The Lallantop
X
Advertisement

आइंस्टीन को लेक्चर देने वाला देश को चूना लगा गया!

विलय माल्या और नीरव मोदी से पहले एक तेजा हुआ करता था, जो अमेरिका से आया और करोड़ों का चूना लगाकर लंदन भाग गया!

Advertisement
Jayanti Dharma Teja vijay mallya crony capitalism neerav modi
अमेरिका का NRI वैज्ञानिक जयंती तेजा 1960 में भारत आया और जल्द ही एक बड़ा कारोबारी बन गया (तस्वीर: India today/Wikimedia commons )
pic
कमल
9 जून 2023 (Updated: 8 जून 2023, 20:04 IST)
font-size
Small
Medium
Large
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share

क्रोनी कैपिटलिस्म. इस शब्द का उपयोग पहली बार 1980's में फ़िलिपींस के तानाशाह फ़र्डिनेंड मार्कोस की आर्थिक नीतियों के लिए हुआ था. रोनी कैपिटलिस्म क्या है, ये आगे बात करेंगे लेकिन अभी समझिए कि भारतीय जनमानस के शब्द भंडार में ये शब्द हालिया समय में ही जुड़ा है. जिसका श्रेय जाता है, नीरव मोदी.. विजय माल्या..मेहुल चौकसी जैसे महानुभावों को. लेकिन जैसे जंगल में मोर नाचा या नहीं, ये हमारे देखने ना देखने से तय नहीं होता. वैसे ही क्रोनी कैपिटलिज़म शब्द का उपयोग चाहे हालिया समय में ही शुरू हुआ है, लेकिन इसके माहिर खिलाड़ी सदियों से ऐक्टिव रहे हैं. (Jayanti Dharma Teja)

यहां पढ़ें- एवरेस्ट की खोज से इस भारतीय का नाम क्यों मिटा दिया गया?

भारत का पहला क्रोनी कैपिटलिस्ट, एक व्यापारी जो न्यूक्लियर फिजिसिस्ट था. जेल में कविताएं लिखता था और कहता था कि उसकी पैदाइश के दिन महात्मा गांधी उसी घर में मौजूद थे. और महान वैज्ञानिक आइंस्टीन उसके लेक्चर सुनने के लिए आया करते थे. जो 1960 के दशक में अमेरिका से भारत लौटा और कारोबारी बन गया. पब्लिक के पैसे का इस्तेमाल कर उसने धंधा जमाया और फिर उसी पैसे का ग़बन कर डाला. जिसे सजायाफ़्ता होने के बावजूद देश से फ़रार होने दिया गया.  और इस बात की सफ़ाई देते हुए देश के प्रधानमंत्री ने कहा, 'उसने जितना लिया है, उससे ज़्यादा देश को दिया है'. ये कहानी है जयंती धर्म तेजा की.

यहां पढ़ें- सीरियल किलर की डायरी क्यों जला दी गई?

enricho fermi
दुनिया का पहला न्यूक्लियर रिएक्टर बनाने वाले इटेलियन भौतिकशास्त्री एनरिको फर्मीफार (तस्वीर: Wikimedia Commons)

पत्रकार दानिश और रुही खान अपनी किताब “Escaped: True Stories of Indian Fugitives in London” में जयंती धर्म तेजा की पूरी कहानी बताते हैं. उसके पिता जयंती वेंकट नारायण ब्रह्म समाज के सदस्य थे. और उन्होंने आज़ादी के आंदोलन में हिस्सा लिया था. जयंती के खुद के दावे के अनुसार साल 1922 में उसकी पैदाइश के वक्त महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) उसी घर में मौजूद थे. वहीं सुभाष चंद्र बोस(Subhas Chandra Bose), जय प्रकाश नारायण और जवाहरलाल नेहरू(Jawaharlal Nehru) जैसे नेताओं का उनके घर आना जाना लगा रहता था. बचपन से ही जयंती एक होनहार छात्र था. मैसूर यूनिवर्सिटी से केमिस्ट्री में मास्टर्स की डिग्री लेने के बाद उसने विदेश जाने की ठानी. वो पहले लंदन गया फिर अमेरिका.

