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अकेले 50 चीनियों पर भारी पड़ा था ये सूरमा!

जिनके सम्मान में चीनी सैनिकों के सर झुक ग़ए थे, कहानी सूबेदार जोगिंदर सिंह की!

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 Subedar Joginder Singh, Param Vir Chakra during the 1962 Sino-Indian War
1962 के भारत-चीन युद्ध में बहादुरी से लड़कर शहीद हुए थे सूबेदार जोगिंदर सिंह (तस्वीर- wikimedia commons/Getty)
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26 जून 2023 (Updated: 25 जून 2023, 20:42 IST)
Updated: 25 जून 2023 20:42 IST
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भारत में 1962 भारत-चीन युद्ध को एक शर्मनाक हार के तौर पर याद किया जाता है. लेकिन उस फ़ौजी का क्या, जिसने युद्ध लड़ा था. जिसने सामने से लहर दर लहर आती दुश्मन की फ़ौज का तब तक सामना किया, जब तक उसकी बंदूक़ में गोली और संगीन में धार बची रही. जिसने जान दे दी, लेकिन अपनी बेकार हो चुकी टांग कटवाने से इनकार कर दिया. सिर्फ़ इसलिए कि बिना टांग के वो आगे फ़ौज को अपनी सेवा नहीं दे पाता (Subedar Joginder Singh). क्या 1962 का युद्ध उस सिपाही के लिए भी सिर्फ़ हार का सबब था? सुनिए कहानी और खुद डिसाइड कीजिए. शायद हार की आपकी परिभाषा में फ़ुल स्टॉप से पहले कहीं कोई अल्प विराम जुड़ जाए. (Sino-Indian War 1962)

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1962 का युद्ध. सीमा पर चीन की चढ़ाई और भारत का जवाब. युद्ध क्यों हुआ, और अंत कैसे हुआ. ये हम सब जानते हैं. इसलिए ज़्यादा भूमिका ना बांधते हुए सीधे बैटल फ़ील्ड पर चलते हैं. अरुणाचल प्रदेश का तवांग ज़िला. यहां से 37 किलोमीटर दूर पड़ता है, बुम ला पास. चीन और भारत के बीच जो पांच Border Personnel Meeting Point हैं, बुम ला(Bum La Pass) भी उनमें से एक है. Border Personnel Meeting Point यानी वो नियत बिंदु जहां सीमा विवाद निपटारे के लिए दोनों देशों के फ़ौज के अफ़सर मुलाक़ात करते हैं. मुलाक़ात तब भी हुई थी. 1962 में. लेकिन तब दोनों सेनाएं युद्ध के मैदान पर थीं. (1962 India-China war)

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Indian soldiers 1962 war
20 अक्टूबर 1962 को चीन की सेना ने एक साथ कई इलाकों पर हमला शुरु कर दिया. इससे नमखा चू सेक्टर समेत पूर्वी सीमा के कई सारे इलाके चीन के कब्जे में जा चुके थे (तस्वीर- wikimedia commons)

बुम ला पास की लड़ाई 23 अक्टूबर को शुरू हुई. इससे पहले 20 अक्टूबर को चीन ने नमका चू नदी के किनारे तैनात भारतीय पोस्ट्स पर हमला किया और उन पर क़ब्ज़ा कर लिया. इसके बाद वो आगे तवांग की ओर बढ़ने लगे. तवांग तक पहुंचने के रास्ते में 'बुम ला दर्रा' पड़ता था. हालांकि 'बुम ला दर्रा' कहना ग़लत है, क्योंकि तिब्बती भाषा में ला का मतलब दर्रा ही होता है. बुम ला तक पहुंचने में चीन को 3 दिन लग गए. 23 अक्टूबर की रात तक बुम ला की दूसरी तरफ़ उनकी अच्छी ख़ासी संख्या तैयार हो गई थी. इसके बाद सुबह साढ़े चार बजे, चीन की फ़ौज ने भारतीय पोस्ट्स पर गोलीबारी शुरू कर दी. 600 चीनी फ़ौजी असम राइफ़ल्स की पोस्ट पर चढ़ाई के लिए आगे बढ़े. भारतीय जवानों ने जमकर लड़ाई लड़ी लेकिन कुछ ही देर में इस पोस्ट पर चीन का क़ब्ज़ा हो गया.

बुम ला पास की लड़ाई 

तवांग अब सामने था. लेकिन इससे पहले पास ही मौजूद ट्वीन पीक्स नाम की पहाड़ी पर क़ब्ज़ा ज़रूरी था. क्योंकि इस पहाड़ी पर तैनात भारतीय सैनिक चीन की आर्मी की पूरी मूव्मेंट पर नज़र रख सकते थे. ट्वीन पीक्स से पहले एक और चोटी थी. जिसका नाम था, 'IB रिज'. चीनी फ़ौज को ट्वीन पीक्स तक पहुंचने से रोकने के लिए इस चोटी पर सिख रेजिमेंट की एक छोटी सी टुकड़ी तैनात थी. जिसमें 20 जवान थे.

