खड़ूस बॉस के लिए ज्यादा दिल लगाकर काम करते हैं कर्मचारी? ये 'डेडीकेशन' नहीं 'सिंड्रोम' है
मालिक से प्यार और जंज़ीर से इश्क़- स्टॉकहोम सिंड्रोम एक किस्म का साइकोलॉजिकल रिस्पॉंस है. बंदा अपने किडनैपर या ज़ुल्म ढाने वाले से ऐसी लॉयल्टी बना लेता है कि उसको डिफ़ेंड करने लगता है.
18वीं सदी का अमेरिका. देश के साउथ वाले हिस्से में तम्बाकू और कपास की खेती हुआ करती थी. खेतों में काम करते थे, गुलाम मजदूर. एक सुबह की बात है. एक ऐसे ही खेत के सामने एक गाड़ी आकर रुकी. उसमें से उतरे छह लोग, सैम और उसके पांच साथी. इनका काम था दिनभर खेतों में 12-13 घंटे तक मेहनत करना. बदले में उन्हें सिर्फ इतना खाना मिलता था जिससे वे ज़िंदा रह सकें. ज़रा सी भी गलती हो जाती, तो खेत का मालिक ऐसी सज़ा देता जिसे सोचकर रूह कांप जाए. सैम शुरू में अपने मालिक की क्रूरता से परेशान था. वो सोचता था कि कभी विरोध करूं तो क्या होगा. पर वो कभी हिम्मत नहीं कर सका. क्योंकि मालिक ताकतवर था. जान भी जा सकती थी. जब हालत लम्बे समय तक ऐसे ही रहे, तो धीरे धीरे सैम के मन में ही बदलाव आने लगा.
उसने देखा कि जब वो बिना सवाल किए आदेश मानता है, तो मालिक उसे सजा नहीं देता. कितना अच्छा लगता है! सज़ा नहीं मिली मतलब अचीवमेंट हो गई भाई. उसने ख़ुद को समझा लिया कि यार यही तरीका ठीक है कि जित्ता कहा जाए, उत्ता करो, ज़्यादा फैंटम न बनो, तभी ज़िंदगी सुकून से रहेगी. अब सैम दिन में 15 घंटे काम करता था, पेट में भूख से पिटबुल दौड़ रहे हैं लेकिन जब कभी मालिक उसे सूखी रोटी के साथ नमक देता, तो वो उसी पर वाइब करने लगता. उसी को उत्सव मानने लगता. क्या इस खुशी वास्तविक थी, या एक झूठी तसल्ली? क्या इसे भरम कहा जाए?
सैम की जिंदगी में आगे जो हुआ , उसने इस सवाल को और भी पेचीदा बना दिया. एक रात डाकुओं ने मालिक के घर पर धावा बोल दिया. सैम और उसके साथी भी वहीं थे. डाकुओं ने सैम से कहा,
"भाग जा बेटा, यही मौका है! जा तुझे गुलामी से मुक्ति दी.”
लेकिन सैम ने ऐसा नहीं किया. बल्कि सैम ने उठाया फावड़ा और मालिक की जान बचाने के डाकुओं से भिड़ गया. एक अकेला कब तक लड़ता, बेचारे की जान चली गई. अभी आपने जो कहानी सुनी, उसके पात्र काल्पनिक हैं पर ऐसी कहानियां इतिहास के पन्नों में बहुत सारी हैं. इस कहानी से पैदा होता है एक मज़े का सवाल.
क्या मालिक के प्रति सैम का बर्ताव उसकी वफादारी है, या माजरा कुछ और है? ये कैसा प्रेम है कि पीठ सुजा देने वाले की शान में गर्दनें कटा दी जा रही हैं? इसका जवाब छुपा है दो साइकोलॉजिकल टर्म्स में. ‘संबो मेंटेलिटी’ और ‘स्टॉकहोम सिंड्रोम’. ये क्या होता है?
ये वो स्थिति है जब किसी पीड़ित को अत्याचारी से लगाव हो जाता है. आप कहेंगे कि भइया हमतै काहै कै रहेओ. न जे अमेरिका है, ना अब कोई ग़ुलाम है. ज़रा अपनी टाई ठीक कीजिए. ‘संबो मेंटेलिटी’ और ‘स्टॉकहोम सिंड्रोम’. - ये दोनों टर्म्स अब भी उतने ही रेलेवेंट है. कई रिसर्च ये कहते हैं कि कॉरपोरेट कल्चर में काम करने वाले एम्प्लॉइज इसी से जूझ रहे हैं. उनका हाल भी वही है, ‘ज़ालिम था वो और ज़ुल्म की आदत भी बहुत थी मजबूर थे हम उस से मोहब्बत भी बहुत थी.’
