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'शूट एट साइट' का आदेश कौन देता है? हलद्वानी हिंसा में 'नजूल' लैंड क्या है?

शूट एट साइट, जैसा कि इसके नाम से ही जाहिर है, देखते ही गोली मारने का आदेश. अगर किसी जगह पर हालात काबू से बाहर हो जाएं तो ही ये ऑर्डर दिया जाता है.

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शूट एट साइट
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मानस राज
9 फ़रवरी 2024 (Published: 22:21 IST)
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दंगा-बलवा , हिंसा,, ये घटनाएं यूं ही नहीं होती. इनके पीछे समाज के दुश्मनों की एक सोची समझी साजिश होती है. कई बार स्थिति इतनी बिगड़ जाती है कि प्रशासन को 'शूट एट साइट' माने देखते ही गोली मारने का आदेश दिया जाता है. ये सोचकर कि हिंसा रुक जाए. पर कौन देता है ये गोली मारने का आदेश? क्या होती है इसका उद्देश्य? जानेंगे
-शूट एट साइट का आदेश क्या है?
-किस कानून के तहत ये आदेश दिया जाता है?
-और समझेंगे उत्तराखंड के हल्द्वानी में नजूल लैंड पर हुआ विवाद क्या है?

पहले खबर बताते हैं-
8 फरवरी को उत्तराखंड के हल्द्वानी से एक खबर आई. हुआ ये कि हल्द्वानी नगर निगम ने वहां एक कथित अवैध मदरसा और नमाज़ पढ़ने की जगह को बुल्डोज कर दिया. प्रशासन के मुताबिक ये मदरसा नजूल लैंड माने सरकारी जमीन पर बना हुआ था. ये कार्रवाई 'मलिक का बगीचा' इलाके में की गई है. नगर निगम का कहना है कि मदरसा और नमाज स्थल अवैध तरीक़े से बना हुआ था. हाई कोर्ट ने भी मदरसे और नमाज स्थल को अवैध माना और मस्जिद गिराने के आदेश दिए. 8 फरवरी की दोपहर डेढ़-दो बजे के आसपास नगर आयुक्त पंकज उपाध्याय, सिटी मजिस्ट्रेट ऋचा सिंह, सहित कई अधिकारी मदरसे को गिराने के लिए पहुंचे. भारी पुलिस बल के साथ. वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक प्रह्लाद मीना के मुताबिक, जैसे ही दोनों संरचनाओं को गिराने की कार्रवाई शुरू हुई, वहां मौजूद महिलाएं और रहवासी सड़क पर उतर आए और कार्रवाई का विरोध किया. बैरिकेड्स तोड़ने लगे, पुलिसकर्मियों के साथ बहस करने लगे. जैसे ही एक बुलडोजर ने मदरसे और मस्जिद को ढहा दिया, भीड़ ने पुलिसकर्मियों, नगर निगम कर्मियों और पत्रकारों पर पथराव शुरू कर दिया. पुलिस ने भीड़ को शांत करने के प्रयास किए, लेकिन पथराव और बढ़ गया. फ़ायर ब्रिगेड और पुलिस वैन को भी तोड़-फोड़ दिया गया.स्थिति बिगड़ती देख प्रदेश के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने शूट एट साइट का आदेश दिया है.

 शूट एट साइट आदेश का मतलब क्या है?

शूट एट साइट, जैसा कि इसके नाम से ही जाहिर है, देखते ही गोली मारने का आदेश. अगर किसी जगह पर हालात काबू से बाहर हो जाएं तो ही ये ऑर्डर दिया जाता है. इस आदेश के दौरान सुरक्षाबलों को बिना किसी चेतावनी या गिरफ्तार करने की कोशिश किये बिना गोली मारने की पावर दी जाती है. ये सुनिश्चित किया जाता है कि कोई भी इस आदेश की अवहेलना न करे. पर इस तरह का रेयर ऑर्डर तभी दिया जाता है जब अधिकारियों को लगे कि शांति और सुरक्षा के लिए गंभीर सार्वजनिक खतरा है. यदि अधिकारी इस स्थिति में घातक बल के प्रयोग को बिल्कुल आवश्यक मानते है, तभी ये आदेश दिया जाता है. 
 

