रावलपिंडी जेल से कैसे भागे 3 भारतीय पायलट?
सुई का कंपास और जेब में किशमिश, यूं फ़रार हुए पाकिस्तानी जेल से भारतीय पायलट!
1971 भारत-पाकिस्तान( 1971 War) युद्ध में भारत ने पाकिस्तान के 90 हज़ार सैनिक युद्ध बंदी बना लिए थे. आज आपको सुनाएंगे कहानी उन भारतीय सैनिकों, जिन्हें पाकिस्तान ने युद्ध बंदी बना लिया था. आज जानेंगे वो किस्सा जब ऐसे तीन भारतीय सैनिक पाकिस्तान की जेल तोड़कर फ़रार हो गए थे. (Indian pilots escaped)
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रास्ता पूछ कर गलती कर दी!ये बात है साल 1972 की. पाकिस्तान के खैबर पख़्तूनख़्वा प्रांत में लंडी कोतल नाम की एक जगह है. तीन टूरिस्ट वहां मौजूद एक चाय की दुकान पर पहुंचे. तीनों ने पठानी कुर्ता और पेशावरी टोपी पहनी हुई थी. चाय के साथ बातों का दौर शुरू हुआ. जान पहचान बढ़ाने के लिए तीनों ने अपना नाम फ़िलिप पीटर, अली अमीर और हारोल्ड जैकब बताया. साथ ही बताया कि वो अफ़ग़ानिस्तान घूमने निकले हैं. अफ़ग़ानिस्तान में घुसने के लिए उन्हें लंडी खाना पहुंचना था. लंडी खाना अफ़ग़ानिस्तान बॉर्डर से पहले पाकिस्तान का आख़िरी रेलवे स्टेशन था.
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जब तीनों ने चाय वाले से वहां जाने का भाड़ा पूछा तो उन्हें कुछ अनमना सा जवाब मिला. तीनों ने सोचा किसी टैक्सी वाले से पता करते हैं. लेकिन तीनों चाय की दुकान से बाहर निकले ही थे कि पीछे से एक आवाज़ आई, तुम्हें लंडी खाना जाना है? तीनों ने हां में जवाब दिया. ये सुनकर आवाज़ लगा रहे शख़्स का चेहरा कुछ गम्भीर हो गया. उसने तेज आवाज़ में पूछा, कौन हो तुम लोग? उस शख़्स ने बताया कि लंडी खाना नाम का कोई स्टेशन है ही नहीं. 1936 तक ऐसा एक रेलवे स्टेशन हुआ करता था. लेकिन बाद में उसे बंद कर दिया गया था. ये सुनकर तीनों इधर उधर की कहानियां बनाने लगे. लेकिन उनकी चोरी पकड़ी जा चुकी थी. पूछताछ में तीनों ने सच्चाई बताई. और जब तहसीलदार को पता चला कि तीनों भारत से हैं. उसकी भौहें चढ़ गई.
ये 1971 युद्ध के ठीक बाद का दौर था. और पूरे पाकिस्तान के लोगों में भारत को लेकर ज़बरदस्त नफ़रत बैठी हुई थी. तहसीलदार का बस चलता वो तीनों को गोली से उड़ा देता. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. ये तीनों लोग बचे कैसे, जानेंगे, लेकिन उससे पहले बताते हैं कि ये तीनों यहां पहुंचे कैसे? और इसके लिए हमें चलना होगा इस कहानी की एकदम शुरुआत में.
कैसे पकड़े गए भारतीय पायलट?कहानी शुरू होती है साल 1968 से. एक सुहानी शाम की मुलाक़ात के दौरान फ़्लाइट लेफ़्टिनेंट दिलीप पारुलकर अपने कमांडिंग ऑफ़िसर, MS बावा से कहते हैं,
“हम दुश्मन के इलाके में अंदर तक वार करेंगे, एक गोली एक विमान को गिराने के लिए काफी है. अगर मैं कभी पकड़ा गया तो चुपचाप नहीं बैठूंगा, भाग जाऊंगा.”