संबो मेंटेलिटीसंबो एक बेहद अपमानजनक शब्द है. स्लेवरी के दौर में ब्लैक्स को इसी नाम से संबोधित किया जाता था. स्लेवरी की वजह से स्लेव्स पर जो साइकोलॉजिकल इम्पैक्ट पड़ा उसे ही संबो मेंटेलिटी कहते हैं. क्या होता है इसमें? कई बार इंसान सज़ा और लड़ाई से बचने के लिए अथॉरिटी के सामने इस कदर झुक जाता है कि मालिकों का गुल्लू बन जाता है. इस तरह के उदाहरण आपने देखे होंगे.
“जो कहा, वही करो. सवाल मत उठाओ. बस सिर झुका लो.”
ऐसी मानसिकता हो जाती है. इस तरह से बंदा सर्वाइव तो कर लेता है लेकिन इस वजह से उसकी पर्सनालिटी पर बहुत ख़राब असर पड़ता है. कैसे? "तुम इस लायक नहीं हो.", "तुम कमजोर हो.", "तुम्हारे पास कुछ खास नहीं है. तुमने हमारा भोंपू ज़ोर से नहीं बजाया.” जब ये बातें बार-बार सुनाई दें, तो बंदा खुद को क्वेश्चन करने लगता है. वो इन बातों को सच मानने लगता है और एक क़िस्म से अपने मालिक पर डिपेंडेंट हो जाता है. ये डिपेंडेंसी सर्वाइवल से ही नहीं जुडी होती है. बंदा आपने काम के वेलिडेशन के लिए भी अपने मालिक पर डिपेंडेंट हो जाता है. उसे लगता है उसकी मेहनत तभी सफल है जब मालिक उसकी तारीफ कर दे.
“ये जन्नत मुबारक रहे जाहिदों को,
कि मैं आपका सामना चाहता हूं…”
क्या आपने कभी सुना है कि कोई अपने किडनैपर या उत्पीड़क या अत्याचारी से ही प्यार या वफादारी करने लगे? एक दिलचस्प किस्सा सुनते हैं. 1973 में स्वीडन के स्टॉकहोम में एक बैंक में डकैती हुई. चार लोगों को छह दिन तक बंधक बनाकर रखा गया. जब उन्हें छुड़ाया गया तो बंधकों ने अपने किडनैपर्स का ही पक्ष लिया! इस घटना ने इस मानसिक स्थिति को "स्टॉकहोम सिंड्रोम" नाम दिया.
मालिक से प्यार और जंज़ीर से इश्क़- स्टॉकहोम सिंड्रोम एक किस्म का साइकोलॉजिकल रिस्पॉंस है. बंदा अपने किडनैपर या ज़ुल्म ढाने वाले से ऐसी लॉयल्टी बना लेता है कि उसको डिफ़ेंड करने लगता है कि यार वो बंदा गल्त नी है, हलाल ने उसको ऐसा कर दियाए. ऐसा अक्सर तब होता है जब पीड़ित की बुनियादी ज़रूरतें जैसे खाना या पानी उत्पीड़क पूरी कर दे. जैसा सैम के साथ हुआ. लगता है कि भई चलो जो भी है अनाज तो मिल ही रहा है ना फ्री में.
पॉप कल्चर में इसका सबसे उम्दा उदाहरण आलिया भट्ट और रणदीप हुड्डा की फिल्म “हाईवे”. इस फिल्म में रणदीप हुड्डा, आलिया भट्ट को किडनैप करता है और अंत तक आलिया भट्ट यानी वीरा के करैक्टर को अपने ही किडनैपर से प्यार हो जाता है. ये तो बात हुई कांसेप्ट की. ये दोनों कॉन्सेप्ट में आपको कुछ सिमिलैरिटी दिख रही होगी. जब स्टॉकहोम सिंड्रोम कॉर्पोरेट कल्चर में दिखने लगता है तो उसे साइकोलॉजी की भाषा में कॉर्पोरेट स्टॉकहोम सिंड्रोम कहते हैं. मेन बात हमें यहीं करनी है, बाकी तो अब तक थी भूमिका. चलिए शुरु करते हैं कॉर्पोरेट कल्चर में काम कर रहे उन लाखों करोड़ो वर्कफोर्स की बात.