इस ऑर्डर के लिए कानून में क्या प्रावधान है?
आपने एक शब्द सुना होगा, CrPC. इसका शाब्दिक अर्थ होता है 'कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर'. सीआरपीसी किसी भी अपराध के खिलाफ की जाने वाली कार्रवाई और उसकी प्रक्रिया के बारे में बताता है. सीआरपीसी में किसी अपराधी के खिलाफ कैसी कार्रवाई होगी, इसकी प्रक्रिया लिखी हुई है. इसमें गिरफ्तारी, इंटेरोगेशन, अदालत की प्रक्रिया और मामले की उचित सुनवाई शामिल हैं. सीआरपीसी में अदालत की प्रक्रिया के बारे में भी बताया गया है जिससे सजा प्राप्त व्यक्ति को न्यायिक प्रक्रिया में इंसाफ मिल सके. पुलिस और किसी भी लॉ एनफोर्समेंट एजेंसी के लिए सीआरपीसी के प्रोसेस को फॉलो करना जरूरी होता है. सीआरपीसी समझ लिया. इसी सीआरपीसी 1973 की धारा 41-60 और धारा 149-152 के तहत गिरफ्तारी, अपराधों की रोकथाम या गैरकानूनी सभाओं को भंग करने से संबंधित कानूनी शक्तियों के संदर्भ में शूट-एट-साइट का ऑर्डर पारित किया जाता है. इसी सीआरपीसी की धारा 46(2) किसी की गिरफ़्तारी के दौरान बल प्रयोग की इजाजत देती है. सीआरपीसी के अनुसार अगर कोई व्यक्ति उसे गिरफ्तार करने का विरोध करता है या अरेस्ट से बचने का प्रयास करता है,, ऐसे में पुलिस अधिकारी को उसकी गिरफ़्तारी के लिए जो जरूरी लगे, वो उन साधनों का उपयोग कर सकता है. गिरफ़्तारी के दौरान बल प्रयोग, हवाई फ़ाइरिंग, या लाठीचार्ज इसके कुछ उदाहरण हैं. 
 

बहरहाल हल्द्वानी वाले मामले में, और ऐसे सभी मामलों में एक सवाल उठ सकता है कि अगर अधिकारी को कानून से इतनी शक्तियां दी जा रही हैं तो वो उनका दुरुपयोग भी कर सकता है. तो इसका भी हल क़ानून में ही दिया गया है. सीआरपीसी में इन पावर्स पर लगाम लगाने के लिए धारा 46(3) है. इसके धारा के तहत कार्यकारी संस्थाओं या अधिकारियों की सीमा पर ये कहकर एक लिमिट लगाई गई है कि 
 

"यह प्रावधान किसी ऐसे व्यक्ति की मौत का कारण बनने का अधिकार नहीं देता है, जिस पर मौत या आजीवन कारावास की सजा वाले अपराध का आरोप नहीं है."

ये नजूल लैन्ड क्या है?
अगर आप कभी किसी ग्रामीण इलाके में गए होंगे तो मुमकिन है आपने किसी खाली पड़ी जमीन पर नजूल लैन्ड या नजूल भूमि का बोर्ड लगा देखा होगा. हल्द्वानी हिंसा के सेंटर में यही नजूल भूमि है. फर्ज करिए आपके पास दो एकड़ जमीन है. और उससे सटी हुई 2 एकड़ जमीन खाली पड़ी है. ऐसी जिन ज़मीनों पर किसी का मालिकाना हक न हो, वो सरकार के अधीन होती है. इस तरह की ज़मीनों को शासकीय जमीन या नजूल भूमि कहा जाता है. तो क्या है इस तरह की ज़मीनों का गणित. पहले थोड़ा इतिहास समझते हैं. ये नजूल भूमि का कान्सेप्ट शुरू हुआ अंग्रेजों के समय से. अंग्रेजों ने भारत में दो सदियों तक शासन किया. शासन चलाया और भारत को खूब लूटा. कुछ लोगों ने अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर ली, वहीं कुछ ऐसे भी थे जो जिस स्तर पर जितना हो सके, विद्रोह करने लगे. पर उस समय भारत में सेंट्रल कमांड जैसा कुछ नहीं था. अलग-अलग रियासतें थीं. इन रियासतों में भी कुछ अंग्रेजों के अधीन थे तो कुछ उनका विरोध करते रहते थे. इस ही तरह से आम लोग भी अंग्रेजों का विरोध करते ही रहते थे. जो लोग भी अंग्रेजी शासन का विरोध करते थे उन लोगों को अंग्रेज अपने रूल्स के मुताबिक अपराधी करार दे देते थे. उन पर मुकदमा चलता था और ऐसे मुकदमे के बाद उन्हें दोषसिद्ध करके सजा दी जाती थी. 
 

