हिंदी साहित्य में झुग्गी-बस्तियों के किशोरों की 'घुसपैठ': स्वागत है
कामगार बस्तियों से सीधे निकलकर आ रहे ये लेखक हिंदी के पूरे सीन को नए सिरे से रच सकते हैं.
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दिल्ली की कई झुग्गी-बस्तियों में बच्चे हिंदी कहानियां लिख रहे हैं. सावदा खेड़ा और सुंदर नगरी की बस्तियों से ये रपट लेकर आए हैं, अविनाश मिश्र.
भारतीय राजनीति की तरह ही हिंदी साहित्य में भी ‘युवा’ होना एक सुविधा है. इस सुविधा का लाभ इस भाषा में बसर करने वाले देर तक या कहें दूर तक उठाते आए हैं. युवा होना एक सहूलियत के साथ कच्चा होना भी है. इस कदर कच्चा होना कि युवा पक कर परिपक्व हो चुके हैं, यह मानने में बराबर भ्रम की स्थिति बनी रहे. इस कथित युवा-व्याख्या से बाहर निकलकर अगर एक नए सृजन-संसार तक आया जाए तब पता चलता है कि ऐसी तमाम व्याख्याओं को धता बताती हुई एक कतई अलग युवा-पीढ़ी हिंदी साहित्य में राह बनाने के लिए तैयार है. यह पीढ़ी अभी अभिव्यक्ति के उन खतरों से तो वाकिफ नहीं जिनकी बात मुक्तिबोध ने अपनी कालजयी कविता ‘अंधेरे में’ की थी, लेकिन इसमें खुद को अनुभूति की प्रामाणिकता के बल पर अभिव्यक्त कर देने की एक बेचैन, सराहनीय और उल्लेखनीय कोशिश जरूर है.
हिंदी साहित्य में यह दौर ‘घुसपैठ’ का दौर है. घुसपैठ एक नकारात्मक शब्द और क्रिया है. हिंदी के संदर्भ में इसकी नकारात्मकता और निरर्थकता वक्त-वक्त पर उजागर होती रही है. लेकिन इन दिनों इस ‘घुसपैठ’ का, अगर इसे घुसपैठ ही कहा जाए तो, एक सकारात्मक और सार्थक आयाम सीन में है. यह उपस्थिति साहित्यिक मासिक ‘हंस’ में ‘घुसपैठिए’ शीर्षक स्तंभ के अंतर्गत है. इस स्तंभ में दिल्ली के स्लम में रहने वाले किशोर लेखकों का गद्य प्रकाशित किया जा रहा है. हिंदी को बचाने-बढ़ाने की जरूरी-गैरजरूरी बहसों से दूर इन बच्चों-किशोरों के पास अपना कथ्य और अपनी भाषा है. इनके पास अपनी कहानियां हैं. ये कहानियां इनकी रोजमर्रा की जिंदगी की आंच में पकी हुई हैं. इनके पास कहने के लिए जो यथार्थ है, वह सबसे सच्चे मायनों में इनका देखा-झेला हुआ है.ये क्यों लिखते हैं, इन्हें बहुत स्पष्ट है. इतना स्पष्ट कि हिंदी के बहुसंख्यक लेखकों के लिए ये आईना हो सकते हैं. एक नकली और समाज से कटी हुई भाषा से यथार्थ को जादुई बनाकर पेश करने की तरकीबों के बीच, इनका गद्य सच में एक सकारात्मक और सार्थक घुसपैठ है. दिल्ली की पुनर्वास और कामगार बस्तियों से सीधे निकलकर आ रहे ये लेखक हिंदी के पूरे सीन को नए सिरे से रच सकते हैं, अगर काइयां स्वार्थों से उनके आत्म-विश्वास को आहत न किया जाए तो. ‘अब हिंदी कोई पढ़ना-पढ़ाना नहीं चाहता’ इस बात को जब एक फरेबी तथ्य की तरह बार-बार दोहराया जा रहा हो, ऐसे में एक साथ इतने सारे हिंदी लेखकों का इतनी ताजगी और नए बयानों के साथ आना बहुत आश्वस्ति से भरता है. ‘यूथ की आवाज’ नाम की वेबसाइट पर मासिक स्तंभ ‘शहर हमारा है’ के अंतर्गत भी इन लेखकों का कथ्य पढ़ा जा सकता है और ‘बहुरूपिया शहर’ नाम की किताब में भी. ऐसी ही एक लेखिका यशोदा सिंह की किताब ‘दस्तक’ वरिष्ठ कथाकार उदय प्रकाश की देख-रेख में आ चुकी है. लेकिन आज से करीब डेढ़ वर्ष पहले जब साहित्यिक त्रैमासिक पत्रिका ‘अकार’ ने अपना 37वां अंक पुनर्वास बस्तियों में लिखी जाती साहित्य की इस नई इबारत पर केंद्रित किया तो हिंदी की यह जमीन एकदम से हिंदी की मुख्यधारा में नजर आई. इस पर चर्चाओं और बहसों का संक्षिप्त दौर भी चला. पत्रिका के संपादक वरिष्ठ कथाकार प्रियंवद ने संपादकीय में अपने इस अनुभव को साझा किया है. ‘अंकुर सोसायटी फॉर ऑल्टरनेटिव्ज इन एजुकेशन’ नाम की संस्था से जुड़े प्रभात कुमार झा के इन बच्चों के बीच जाने के आग्रह पर प्रियंवद कहते हैं, ‘‘दिल्ली में प्रभात से मुलाकात हुई. बातचीत के दौरान प्रभात ने पूछा, कि क्या मैं पुनर्वास बस्तियों के बच्चों के साथ दो दिन दे सकता हूं. मैं बात समझ नहीं पाया. क्यों? मेरी सहज जिज्ञासा थी. तब प्रभात ने विस्तार से बताया कि वह उन बच्चों के साथ काम करते हैं और उनके अंदर के लेखक को जगाना या प्रेरित करना उनका उद्देश्य है.’’ दिल्ली स्थित इस संस्था के छह केंद्र इस गतिविधि में लीन हैं. इसके तहत ‘रचने का अधिकार’ पर लगातार काम किया जा रहा है. संस्था का मानना है कि रचनात्मकता का अधिकार हर बच्चे का अधिकार है और इसको फलने-फूलने के लिए उचित माहौल उपलब्ध करवाना हर नागरिक समाज का कर्तव्य होना चाहिए. रचनात्मकता क्या है? मोटे शब्दों में कहा जाए तो वह विपरीत परिस्थितियों में रचना-सापेक्ष संसाधनों का जुगाड़, व्यवस्था और नियम की चारदीवारी के बाहर जाकर सोचना और असहज कर देने वाले सवालों को उठाना ही है. ये तीनों विशेषताएं एक तरह से बच्चों की जागीर हैं, उनकी पूंजी है, नागरिक समाज को इस पूंजी को छीनने का अधिकार नहीं होना चाहिए. बच्चे सिर्फ बच्चे नहीं वे श्रोता, दर्शक, पाठक, वक्ता, लेखक, कवि, अभिनेता, चित्रकार, पत्रकार बल्कि वे रचनाकार भी हैं. प्रियंवद ने इसके लिए हामी भर दी और इन बच्चों के बीच गए. उन्होंने पाया कि ये बच्चे 14 से 18 वर्ष के बीच में थे. लगभग सभी दसवीं से बारहवीं के छात्र. एक ही सामाजिक स्तर, कद-काठी, रहन-सहन. अत्यंत सामान्य चेहरे और वस्त्र. उनमें संकोच था, पर वे लेखक होने के उत्साह और उल्लास से भरे थे.
इन नए लेखकों की भाषा आज की भारतीय भाषा है. इसमें रोजमर्रा के शब्द हैं जिनमें उर्दू, हिंदी, अंग्रेजी और आंचलिक भाषाओं-बोलियों के शब्दों-वाक्यों-मुहावरों का समावेश है. ये बहुत प्रसंगों में बहुत बार बहुत काव्यात्मक वाक्य भी लिख जाते हैं. लेकिन ये कविता के ‘फॉर्म’ से मुक्त हैं. इनकी कहन हिंदी के परंपरागत ढांचे से बेहद अलहदा है. ‘जैसा देखो वैसा लिखो’ यह इनकी लेखन-शैली का प्राथमिक पद है. इनके यहां बनावट और कुछ छुपाने की कोशिशें नहीं हैं. इनके पास अब तक अनछुए रहे आए विषय हैं, जिनसे इनसे अधिक प्रामाणिकता से शायद ही कोई दूसरा अभिव्यक्त कर पाए.इन बच्चों के लेखक को कैसे और अधिक विकसित किया जाए इस पर प्रभात कुमार झा कहते हैं, ‘‘इन्हें सुनना महत्वपूर्ण है। सुनना हमारी जिम्मेदारी है. सुनना एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया है. रचनात्मक सामूहिकता और सामूहिक याददाश्त के लिए सुनना जरूरी होता है.’’ कुछ वाक्य उनकी संस्था के स्लोगन की तरह हैं, जैसे : ‘‘हर देखने वाले के पास दिखाने को कुछ है. हर लेने वाले के पास बांटने को कुछ है. हर पढ़ने वाले के पास लिखने को कुछ है. हर सुनने वाले के पास कहने को कुछ है.’’ प्रभात इस काम को आर्काइविंग मानते हैं. वह कहते हैं कि इन बच्चों के लेखन और इनकी स्थानीयता के बगैर दिल्ली पर होने वाले सारे शोध अधूरे हैं. जिन शब्दों को छापाखानों ने जगह नहीं दी, जो शब्दकोशों से बाहर रहे आए, जिनसे हुकूमतें बचती हैं, जो किताबी भाषा की तरह और टकसाली और व्याकरण-सम्मत नहीं हैं. ऐसे बहुरंगी शब्द-लोक को लिखित-मुद्रित व्यवहार में लाने को प्रभात एक जरूरी कार्यभार मानते हैं. भाषा के, शिक्षा के, आजीविका के संकटों के बीच ये लेखक एक बहुत बड़ी संख्या में एक ही समय में एक साथ उभर रहे हैं. अभी सिर्फ इन्होंने अपने अनुभव-जगत को व्यक्त किया है. अभी इनकी रचनात्मकता के तमाम आयाम बाकी हैं. अभी बहुत सारे काम बाकी हैं. लेकिन इन पर नजर बनानी ही होगी, क्योंकि अधूरी नजर किसी भी परिवेश या परिदृश्य के लिए बेहतर नहीं होती.