे इसी नाम से बुलाते थे) क्या कर रही हैं अब?' मैंने जवाब दिया, 'सर, मैं टेल्को छोड़ रही हूं.' इस पर वे थोड़ा चौेके और बोले, 'कहां जाओगी?' मैंने जवाब दिया, 'सर पुणे, मेरे पति इन्फोसिस नाम से एक कंपनी शुरू कर रहे हैं. हम लोग पुणे शिफ्ट कर रहे हैं.' मेरी इस बात पर उन्होंने एक और सवाल किया, 'अच्छा सफल हो जाने के बाद क्या करना चाहोगी?'. मैंने कहा, 'सर मुझे इस बारे में कोई आइडिया नहीं है.'
इस पर उन्होंने मुझे एक सलाह दी. वो सलाह कुछ इस तरह थी- "कभी कोई काम आधे-अधूरे मन से न शुरू करना. शुरुआत हमेशा कॉन्फीडेंस के साथ करना. और जब आप सफल हो जाना तो कुछ समाज को रिटर्न करना. समाज हमें बहुत कुछ देता है. हमें इसका ध्यान रखना चाहिए. और हां, मेरी शुभकामनाएं तुम्हारे साथ हैं." इतना कहकर जेआरडी वहां से चल दिए. मैं वहीं खड़ी रही और सोचती रही-देश का इतना बड़ा अरबपति क्या सोचता है. जीवित रहते जेआरडी से ये हमारी आख़िरी मुलाक़ात थी.
मैं मानती हूं कि जेआरडी एक महान शख़्स थे. उन्होंने मेरी जैसी एक स्टूडेंट के पोस्टकार्ड को गंभीरता से लिया. उनको दिन में हज़ारों चिट्ठियां मिलती होंगी. लेकिन उन्होंने मेरी एक चिट्ठी पर गौर किया. और कंपनी के दरवाजे महिलओं के लिए खोल दिए. उन्होंने न केवल मुझे मौका दिया, बल्कि मेरा माइंडसेट भी चेंज कर दिया. आज इंजीनियरिंग कॉलेजों में करीब 50 फीसदी लड़कियां हैं. इंडस्ट्री में हर जगह महिलाएं हैं. मैंने ये बदलाव करीब से देखा है. इसलिए मैं जेआरडी टाटा को रोल मॉडल के तौर पर देखती हूं. उनकी सादगी, उदारता, दयालुता और कर्मचारियों की देखभाल में उनकी दिलचस्पी की मैं कायल हूं.
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