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आपको भी ऑफिस की कुर्सी पर बैठे-बैठे करंट लगता है? वजह जानिए

इसका झटका इतनी ज़ोर का होता है कि आदमी का बाल भी न बचे.

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स्टैटिक चार्ज का प्रताप है कि आप हज़ारों वोल्ट का झटका खा लेते हैं और बच भी जाते हैं.
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निखिल
30 मार्च 2018 (Updated: 30 मार्च 2018, 08:02 IST)
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हमारे दफ्तर में नई कुर्सियां आई हैं. नया कारपेट भी. और इन दोनों के आने के बाद से एक समस्या खड़ी हो गई है. जब-जब हम कुछ देर काम करके उठते हैं, तो हमारी कुर्सी हमें ज़ोर का झटका दे देती है. और धीरे से नहीं, ज़ोर से ही. अंधेरे में देखो तो कुर्सी और हमारे बीच पल-भर के लिए एक छोटी सी चिंगारी भी चलती नज़र आती है. हम हैरान-परेशान थे कि स्याला हो क्या रहा है. माने आदमी काम करे कि झटके ही खाता रहे? तो हमने अहद किया कि मालूम करके रहेंगे कि ऐसा होता क्यों है. चाहे फिर स्टोरी ही करनी पड़े. हमारे अहद का नतीजा ये रहा. ऐसा कभी न कभी आपके साथ भी हुआ होगा. तो आज आप भी जानकर रहिए कि दफ्तर की कुर्सी झटका मारती है तो कैसे और क्यों?
एटम - इलेक्ट्रॉन - प्रोटॉन
दुनिया में जितनी चीज़ें हैं - पत्थर से लेकर पेड़ तक और प्लास्टिक से लेकर आपके शरीर तक - सबकी बुनियाद में एटम है. हिंदी में अणु. और हर एटम में दो चीज़ें होती हैं - प्रोटोन और इलेक्ट्रॉन. इन दोनों के पास बराबर चार्ज (बिजली वाला चार्ज समझ लीजिए) होता है. प्रोटॉन के पास +1 और इलेक्ट्रॉन के पास -1. प्रोटॉन अच्छा बच्चा होता है. कभी अपने घर से बाहर नहीं जाता. इसके घर का नाम न्यूक्लियस होता है.
इलेक्ट्रॉन इसी अच्छे बच्चे का महा-शैतान दोस्त है. बेहद चंचल. वो उसके घर यानी न्यूक्लियस के आस-पास चक्कर मारता रहता है. और अगर उसे मौका मिल जाए, माने उसे कोई और घर यानी न्यूक्लियस आजू-बाजू मिल जाए, तो निकल भी लेता है. और जब वो निकल लेता है, तो एटम में बिजली का बैलेंस बिगड़ जाता है. वो 'चार्ज' हो जाता है. कैसे? हम बताते हैं. एक इलेक्ट्रॉन यानी -1 और एक प्रोटॉन यानी +1. इन दोनों को जोड़ा जाए तो शून्य आता है. अब ऐसे में एक इलेक्ट्रॉन अगर गायब हो जाता है तो पूरे मामले का चार्ज +1 हो जाता है. इस प्रकार जितने भी इलेक्ट्रॉन भागेंगे, उतने ही +1 चार्ज बढ़ते जाएंगे. प्रोटॉन इतना सीधा होता है कि कहीं भी भागता नहीं है.

इस बात को गांठ बांध लीजिए. प्रोटॉन मोदी जी हैं. वो 2024 तक रहेंगे ही!

इलेक्ट्रॉन नरेश अग्रवाल हैं. जहां 'चार्ज' दिखा, चल देते हैं.