दूसरी तरफ़ चीनी फ़ौजियों की संख्या 600 के आसपास थी. बुम ला पर क़ब्ज़े के बाद उन्हें लग रहा था, कि ट्वीन पीक्स पर भी आसानी से क़ब्ज़ा हो जाएगा. लेकिन उनके रास्ते में खड़े थे, सूबेदार जोगिंदर सिंह. जोगिंदर पंजाब में मोगा ज़िले के 'महला कलां' गांव के रहने वाले थे. उस वक्त मोगा फ़रीदकोट की एक तहसील हुआ करती थी. यहीं 1921 में जोगिंदर की पैदाइश हुई और 1936 में वो फ़ौज में भर्ती हो गए. 1942 में उन्होंने बर्मा में जापानी फ़ौज से लोहा लिया. और 1948 भारत पाकिस्तान युद्ध के दौरान सिख रेजिमेंट के साथ श्रीनगर की लड़ाई में हिस्सा लिया.

1962 war with China
चीनी सैनिकों ने भारत की टेलिफोन लाइन को भी काट दिया, इससे भारतीय सैनिकों के लिए अपने मुख्यालय से संपर्क करना मुश्किल हो गया था (तस्वीर- Indiatoday)

बुम ला की लड़ाई के दौरान सूबेदार जोगिंदर सिंह सारी लड़ाई देख रहे थे. उनके कमांडिंग अफ़सर, लेफ़्टिनेंट हरिपाल कौशिक ने जोगिंदर से टुकड़ी सहित पीछे हटने को कहा. लेकिन जोगिंदर पीछे हटने को बिलकुल तैयार ना थे. सुबह 5 बजे IB रिज की लड़ाई शुरू हुई.  चोटी के नीचे एक नाला था. जहां से एक खड़ी चढ़ाई करते हुए चोटी तक पहुंचना होता था. इस चढ़ाई को पार करने के लिए पहली लहर में क़रीब 200 चीनी सैनिक चोटी की तरफ़ बढ़े. चूंकि जोगिंदर की पोजिशन बेहतर थी. इसलिए ऊंचाई का फ़ायदा उठाते हुए उन्होंने चीन की फ़ौज को भारी नुक़सान पहुंचाया. हालांकि इससे पहले कि उन्हें संभलने का वक्त मिलता,  मिनटों के अंदर एक दूसरी लहर चोटी की तरफ़ बढ़ने लगी.

इस दौरान एक गोली जोगिंदर सिंह की जांघ पर लगी. फिर भी वो मोर्चे पर डटे रहे लेकिन एक बड़ी दिक़्क़त ये थी कि उनकी गोलियां ख़त्म होने लगी थीं. जोगिंदर ने और गोला बारूद मंगाने की कोशिश की. लेकिन सारी कम्यूनिकेशन लाइंस पहले ही काटी जा चुकी थी. सैटेलाइट उपकरण भी काम नहीं कर रहे थे. थोड़ा विषयांतर लेते हुए इस लड़ाई से जुड़ा एक दिलचस्प क़िस्सा आपके साथ शेयर करते हैं. जो कम्यूनिकेशन लाइंस की दिक़्क़त से ही जुड़ा है.

दारु की बोतल में एसिड पहुंचाया 

1962 के युद्ध में हिस्सा लेने वाले मेजर जनरल KK तिवारी, इंडियन डिफ़ेंस रिव्यू में लिखे एक आर्टिकल में इस क़िस्से का ज़िक्र करते हैं. वाक़या यूं है कि नमका चू की लड़ाई से कुछ दिन पहले मेजर जनरल तिवारी और उनके साथी एक नदी को पार कर रहे थे. इस दौरान सिग्नल ऑफ़िसर ने पिछली पोस्ट को अपडेट करने के इरादे से वायरलेस निकाला. तभी उसे अहसास हुआ कि बैटरी चार्ज करने वाला जनरेटिंग इंजन आया ही नहीं है. तिवारी लिखते हैं,

‘सामान ढोने वाले पिट्ठुओं ने चार्जर, रास्ते में एक गहरी खाई में गिरा दिया था.’

उनके अनुसार ये जानबूझ कर किया गया था. क्योंकि चीनियों ने कुछ आम लोगों को पक्का घूस खिलाई थी.