कॉर्पोरट कल्चर का हालThe leap blog नाम की एक जर्नल है. जो इकोनॉमिक्स, लॉ और पॉलिसी पर कई रिसर्च पेपर पब्लिश करती है. इसमें साल 2020 में एक रिसर्च पेपर छपा. “Stockholm Syndrome in Indian Organizational Culture”. इसमें रिसर्चर्स ने 51 लोगों का सर्वे किया. ये 51 लोग भारत में सैलरी के मामले में टॉप 5% में से एक थे. माने एकदम क्रीमी लेयर. इस सर्वे से पता चला कि
-इनमें से 39% लोग वर्बल एब्यूज का शिकार थे. वर्बल एब्यूज यानी शब्दों से अपमानित करना. जिसमें गाली गलौज भी शामिल होता है.
-53% लोग मानसिक और फिनेंशियल रूप से प्रताड़ित थे. माने कई लोग ऐसे थे, जो सिर्फ अप्रेज़ल की शाम को ही नहीं बल्कि लम्बे समय से अपनी सैलरी और इन्क्रीमेंट को लेकर चिंता में थे.
-89% लोग तो इस बात से परेशान थे कि काम की वजह से उनका वर्क-लाइफ बैलेंस ही खत्म हो चुका है.
यूं तो कॉर्पोरेट में काम करने वाले लोगों के लिए ये कोई नई बात नहीं है. लेकिन इस सर्वे में दो दिलचस्प बातें सामने आई. पहले वो, जो बॉस या कंपनी के मालिक से परेशान थे, लोग लम्बे समय से उसी बॉस के साथ काम कर रहे थे. सबसे ज्यादा वो लोग जिन्हें ये शिकायत थी कि उनके बॉस ने उनकी लाइफ में वर्क-लाइफ बैलेंस ख़राब कर दिया है.
दूसरी, बात और भी दिलचस्प बात पता लगी. इन सभी से पूछा गया, कि क्या आप अपने दोस्तों और रिश्तेदारों को ऐसी कंपनी और ऐसे बॉस के साथ काम करने के लिए रेकमेंड करेंगे? जिन लोगों को लगता था कि काम के हिसाब से वो अंडरपेड हैं, उनमें से 92% लोगों का कहना था कि वो अपने दोस्तों और रिश्तेदारों को इस कंपनी और बॉस के साथ काम करने के लिए रेकामेंड करेंगे. जबकि जो अपनी सैलरी और इन्क्रीमेंट से खुश थे, उनमें से सिर्फ 83% लोगों ने अपनी कंपनी या बॉस के साथ काम करना रेकमेंड किया. यानी जो नाराज़ हैं, वो रेकमेंड कर रहे हैं.
सिर्फ फाइनेंशियल तौर पर परेशान एम्प्लाइज ही नहीं बल्कि वो भी जो मानसिक तनाव या वर्क लाइफ इम्बैलेंस से गुजर रहे थे. उन सभी ने अपने अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के लिए वही कंपनी रेकामेंड की. जबकि जो मौज में काम कर रहे थे उनका रिकमेन्डेशन रेट कम था. इस रिसर्च पेपर से ये बात सामने आई कि कई सारे एम्प्लाइज अच्छे आर्गेनाईजेशन में काम करने के नाम पर कम सैलरी पर काम कर लेते हैं.
इसके अलावा ये एम्प्लाइज प्रताड़ित फ़ील करने के बावजूद अपनी कंपनी को लेकर काफी लॉयल हैं. तीसरा सबसे और एक बड़ा रीज़न है उनके अंदर बैठी inferiority की फीलिंग. उनके बॉसेस ने बार बार उन्हें ये महसूस करवाया, या ऑफिस एनवायरनमेंट में उन्हें ये मेहसूस हुआ कि वो इतने काबिल नहीं है. तो इस आर्गेनाईजेशन में भले ही उन्हें प्रताड़ित किए जा रहा है लेकिन दूसरी जगह उन्हें नौकरी भी नहीं मिलेगी.
ये संबो मेंटेलिटी और स्टॉकहोम सिंड्रोम का स्पष्ट उदाहरण है. अब सोचने वाली बात ये है कि अगर भारत में सबसे ज्यादा सैलरी पाने वाले वर्ग का ये हाल है तो सोचिये, इस पायदान में सबसे नीचे बैठे व्यक्ति का क्या हाल होगा. अगर किसी आर्गेनाइजेशन में इस तरह का वातावरण मौजूद है तो सर्वाइवल परफ़ॉर्मेंस बेस्ड नहीं रह जाता.
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