दुनिया ने ऐसा रेस्क्यू ऑपरेशन पहले ना देखा था, कैसे बची 12 बच्चों की जान?
उस हैरतंगेज़ बचाव अभियान की कहानी, जिसे नामुमकिन मान लिया गया था!
23 जून 2018 की तारीख़. ‘मे साई’ नाम का थाईलैंड का एक छोटा सा क़स्बा अचानक पूरी दुनिया की नज़रों में आ गया. 12- 16 की उम्र के 12 बच्चे और उनका कोच एक चार किलोमीटर लम्बी गुफा में फ़ंस गए थे. 18 दिन बाद उन सभी को बचा लिया गया. इतनी कहानी आप सबको पता होगी. और नहीं पता तो आगे जान जाएंगे. लेकिन ये कहानी सिर्फ़ इतनी नहीं है.
रेस्क्यू ऑपरेशन की शुरुआत से पहले, जब कुछ विदेशी बचाव कर्मचारियों ने अंदर घुसने की कोशिश की. उन्हें वहां थाई सेना के तीन लोग मिले. ये लोग बच्चों को बचाने गए थे लेकिन खुद फ़ंस गए. उन्हें बाहर लाने की कोशिश की गई. लेकिन इस गुफा के तंग रास्तों में एक आदमी को घबराहट होने लगी. वो पानी में छटपटाने लगा और फिर बेहोश हो गया. जबकि इस दौरान उस शख़्स को सिर्फ़ कुछ ही मीटर की दूरी पार करनी थी. ये देखकर राहत दल को अहसास हुआ कि चार किलोमीटर दूर, एक बहुत ही तंग, संकरे और पानी में डूबे हुए रास्ते से 12 बच्चों को लाना लगभग असम्भव है. ये कहानी इसी असम्भव को सम्भव करने की है. (Thailand Cave rescue)
नींद में लेटी लड़की वाली गुफाये घटना जिस गुफा में हुई थी, उसका पूरा नाम है, थम लुआंग नंग नॉन. हिंदी में तर्जुमा करें तो , 'नींद में लेटी लड़की वाली गुफा'. नाम है तो कहानी भी होगी. कहानी यूं है कि पुराने समय में एक राजकुमारी को एक आम लड़के से प्यार हो गया. घरवालों को मंज़ूर नहीं था. इसलिए राजकुमारी को अपने प्रेमी संग घर से भागना पड़ा. घर वालों ने पीछा नहीं छोड़ा. और छिपते फिरते एक रोज़ राजकुमारी की मौत हो गई. राजकुमारी जब मरी, वो पेट से थी. मरने के बाद उसका शरीर चट्टान में बदल गया. थाईलैंड के स्थानीय लोग मानते हैं इन चट्टानों के अंदर गुफाओं में बारिश के दिनों में पानी भर जाता है. जो पानी नहीं असल में राजकुमारी का खून है. खून कहें या पानी, 23 जून, 2003 की शाम ये गुफा कुछ बच्चों की जान की दुश्मन ज़रूर बन गई.
हुआ यूं कि उस रोज़ स्थानीय फ़ुटबॉल टीम के कुछ बच्चे खेल पूरा होने के बाद शाम को गुफा में घूमने पहुंच गए. साथ में उनका पच्चीस वर्षीय कोच भी था. यहां वो अकसर घूमने आते थे, और कई बार तो गुफा में 10 किलोमीटर अंदर तक चले जाते थे. उस रोज़ हालांकि उनसे एक गलती हो गई. उन्होंने इस बात का ध्यान नहीं रखा कि जून का महीना बारिश का महीना है, जब गुफा में पानी भर जाता है. गुफा के भीतर 3 किलोमीटर जाने के बाद उन्हें अहसास हुआ कि पानी बढ़ने लगा है. बचने के लिए वो गुफा में अंदर की ओर बढ़े. जब काफ़ी देर तक पानी यूं ही बढ़ता रहा, उन्होंने गुफा के अंदर एक जगह पर आसरा ले लिया. लेकिन अब तक वो अंदर फ़ंस चुके थे. किसी को तैरना नहीं आता था. और गुफा की तंग, संकरी सुरंगों से तैरना वैसे भी नामुमकिन था.