बिजली वाला वीडियो - पुरानी यादें ताज़ा कीजिए-
एक चीज़ समझिए. जो चीज़ें बिजली की अच्छी कंडक्टर (सुचालक) होती हैं - जैसे लोहा और बाकी धातुएं (कॉपर, जिसके तार से आपको झटके लगते रहते हैं. इत्यादि इत्यादि.)  - अपने इलेक्ट्रॉन आसानी से जाने नहीं देती. इसीलिए उनमें इलेक्ट्रॉन दौड़ते तो रहते हैं मगर उनकी बाउंड्री से बाहर नहीं भाग जाते. इलेक्ट्रॉन के दौड़ते रहने पर ही किसी भी चीज़ में करंट दौड़ सकता है. ठीक इसके उलट, जो बिजली के खराब कंडक्टर (कुचालक) होते हैं, वो अपने इलेक्ट्रॉन को लेकर उतने सीरियस नहीं होते. इनके इलेक्ट्रॉन आसानी से छूट जाते हैं.
ये खराब कंडक्टर इतने गैर-ज़िम्मेदार होते हैं कि इनमें एक्स्ट्रा इलेक्ट्रॉन जमा भी हो जाते हैं. प्लास्टिक में यही समस्या होती है. जब आप प्लास्टिक की कंघी अपने बालों में फिराते हैं, तो उससे कुछ इलेक्ट्रॉन छूटकर आपके बालों में समा जाते हैं. तो कंघी के पास नेगेटिव चार्ज कम हो जाता है. तो उसपर बन जाता है पॉज़िटिव चार्ज. और ये पॉज़िटिव चार्ज वाली चीज़ किसी भी नेगेटिव चार्ज वाली चीज़ को अपनी ओर खींच सकती है. अगर न्यूट्रल बॉडी हुई और इलेक्ट्रॉन छुड़ाए न जा सके, तब भी उसके इलेक्ट्रॉन उस तरफ खिंचे चले जाएंगे. साथ में बॉडी भी सरकती जाएगी. मसलन कागज़ के टुकड़े.
एक और बात है, कंघी इस बढ़े हुए पॉज़िटिव चार्ज के साथ अनंत काल के लिए नहीं रहना चाहती है. इसलिए वो पहली फुर्सत के साथ अपना चार्ज बराबर कर लेना चाहती है. और ऐसा करने का सबसे आसान तरीका है उसे ज़मीन से छुआ देना. माने 'अर्थिंग' कर देना. धरती किसी भी तरह का चार्ज ले सकती है, किसी भी मात्रा में. इसलिए धरती को मां
कहते हैं.
स्टैटिक चार्ज के चलते पेपर के टुकड़े प्लास्टिक की ओर खिंचे चले आते हैं. स्टैटिक चार्ज के चलते पेपर के टुकड़े प्लास्टिक की ओर खिंचे चले आते हैं.


कुर्सी का 'टेंशन' बढ़ता कैसे है?
कुर्सी (यहां हम प्लास्टिक की कुर्सी की बात कर रहे हैं) और टेंशन का बड़े करीब का रिश्ता है. ज़िम्मेदारी हुई तो बैठने वाले को टेंशन मिल जाता है. न हुई, तो बैठने वाला हिलता-डुलता ज़्यादा है और कुर्सी खुद टेंशन ले लेती है. होता ये है कि जब हम कुर्सी पर हिलते-डुलते हैं तो प्लास्टिक की कुर्सी हमारे कपड़ों से अलग होने वाले इलेक्ट्रॉन जमा करने लगती है (अगर हमारे पैर ज़मीन को न छू रहे हों). तो इससे हमारे पास पॉज़िटिव चार्ज जमा होने लगता है. माने ढेर सारे +1. जितनी देर ये हलचल चलती है, उतना ही ज़्यादा ये चार्ज होता है.
अब ये बढ़ा हुआ चार्ज आपके पास से निकलने को बेकरार होता है. लेकिन वो तब तक आप ही के पास बना रहता है जब तक आप कुर्सी पर बैठे रहते हैं. आप जैसे ही उठते हैं, चार्ज वापस कुर्सी के पास जाने की हड़बड़ी में आ जाता है. और आप जैसे ही कुर्सी को छूते हैं, ये पूरा चार्ज एकसाथ कुर्सी की तरफ लपक जाता है. कई बार चार्ज इतना होता है कि वो आपके कुर्सी को छूने का इंतज़ार भी नहीं करता. वो हवा से होते हुए कुर्सी पर चला जाता है. और तब एक चमक पैदा होती है.
जिस तरह आसमान में बिजली कड़कती है, उसी तरह कुर्सी आपको करंट मारती है.
जिस तरह आसमान में बिजली कड़कती है, उसी तरह कुर्सी आपको करंट मारती है.