अमेरिका की परड्यू यूनिवर्सिटी में उसने बायोकेमिस्ट्री में फेलोशिप हासिल की. लेकिन आगे जाकर उसने फ़ील्ड चेंज करते हुए न्यूक्लियर फिजिक्स में करियर बनाने का फैसला किया. इस फ़ैसले ने उसकी तकदीर बदल कर रख दी. उसकी मुलाक़ात इटली के मशहूर भौतिकशास्त्री एनरिको फर्मी से हुई. और फर्मी की मेहरबानी से वो मैग्नेटिक टेप बनाने वाली एक कंपनी मिस्टिक टेप का वाइस-प्रेसिडेंट बन गया. आगे जाकर उसने रिसर्च लैब और शिपिंग का कारोबार शुरू किया और मालामाल हो गया. इस दौरान उसने कई रिर्सच पेपर भी लिखे और वैज्ञानिक बिरादरी में अच्छा ख़ासा नाम बना लिया. एक जगह वो दावा करता है कि फ़िज़िक्स पर उसके एक लेक्चर को आइंस्टीन ने अटेंड किया था. और परमाणु बम के जनक ओपेनहाइमर, जिन पर जल्द एक फ़िल्म आने वाली है, से उसके ताल्लुकात थे. बहरहाल इसके बाद जयंती की कहानी में अगला चरण आता है साल 1960 में. जब जयंती ने भारत लौटने का फ़ैसला किया.

यहां उसे एक पार्टी में शिरकत करने का मौक़ा मिला. संविधान सभा के पूर्व सदस्य थिरुमाला राव द्वारा रखी गई इस पार्टी में जब उससे अमेरिका छोड़कर भारत आने का कारण पूछा जाता है, वो जवाब देता है,

"पैसा खूब कमा लिया, अब देश के लिए कुछ करना है".

इस पार्टी में कई पावरफुल लोग शामिल थे. वो उसे प्रधानमंत्री से मिलाने का वादा करते हैं. और इस तरह जयंती एक रोज़ प्रधानमंत्री नेहरू के निवास तीन मूर्ति भवन में दाखिल हो जाता है. बक़ौल खुद जयंती, नेहरू उसे दो ऑप्शन देते हैं. स्टील का उद्योग करो या शिपिंग का. जयंती शिपिंग का बिज़नेस चुनता है. धंधा शुरू करने के लिए उसे सरकार से वित्तीय सहायता मिलती है.31 मार्च, 1983 में इंडिया टुडे में छपी रिपोर्ट में पत्रकार सुमित मित्रा लिखते हैं,

"प्रधानमंत्री नेहरू ने जयंती को सुझाव दिया कि वो शिपिंग डिवेलपमेंट फंड में लोन ऐप्लिकेशन डाल दे. जिससे उसे carriers और oil tankers ख़रीदने के लिए "थोड़ा बहुत" फंड मिल जाएगा".

ये थोड़ा बहुत फंड कितना था? - पूरे 20 करोड़ रुपए. इस पैसे से उसने जयंती शिपिंग कोरपोरेशन की शुरुआत की. उसने जापान की एक कंपनी से करार किया और कुछ ही समय में 26 जहाज़ों का बेड़ा तैयार कर लिया. देखते-देखते देश भर से निर्यात आयात होने वाले माल का 40% जयंती की कंपनी के ज़रिए होने लगा. यानी जयंती देश का एक जाना माना कारोबारी बन गया. हालांकि ये शोहरत अकेले नहीं आई थी. धीरे धीरे जयंती के आलोचकों की संख्या में इज़ाफ़ा होने लगा. प्रधानमंत्री नेहरू के विरोधियों ने आरोप लगाया कि जयंती की सफलता के पीछे सरकारी संरक्षण है. आरोपों में शामिल था कि सरकार की सरपरस्ती में जयंती तमाम नियमों को धता बताते हुए कम्पनी चला रहा था. और इसके बावजूद उसके ख़िलाफ़ कोई ऐक्शन नहीं हो रहा था.

nehru
तीन मूर्ति भवन में प्रधानमंत्री नेहरू, इंदिरा गांधी, संजय और राजीव गांधी के साथ (तस्वीर:Wikimedia Commons)

हालिया समय में ऐसी व्यवस्था को हम क्रोनी कैपिटलिस्म के नाम से जानते हैं. यानी ऐसी अर्थव्यवस्था जिसमें बिज़नेस की सफलता राजनीतिक वर्ग और व्यापारी वर्ग के बीच सांठगांठ से तय होती है. सरकार एक विशेष व्यापारी वर्ग के लाभ के लिए नीतियां बनाती है और बदले में ऐसे व्यापारी सरकार की ताक़त में इज़ाफ़ा देने में मदद करते हैं. ऐसा तब भी होता है जब कोई सरकारी तंत्र का ग़ैरवाजिब इस्तेमाल करता है. और बैंक में जमा जनता के पैसे का अनाप शनाप निवेश कर उसे ख़तरे में डालाता हैं. भारत में नीरव मोदी और विजय माल्या इसके उदाहरण है.