इसके ठीक तीन साल बाद एक रोज़ पारूलकर एक सुखोई-7 जेट फ़ाइटर विमान में बैठे हुए थे. 1971 की लड़ाई शुरू हो चुकी थी. और IAF की 26 स्कवाड्रन ने पश्चिमी सीमा पर आर्मी को सपोर्ट देने का ज़िम्मा सम्भाला हुआ था. पाकिस्तान में लाहौर से पूर्वी दिशा में एक शहर है, जफरवाल. यहां चल रही हवाई लड़ाई में एक वॉचटावर भारतीय विमानों को बहुत नुक़सान पहुंचा रहा था. 10 दिसंबर की रोज़ पारूलकर जेट फ़ाइटर में बैठकर कर उड़ान पर निकले. उनका निशाना यही वॉचटावर था, लेकिन इससे पहले कि पारूलकर अपना मिशन पूरा कर पाते. एक एंटी एयरक्राफ़्ट गन का निशाना उनके जेट को लगा और वो गोता लगाते हुए ज़मीन की तरफ़ गिरने लगा.
पारूलकर ने अपना पैराशूट खोला और सही सलामत ज़मीन तक पहुंच गए. लेकिन जहां वो उतरे थे, वो दुश्मन की ज़मीन थी. उतरते ही आसपास के लोगों ने उन्हें पकड़ा और पाकिस्तानी अधिकारियों के हवाले कर दिया. पारूलकर को रावलपिंडी स्थित पाकिस्तानी वायुसेना के बेस कैंप में ले ज़ाया गया और जेल में डाल दिया गया. कुछ दिनों बाद पारूलकर को उनके साथियों से मिलने दिया गया. भारतीय वायुसेना के कुल 12 पायलट युद्ध बंदी बनाए ग़ए थे. लेकिन इस कहानी के लिए हम मुख्यतः तीन लोगों की बात करेंगे. फ़्लाइट लेफ़्टिनेंट मलविंदर सिंह गरेवाल, हरीश सिंहजी और पारूलकर(M S Grewal, Harish Sinhjiand Dilip Parulkar).
इन तीनों को जहां रखा गया था, उस युद्धबंदी कैंप के इंचार्ज पाकिस्तानी वायु सेना के एक अफ़सर हुआ करते थे. नाम था स्क्वाड्रन लीडर उस्मान हनीफ़. हनीफ़ से बाक़ी पाक अफ़सर नाराज़ रहते थे, क्योंकि उनका बर्ताव युद्ध बंदियों के प्रति काफ़ी नरम था. 2017 में दिए एक इंटरव्यू में पारूलकर बताते हैं,
भागने का प्लान“हम बॉलीवुड फिल्मों और अपने परिवार के बारे में बात करते थे. अन्य पाकिस्तानी अफसर नाराज रहते थे क्योंकि हनीफ़ साहब हमारे साथ अच्छा बर्ताव करते थे. उन्होंने हमें गाने सुनने के लिए एक कसेट प्लेयर और एटलस भी दिया था, जो आगे चलकर हमारे भागने के काम आया.”
जिस भागने की घटना के बारे में पारूलकर बता रहे थे, उसकी रूपरेखा तैयार हुई 25 दिसंबर के रोज़. उस रात कैम्प इंचार्ज उस्मान हनीफ़ ने सभी युद्धबंदियों को एक छोटी सी चाय-केक पार्टी में शामिल किया. यहां पारूलकर और उनके साथियों को एक अच्छी खबर मिली. पता चला कि ढाका में पाकिस्तानी फ़ौज ने आत्मसमर्पण कर दिया है. लेकिन पारूलकर को पता था, उनकी आज़ादी अभी बहुत दूर है. इस काम में कई साल का वक्त लग सकता था. इसलिए पारूलकर ने मन ही मन भागने का प्लान बनाना शुरू कर दिया.
