जब जर्मन फ़ौज ने देखा ‘असली’ कैप्टन अमेरिका!
एक आम फ़ौजी की सूपरहीरो वाली कहानी!
एक लड़का है. अपने देश के लिए लड़ना चाहता है. विश्व युद्ध शुरू होने वाला है लेकिन लड़के की हाइट कम है और शरीर कमजोर. सब मज़ाक़ उड़ाते हैं. सेना भी भर्ती नहीं करती. फिर इत्तेफ़ाक से परिस्थितियां कुछ ऐसा रुख़ लेती हैं कि लड़का भर्ती हो जाता है. इसके बाद भी फ़ौज लड़ने के लिए नहीं भेजती. फिर एक रोज वो खुद ही निकल पड़ता है, सरहद की ओर, दुश्मन का सामना करने के लिए. (World War I)
युद्ध जब तक ख़त्म होता है. तब तक वो लड़का अकेले 1100 दुश्मन सैनिकों को सरेंडर करवा चुका था. दुश्मन के क़ब्ज़े से अपने साथी को अकेले छुड़ा लाया था. और एक मोर्चे पर तो उसने पूरी पलटन का सामना अकेले किया था. लड़का जब घर आया तो उसे नाम मिला- देश का पहला सैनिक, 'द फ़र्स्ट सोल्जर'.
अभी जो कहानी आपने पढ़ी, उसे सुनकर शायद आपको कैप्टन अमेरिका की याद आई होगी. लेकिन जो हम बताने जा रहे हैं वो किसी सुपरहीरो की नहीं एक आम सिपाही की कहानी है. हालांकि कहानी ऐसी है कि क्लिकबेट से भरी दुनिया में हैरतंगेज़, बेमिसाल, और अविश्वसनीय जैसे शब्दों को मायने प्रदान करती है.
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भर्ती होना था, कैसे भीये बात है प्रथम विश्व युद्ध की. उत्तरी फ़्रांस की सरहद पर एक मोर्चे पर लड़ाई छिड़ी हुई थी. आमने-सामने थी जर्मनी और फ़्रांस की सेनाएं. नीली टोपी पहनने वाले फ़्रेंच सैनिकों को जर्मन, द ब्लू डेविल यानी नीले राक्षस कहकर बुलाते थे. ब्लू डेविल, लड़ाई में आगे चल रहे थे, लेकिन जर्मन फ़ौज का एक ब्लॉक हाउस उन्हें काफ़ी नुक़सान पहुंचा रहा था. ब्लॉक हाउस यानी एक इमारत जिसे क़िलेबंदी के लिए बनाया जाता है. इसमें हर माले पर कई छेद बने हुए होते हैं, जिससे हथियार निकले रहते हैं. इन हथियारों से आप दुश्मन पर निशाना लगा सकते हैं. जबकि क़िले के अंदर रहने के कारण आप दुश्मन की गोली से बचे रहते हैं.
जर्मनों के बनाए एक ऐसे ही ब्लॉक हाउस को तोड़ने की ज़रूरत थी. ये काम अंदर से किया जाना था क्योंकि फ़्रेंच टुकड़ी के पास इमारत तोड़ने लायक़ फ़ायर पावर नहीं थी. ऐसे में ज़िम्मेदारी मिली एक लड़के को. छोटे से क़द का वो लड़का छुपते छुपाते ब्लॉक हाउस तक पहुंचा. ब्लॉक हाउस के अंदर जाने के लिए सिर्फ़ एक दरवाज़ा होता है, जो अंदर से बंद रहता है. इसलिए वो लड़का इमारत के ऊपर चढ़ गया. एक छोटे से छेद से उसने देखा, जर्मन सैनिक एक फ़ायरप्लेस के सामने आग सेक रहे थे. आग के कारण ऊपर चिमनी से निकलते धुएं को देखकर उसे एक आइडिया आया. वो चिमनी तक पहुंचा और उसने चिमनी से कुछ ग्रेनेड अंदर लुढ़का दिए. ग्रेनेड सीधे जाकर जर्मन सैनिकों के आगे गिरे, ज़ोर का धमाका हुआ. कई की जान चली गई, और जो बचे, उनका सरेंडर लेकर वो लड़का वापस अपनी टुकड़ी से जा मिला.