पर अंग्रेजी साम्राज्य एक ताकतवर साम्राज्य था. उससे लड़ना आसान नहीं था. आम लोगों और विद्रोही रियासतों  के पास अंग्रेजों के मुकाबले बहुत कम संसाधन होते थे.  अंग्रेज आधुनिक हथियार से लैस होते थे,  साथ ही उनके पास अधिक संसाधन रहते थे. जब कभी भी किसी आम व्यक्ति द्वारा अंग्रेजी शासन  का विरोध किया जाता था , तब अंग्रेज मुकदमा लगाकर उन्हें जेल में डाल देते थे. कई बार लोगों को खुद को बचाने के लिए अपना घर-जमीन छोड़कर भागना पड़ता था. कभी-कभी लोग पकड़ में आ जाते थे, विद्रोह करने वालों में अमीर-गरीब सभी तरह के लोग थे.  कई लोग ऐसे थे जो खेती करते थे और उनके पास जमीन होती थी.  अगर ऐसे लोग अंग्रेजों का विरोध करते थे तब अंग्रेज उनकी जमीन पर कब्जा कर लेते थे और जमीन के मूल मालिक को सजा दे दी जाती थी.  कई मामलों में यह भी देखने को मिलता है कि लोग जमीन छोड़कर ही चले जाते थे.  अंग्रेज उन्हें फरार घोषित कर देते थे. इस स्थिति में लोगों की जमीन अंग्रेजी शासन के पास आ जाती थी. ऐसी जमीन को नजूल की जमीन कहा गया.

फिर साल आया 1947, और अंग्रेजों ने आखिरकार भारत से रुखसती ले ली. आजादी के बाद जिन लोगों से अंग्रेजों ने जमीन हड़पी थी, उन्हें वापस कर डी गई. पर कई ऐसी ज़मीनें भी थीं जिनके मालिकों का कुछ पता नहीं था. 1857 की क्रांति में कई लोगों ने अपना गांव छोड़ दिया था. फिर आजादी मिली लगभग सौ वर्ष बाद.  तब सेनानियों के कथित वारिसों के पास रिकॉर्ड पर कुछ भी नहीं बचा जिससे यह साबित हो सके कि वह जमीन उनके पूर्वजों की है. अब ऐसी जमीन नजूल में हो गई.

हालिया स्थिति क्या है?
वर्तमान समय में नजूल की कोई भी जमीन सरकारी ही होती है. इन ज़मीनों का मालिकाना हक राज्य सरकारों के पास होता है. इन ज़मीनों का इस्तेमाल सरकार जनहित के लिए मसलन पार्क, नगर पालिका , ग्राम पंचायत, ग्रामसभा, स्कूल,अस्पताल आदि बनवाने के लिए करती है. हल्द्वानी का विवाद भी इसी के इर्द गिर्द है. प्रशासन का कहना है कि वो नजूल लैन्ड से अतिक्रमण हटाने गई थी तभी बवाल शुरू हुआ. स्थिति बिगड़ती गई और शूट एट साइट का ऑर्डर तक देना पड़ा. इस मामले की सभी ताजा अपडेट्स आपको लल्लनटॉप पर मिलती रहेंगी.

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