दूसरी तरफ़ बच्चों के घरवाले भी उनके वक्त पर ना लौटने को लेकर परेशान थे. उन्हें ये ज़रूर पता था कि बच्चे अक्सर गुफाओं में घूमने जाते हैं. वहां पहुंचकर उन्होंने देखा कि गुफा के बाहर बच्चों की साइकिल खड़ी हैं. तुरंत बचाव दल के लोगों को बुलाया गया. थाईलैंड की नेवी के लोग भी मदद के लिए आए लेकिन किसी को बच्चों का कोई सुराग नहीं मिला. बच्चे शायद अंदर थे. लेकिन पानी से भरी गुफा में घुसने के लिए केव डाइविंग आना ज़रूरी था. केव डाइविंग का मतलब 'गुफा में तैराकी' जिसके के लिए विशेष ट्रेनिंग और कौशल की ज़रूरत होती है. दुनिया में चुनिंदा लोग ही इसका कौशल रखते हैं. बहरहाल केव डाइवर्स के आने तक कुछ ना कुछ करना ज़रूरी था इसलिए कई दिनों तक पंप की मदद से गुफा से पानी बाहर निकालने की कोशिश की गई. इसका भी कोई फ़ायदा ना हुआ, बीच बीच में होने वाली बारिश से पानी दुबारा अंदर जा रहा था.
5 दिन बाद भी जब सारी कोशिश बेनतीजा रही. थाईलैंड की सरकार ने विदेशों से मदद मांगी. UK, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया से ख़ास केव डाइवर्स बुलाए गए. इन लोगों ने अंदर जाने की कोशिश की लेकिन ये काम मुश्किल साबित हो रहा था. पहला तो गुफा के अंदर पानी के बहाव की दिशा उल्टी थी. गुफा में कई जगह खड़ी चट्टान थीं. कहीं वो इतनी संकरी हो जाती थी कि आदमी खड़ा भी ना हो सके. इसके अलावा ये पूरा रास्ता घुप्प अंधेरे के बीच मटमैले पानी में तैरकर पार करना था. ये सब करते करते एक हफ़्ता गुजर गया.
वक्त बीतता जा रहा था. अंदर फ़ंसे लोगों के पास ना रौशनी थी, ना खाने को था, ना पीने को. ऊपर से गुफा में ऑक्सिजन का स्तर भी लगातार गिरता जा रहा था. उम्मीद कम थी, फिर भी बचाव दल काम करता रहा.
1 जुलाई के रोज़ उम्मीद की किरण दिखाई दी. UK के दो डाइवर तैरते हुए किसी तरह बच्चों तक पहुंच गए. उन्होंने देखा कि बच्चे कमजोर लेकिन सही सलामत हैं. एक हफ़्ते तक उन लोगों ने गुफा की छत से टपकने वाली बूदों को इकट्ठा कर पीने के पानी का इंतज़ाम किया था. बच्चों के साथ जो कोच था, वो एक बौद्ध भिक्षु भी था. उसने बच्चों को गुफा में ध्यान लगाना सिखाया. ताकि उनकी सांस स्थिर रहे और वो घबराएं नहीं. इन बच्चों का वीडियो जब दुनिया ने देखा तो हर तरफ़ ख़ुशी की लहर दौड़ गई. अब और ज़ोर शोर से दुनिया भर से मदद आने लगी. अगले कुछ दिनों में बच्चों तक ऑक्सिजन के सिलेंडर और खाने-पीने का सामान पहुंचाया गया.
अगला चरण था, उन्हें सकुशल वापस लेकर आना. लेकिन जब इस रेस्क्यू ऑपरेशन की तैयारियां शुरू हुई, जल्द ही सबको अहसास हो गया कि ये काम लगभग असम्भव है. जिस रास्ते दिग्गज तैराक नहीं आ सकते थे. उस रास्ते बच्चे कैसे आएंगे, ये बड़ा सवाल था. सबने अलग अलग तरकीब सुझाई. टेस्ला के मालिक एलन मस्क ने बच्चों की साइज़ की एक सबमरीन बनाने का सुझाव दिया, जिसे उनकी कम्पनी के इंजिनीयर खुद तैयार करने वाले थे. लेकिन गुफा का रास्ता इतना तंग था कि ये प्लान जल्द ही नकार दिया गया.
अंत में बचाव दल को अहसास हुआ कि बच्चों को बाहर लाने का सिर्फ़ एक तरीक़ा है. उन्हें ऑक्सिजन मास्क पहनाया जाए. और फिर एक-एक कर हर बच्चे को तैराक के साथ बाहर लाया जाए. इस काम में भी एक दिक़्क़त थी. रेस्क्यू की शुरुआत में थाई नेवी के कुछ लोग अंदर ही फ़ंस गए थे. जब उन्हें बचाने के लिए इस तरह तैराकर लाया गया, उनमें से एक तंग जगह और अंधेरे में घबराकर छटपटाने लगा. उसे बाहर लाने में काफ़ी मशक़्क़त करनी पड़ी. बचाव दल को लगा, अगर बच्चे भी इसी तरह बीच ऑपरेशन में घबरा गए, या उन्होंने छटपटाने की कोशिश की तो उनके और बचावकर्मी, दोनों के लिए ख़तरा पैदा हो जाएगा. इसलिए तय हुआ कि सारे बच्चों को बाहर लाने से पहले बेहोश किया जाएगा.