इस कारनामे को अकेले अंजाम देने वाले उस 19 साल के लड़के का नाम था, एल्बर्ट सेवरिन रॉश. फ़्रांस का एक अदना सैनिक, जिसे कभी कोई रैंक नहीं मिली. एल्बर्ट रॉश सेना में भर्ती कैसे हुआ, इसकी कहानी भी काफ़ी दिलचस्प है. रॉश के पिता फ़्रांस के एक छोटे से गांव में गरीब किसान थे. छोटे नाटे क़द का रॉश, काया में एक हड्डी के बराबर था. लेकिन जज़्बा ऐसा कि वो हमेशा फ़ौज में जाने के सपने देखा करता. 1913 में उसने भर्ती में हिस्सा लिया. लेकिन उसकी सेहत देख, उसे रिजेक्ट कर दिया गया. ये सुनकर रॉश के पिता बहुत खुश हुए. किसानी के लिए उन्हें दो हाथ और मिल ग़ए थे.
अकेले फौजी के कारनामेरॉश ने हालांकि हार ना मानी. भर्ती में हिस्सा लेने के लिए वो एक दूसरे शहर गया. ये साल 1914 था. विश्व युद्ध शुरू हो चुका था. इसलिए दूसरी जगह फ़्रेंच अधिकारियों ने उसे ये सोचकर भर्ती कर लिया कि लड़ाई में नहीं, तो और किसी काम तो आ ही जाएगा. रॉश को ट्रेनिंग के लिए भेज दिया गया. यहां दूसरे लड़के उसकी छोटी हाइट का मज़ाक़ उड़ाते थे. एक रोज़ अपने सीनियर से लड़ाई कर वो ट्रेनिंग कैम्प से पैदल ही बाहर निकल गया. कई किलोमीटर बाद जब भागने के जुर्म में गिरफ़्तार किया गया. और पूछा गया कहां जा रहे हो, उसने जवाब दिया,
"इस ट्रेनिंग कैम्प में युद्ध के लिए नाकाबिल लड़कों को रखा गया है,. मुझे लड़ना है, इसलिए मोर्चे पर जा रहा हूं".
कमाल ये हुआ कि सजा देने के बजाय एल्बर्ट रॉश को मोर्चे पर भेज दिया गया. अपने पहले ही अभियान में उसने वो कारनामा कर दिखाया, जो हमने अभी थोड़ी देर पहले बताया था. इसके बाद आया एक और मौक़ा. 1915 में रॉश, पश्चिमी मोर्चे पर ट्रेंच वॉर फ़ेयर में लगा हुआ था. ट्रेंच यानी खाई. खाइयों की लड़ाई प्रथम विश्व युद्ध का बड़ा हिस्सा थी. दोनों तरफ़ की सेनाओं ने ऐसी खाइयां खोदी हुई थीं. ताकि दूसरी फ़ौज आगे न बढ़ सके. इनके बीच में एक इलाक़ा होता था, जिसे नो मैंस लैंड कहते थे. अगर दुश्मन पर हमला करना है तो खाई से निकालकर नो मैंस लैंड पार करते हुए आपको दुश्मन तक पहुंचना होता था.
फ़्रांस की राइन नदी के किनारे बने ऐसे ही एक ट्रेंच पर जर्मन सेना ने तेज फ़ायरिंग शुरू कर दी. ट्रेंच की सीध में एक-एक कर खड़े रॉश के साथी गोलियों का शिकार हुए और मारे ग़ए. खाई में खुद को अकेला पाकर रॉश ने एक तरकीब लगाई. उसने अपने गिरे हुए साथियों की बन्दूकों को इकट्ठा किया और खाई के मुहाने पर सीध में लगा दिया. इसके बाद वो दौड़ दौड़ कर खाई में एक छोर से दूसरे छोर भागता, हर बंदूक़ से बारी बारी से फ़ायर करता. इससे जर्मन सेना को लगा, फ़्रेंच सेना की एक टुकड़ी अभी भी बची हुई है, और उन्होंने हमले का इरादा छोड़ दिया.
तीसरा मौक़ा आया जब एल्बर्ट रॉश को एक खोजी मिशन पर भेजा गया. मिशन के दौरान रॉश और उसके वरिष्ठ कैप्टन को दुश्मनों ने पकड़ लिया. दोनों को एक बंकर में ले ज़ाया गया. पूछताछ शुरू हुई. दुश्मन का एक सैनिक हाथ में पिस्टल लिए सामने खड़ा था. रॉश ने तेज़ी ने झपट्टा मारा और उसकी पिस्तौल छीन ली. उसे ढेर करने के बाद रॉश ने अपने घायल कप्तान को कंधे पर डाला, और छुपता छुपाता, पैदल चलते हुए वापिस आ गया.ये इकलौता मौक़ा नहीं था, जब रॉश ने अपने कप्तान को बचाया हो.