फ़िलहाल मेन क़िस्से पर लौटते हुए जानते हैं कि जयंती की कहानी में आगे क्या हुआ. जयंती के लिए असली मुसीबत आना शुरू हुई साल 1964 में. नेहरू की मृत्यु के बाद लाल बहादुर शास्त्री सरकार में उसके कारोबार पर हमले तेज हुए. और 1966 में जब इंदिरा गांधी सत्ता में आई, उन्होंने जयंती शिपिंग कम्पनी के ख़िलाफ़ जांच बैठा दी. पता चला कि जयंती जिस जापानी कम्पनी के साथ काम कर रहा था, उसे पहली किश्त के बाद एक पैसा नहीं मिला था. लिहाज़ा कम्पनी ने जयंती को जहाज़ देना बंद कर दिया. जयंती की कंपनी घाटे में जाने लगी. हालांकि इस दौरान जयंती के खुद के मुनाफ़े में कोई कमी नहीं आई. बल्कि हर कांट्रैक्ट पर वो अपना कट लेकर धन दौलत जमा करता रहा.

ये बस शुरुआत थी. एक बार जयंती की पोल खुली तो फिर खुलती गई. उसके विरोधी बढ़ चढ़कर हमले करने लगे. यहां तक कि ऐसे आरोप भी लगे कि वो लाल बहादुर शास्त्री की मौत के वक्त ताशकंद में था. इस मामले में विदेश मंत्री स्वर्ण सिंह को संसद में सफ़ाई देनी पड़ गई थी. स्वर्ण सिंह ने बताया कि ताशकंद में मौजूद तेजा नाम का व्यक्ति जयंती नहीं कोई और था. जयंती की निजी ज़िंदगी भी विवादों के घेरे में आने लगी थी. पहली पत्नी की मौत के बाद उसने दूसरी शादी की थी. जिसके बारे में CPI के एक सांसद इंद्रजीत गुप्ता ने टिप्पणी करते  हुए कहा था

“मिसेज़ तेजा का चेहरा हेलेन ऑफ़ ट्रॉय के जैसा है जिसके लिए हज़ारों जहाज़ समंदर में छोड़े जा सकते हैं”

jayarnti dharma teja
जयंती तेजा ने एक अमेरिकी महिला बेट्सी से शादी की थी (तस्वीर: इलस्ट्रेटेड वीकली)

ग्रीक मिथकों में हेलेन ऑफ़ ट्रॉय संसार की सबसे सुंदर स्त्री थी जिसे पाने के लिए एक बहुत बड़ा युद्ध हुआ था. कुल मिलाकर जयंती धर्म तेजा के ऊपर पैसे की हेराफेरी, जालसाजी, वीजा की धोखाधड़ी और पासपोर्ट उल्लंघन जैसे तमाम आरोप लगे. और साल 1966 में उसके ख़िलाफ़ वॉरंट जारी हो गया. जिस वक्त वॉरंट जारी हुआ, जयंती अपनी पत्नी के साथ फ़्रांस में छुट्टियां मना रहा था. इससे पहले कि पुलिस उस पकड़ पाती वो ग़ायब हो गया. 5 साल तक तमाम सरकारों और इंटरपोल को छकाने के बाद 1970 में उसे अमेरिका में गिरफ़्तार किया गया. यहां भी उसे ज़मानत मिल गई और जमानत की शर्तें तोड़कर वो कोस्टारिका भाग गया. कोस्टारिका की सरकार ने उसे 3 साल तक शरण दी. फिर मई 1970 में लंदन के हीथ्रो एयरपोर्ट पर वो फ़र्ज़ी पहचान से यात्रा करते हुआ पकड़ा गया.