ये प्लान उन्होंने अपने बाक़ी साथियों को बताया लेकिन कोई तैयार नहीं हुआ, सिवाय दो लोगों के. फ़्लाइट लेफ़्टिनेंट मलविंदर सिंह गरेवाल और हरीश सिंहजी. तीनों ने सबसे पहले उस्मान हनीफ़ के दिए एटलस से इलाक़े का नक़्शा तैयार किया. नक़्शे के अनुसार जेल के सामने से ही ग्रांट ट्रंक रोड गुजरती थी. लेकिन वहां तक पहुंचने के लिए जेल सेल से निकलकर एक संकरी गली तक पहुंचना था. इस गली का इस्तेमाल एक से दूसरी बिल्डिंग में जाने के लिए किया जाता था. और वहां रात को एक पहरेदार नियुक्त रहता था. संकरी गली को पार कर लिया तो आप बाउंड्री वॉल को फ़ांदकर मेन रोड तक पहुंच सकते थे. वहां से आगे का प्लान पाकिस्तान अफ़ग़ानिस्तान बॉर्डर तक पहुंचना था. यदि अफ़ग़ानिस्तान में एंटर हो गए तो वहां से आसानी से भारत भी पहुंच जाते.
ये था पूरा प्लान. लेकिन पहला काम था जेल की 18 इंच मोटी दीवार में छेद करना. पारूलकर और उनके साथियों कुछ दिनों तक अपनी दाढ़ी बढ़ने दी. और फिर कैम्प इंचार्ज से दाढ़ी काटने के बहाने एक कैंची मांग ली. इस कैंची और एक चोरी के स्क्रू ड्राइवर की मदद से उन्होंने दीवार में छेद करना शुरू किया. ये काम कई दिनों के अंतराल में किया गया, ताकि किसी को शक ना हो. और इस दौरान तीनों ने एक और काम किया.
दीवार में छेद और पठानी कुर्ताजेनेवा कन्वेंशन के तहत युद्धबंदियों को हर महीने 57 रुपये मिलते थे, अपने निजी खर्चे के लिए. इस पैसे से तीनों ने ड्राय फ्रूट्स, और कंडेंश्ड दूध के कुछ डिब्बे ख़रीद लिए, ताकि रास्ते में काम आ सकें. इस सारे सामान को रखने के लिए उन्होंने फटे हुए पैराशूट का कपड़ा इस्तेमाल कर एक बैग बनाया. इसके अलावा ट्रांजिस्टर की बैटरी से इन्होंने कपड़े सिलने वाली सुई को चुम्बकीय बना लिया, ताकि उसका इस्तेमाल कंपास के तौर पर किया जा सके. इन सुइयों को एक कलम के खोखे में छिपा दिया जिसे आसानी से जेब में डाला जा सके, जब ये सब इंतज़ाम हो गया, उन्होंने जेल के दर्ज़ी से अपने लिए तीन पठानी सूट सिलवाए. ताकि जेल से भागने के बाद स्थानीय लोगों में घुलमिल जाएं.
सारा इंतज़ाम होने के बाद तीनों ने सही मौक़े का इंतज़ार करना शुरू कर दिया. ये मौक़ा उन्हें मिला 13 अगस्त 1972 की शाम. अगले रोज़ पाकिस्तान की आज़ादी की तारीख़ थी. इसलिए अगले दिन छुट्टी के ख़्याल से गार्ड भी आराम के मूड में थे. उस रात असामान में ज़ोरों से बादल गड़गड़ा रहे थे. मौक़ा देख के आधी रात पारूलकर और उनके दोनों साथी दीवार में बने छेद से निकले और संकरी गली में पहुंच ग़ए. वहां एक गार्ड सो रहा था. उसने अपने मुंह पर कंबल डाला हुआ था. तीनों ने हल्के कदमों से संकरी गली को पार किया और फिर भागकर कंपाउंड की दीवार के पास पहुंच गए. दीवार फ़ांदकर जैसे ही तीनों ज़मीन पर कूदे, हरिश सिंहजी के मुंह से ज़ोर से निकला, "आज़ादी". आज़ादी हालांकि अभी 250 किलोमीटर दूर थी.
