'ज़िंदगी ज़िदा-दिली को जान ऐ रोशन वरना कितने ही यहां रोज फ़ना होते हैं.'-ठाकुर रोशन सिंहकाकोरी ट्रेन डकैती के लिए अंग्रेजों ने अशफ़ाक़, 'बिस्मिल', राजेंद्र लाहिड़ी केसाथ रोशन सिंह को जिम्मेदार माना था. ब्रिटिश अदालत ने चारों को 5-5 साल कीबामशक़्क़त क़ैद और फांसी की सजा सुनाई. पर मौत का फ़रमान सुनकर ये वीर नौजवानखिलखिलाकर हंस पड़े. फांसी, ताउम्र क़ैद में भी तब्दील हो सकती थी, लेकिन जेल मेंकिसको बैठना था. ये मतवाले तो चाहते थे कि उन्हें फांसी ही हो, और ये बात ज्यादा सेज्यादा लोगों तक पहुंचे. आज़ादी की लड़ाई और धारदार हो जाए. लोगों के दिल मेंगुस्से का ज्वालामुखी फट पड़े.ठाकुर रोशन सिंह 22 जनवरी 1892 को पैदा हुए थे. रोशन सिंह और रामप्रसाद 'बिस्मिल'में बहुत ही गाढ़ी दोस्ती थी. दोनों में हमेशा इस बात का कॉम्पटीशन रहता था किठाकुर रोशन सिंह देश के काम पहले आएगा या रामप्रसाद 'बिस्मिल'. रोशन के साथी उनकोठाकुर बोल-बोलकर तंग किया करते थे.19 दिसंबर 1927 का वो दिन आया, जब बिस्मिल और रोशन सिंह साथ में फांसी के तख़्ते परचढ़ने जा रहे थे. रोशन सिंह ने अपनी रौबीली मूंछ पर ताव देते हुए 'बिस्मिल' से कहा,'देख, ये ठाकुर भी जान की बाजी लगाने में पीछे नहीं रहा.'काकोरी कांड में रोशन नहीं थे शामिल?शहीद ठाकुर रोशन सिंहइतिहास के कुछ जानकारों का कहना है कि 9 अगस्त 1925 को लखनऊ के करीब काकोरी स्टेशनके पास जो सरकारी खजाना लूटा गया था, उस घटना में ठाकुर रोशन सिंह शामिल नहीं थे.इसके बावजूद उन्हें 19 दिसंबर 1927 को इलाहाबाद के नैनी जेल में फांसी पर लटका दियागया.36 साल के ठाकुर रोशन सिंह की उमर के ही केशव चक्रवर्ती काकोरी डकैती में शामिल थे.उनकी शक्ल रोशन सिंह से मिलती थी. अंग्रेजी हुकूमत ने माना कि रोशन ही डकैती मेंशामिल थे. केशव बंगाल की अनुशीलन समिति के सदस्य थे, फिर भी पकडे़ रोशन सिंह गए.लेकिन अंग्रेजों को सबूत नहीं मिल पा रहे थे ताकि उनकी धरपकड़ कर सकें.25 दिसंबर 1924 की बमरौली डकैती हुई. इस डकैती में रोशन सिंह भी शामिल थे. इस बारअंग्रेजों को सबूत हाथ लग गए थे. अब तो अंग्रेज पुलिस ने सारा जोर ठाकुर रोशन सिंहको फांसी की सजा दिलवाने में लगा डाला. इस डकैती के सबूतों को अंग्रेजों ने काकोरीके लिए इस्तेमाल किया. केशव चक्रवर्ती को उसके बाद ढूंढा तक नहीं गया, और रोशन सिंहको ही काकोरी कांड का आरोपी बना डाला.दिलेर रोशन सिंह की जबर दिलदारीठाकुर रोशन सिंह ने 6 दिसंबर 1927 को इलाहाबाद में नैनी की मलाका की काल-कोठरी सेअपने एक मित्र को पत्र लिखा था, 'इस सप्ताह के भीतर ही फांसी होगी. आप मेरे लियेरंज हरगिज न करें. मेरी मौत खुशी का सबब होगी. यह मौत किसी प्रकार के अफसोस के लायकनहीं है. दुनिया की कष्ट भरी यात्रा समाप्त करके मैं अब आराम की जिन्दगी जीने केलिये जा रहा हूं'बताते हैं कि रोशन सिंह फांसी के पहले ज़रा भी उदास न थे. वो अपने साथियों से कहतेरहते थे कि उन्हें फांसी दे दी जाए, कोई बात नहीं. उन्होंने तो जिंदगी का सारा सुखउठा लिया, लेकिन बिस्मिल, अशफाक और लाहिड़ी जिन्होंने जीवन का एक भी ऐशो-आराम नहींदेखा, उन्हें इस बेरहम बरतानिया सरकार ने फांसी पर चढ़ाने का फैसला क्यों लिया?