लंदन से एक नए ड्रामे की शुरुआत हुई. प्रत्यर्पण से बचने के लिए लंदन के कोर्ट में जयंती ने दावा किया कि प्रधानमंत्री नेहरू के कार्यकाल में उसे टॉप सीक्रेट मिशन पर 14 बार सोवियत यूनियन भेजा गया था. ध्यान दीजिए तब ब्रिटेन सोवियत यूनियन के विरोधी अमेरिकी धड़े का हिस्सा था. जबकि भारत सोवियत संघ की तरफ़  झुकता प्रतीत होता था. ऐसा कहने के पीछे जयंती का मक़सद अंतर्राष्ट्रीय पटल पर भारत सरकार की किरकिरी करना था. ताकि ब्रिटेन की सरकार उसे वापस भारत ना भेजे. कोर्ट में जब उससे पूछा गया, "क्या भारत में उसे नेहरू के उत्तराधिकारी के तौर पर देखा जाता था", उसने कोई जवाब देने से इनकार कर दिया.

लंदन में रची गई इस पूरी कलाकारी का हालांकि कोई फ़ायदा नहीं हुआ और अप्रैल 1971 में जयंती को भारत भेज दिया गया. 17 अप्रैल की इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट बताती है कि एक चमकदार सूट में वो प्लेन से उतरा और गाड़ी में बिठाकर उसे SP ऑफ़िस ले ज़ाया गया. जहां उसके सामने कोल्ड ड्रिंक परोसी गई. इसके बाद कोर्ट में उस पर मामले की शुरुआत हुई और अक्टूबर 1972 में उसे तीन साल की सजा सुनाई गई. तीन साल जेल में गुज़ारने के बाद 1975 में वो बाहर आ गया.

pan am
iपैन एम एयर लाइंस के साथ भारत सरकार का केस एक दशक तक चला था (तस्वीर: Wikimedia Commons)

नियमों के अनुसार दो साल से अधिक की क़ैद होने पर अगले अगले पांच साल तक पासपोर्ट नहीं मिलता. लेकिन जयंती को ना सिर्फ़ पासपोर्ट वापस मिला बल्कि तब की मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार एयरपोर्ट में उसे प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के बेटे कांति देसाई और उद्योग मंत्री सिकंदर बख्त के साथ देखा गया. एयरपोर्ट से जयंती ने उड़ान पकड़ी और अमेरिका चला गया. ये खबर बाहर आने के बाद जब संसद में हंगामा हुआ, मोरारजी ने सफ़ाई देते हुए कहा,

‘उसने सरकार से जितना लिया, उससे अधिक दिया. इसलिए वह कहीं भी आने-जाने के लिए आज़ाद है.’

मोरारजी देसाई के बाद चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री बने. उनकी सरकार ने पैन ऐम विमान कम्पनी पर जयंती को भगाने का केस कर दिया. हालांकि कम्पनी ने दलील दी कि जब खुद सरकारी नुमाइंदे उसे एयरपोर्ट तक छोड़ने आए थे, तो इसमें उनकी क्या गलती थी. पैन ऐम के साथ अदालती लड़ाई लम्बे समय तक चली, लेकिन फिर 1991 में पैन ऐम कंपनी दिवालिया हो गई. और मामला वहीं ख़त्म हो गया. जयंती पर सारे मामलों को मिलाकर कुल 9 करोड़ रुपये टैक्स बकाया था जिसकी कोई वसूली नहीं हो सकी. जयंती देश से भाग चुका था और उसकी कम्पनी दिवालिया हो चुकी थी. लिहाज़ा सरकार ने जयंती शिपिंग कॉर्पोरेशन का सरकारीकरण कर दिया.

जयंती की कहानी यहीं ख़त्म ना हुई. साल 1983 में वो एक बार फिर भारत लौटा. यहां वो दुबारा बिजनेस शुरू करना चाहता था. लेकिन इस बार उसकी दाल नहीं गली. 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उसने देश छोड़ दिया. इस बार हमेशा हमेशा के लिए. एक साल बाद ही दिसम्बर 25, 1985 को अमेरिका के न्यू जर्सी में उसकी मृत्यु हो गई.

वीडियो: तारीख: हावड़ा ब्रिज का बम कुछ न बिगाड़ पाए, उसे लोगों से क्यों बचाना पड़ा?

Comments
thumbnail

Advertisement

Advertisement