कैसे पकड़े गए?प्लान का अगला कदम था पेशावर पहुंचना. बस स्टेशन पहुंचकर तीनों ने पेशावर की बस पकड़ी. आगे के रास्ते के लिए तीनों ने तय किया कि वो अपना नाम बदलेंगे और खुद को ईसाई बताएंगे. क्योंकि ना तो उन्हें कलमा पढ़ना आता था, ना उनमें से किसी का ख़तना हुआ था. ऐसे में तलाशी और पूछताछ होने पर पकड़े जाने का ख़तरा था. पेशावर पहुंचने में तीनों को कोई दिक़्क़त नहीं आई. पेशावर से उन्हें जमरूद जाना था. वहां जाने के लिए तीनों ने एक रिक्शा किया. और जमरूद से आगे पैदल ही निकल पड़े.
चलते चलते तीनों लंडी कोतल नाम की एक जगह तक पहुंचे. नक़्शे के अनुसार यहां से 10 किलोमीटर दूर लंडी खाना नाम का एक रेलवे स्टेशन था. जहां से अफ़ग़ानिस्तान बॉर्डर शुरुआत हो जाता था. लंडी कोतल में तीनों ने लंडी खाना तक जाने का रास्ता पूछा लेकिन यहीं पर उनसे एक गलती हो गई. उनके पास जो नक़्शा था, वो एक पुराने नक़्शे को देखकर बनाया गया था. जिसमें लंडी खाना नाम का स्टेशन दर्ज था. लेकिन हक़ीक़त ये थी कि लंडी खाना स्टेशन 1936 में ही बंद कर दिया गया था.
पारूलकर और उनके साथियों ने जैसे ही लंडी खाना के बारे में पूछा, वहां के लोगों को शक हो गया. 1971 युद्ध के बाद माहौल गर्म था. और लोग हर बाहरी व्यक्ति को वैसे भी शक की नजर से देखते थे. जैसे ही तीनों की पोल खुली लोगों ने उन्हें तहसीलदार के हवाले कर दिया. तहसीलदार को जब पता चला कि पकड़े गए तीनों लोग भारतीय हैं, वो इतना ग़ुस्सा हुआ कि शायद उन्हें वहीं पर गोली मार देता, लेकिन पारुलकर की सूझबूझ ने तीनों की जान बचा ली. पारूलकर ने तहसीलदार से कहा कि वो पाकिस्तानी वायुसेना प्रमुख के एडीसी, उस्मान हनीफ़ से बात करना चाहते हैं. ये वही उस्मान थे, जो युद्धबंदी कैम्प के इंचार्ज थे. उनका नाम सुनकर तहसीलदार चौंका. उसने तुरंत उन्हें फ़ोन किया और मामले की जानकारी दी. उस्मान ने तहसीलदार से कहा, जब तक सेना न आ जाए तीनों को गिरफ्तार ही रखा जाए और कोई चोट न पहुंचाई जाए.
पारूलकर, गरेवाल और सिंहजी को वापस रावलपिंडी कैंप ले ज़ाया गया. अगले 4 महीने तक वो वहीं क़ैद में रहे. दिसंबर 1972 में पाकिस्तान के राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो ने सारे युद्ध बंदियों की रिहाई का ऐलान किया. और वाघा बॉर्डर के रास्ते उन्हें भारत भेज दिया गया. जैसे ही ये सब वाघा बॉर्डर के पार पहुंचे. वहां लोगों का जुलूस उनके स्वागत के लिए खड़ा था. रिहाई के कुछ महीने बाद फ़्लाइट लेफ़्टिनेंट दिलीप पारूलकर एक रोज़ वायु सेना प्रमुख पीसी लाल से मिले और तोहफ़े में उन्हें एक फ़ाउंटेनपेन पेन भेंट किया. पीसी लाल ने फ़ाउंटेन पेन का ढक्कन खोला तो देखा वो एक कंपास था. ये वही कंपास था जिसे पारूलकर और उनके साथियों ने जेल में सुइयों से बनाया था.
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