ये पेचीदा काम था क्योंकि बेहोशी की दवा, ख़ासकर बच्चों में एकदम ठीक मात्र में दी जानी होती है. जिसके लिए एनेस्थेटिस्ट यानी बेहोशी की दवा के विशेषज्ञ डॉक्टर की ज़रूरत होती है. इस काम के लिए एक ऐसे डॉक्टर की ज़रूरत थी जो एनेस्थेटिस्ट होने के साथ-साथ कुशल केव-डाइवर भी हो. दुनिया में ऐसे लोगों की गिनती उंगली पर की जा सकती थी. मुसीबत की इस घड़ी में काम आए, ऑस्ट्रेलिया के डॉक्टर रिचर्ड हैरिस. जो दोनों कामों में माहिर थे. हैरिस को शुरुआत में जब इस ऑपरेशन के बारे में बताया गया, उन्होंने इनकार कर दिया. उनके अनुसार ये ऑपरेशन असम्भव था. फिर जब उन्हें बताया गया कि उनकी ना का मतलब बच्चों की मौत होगा, हैरिस तैयार हो गए.
रेस्क्यू ऑपरेशन6 जुलाई तक दुनियाभर से लगभग 100 तैराक इस काम के लिए थाइलैंड पहुंच चुके थे. गुफा से पानी पम्प किए जाने का काम जारी था. ताकि ऑपरेशन में आसानी हो सके. 7 तारीख़ को अधिकारियों ने अचानक ऐलान किया कि वो तुरंत रेस्क्यू ऑपरेशन शुरू कर रहे हैं. स्थानीय लोगों के अनुसार 10 जुलाई तक गुफा, अमूमन पूरी तरफ़ बारिश के पानी से भर जाती थी. इसलिए बच्चों को जल्द से जल्द निकालना ज़रूरी था. रेस्क्यू ऑपरेशन हुआ कैसे?
बचाव दल ने गुफा के अंदर कुछ डेढ़ किलोमीटर दूर ऑपरेशन का बेस तैयार किया. जहां से डाइविंग कर बच्चों तक आया ज़ाया जा सकता था. इसके बाद इस पूरे रास्ते पर एक गाइडिंग रस्सी लगाई गई. ताकि कोई रास्ता ना भटके. डाइविंग के लिए हर बच्चे को एक डाइविंग सूट पहनाया गया था. जिसमें ऑक्सिजन सिलेंडर और चेहरे पर मास्क शामिल था. बचाव दल का तैराक बच्चे को अपनी बायीं या दाईं तरफ़ लेकर चलता था. और गुफा के संकरे रास्तों पर उसे आगे की तरफ़ धकेल देता था.
क़रीब डेढ़ किलोमीटर तक बच्चों को पानी में डूबकर तैरना था. हालांकि असलियत में उन्हें बस तैराकों ने पकड़ा हुआ था, क्योंकि बच्चों को बेहोशी की हल्की दवा दी गई थी. ताकि वो घबराएं नहीं. डेढ़ किलोमीटर बाद जब पानी इतना हो गया कि उसमें से सर बाहर निकाला जा सकता था, बच्चों को एक स्पेशल बैग में लिटा दिया गया. इस बैग में एक हेंडल था, जिसे तैराक हर वक्त पकड़कर रख सकता था. बाक़ी के रास्ते बच्चों को इसी तरह बाहर लाया गया. पहले दिन चार बच्चों को बाहर निकाला गया. और इसके बाद अगले दो दिनों में चार चार के बैच में बच्चे बाहर निकाले गए. रेस्क्यू ऑपरेशन 10 जुलाई को पूरा हुआ. बच्चों के साथ जो कोच था, वो सबसे अंत में बाहर आया.
11 जुलाई को जब सही सलामत बच्चों की पहली तस्वीर दुनिया के सामने आई. एक सेकेंड के लिए मानों पूरी दुनिया एक हो गई. इस सफलता में सभी का श्रेय था. 18 दिन चले इस ऑपरेशन में तमाम देशों और स्वयंसेवियों ने मदद की थी. भारत भी इनमें शामिल था. पम्प बनाने वाली किर्लोसकर कम्पनी ने अपने कुछ विशेषज्ञों को थाईलैंड भेजा था. ताकि गुफा से पानी निकालने में मदद कर सकें.
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