मोर्चे पर नींद का मतलब मौत1917 में एक लड़ाई के दौरान उसका कप्तान गम्भीर रूप से घायल हो चुका था. अपने कप्तान को बचाने के लिए रॉश, हेवी फ़ायरिंग के बीच छ घंटे तक ज़मीन के बल रेंग कर उसके पास पहुंचा, और फिर ऐसे ही चार घंटे रेंग कर उसे वापिस ले आया. वापिस आने तक कप्तान कोमा में जा चुका था. उसे अस्पताल में भर्ती करवाया गया. वहीं रॉश की हालत इतनी ख़राब थी, कि उसने पहरेदारी के लिए बनाया गया एक गड्ढा ढूंढा और उसमें लेट गया. कुछ देर बाद जब पेट्रोलिंग करते हुए एक कमाडिंग अफ़सर वहां से गुजरा, उसने गड्ढे में रॉश को सोता हुआ पाया.
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान सेना का नियम था कि अगर आप मोर्चे पर सोते हुए पाए जाते हो तो आपको 24 घंटे के भीतर मौत की सजा दे दी जाएगी. कमांडर ने रॉश को देखकर यही सोचा कि वो मोर्चे पर सो रहा है. रॉश ने अपनी सफ़ाई दी लेकिन उसकी एक ना सुनी गई. उसे जेल में डाल दिया गया. 24 घंटे बाद जब उसे गोली मारने के लिए फ़ायरिंग स्क्वॉड के पास ले ज़ाया गया. एक आदमी दौड़ता दौड़ता वहां पहुंचा. उसे उसी कप्तान ने भेजा था, जिसकी जान रॉश ने बचाई थी. क़िस्मत से ऐन मौक़े पर उसे होश आ गया, और उसने पूरी कहानी कमांडर को सुना दी, जिसके बाद रॉश की जान बख़्स दी गई.
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान एल्बर्ट रॉश के कारनामों के ये चंद नमूने थे. जब तक युद्ध ख़त्म हुआ, वो अकेले अपने दम पर 1180 दुश्मन सैनिकों को युद्धबंदी बना चुका था. युद्ध के बाद फ़्रेंच जनरल फ़र्डिनैंड फ़ौक ने जब उसकी फ़ाइल देखी, उनके मुंह ने निकला,
"इतना सब कुछ करने वाला, और इसकी रेंक बस सेकेंड क्लास सोल्जर की".
वो एल्बर्ट रॉश को सिटी हॉल लेकर गए और वहां मौजूद जनता के सामने ऐलान करते हुआ कहा,
सूपर हीरो को विलेन चाहिए“नगरवासियों मैं आपको आपके मुक्तिदाता से मिला रहा हूं. ये फ़्रांस का पहला सैनिक है. 'द फ़र्स्ट सोल्जर'”
एल्बर्ट रॉश की कहानी में आगे क्या हुआ, उससे पहले एक बात पर गौर कीजिए. एक बात नोट की होगी आपने. हर सुपर हीरो की कहानी में एक सुपर विलन होता है. क्योंकि अगर सुपर विलन ना हो तो सुपर हीरो करेगा क्या. क्या वो हत्याएं या बाक़ी अपराध कम कर सकता है, क्या वो देशों के बीच हो रहे युद्ध रोक सकता है? रोज़मर्रा की आम ज़िंदगी के मसले कोई सुपर हीरो नहीं सुलझा सकता इसलिए अलग से एक विलेन गढ़ना पड़ता है. एल्बर्ट रॉश की सुपरहीरो नुमा ज़िंदगी भी सिर्फ़ तब तक रही, जब तक युद्ध चला. युद्ध के बाद घर लौटकर वो नगरपालिका में मजूदरी करने लगा. उसने शादी की, बच्चे हुए, अंततः वो फ़ायर फ़ाइटर बन गया. एल्बर्ट रॉश की कहानी का पटाक्षेप कुछ यूं हुआ कि फ़्रेंच इतिहासकार पियरे मिक्वल ने लिखा,
"इस आदमी ने चार साल तक दुनिया का सबसे बड़ा युद्ध लड़ा. 9 बार वो ज़ख़्मी हुआ, हज़ार मौक़े आए जब मौत उससे कुछ इंच दूर थी. यूं भी हुआ कि ग़लतफ़हमी में ग़द्दार समझकर उसे मारा जाने वाला था. वो तब भी बच गया. क्यों? क्या इसलिए कि 20 साल बाद घर जाते हुए, एक बस ऐक्सिडेंट में उसकी मौत होनी थी".
साल 1939 में एल्बर्ट रॉश की मौत हो गई. इत्तेफ़ाक देखिए. उसी साल दूसरा विश्व युद्ध शुरू हुआ. इस बार जर्मनी ने फ़्रांस को ज़बरदस्त पटखनी दी. कवि हृदय होता तो कहता, फ़्रांस की हार शायद इसलिए हुई क्योंकि उसका पहला रखवाल अब ज़िंदा नहीं था.
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