इस चमक को हल्के में न लें. ये बिल्कुल वैसी ही चमक होती है जो बिजली कड़कने पर होती है. कुर्सी पर हिलने-डुलने से जमा हुआ चार्ज इतना होता है कि हवा से गुज़रते वक्त उसे इस कदर गर्म कर देता है कि उसकी अवस्था बदल जाती है (माने स्टेट चेंज हो जाता है). वो गैस से प्लाज़्मा में बदल जाती है. प्लाज़्मा मैटर यानी पदार्थ की चौथी अवस्था होती है. ये प्लाज़्मा दमकता है.
ये झटका आपको तब भी लगेगा अगर आप कुर्सी से उठकर जल्द से किसी लोहे के दरवाज़े वगैरह को छू दें. तब लोहा कंडक्टर का काम करेगा और आपका चार्ज अर्थ
कर देगा. और तब आपको झटका लगेगा.
कितने वोल्ट का होता है झटका?
आमतौर पर आप झटका तभी महसूस करते हैं जब इस चार्ज का वोल्टेज 4000 - 5000 वोल्ट के बीच होता है. जी हां. आपने सही पढ़ा है. कुर्सी आपको जो बिजली का झटका मारती है वो 5000 वोल्ट से ऊपर का होता है. कुछ मामलों में ये झटका 25000 वोल्ट तक पहुंच जाता है. 25000 वोल्ट हाई टेंशन की श्रेणी में आता है. इसी वोल्टेज पर भारतीय रेल चलती है. दिल्ली मेट्रो में भी. माने ये बहुत ज़्यादा वोल्टेज है.
इलेक्ट्रिक फेंस में भी हाई वोल्टेज होता है लेकिन कम एम्पीयरेज पर. इसलिए कुकुर बच गया. इलेक्ट्रिक फेंस में भी हाई वोल्टेज होता है लेकिन कम एम्पीयरेज पर. इसलिए कुकुर बच गया.


तो फिर हम बच कैसे जाते हैं?
आज तक कुर्सी से लगने वाले झटके से शायद ही कोई मरा हो. ये शायद हमने सिर्फ इसलिए लगाया है कि आज के ज़माने में निश्चित लिखकर देना असंभव है. लेकिन ये सवाल जायज़ है कि 25000 वोल्ट का झटका खाकर कोई ज़िंदा कैसे बच सकता है. तो बंधु इसका जवाब ये है कि कुर्सी के झटके में वोल्टेज तो ज़्यादा होता है (माने चार्ज का प्रेशर बहुत है), लेकिन एम्पीयरेज (एम्पीयर करंट मापने की यूनिट होती है) बहुत ही कम होता है. सादी भाषा में कहें तो बहुत प्रेशर के साथ आपको बहुत थोड़ी सी मात्रा में करंट लगता है. ये वैसा ही है जैसे कोई आपको बड़ी स्पीड से रुई का फाहा मार दे. आप उफ तक नहीं करेंगे. लेकिन अगर इसकी जगह 1 किलो का बाट हुआ तो मुंह टूट जाएगा.
वैसे टेकनीकली कुर्सी से लगने वाले झटके को करंट कहना भी नहीं चाहिए. क्योंकि करंट चार्ज के लगातार चलते रहने को कहते हैं. कुर्सी वाले मामले में सब एक झटके में खत्म हो जाता है. इसलिए ये करंट नहीं 'डिस्चार्ज' बस है. लेकिन समझने की आसानी के लिए हमने करंट शब्द का इस्तेमाल किया है. खैर, कम एम्पीयरेज के कारण आप ज़ोर का झटका खाकर भी बच जाते हैं. वरना इतने वोल्टेज के साथ अगर ज़्यादा एम्पीयर का करंट आपको लग जाए, तो निश्चित तौर पर अस्पताल में भर्ती होना पड़ेगा. जान भी जा सकती है. 25000 वोल्ट के साथ तो बाल भी नहीं बचता है.
झटके से बचने का कोई रास्ता है?
बस एक. कि समय-समय पर अपने पैर ज़मीन से छूते रहें. तो चार्ज बिल्ड नहीं होगा. क्योंकि वो थोड़ी-थोड़ी मात्रा में धरती मां में समाता रहेगा.


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