वो खौफ़नाक विलेन, जिसके नाम जैसा नाम रखने से बच्चों के मां-बाप कतराने लगे
बॉलीवुड में इनको लाए थे लीजेंडरी साहित्यकार मंटो.
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सआदत हसन मंटो उर्दू भाषा के बेबाक कहानीकार. कहते थे - "ये बिल्कुल मुमकिन है कि सआदत हसन मर जाए और मंटो जिंदा रह जाए." हुआ भी वही. 11 मई 1912 को जन्मे और 18 जनवरी 1955 को नहीं रहे. जाने के बाद उन्हें और ज़्यादा चाहा गया, सराहा गया. उनकी ख़ूबी थी कि अपनी कहानियों के माध्यम से वो सीधे आंखों में देखकर सवाल करते थे. मुद्दा चाहे कोई भी हो - इश्क हो, अमानवीय घटनाएं हों, दुख हों, मुल्कों के झगड़े हो. अपने 42 साल के जीवन में उन्होंने लघु कथा संग्रह, उपन्यास, रेडियो नाटक, रचनाएं और व्यक्तिगत रेखाचित्र प्रकाशित किए.
हम यहां उन्हें याद कर रहे हैं किसी और कारण से. वो ये कि उन्होंने हिंदी सिनेमा को एक ऐसा विलेन दिया जो ख़ौफ का ऐसा पर्याय था कि मां-बाप ने अपने बच्चों का नाम उस पर रखना छोड़ दिया था. लड़कियां उनके ज़िक्र मात्र से डरती थीं. एक एक्टर के तौर पर ये उनकी जीत थी. बात कर रहे हैं जबरदस्त एक्टर प्राण की.
हिंदी सिनेमा के कभी न भुलाए जा सकने वाले विलेन प्राण जो असल ज़िंदगी में जबरदस्त इंसान थे.
मंटो का बरख़ुरदार = प्राण
प्राण को मंटो रूपवान और हसीन दिखने वाला गबरू जवान कहते थे. उन्होंने एक बार बताया था कि प्राण को लाहौर का बंदा-बंदा जानता था. इसके दो बड़े कारण थे. पहला उनका ड्रेसिंग सेंस और दूसरा उनका सजीला दिखने वाला तांगा. वो वक़्त था जब शहर में लोगबाग तांगों से सफ़र किया करते थे. इसलिए तांगा व्यक्ति के पहचान का हिस्सा होता था.
तो मंटो प्राण को बॉलीवुड कैसे लाए?
बात शुरू होती है 1942 के लाहौर में. जब प्राण वहां की फिल्मों में काम करते थे. कुछ साल बाद इंडिया-पाकिस्तान का बंटवारा हुआ तो उन्हें वो जगह छोड़कर हिंदुस्तान आना पड़ा. वे बंबई आ पहुंचे. जोश से भरे, मायानगरी पहुंच तो गए पर वहां काम कैसे मिले? रोल ढूंढ़ने के साथ छोटी-मोटी नौकरियां भी करते रहे. जैसे मरीन ड्राइव के पास होटल डेल्मार में उन्होंने जॉब की. फिर 1948 में जाकर उन्हें वो मौका मिला जिसने उन्हें बॉलीवुड में स्थापित होने में मदद की.
एक्टर सुंदर श्याम चड्ढा जिन्होंने नरगिस स्टारर 'मीना बाज़ार' (1949) और अशोक कुमार अभिनीत 'समाधि' (1950) में काम किया था.
मंटो जानते थे कि प्राण अच्छे एक्टर हैं. क्योंकि लाहौर की उनकी पिछली से वे वाकिफ थे. इस आधार पर उन्होंने अपने दोस्त श्याम चड्ढा से बात की. वो ख़ुद हिंदी फिल्मों में एक्टर थे. बड़े-बड़े एक्टर्स के साथ काम करते थे. उन्होंने श्याम को प्राण के बारे में बताया तो उनकी मदद से प्राण को काम मिला.
ये काम था 'बॉम्बे टॉकीज़' की फिल्म ‘ज़िद्दी’ में. ये वही फिल्म थी जिसे करने के बाद देव आनंद को पीछे मुड़कर नहीं देखना पड़ा था. डायरेक्टर शाहिद लतीफ की इस फिल्म में हीरोइन थीं कामिनी कौशल औऱ नेगेटिव रोल में थे प्राण. 1948 में आई इस फिल्म ने प्राण को बॉलीवुड में जमा दिया. इस फिल्म से शुरू हुई विलेन वाली अपनी छवि से वो सबसे ज्यादा जाने गए.
वीडियो देखें- वो एक्टर जिसके बिना हिंदी सिनेमा अधूरा ही रहता