बुम-ला पोस्ट की रक्षा के लिए भारत के सिर्फ 23 सैनिक थे. सुबेदार जोगिंदर सिंह ने इस जगह की भौगोलिक स्थिति को अच्छे से समझा और रणनीति बनाकर बंकरों को ऐसे लगाया कि चीन की सेना के लिए आगे बढ़नी मुश्किल हो गया (सांकेतिक तस्वीर- Getty)

बहरहाल क़िस्सा यहीं ख़त्म नहीं होता. कुछ आगे जाकर पता चला कि जो बैटरियां साथ आई हैं, उनमें एसिड ही नहीं है. पिट्ठुओं ने अपना बोझ कम करने के लिए सारा एसिड रास्ते में ही ख़ाली कर दिया था. अब ऐसिड कहां से आए? एक रास्ता था कि हेलिकाप्टर से एयर ड्रॉप करवा दिया जाए. लेकिन जब तिवारी ने एयर फ़ोर्स से इस बात की मदद मांगी, उन्होंने साफ़ इंकार कर दिया. बैटरी के लिए सल्फ्यूरिक ऐसिड की ज़रूरत पड़ती थी. जिसे इस तरह ले जाना काफ़ी ख़तरनाक हो सकता था. मरता क्या न करता, अंत में मेजर जनरल तिवारी ने एक जुगाड़ बिठाया. उन्होंने शराब की बोतलों में ऐसिड भरा और उसमें लिख दिया, 'रम फ़ॉर ट्रूप्स'. एयर फ़ोर्स की जानकारी के बिना इस तरह ऐसिड से भरी बोतलें हेलिकॉप्टर से पहुंचाई गई.

अब वापस मेन क़िस्से पर लौटते हैं. जोगिंदर और उनके साथी चोटी पर डटे हुए थे. गोलियां कम पड़ने लगी तो जोगिंदर ने अपने तीन साथियों को रसद लेने भेज दिया. और खुद एक लाइट मशीन गन पर जुट गए. मशीन गन भी थोड़ी देर में ठंडी हो गई. अब तक उनके दस साथी वीरगति को प्राप्त हो चुके थे. जोगिंदर को मिला कर सात जवान बचे थे. हथियार के नाम पर उनके पास सिर्फ़ संगीनें बचीं थी. 'बोले सो निहाल' के नारे के साथ उन सातों ने, संगीन पकड़कर आती हुई सेना पर धावा बोल दिया. और जितना लड़ सकते थे लड़े. लड़ाई कुछ देर में ख़त्म हो गई. चीनी फ़ौज को काफ़ी नुक़सान हुआ. पूरी लड़ाई के दौरान अकेले जोगिंदर ने 50 चीनी सैनिकों को निशाना बनाया था. लेकिन अंत में वो पकड़े गए. चीनी फ़ौज ने बुम ला पर पूरी तरह क़ब्ज़ा कर लिया. इसके बाद वो आगे तवांग की ओर बड़ ग़ए.

जोगिंदर सिंह का क्या हुआ?

उन्हें पकड़ कर युद्ध बंदी बना लिया गया. और सेंट्रल तिब्बत में चोंग्ये नाम की जगह पर एक युद्ध बंदी कैम्प में जे ज़ाया गया. जोगिंदर जब तक वहां पहुंचे, तब तक उनकी स्थिति काफ़ी ख़राब हो चुकी थी. पांव में गोली लगी थी. और उनके पैर ही उंगलियों में फ़्रॉस्ट बाइट हो गया था. युद्धबंदी कैम्प के डॉक्टरों ने उनसे कहा, जान बचाने के लिए टांग काटनी होगी. लेकिन जोगिंदर नहीं माने. उन्होंने जवाब दिया, टांग ना रही तो वो आगे कैसे लड़ पाएंगे. चीनी अफ़सरों ने कैम्प में मौजूद एक भारतीय कमांडिंग ऑफ़िसर को बुलाया. उसने भी जोगिंदर को मनाने की बहुत कोशिश की. लेकिन जोगिंदर ने साफ़ इंकार कर दिया. सबसे बड़ी विडम्बना ये थी 1963 में चीन ने युद्ध बंदियों को भारत को सौंप दिया. लेकिन जोगिंदर उससे पहले ही वीरगति को प्राप्त हो गए थे.

Subedar Joginder Singh memorial
23 अक्टूबर 1962 के दिन सूबेदार जोगिंदर सिंह ने चीन के एक युद्धबंदी कैंप में दम तोड़ दिया.उनका अंतिम संस्कार चीनी सैनिकों ने किया, 17 मई 1963 को उनकी अस्थियां भारत को सौंपी दी गयीं (तस्वीर- Indiatoday)

उनका अंतिम संस्कार भी तिब्बत में ही हुआ. देश को दी गई सेवाओं और अपने अदम्य साहस के लिए अक्टूबर 1962 में उन्हें मृत्युपरांत परम वीर चक्र से नवाज़ा गया. जब चीनी अधिकारियों को इस बात की खबर लगी, उन्होंने जोगिंदर के आख़िरी अवशेष, पूरे सम्मान सहित भारत को सौंप दिए. भारत में उनके अस्थि कलश को मेरठ सिख रेजिमेंट केंद्र में लाया गया. अपने साथियों से आख़िरी विदा लेने के बाद ये अस्थि कलश, जोगिंदर की पत्नी को सौंप दिया गया. आगे जाकर उनके सम्मान में, उनके गृह नगर मोगा में एक स्मारक बनाया गया. जहां जोगिंदर सिंह ने अपनी आख़िरी लड़ाई लड़ी थी, वहां भी एक स्मारक बनाया गया. जिसे सेना ने अपने वीर सिपाही की याद में बनाया था.

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